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‘एकात्म मानववाद’ का ‘डिस्टोपिया’ : राजसत्ता के नकारात्मक विकास की प्रवृत्तियां यानी फासीवादी ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद

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अक्टूबर 2017 में यह लेख राजकिशोर सम्पादित ‘रविवार डाइजेस्ट’ के मेरे उस समय के नियमित स्तम्भ ‘जंतर मंतर’ के लिए लिखा गया था. लेकिन पत्रिका के प्रबंधन ने इसे छापने से इनकार कर दिया. इस सेंसरशिप के विरोध में राजकिशोर जी ने पत्रिका से इस्तीफा दे दिया था – आशुतोष कुमार

'एकात्म मानववाद' का ‘डिस्टोपिया’ : राजसत्ता के नकारात्मक विकास की प्रवृत्तियां यानी फासीवादी ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद
‘एकात्म मानववाद’ का ‘डिस्टोपिया’ : राजसत्ता के नकारात्मक विकास की प्रवृत्तियां यानी फासीवादी ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद (चित्र – दीनदयाल उपाध्याय)

ऐसा लगता है कि मौज़ूदा निज़ाम ने ‘एकात्म मानववाद’ (एमा) का विराट प्रचार करने का फैसला किया है. इस ‘वाद’ को प्रस्तावित करने का श्रेय भारतीय जनसंघ के शीर्ष-नेता रहे श्री दीनदयाल उपाध्याय को दिया जाता है. भारतीय जनसंघ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा समर्थित भारतीय जनता पार्टी की पूर्ववर्ती राजनीतिक पार्टी थी.

इस साल दीनदयाल उपाध्याय की जन्मशती बहुत धूमधाम से मनाई गई है. स्कूलों-कालेजों में बहुत सारे कार्यक्रम आयोजित किए गए. उनसे सम्बन्धित पुस्तिकाएं करोड़ों की संख्या में वितरित की गईं. दिल्ली के प्रभात प्रकाशन ने पन्द्रह खंडों में उनका सम्पूर्ण वांग्मय प्रकाशित किया है.

उनके नाम से बहुत सारी जगहों का नामकरण किया गया. मुगलसराय जैसे महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्टेशन का नाम भी दीनदयाल उपाध्याय नगर कर दिया गया. अनेक महत्त्वपूर्ण सरकारी योजनाओं को दीनदयाल का नाम दिया गया है. जैसे दीनदयाल ग्राम ज्योति योजना, दीनदयाल ग्राम कौशल्या योजना, दीनदयाल अन्त्योदय योजना, दीनदयाल स्वास्थ्य सेवा योजना, दीनदयाल डिसएबल्ड रिहैबिलिटेशन स्कीम इत्यादि.

‘एकात्म मानववाद’ सुनने में बहुत उदात्त लगता है. यह मनुवाद की तरह गंदला और हिंदूवाद की तरह उन्मादी नहीं जान पड़ता. यह शांतिपूर्ण, स्निग्ध, सरस.. लगभग आध्यात्मिक-सी अनुगूंज पैदा करता है. यह मानववाद से आगे की चीज़ मालूम होता है. एकात्म मानववाद को सबसे पहले पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने चार व्याख्यानों के रूप में 22 अप्रैल से 25 अप्रैल, 1965 के बीच बंबई में प्रस्तुत किया था. ये चारों व्याख्यान भारतीय जनता पार्टी की वेबसाइट बीजेपी डॉट ओआरजी पर उपलब्ध हैं.

यूं तो सावरकर की रचना ‘हिन्दुत्त्व’ हिंदूवादी राजनीति का बीजग्रंथ है. इसके अलावा गोलवलकर की दो पुस्तकें ‘विचार-गुच्छ’ और ‘हम और हमारे राष्ट्रवाद की परिभाषा’ संघ के मूलभूत दर्शन की व्याख्याएं मानी जाती रही हैं. लेकिन इन सभी रचनाओं में ‘हिंदुत्व’ की शब्दावली का मुखर उपयोग किया गया है. हिन्दूतर समुदायों के प्रति साम्प्रादायिक घृणा भी इनमें उतनी ही मुखर है. सत्ता की लम्बी पारी खेलने के लिए इनकी शब्दावली उपयुक्त नहीं है. इससे हिन्दूतर सम्प्रदायों का जुड़ना कठिन हो जाता है.

