समाजसेवी व मानवाधिकार कार्यकर्ता दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्राध्यापक 57 वर्षीय प्रो. जी. एन. साईं का कल देर रात निधन हो गया. उनके निधन की खबर से दुनिया भर के मानवाधिकार व प्रगतिशील खेमों में शोक की लहर छा गई है. शारीरिक रूप से 90 फीसदी विकलांग प्रो. जी. एन. साईं को इसी साल मार्च महीने में सशस्त्र माओवादी पार्टी को मदद करने के संदेह में हुई जेल से 8 साल बाद रिहा किया गया था. BBC को दिये एक इंटरव्यू में प्रो. साई ने स्वयं को जेल भेजे जाने की वजह बताते हुए बताया कि –
‘मैं आदिवासियों के हक़ों के लिए आवाज़ उठा रहा था और इसके लिए कई सिविल सोसाइटी समूहों और लोगों से जुड़ा था. इस मुद्दे पर काम करने वाले कई संगठनों ने मुझे संयोजक चुना था. आदिवासी के हक़ों, खनन के ख़िलाफ़ आदिवासियों की सुरक्षा के लिए, आदिवासियों के जनसंहार के ख़िलाफ़, ऑपरेशन ग्रीन हंट के ख़िलाफ़ हम आवाज़ उठा रहे थे. हम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संगठनों के साथ जुड़कर इन मुद्दों पर आवाज़ उठा रहे थे कि इस देश के 10 करोड़ की आदिवासी आबादी को कुचला नहीं जा सकता. मुझे पता चला कि हमारी आवाज़ दबाने के लिए मेरे ख़िलाफ़ केस बनाया गया और फ़र्ज़ी मामले में मुझे दस साल जेल में रखा.’
प्रो. साई का बचपन बेहद अभावों में गुजरा. महज 5 साल की उम्र में पोलियो ग्रस्त होने से उनके दोनों पैरों ने काम करना बंद कर दिया था. वे दोनों हाथों में जूता पहनकर घिसटते हुए स्कूल जाते थे. छात्र जीवन में ही वो राजनीति में रुचि लेने थे. ‘आल इंडिया रेजिस्टेंस फोरम’ के वो एक सक्रिय कार्यकर्ता रहे जो बाद में ‘रिवोल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट’ (RDF) में बदल दिया गया. भारत सरकार द्वारा माओवादी पार्टी की मदद करने वाले संगठन के तौर पर चिन्हित RDF संगठन, एक प्रतिबंधित संगठन है.
वर्ष 2014 में प्रो. साई को कथित तौर पर लोकतंत्र विरोधी उकसावे वाली राजनीतिक क्रिया कलापों को मदद करने के एवज में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. गढ़चिरौली सत्र न्यायालय (महाराष्ट्र) के प्रधान न्यायाधीश सूर्यकांत शिंदे ने इकतरफा न्यायिक कार्यवाही करते हुए प्रो. जी. एन. साईं को उम्रकैद की सजा सुना दी. इस पर आग बबूला हो उठे तमाम मानवाधिकार संगठनों ने भारतीय न्याय प्रणाली पर संवेदनहीन होने का आरोप लगाया.
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने कहा कि प्रो. साई, शारीरिक रूप से 90 फीसदी विकलांग हैं. इस लिहाज से माननीय न्यायालय रियायत बरते, लेकिन माननीय न्यायालयों की रियायत तो दूर प्रो. जी. एन. साईं को जेल के अण्डा सेल (अंधेरी काल कोठरी) में डाल दिया गया. हमेशा व्हील चेयर के सहारे अंदर बाहर जाने वाले एक मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रो. साई के लिए लगभग 8 साल की जेल ने देश-दुनिया में राजनीतिक व सामान्य अपराधियों के फासले को भी मिटा दिया.
जेल से लिखी उनके कविता व लेखों के संग्रह में से उनकी ‘तुम हमारे तरीकों से क्यों डरते हो’ ने खूब चर्चा बटोरी. अत्याधुनिक कंप्यूटरीकृत रक्षा प्रणाली व उन्नत हथियारों से लैस पुलिसिया घेराबंदी में घिरे तलोजा (मुंबई) जेल प्रशासन एक विकलांग कैदी प्रो. साई से इतना भयातुर था कि उसने 1 अगस्त 2020 को प्रो. साई की 74 वर्षीय मां की मृत्यु पर भी बेल नहीं दी और अगले ही वर्ष 2021 में रामलाल आनंद कालेज दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग से उनकी प्राध्यापक की नौकरी भी छीन ली गई.
इस बीच रोना विल्सन सहित तमाम मानवाधिकार व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने प्रो. साई की रिहाई के लिए जनमत संग्रह व राजनीतिक गतिविधियों को बखूबी आगे बढ़ाया और अंततोगत्वा अंतर्राष्ट्रीय बौद्धिक तबके के सवालिया निशानों से बिंधे भारतीय न्यायपालिका ने 5 मार्च 2024 को प्रो. साई को रिहा कर दिया और कहा कि ‘प्रो. जी. एन. साईं को न्यायिक प्रक्रियागत त्रुटि के चलते सजा दी गई जबकि इनका माओवादी पार्टी को मदद देने या कोई भी अलोकतांत्रिक राजनीतिक क्रिया कलापों में शामिल होने के कोई सबूत नहीं मिले.’
अपनी दृढ़प्रतिज्ञ राजनीतिक पहचान के लिए ख्यातिप्राप्त, 57 वर्षीय प्रो. साई ने हैदराबाद के निजाम इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज में इलाज के दौरान कल देर रात 12 अक्टूबर 2024 को आखिरी सांस ली. प्रो. साई प्रगतिशील राजनीति के मद्देनजर व्यवहारिकताओं के युग हस्ताक्षर के तौर पर हमेशा याद किए जाते रहेंगे.
मी-लॉर्ड सवाल तो है ही कि अब तो इस विचार को मर जाना चाहिए जिसे आप व्यवस्था विरोधी विचारधारा कहते हैं. एक नब्बे फीसदी विकलांग प्रोफेसर को लंबे समय तक यातनाएं देते रहने से लेकर उसे असमय मौत के मुंह में धकेल देने तक से, क्या आप निश्चिन्त हो गये हैं ? आपकी जेलों में कैदियों के लिए तंग होती जगह देखकर तो ऐसा कतई नहीं लगता. याद रखिए डरी हुई व्यवस्था न्याय नहीं, दमन करती है.
- ए. के. ब्राईट
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