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चुनाव नतीजों ने तानाशाही की ओर प्रवृत्त मोदी के चेहरे पर एक झन्नाटेदार तमाचा जड़ा है

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चुनाव नतीजों ने तानाशाही की ओर प्रवृत्त मोदी के चेहरे पर एक झन्नाटेदार तमाचा जड़ा है
चुनाव नतीजों ने तानाशाही की ओर प्रवृत्त मोदी के चेहरे पर एक झन्नाटेदार तमाचा जड़ा है
नन्दकिशोर सिंह

लोकसभा चुनाव 2024 का परिणाम घोषित हो गया है. एनडीए गठबंधन को कुल मिलाकर 292 सीटें मिली हैं, जिसमें भाजपा के 240 लोकसभा सदस्य शामिल हैं. वहीं इंडिया गठबंधन को कुल मिलाकर 232 सीटें हासिल हुई हैं, जिसमें कांग्रेस की 99 सीटें भी सम्मिलित हैं. यह एक बेहद दिलचस्प लोकसभा चुनाव रहा है. इस लोकसभा चुनाव के परिणामों ने प्रतिपक्ष को प्रफुल्लित कर रखा है तो वहीं दूसरी ओर केन्द्र की सत्ता पर काबिज होने जा रही भाजपा और खासकर उसके सबसे बड़े नेता नरेन्द्र मोदी एवं अमित शाह को मायूस कर दिया है.

अपने बलबूते 370 सीटें जीतने और गठबंधन के साथ 400 पार का उद्घोष करने वाले बड़बोले नरेन्द्र मोदी की जबान पर चुनाव के बाद लगाम सा लग गया है. पूरे चुनाव के दौरान सिर्फ ‘मोदी मोदी’ की जप करने वाले और भाजपा का मुश्किल से नाम लेने वाले कार्यकारी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सिर्फ और सिर्फ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) की रट लगाए हुए हैं. बहरहाल भाजपा को 2019 के लोकसभा चुनाव की तुलना में मात्र 63 सीटें कम और राजग गठबंधन को मात्र 58 सीटें कम आई हैं और इन सीटों की कमी ने नरेन्द्र भाई दामोदरदास मोदी को औकात में ला दी है.

भारत के पूंजीवादी जनतांत्रिक संविधान को बदलकर उसे अपने नापाक इरादों (हिन्दू अंधराष्ट्रवादी विचारधारा या हिन्दुत्व की फासीवादी विचारधारा) के अनुरूप ढालने का दिवास्वप्न देखने वाले बजरंगियों का सपना चकनाचूर हो गया है. देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश (जहां की जनता 80 लोकसभा सदस्यों का चुनाव करती है) में सभी 80 सीटें जीतने का दावा करने वाले बड़बोले नेताओं के मुंह पर ताला जड़ गया, जब उन्हें मात्र 36 सीटों पर संतोष करना पड़ा, जबकि अकेले समाजवादी पार्टी ने 37 सीटों पर जीत का परचम फहराया है और इंडिया ब्लॉक को 44 सीटें हासिल हुई हैं.

एक ओर कांग्रेस नेता राहुल गांधी के मुद्दा आधारित चुनाव प्रचार अभियान को मतदाताओं ने गंभीरता से लिया, वहीं दूसरी ओर नरेन्द्र मोदी के स्तरहीन, साम्प्रदायिक, नफरती, कुत्सा प्रचार अभियान को मतदाताओं ने भारी मन से बर्दाश्त किया और उन्हें सबक सिखाने की ठानी. इस मामले में उत्तरप्रदेश की जनता ने तो सचमुच इस बार कमाल कर दिया ! उनकी जितनी प्रशंसा की जाए, कम है.

राहुल गांधी और अखिलेश यादव के नेतृत्व में यूपी में लड़े गये चुनाव के परिणाम काफी संतोषजनक हैं, वहीं बगल के राज्य बिहार में लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में सीटों के बंटवारे में की गयी मनमानी, हठधर्मिता एवं स्वेच्छाचारिता का दुष्परिणाम इस रूप में सामने आया है कि इंडिया गठबंधन को मात्र 9 सीटों से संतोष करना पड़ा, जिसमें 23 सीटों पर चुनाव में प्रत्याशी खड़ा करने वाले राजद को मात्र 4 सीटें हासिल हुई हैं, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस को तीन और भाकपा (माले) लिबरेशन को दो सीटों पर जीत हासिल हुई है.