‘एकात्म मानववाद’ के साथ ऐसी कोई बात नहीं है. इसमें हिन्दूवाद का कहीं उल्लेख नहीं है. ‘राष्ट्रवाद’ तक की आलोचना की गयी है. धर्म-सम्प्रदाय विशेष पर आधारित धार्मिक-राज्य यानी थियोक्रेटिक स्टेट की अवधारणा को साफ़ तौर पर नामंजूर कर दिया गया है. इसे मानववाद जैसे आधुनिक उदार विचार से जोड़ा गया है.

इतना ही नहीं, इसमें उस पुरातनपंथी सोच को भी ठुकरा दिया गया है जो यह मानती है कि भारत को अपने पुराने सुनहले अतीत की तरफ लौट जाना चाहिए. इसमें परिवर्तन को स्वीकार करने वाली अग्रगामी सोच पर जोर दिया गया है. पाश्चात्य विचारों और रहन-सहन की नकल करने की प्रवृत्ति की आलोचना इस आधार पर की गयी है कि एक ही संस्कृति दुनिया के हर देश के लिए उपयुक्त नहीं हो सकती.

लेकिन यह भी कहा गया है कि ज्ञान-विज्ञान का सम्बन्ध किसी देश विशेष से नहीं होता. यह समूची मानवता की सांझी सम्पत्ति होती है. ज्ञान-विज्ञान की किसी वैश्विक उपलब्धि से सिर्फ़ इसलिए परहेज करना कि वह विदेशी है, निरी मूर्खता है. ज्ञान कहीं से भी ग्रहण किया जा सकता है, लेकिन उसका उपयोग अपनी विशेष आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए. अपने देश की ज्ञान-परंपराओं का उपयोग भी श्रद्धाभाव से नहीं, समय की मांग पर नज़र रखते हुए ही करना चाहिए.

इसमें पश्चिम में उभरे आधुनिक विचार-आंदोलनों की आलोचना मुख्य रूप से इसलिए की गयी है कि वे उनका एक दूसरे के साथ तालमेल नहीं है. राष्ट्रवाद, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के विचार आधुनिक पश्चिम की मुख्य देन है. लेकिन राष्ट्रवाद और समाजवाद का आपस में मेल नहीं है. अगर दोनों को जबरन मिला भी दिया जाए तो लोकतंत्र का बचना मुश्किल होगा. धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रवाद का तालमेल भी आसान नहीं है. ऐसी हालत में पश्चिम अपनी ही अवधारणाओं पर अमल नहीं कर पा रहा. एक को सम्हालता है तो दूसरी हाथ से निकल जाती है.

पश्चिम द्वारा विकसित आर्थिक प्रणालियां भी समस्याग्रस्त हैं. पूंजीवाद में बाज़ार की एकाधिकारी ताकतें इस क़दर हावी हैं कि इनसान बाज़ार का खिलौना बन कर रह गया है. समाजवादी प्रणाली में पूंजीवाद की बुराइयां नहीं हैं, लेकिन सरकार की मुक़म्मल तानाशाही है. यह व्यवस्था भी इंसान को मशीन के एक पुर्जे में बदल कर रख देती है.

‘एकात्म मानववाद’ की ये सारी बातें कितनी तर्क-संगत और प्रगतिशील लगती हैं ! भला इन बातों से किसी का क्या विरोध हो सकता है ? शायद यही कारण है कि इधर वामपक्ष के कुछ लेखक भी ‘एकात्म मानववाद’ की अच्छाइयों की चर्चा करने लगे हैं. वे यहां तक कह रहे हैं कि दीदउ का एकात्म मानववाद बीजेपी के हिन्दू राष्ट्रवाद का प्रतिपक्ष है.

