यह कोई आकस्मिक/अप्रत्याशित खबर नहीं है. उन्होंने स्वयं अपनी मौत की जानकारी लिख दी थी कुछ ही समय पहले, फिर दिल्ली पुलिस की मदद से उनके किसी वृद्धाश्रम में भरती किये जाने की भी खबर फैल गयी थी. दोस्तों से समुचित सहायता की आवाज भी लगायी थी उन्होंने. इसलिए, यह कहना बेईमानी होगा कि जुगनू शारदेय अपने ‘चाहने’ वालों से ओझल होकर किसी गुमनामी में मर गये जैसा कि उन्हें श्रद्धांजलि देने की होड़ में बहुतों ने इस बात को दुहराया है !
जुगनू शारदेय जेपी आंदोलन के झंझावात से प्रकट हुए एक नामी गिरामी पत्रकार थे. इस कारण उनकी दुनिया उस आंदोलन के आम व खास लोगों की सोहबत में ही अधिकांशतः सीमित रही थी. खास लोगों का तो कोई अंत ही नहीं है – मंतरियों, संतरियों से लेकर रसूखदार पत्रकारों/साहित्यकारों/चिंतकों आदि (सभी प्रायः समाजवादी परंपरा वाले) तक.
नितीश कुमार उनके कितने बड़े शुभचिंतक थे इसका उदाहरण है कुछ वर्ष पहले बिहार बुला कर एक निहायत बड़े शासकीय ओहदे पर उन्हें बैठाना. मैं उन दिनों एक अत्यंत सम्मानित शिक्षक एवं पर्यावरणविद् आदरणीय प्रो० विनय कंठ एवं आदरणीय प्रो० डेजी नारायण द्वारा संचालित संस्थान से निकलने वाली पत्रिका का संपादन कर रहा था, जुगनू शारदेय वहां यदा कदा आते. कंठ साहब और डेजी मैडम अत्यंत आदर भाव से उनकी उपस्थिति में ही हमलोगों के समक्ष उनकी स्तुति करने से चुकते नहीं थे.
उन दोनों की दिली इच्छा थी कि जुगनू जी संस्थान की पत्रिका को पर्यावरण संबंधी अपनी विशेषज्ञता से समृद्ध करने में थोड़ा योगदान दें, इसके लिए मुझे उनसे विशेष तौर पर जुड़े रहने की हिदायत दी गयी थी. लेकिन, मुझे यह स्वीकार करते जरा भी झिझक नहीं कि इस मामले में जुगनू जी का रवैया निहायत खिलंदर और सबकी खिल्ली उड़ाने वाला ही रहा. बाद में मालूम हुआ कि नितीश कुमार और महकमे के आला अफसरों से भी अपने अटपटे रवैये के चलते उन्हें बिहार से विदाई लेनी पड़ी.
व्यक्तिगत रूप से मुझे उन्हें जानने का थोड़ा अवसर शुरुआती दौर में भी मिला था. उन्हें मेरे दो मित्रों से थोड़ी घनिष्ठता थी – रामकृष्ण पांडेय तथा नरेंद्र ‘घायल’ से जो अब दिल्ली में नरेंद्र स्वामी के नाम से जाने जाते हैं. घायल जी के बैचलर कमरे में यदा-कदा उनसे भेंट हो जाती थी और पांडेय जी के साथ काफी हाउस में.
जुगनू जी जानते थे कि मैं एक सक्रिय कम्युनिस्ट कार्यकर्ता तथा कम्युनिस्ट परिवार से हूं और जेपी आंदोलन का विरोधी भी. इस नाते न तो वे मुझे आकर्षित कर सके न उन्हें मैं. हालांकि, वे तब तक एक चर्चित पत्रकार हो चुके थे तब की कुछ चर्चित पत्र-पत्रिकाओं में छप कर. वैचारिक असहमति के कारण मुझे आंदोलन संबंधी उनकी पत्रकारिता भी कभी खिंच नहीं पायी. यह जरूर सुना कि उन्होंने पर्यावरण संबंधी कुछ बेहतरीन आलेख और काम किये. मगर, दुर्भाग्यवश मैं उन्हें देख/पढ़ नहीं सका.
मेरा कहना यह है कि जुगनू शारदेय के व्यक्तित्व में वह कौन-सी ख़लिश रह गयी थी कि शोहरत और सोहबत के मामले में इतने धनी होने के बावजूद उन्हें इतने जानलेवा अभाव तथा अकेलेपन का शिकार होकर अपनी जिंदगी गंवानी पड़ी. उनके निजी पारिवारिक जीवन का तो कुछ पता नहीं मगर, उनका सामाजिक/राजनीतिक जीवन की धुरी तो सदैव समाजवादी मंडल/प्रभामंडल ही रही थी.
मैं कह सकता हूं कि जेपी आंदोलन से निकला यह समाजवादी मंडल/प्रभामंडल जिस सत्तालोलुपता और विच्छृंखलता के दौर से गुज़रा है यानी आंदोलन के सत्ता प्राप्त अपने करीबी लोगों में मची पतित वैमनस्यता तथा रसूखदार मित्र मंडली की प्रायः विलासिता/अवसरवादिता में डूबे रहने को ही देखकर जुगनू शारदेय असंंगतता और अहंमन्यता की खोह में जाने को विवश हुए होंगे. पारिवारिक जीवन में तो सामंजस्यहीनता पहले से थी ही. विडंबना यह है कि उन्होंने इस सबसे बाहर निकल कर अपनी स्थापित क्षमता प्रतिभा को किसी अन्य पुख्ता वैचारिक धरातल पर और व्यक्तिगत समूहों में ले जाकर विस्तारित करने का प्रयास भी नहीं किया.
इसलिए, मुझे लगता है कि जुगनू शारदेय का यह पीड़ादायक दुखांत इस बात का दृष्टांत है कि आदमी को इस छीजते समाज में सिर्फ अपनी रचनात्मकता बिखेरने से बात नहीं बनेगी. उसे अपने वैयक्तिक संरक्षण के लिए भी एक टिकाऊ वैचारिक आसरा उसे तो और भी जो परिवार का सम्मोहन पहले ही खो चुका हो, की खोज बहुत जरूरी है. निश्चय ही, अपनी तमाम बौद्धिक गतिशीलता के बावजूद जुगनू शारदेय इस मामले में बहुत पीछे रह गये थे. एक संघर्षशील तथा प्रतिभावान आंदोलनकारी/पत्रकार/लेखक/पर्यावरणविद/यायावर का ऐसा दुखद अंत देख कर पीड़ा तो होती ही है. उन्हें आखिरी सलाम !
- सुमन्त
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