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बांग्लादेश में यूं ही नहीं हुआ तख्ता पलट..किसकी साज़िश !

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पुण्य प्रसून वाजपेयी

लडाई तो बहुत छोटी थी, लेकिन उसका परिणाम कुछ ऐसा होगा ये बंगला देश में कभी किसी ने सोचा नहीं होगा. 30% आरक्षण को खत्म करने की मांग के साथ युवा आंदोलनरत हुए. कॉलेज दर कॉलेज और यूनिवर्सिटी दर यूनिवर्सिटी छात्र जुड़ते चले गए. और उनकी मांग सिर्फ शुरुआत में यही नजर आई कि जो 30% आरक्षण सरकारी नौकरियों में स्वतंत्रता सेनानी के नाम पर है, उसे खत्म किया जाए.

यह स्वतंत्रता सेनानी का मतलब है, 1971 में जब दुनिया के मानचित्र पर बंगलादेश का जन्म हुआ, तो उस वक्त जो बंगलादेश की आजादी को लेकर संघर्ष कर रहे थे, उसमें शामिल लोगों के परिवारवालों को 30% आरक्षण सरकारी नौकरी में दिया जाए और ये 1972 से ही लागू हो गया था. तो कोई भी यह सवाल पूछ सकता है कि जो 1972 से ही लागू था, ऐसा क्या हुआ जो 1924 में आकर ऐसी परिस्थितियों को कैसे जन्म दे बैठी कि तख्तापलट हो गया.

प्रधानमंत्री शेख हसीना को बंगलादेश छोड़ना पड़ा, और बंगलादेश की सड़कों पर सिर्फ और सिर्फ आम लोगों की मौजूदगी इस दौर में नजर आने लगी. जिस लॉंग मार्च का ऐलान बंगलादेश में आज किया गया था, उस लॉंग मार्च में बड़ी तादाद में महिलाएं नजर आ रही थी. वही लॉंग मार्च और उससे जुड़ा हुआ कुछ हिस्सा जब प्रधानमंत्री के घर तक पहुंचा, तो घर के दरवाजे तोड़े गए और अंदर घुस कर उन्होंने खुब वहां पर तमाम परिस्थिति को देखा, गद्देदार बिस्तर भी थे, उस पर भी सो कर देखा. जो खाना पड़ा था उसे चख कर देखा, वहां की हरी मखमली घास को भी देखा.

बंगला देश के इर्दगिर्द की तमाम परिस्थितियां क्या इस दौर में इस आरक्षण आंदोलन के साथ जुड़ती चली गई और ये महज एक अंदरूनी तौर पे पनपी हुई वह इकनॉमी का हिस्सा है, जिसका बंटाधार कोविड काल के बाद से लगातार हो रहा था. मंहगाई 17 से 20% दर तक चली गई और जिन परिस्थिति में बंगलादेश के लोग रह रहे थे, उनके सामने जिंदगी जीना मुहाल था. और ऐसे मौके पर जो संघर्ष आंतरिक तौर पर हो रहा था, उसे छात्रों के आंदोलन ने बल दे दिया. एक क्षण के लिए यही तस्वीर उभर कर सामने आती है.

और इस तस्वीर के साथ जुड़ी हुई दूसरी तस्वीर है जब छात्र आंदोलनरत थे और 3 तारीख को चिटगांओं में जो नजारा बंगलादेश के लोगों का जमा जमावडे के तौर पर नजर आया, उससे ढ़ाका में सत्ता की नींव हिलने लगी. इतनी बड़ी तादाद में लोगों की मौजूदगी बंगलादेश में कभी किसी ने देखी नहीं थी. और उस पर सेना के कमांडरों ने कह दिया कि हम जनता पर गोली नहीं चलाएंगे. उन्हें रोकेंगे नहीं. और खास तौर से आज के दिन यानि 5 अगस्त को, जब लॉंग मार्च हो रहा था, तब भी नहीं रोकेंगे.

और इन्हीं परिस्थितियों के बीच हर किसी को 1971 के मुजीबुर्रहमान दिखाई देने लगे, जो ‘बंगबंधु’ के नाम से जाने जाते हैं और जब आजादी की लड़ाई उस दौर में लड़ी जा रही थी और भारत साथ में ख़ड़ा था और मुजीवुर रहमान की बेटी शेख हसीना ही इस दौर में प्रधानमंत्री है. भारत के साथ निकटता है. डिपलोमैसी के तौर पर और तमाम आर्थिक व्यापार को लेकर भी और सीमावर्ती क्षेत्र में कौन से समझौते कैसे होंगे इसको लेकर भी.

इन ही परिस्थितियों के बीच चीन भी चाहता रहा कि बंगलादेश में उसकी मौजूदगी रहे. खास तौर से तिस्ता समझौते को लेकर. और जब 10-11 जुलाई को शेख हसीना पहुंची थी बीजिंग तो उन्होंने एक झटके में निर्णय क्यों ले लिया कि अब वो बीजिंग छोड रही है. और वहां पर जो सवाल पूछे गए, उसमें तिस्ता समझौता भी था, जिसमें इस बात को खासतौर पर पूछा गया कि क्या इसमें भारत की रुचि है ? तो भारत की रुचि ही नहीं, भारत के साथ ही समझौता होगा बंगलादेश का तीस्ता समझौते को लेकर. इन सवालों के साथ वो बीजिंग से रवाना हो गई. हालांकि उन्होंने कहा कि स्थिति अपने देश के भीतर की नाजुक है.