अगर लोगों को ‘एकात्म मानववाद’ की अच्छाइयों के बारे में बताया जाए तो ‘एकात्म मानववाद’ के नाम पर हिन्दू राष्ट्र को बेचना बीजीपी के लिए मुश्किल हो जाएगा. ‘एकात्म मानववाद’ चूंकि सिद्धान्तहीन राजनीति और अवसरवादी गठबन्धनों के खिलाफ भी है, इसलिए यह राजनीति की गन्दगी साफ़ करने के काम भी आ सकता है.

ऐसे में ‘एकात्म मानववाद’ से जुड़ी प्रस्थापनाओं पर तनिक गहराई से विचार करने की जरूरत है.

मानववाद चौदहवीं-पन्द्रहवीं सदी में यूरप में रेनेसां के साथ आया विचार था. बेसिक आइडिया यह था कि मानव का कल्याण मानव ही कर सकता है. किसी आत्मा-परमात्मा के भरोसे बैठे रहने से कुछ नहीं होगा. अगर मनुष्य को अपना भला करना है तो उसे केवल ‘अपने’ बुद्धि-विवेक और अपनी मेहनत के भरोसे आगे बढ़ना होगा. यह मध्यकालीन भाग्यवादी बोध के खिलाफ़ आधुनिक विवेकवादी चेतना का विस्फोट था.

‘राष्ट्र एक मानवदेह है’ अब मज़ा देखिए. एकात्म मानववाद क्या कहता है ?

एक तो यह कि मनुष्य के व्यक्तित्व के चार आयाम होते हैं. शरीर, मन, बुद्धि औ आत्मा. चारों मिलकर व्यक्ति का निर्माण करते हैं. एकात्म मानव वही है, जिसके व्यक्तित्व के ये चारों पहलू अंतर्ग्रथित हों. मनुष्य ऐसा ही होता है. यह मनुष्य को देखने की भारतीय दृष्टि है. गडबड़ पश्चिम ने की. उसने मनुष्य को राजनीतिक प्राणी के रूप में देखा तो लोकतंत्र की खोज हुई. आर्थिक प्राणी के रूप में देखा तो समाजवाद का विचार आया. मनुष्य को इकहरे ढंग से देखने की कारण ये अवधारणाएं आपस में टकरा गईं. एकात्म मनुष्य की जटिल मांगों समझ पाना इनके बूते की बात न थी.

दूसरे यह कि सगरी मनुष्यता की एक ही आत्मा है. विभिन्नताएं और विविधताएं जो दिखाई देती हैं, वे केवल आभासी हैं. अंदर ही अंदर मनुष्य की आत्मा उसी तरह एक है, जैसे यह सम्पूर्ण वैविध्यपूर्ण ब्रह्मांड सिर्फ़ ऊर्जा से निर्मित है. संसार में जहां कोई विरोध या संघर्ष दिखाई देता है, वह एक विकृति है. विकृति में अतिरिक्त ऊर्जा न लगाई जाए तो वह अपने आप विलीन हो जाएगी. यह भी भारतीय दृष्टिकोण है, जिससे द्वंद्व और संघर्ष को केन्द्रीय महत्व देने वाली पश्चिमी सभ्यता की बुराइयों का निराकरण किया जा सकता है.

यानी मानववाद जिस आत्मा-परमात्मा की बात को नकार कर सामने आया, वह दुबारा प्रकट हो गई और क्या धांसू अंदाज़ में ! अब मज़ा देखिए. आत्मा एक ही है, खाली शरीर अलग-अलग हैं. क्या सूफ़ियाना ख़याल है. मने बनारस के पंडीजी और उनकी राष्ट्रवादी लाठियों से घायल बालिकाओं की आत्मा एक ही है. न किसी ने पीटा, न कोई पिटी. यह सब आपसी प्यार-मुहब्बत है. अदानी सर और नोएडा में गटर में दफन हुए मजदूरों की आत्मा एक ही. बाबू बजरंगी और उसके हाथों मारे गए लोगों की आत्मा भी एक ही ही. ट्रम्प और किम की आत्मा एक ही है. न कोई मरता है, न कोई मारता है. आत्मा केवल कपड़े बदलती है. ये है गीता का ज्ञान. करम किए जा, फल की इच्छा मत कर ऐ इनसान !