बिहार में यदि सीटों के बंटवारे में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने मनमानी नहीं की होती और चुनाव प्रचार अभियान को इंडिया गठबंधन का प्रचार अभियान बनाया गया होता तो बिहार में कम-से-कम 15 सीटों पर जीत दर्ज कराई जा सकती थी. जिस प्रकार से लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव ने पूर्णिया के लोकसभा चुनाव क्षेत्र पर रूख अपनाया, वह निंदनीय है. लालू जी की अदूरदर्शिता, मनमानेपन और हठधर्मिता ने बिहार में कांग्रेस को दो से तीन सीटों पर नुकसान पहुंचाया है.

औरंगाबाद के लोकसभा चुनाव क्षेत्र से कांग्रेस के निखिल कुमार को टिकट न देकर बिना राय मशविरा के जदयू से राजद में आये अभय कुशवाहा के नाम की घोषणा कर देना एक ऐसी गलती है जिसकी माफी नहीं हो सकती. पप्पू यादव और कन्हैया कुमार के प्रति जो संकीर्णतावादी व शत्रुतापूर्ण रूख राजद नेतृत्व ने अपनाया है, वह पूरी तरह गठबंधन धर्म के खिलाफ है. लेकिन इसके बावजूद पूर्णिया लोकसभा चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं ने पप्पू यादव को जिताकर राजद नेतृत्व को यह स्पष्ट संदेश दे दिया है कि किसी खास जाति व धर्म के लोग किसी संकीर्णतावादी एवं अहंकारी नेता या नेताओं की जागीर नहीं हैं.

इसके अलावा पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल के मतदाताओं ने जो कुछ किया है, उसने भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और उसके फिरकापरस्त, निरंकुश एवं फासिस्ट विचारधारा पर यकीन करने वाले अति महत्वाकांक्षी नेता नरेन्द्र भाई मोदी को सातवें आसमान से जमीन पर उतारने का काम किया है. इसके लिए उन प्रदेशों की विवेकशील और जागरूक मतदाताओं की जितनी भी प्रशंसा की जाए, वह कम है.

नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने भारत के पूंजीवादी संवैधानिक जनतंत्र को समाप्त कर एक खुल्लमखुल्ला नंगी फासिस्ट तानाशाही शासन व्यवस्था देश पर थोप देने के लिए हर संभव प्रयास किया है. पिछले 10 वर्षों का भाजपानीत राजग गठबंधन का शासन सिमटता हुआ भाजपा के शासन तक सीमित नहीं रहा, उसने तेजी से आगे की ओर प्रस्थान किया और मोदी के शासन में तब्दील हो गया. मोदी और शाह ने रंगा-बिल्ला की तरह सिर्फ भारत के पूंजीवादी संवैधानिक जनतंत्र को ही चोट नहीं पहुंचाया है, उसने अपनी पार्टी भाजपा के भीतर के आंतरिक जनतंत्र को लगभग खत्म कर उसका भारी नुक्सान किया है. कांग्रेस विहीन व विपक्ष विहीन जनतंत्र की उनकी अवधारणा बुनियादी रूप से एक फासिस्ट विचारधारा पर आधारित सोच से निकलने वाली अवधारणा है.

चुनाव नतीजों पर संक्षिप्त चर्चा करने के बाद अब हम जनपक्षधर राजनीति के संदर्भ में इसके निहितार्थ पर आएं. एक बात स्पष्ट है कि दो-दो बार अपने बूते स्पष्ट बहुमत लाने वाली भाजपा इस बार अपने संख्या बल पर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है. नरेन्द्र मोदी ने पिछले 10 वर्षों में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को लगभग मृतप्राय कर दिया और तेजी से उस दिशा में अग्रसर होना शुरू कर दिया जिसमें भाजपा सरकार का असली मतलब मोदी सरकार बनकर रह गया और उन्होंने इसे व्यवहार में भी लागू करने का जीतोड़ प्रयास किया. इसलिए यह अनायास नहीं है कि पूरे लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान के दौरान मोदी सरकार को तीसरी बार 400 पार की संख्या प्रदान कर सत्ता में बिठाने का आह्वान किया जाता रहा. और इसे सबसे ज्यादा आगे बढ़ कर रंगा बिल्ला यानी मोदी-शाह की निर्लज्ज जोड़ी ने किया.