गीता का ज्ञान यह है कि मारने वाला भी आत्मा है और मरने वाला भी वही आत्मा है. न कोई मरा, न किसी ने मारा. क्या गजब की थियरी है ! मारनेवालों के पक्ष में और मरनेवालों के खिलाफ इससे शानदार कोई थियरी हो सकती है क्या ?

ब्राह्मण–दलित, स्त्री-पुरुष सब एक ही आत्मा हैं. एक शरीर मन्त्र पढ़ता है. एक शरीर मैला साफ़ करता है. एक शरीर पूजित होता है. एक देह समर्पित होती है लेकिन सब एक ही हैं, इसलिए किसी को किसी से शिकायत करने का हक नहीं है. एक शरीर राज करता है. एक शरीर कुचला जाता है लेकिन सब एकात्म हैं.

इसलिए सबको प्रेमपूर्वक रहना चाहिए. इस प्रेमभाव से सारी समस्याओं का हल निकला आएगा. निकल क्या आएगा, उत्पीड़कों के लिए पीड़ितों के प्रेमभाव से अधिक आकर्षक समाधान हो ही क्या सकता है ! यही श्रीमदभागवतपुराण का संदेश है. यही गीता का ज्ञान है. यही मनुस्मृति की मनीषा है. यही सनातन ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण है.

एकात्म मानववाद मनुष्य मात्र की स्वतंत्रता के विचार पर आधारित मानववाद को सर के बल खड़ा कर देता है

एकात्म मानववाद मनुवादी वर्णव्यवस्था का सुंदर नाम है. यह एकात्म मानव वह ब्रह्मा है, जिसका मस्तक ब्राह्मण है और पैर शूद्र. दलित कहां हैं पता नहीं. दीनदयाल मानते थे कि हरेक का काम समान रूप से सम्माननीय है, लेकिन हरेक को अपने स्वधर्म का पालन करना चाहिए. यानी ब्राह्मण को पोथी ही बांचनी चाहिए और दलित को मैला ही साफ करना चाहिए. दोनों को एकात्म भाव से एक दूसरे को सम्मान देना चाहिए. ऐसा होने पर दोनों के बीच किसी संघर्ष या विरोध का प्रश्न ही नहीं उठेगा. समाज उतना ही एकात्म हो उठेगा, जितना कि एक व्यक्ति-शरीर होता है. सभी अंग अलग-अलग भूमिकाओं का निर्वाह करते हैं, लेकिन पूर्ण समन्वय के साथ.

‘राष्ट्रीय चित्त और धर्म-राज्य’

‘एकात्म मानववाद’ समाज को ही नहीं राष्ट्र को भी व्यक्ति-शरीर के रूप में देखता है. जैसे ‘आत्मा’ व्यक्ति की अंतर्ग्रथित चेतना का प्रतीक है, वैसे ही राष्ट्र की भी एक सामूहिक अन्तश्चेतना होती है, जिसे ‘चित्त’ कहा जा सकता है. हर राष्ट्र का अपना एक अलग ‘चित्त’ होता है. किसी भी राष्ट्र का विकास केवल उन्ही बातों से हो सकता है, जो उसके ‘चित्त’ के अनुकूल हों. वे सारी चीजें जो चित्त के प्रतिकूल हों, वे राष्ट्र के विरोध में होंगी. इन सारी चीजों को कैंसर की तरह शरीर से बाहर करना आवश्यक है.

लेकिन यह कौन तय करेगा कि कौन सी चीजें राष्ट्रीय चित्त के अनुकूल हैं और कौन सी नहीं ? क्या बीफ़ भारतीय चित्त के अनुकूल है ? क्या ताजमहल भारतीय चित्त के अनुकूल है ? क्या लोकतंत्र और धर्म-निरपेक्षता भारतीय चित्त के अनुकूल है ? क्या जींस भारतीय चित्त के अनुकूल है ? अगर नहीं हैं तो इन सब चीजों से छुटकारा पाना राष्ट्र की सुरक्षा के लिए जरूरी है ! इस एकात्म मानववाद और वर्तमान हिंदू राष्ट्रवाद में शब्दावली के अलावा अंतर क्या है ?

एमा राष्ट्रीय चित्त के सिद्धांत को बढाते हुए ‘धर्म-राज्य’ की अवधारणा तक पहुंचता है. राष्ट्रीय चित्त की संतुष्टि के लिए बनाए गए नैतिक विधान को ‘धर्म’ कहते हैं. यह धर्म ही राष्ट्रीय की एकता और सम्प्रभुता को धारण करता है .यह कोई विशेष धर्म-सम्प्रदाय नहीं, एक उच्चतर नैतिक विधान है. लेकिन यह किसी भी राज्य और राष्ट्र को संचालित करने वाली सर्वोच्च शक्ति है. यह संविधान से ऊपर है. संविधान को इस कथित राष्ट्रीय धर्म का अनुसरण करना होगा, इस धर्म की व्याख्या संविधान के अनुसार नहीं होगी. यह वो धर्म है जो जनता की आकांक्षा से भी ऊपर है. जो बहुमत के निर्णय से भी स्वतंत्र है. जो कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका को भी अनुशासित करता है.

यह कथित धर्म किन चीजों की इजाजत देता है और किनकी नहीं, यह कौन तय करेगा ? सबसे अहम बात यह है कि इसे कोई तय नहीं कर सकता. कोई संविधान–सभा इसका निर्धारण नहीं कर सकती, क्योंकि यह पहले–से, अनादि-काल से, अस्तित्व में है. सिर्फ़ इसकी व्याख्या की जा सकती है, जिसका अधिकार केवल उन कुछ लोगों के पास होगा, जो इसके स्वघोषित पुरोहित होंगे. जैसे किसी पुरोहित, पंडे या मौलवी के फ़तवे को चुनौती नहीं दी जा सकती, वैसे ही इस धर्म-राज्य के पुरोहितों को भी सवालों के कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता.

तो यह है एकात्म मानववाद का सार-संक्षेप जो वस्तुतः फासीवादी ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद के सिवा और कुछ नहीं है ?

यह सही है कि एमा के आर्थिक चिन्तन में एकाधिकारी पूंजीवाद का विरोध किया गया है. राज्य नियंत्रित समाजवादी अर्थव्यवस्था का भी विरोध किया गया है. ‘स्वदेशी’ और ‘विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था’ को सर्वोच्च स्थान दिया गया है. लेकिन यह नहीं बताया गया है कि ऐसी विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था बनेगी कैसे.? यह मान लिया गया है कि धर्म-राज्य ही राजनीति और समाजनीति के साथ अर्थव्यवस्था को भी संचालित करेगा. आर्थिक फ़ैसले भी अंततः धर्म-राज्य के इन्ही ‘पुरोहितों’ के हाथों में होंगे. वे किसी के प्रति जवाबदेह या जिम्मेदार न होंगे. उदाहरण के तौर पर वे जब चाहेंगे नोटबंदी लागू कर देंगे, जब चाहेंगे डिजिटल अर्थव्यवस्था बना देंगे. जब चाहेंगे, जितना चाहेंगे, भूमंडलीकरण या स्वदेशीकरण कर देंगे. वे न बाज़ार के नियमों से संचालित होंगे, न राज्य की नीतियों से.

ऐसा सर्वशक्तिमान धर्म-राज्य सिर्फ़ डिस्टोपिया हो सकता है.

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One Comment

  1. Working at Walmart

    November 12, 2022 at 1:23 am

    Thx.

    Reply

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