नरेन्द्र मोदी ने यह सारा काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और नितीन गडकरी व राजनाथ सिंह जैसे भाजपा नेताओं की नापसंदगी के बावजूद किया. चुनाव के बीच भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से बयान दिलवाया गया कि ‘हम अब इतने ताकतवर हो गये हैं कि हमें आर.एस.एस. की बैशाखी की जरूरत नहीं है. हम अपने बूते सत्ता में बने रहने और शासन चलाने की स्थिति में हैं.’ संदेश स्पष्ट था कि नरेन्द्र मोदी हिटलर और मुसोलिनी के रास्ते पर बढ़ चले थे

चुनाव नतीजों ने तानाशाही की ओर प्रवृत्त मोदी के चेहरे पर एक झन्नाटेदार तमाचा जड़ा है और आज पेरिस कम्यून के जमाने के पूंजीपति वर्ग के उस घृणित एवं बौने प्रतिनिधि थियेर के आधुनिक भारतीय प्रतिरूप नरेन्द्र मोदी को उसकी औकात बताई है. आजकल जिस ढंग से टीडीपी नेता नायडू और जदयू नेता नीतीश कुमार की ठकुरसुहाती में नरेन्द्र मोदी को देखा जा रहा है, उससे स्पष्ट है कि जरूरत पड़ने पर ‘गदहे को बाप’ कहने वाला यह शख्स बहुत ख़तरनाक है.

पिछले 10 वर्षों के अपने शासनकाल में इसने कटे-छंटे व सीमित पूंजीवादी जनतंत्र की आधारशिला को लगातार खोखला करने का काम किया और देश में एक नंगी फासीवादी तानाशाही शासन व्यवस्था थोप देने के लिए हर संभव प्रयास किया. इसलिए चुनाव परिणाम ने नरेन्द्र मोदी के उस कुत्सित अभियान पर तत्काल एक रोक लगाने का काम किया है.

जिस ढंग से उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने मुद्दों पर बातचीत की और नरेन्द्र मोदी की फासीवादी राजनीति का भंडाफोड़ किया, उसका सकारात्मक परिणाम सामने आया है. यूपी की सभी 80 सीटें जीतने का दिवास्वप्न देखने वाले बजरंगियों को मात्र 33 सीटें नसीब हुई हैं, जबकि अकेले समाजवादी पार्टी को 37 सीटें मिली हैं. संदेश स्पष्ट है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा अपराजेय नहीं है और उसे चुनाव में बुरी तरह हराया जा सकता है.

इस चुनाव परिणाम ने देशभर के जनतंत्र समर्थक नागरिकों, बुद्धिजीवियों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को तत्काल एक सुखद एहसास से सराबोर कर दिया है. उन्हें विश्वास हो गया है कि यदि और मेहनत किया जाए, जनता से जीवंत सम्पर्क बनाया जाए और मुद्दा आधारित राजनीति पर जोर दिया जाए तो फासिस्ट एवं साम्प्रदायिक भाजपा एवं उसके सहयोगियों को देश स्तर पर हराया जा सकता है.

चुनाव परिणाम ने देश के जनतांत्रिक, प्रगतिशील, वामपंथी एवं कम्युनिस्ट क्रांतिकारी शक्तियों के समक्ष एक गंभीर राजनीतिक कार्यभार पेश कर दिया है. और वह कार्यभार है कि यह देश, समाज और जनतंत्र के हित में है कि साम्प्रदायिकता, अंधराष्ट्रवाद एवं फासीवादी सोच पर यकीन करने वाली प्रतिगामी शक्तियों का एकजुट होकर मुकाबला किया जाए और देश में रोजी-रोटी, धर्म निरपेक्षता, सामाजिक बराबरी एवं जनतंत्र के लिए चलाए जा रहे जनसंघर्षों को अग्रगति प्रदान किया जाए. इसी से जनता को केन्द्र में रखकर की जाने वाली जनपक्षधर राजनीति मजबूत होगी और शासक वर्गीय राजनीति को कमजोर किया जा सकेगा.

इस चुनाव परिणाम ने सच्चे जनवाद और वैज्ञानिक समाजवाद में यकीन करने वाले कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों को एक सुनहरा मौका प्रदान किया है कि वे देश स्तर पर अपने को एकताबद्ध करें, संशोधनवाद व संसदीय बौनेपन के खिलाफ वैचारिक संघर्ष को तेज करें और शोषण एवं दमन पर टिकी इस आदमखोर व्यवस्था को पलटकर एक नयी शोषणविहीन जनवादी एवं समाजवादी व्यवस्था की स्थापना करें.

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