लेकिन इन कड़ियों को अब जोडने की जरूरत है. जिन परिस्थिति में भारत, चीन और बंगलादेश को लेकर टकराओ की परिस्थिति तीस्ता समझौते के साथ बनी थी, उसमें भारत के साथ बंगलादेश का खड़ा होना, चीन को अच्छा लग नहीं रहा था. और चीन के अखबारों में और वहां के पार्टी मुखपत्र में भी इस बात का जिक्र था कि तीस्ता समझौते के जरिए डेवलपमेंट की जो सोच चीन अपने तौर पर जिन्दा करना चाहता है, वो ध्वस्त हो रही है.

लेकिन दूसरी तरफ क्या वाकई पाकिस्तान के मौजूदा वक्त में जो खुफिया एजेंसी है आईएसआई, उसके जरिये ही कहीं न कहीं बंगलादेश में युवाओं के भीतर घुसपैठ आईएसआई की हुई ? और इस पूरी प्रक्रिया के भीतर जो आंदोलन चल निकला वो वहां के विपक्षी राजनितिक दलों और युवाओं के संघर्ष के आसरे लोगों के मुद्धों को उठाते हुए, उसने एक ऐसी शक्ल को धारण कर लिया जहां पर तख्ता पलट हो गया. हमें लगता है आज इसकी परत दर परत को समझने की जरूरत है.

और इस जरूरत से पहले हम आपको दो तस्वीर दिखाना चाहते हैं. पहली तस्वीर वह है, जो 3 अगस्त की है. इस इस तस्वीर को पहले देखिए. ये दरअसल चिटगांव की तस्वीर है. इसको देखकर ढ़ाका में शेख हसीना के भी पसीने छुट गए थे. और जब ये उसी दिन एलान किया गया की 5 अगस्त को हम लॉंग मार्च करेंगे, तो लॉंग मार्च जब आज शुरू हुआ और जब वो ढ़ाका की तरफ बढ़ रहा था और उसको देखने के बाद और तमाम परिस्थितियों के बीच जब शेख हसीना ने बंगला देश छोड़ दिया तो वहां शेख मुजीवुर रहमान की आदमकद प्रतिमा को भी तोड़ दिया गया.

दो तस्वीरें, अब देखिए एक तस्वीर जो आज लॉंग मार्च की है और दूसरी तस्वीर मुजीवुर रहमान की प्रतिमा को तोड़ते हुए है. इन दो तस्वीरों को देखकर आपके भीतर ये सवाल उठ सकता है कि छात्रों का अंदोलन क्या इतना उग्र होकर तख्ता पलट करने की ताकत रखता है ? और क्या वाकई सेना इस दौर में जनता के हित के लिए सामने नहीं खड़ी हुई ? या उसके पीछे भी किसी के हाथ में डोर इस दौर में रही ? वहां की राजनितिक परिस्थितियों ने क्या शेख हसीना के विरोध में और कहीं न कहीं बाहरी ताकतों के साथ कोई समझौता किया ?

ये तमाम सवालों के बीच अब चंद सवाल आरक्षण को लेकर बात शुरू की जाए. आरक्षण के मद्देनजर इस बात की व्यवस्था की गई थी कि 30% आरक्षण 1971 के स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारों को मिलेगा. 10% आरक्षण पिछड़े जिलों में रहने वाले लोगों को मिलेगा, 10% आरक्षण महिलाओं के लिए था, 5% आरक्षण रिलीजियस यानी धार्मिक माइनर्टीस के लिए था जो अल्पसंख्यक हैं. हिंदूओं की तादाद बहुत घटते-घटते वहां पर 6-7% ही बची है. 1% दिव्यांग के नाम था यानी 44% सिर्फ अनरिजर्व्ड था.

1972 में ही जब 30% आरक्षण का जिक्र किया गया था, उसको 2018 में खतम कर दिया गया. लेकिन जून के महीने में हाईकोर्ट ने उसे खतम करने वाले फैसले को गलत, गैरकानूनी और असंवैधानिक बतलाया और हाईकोर्ट ने उसे दुबारा लागू कर दिया. शेख हसीना कहती रही कि हम हाईकोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा रहे हैं. और सुप्रीम कोर्ट ने अपने तौर पर 21 जुलाई को 5% आरक्षण स्वतंत्रता सेनानी के परिवार के लिए और 2% आरक्षण माइनर्टीज और दिव्यांग को मिला कर यानि 93% अनरिजर्व्ड कैटेगरी में आएगा. इसका उसने जिक्र किया.

बावजूद इसके आंदोलन की शक्ल में चीजें इस रूप में बढ़ती चली गई कि जनता ने अपने तौर पर तय कर लिया कि हम सविनय अवज्ञा अंदोलन शुरू करेंगे. यानि कोई टैक्स नहीं देंगे, कोई काम पे नहीं जाएगा. जनता का जुडाव जिस तेजी के साथ इन मुद्धों के आसरे हो रहा था, उसमें दो तीन सवाल बंगलादेश में चुनावों के वक्त जो धांधलियां हुई, उसको लेकर भी पनपने लगा और ये सवाल उठने लगा. जनता के भीतर वो तमाम चीज़ें उठ रही हैं जहां पर सत्ता अपनी ताकत दिखाती है.

दरअसल मौजूदा वक्त में आपको कई देश इस दौर में नजर आ सकते हैं. याद कीजिए श्रीलंका में राष्ट्रपति भवन के भीतर जब जनता घुसी तो वहां की चकाचौंध देखकर वो भौचक रह गई. ठीक उसी तरीके से आज भी जब बंगलादेश की प्रधानमंत्री निवास पर जनता वहां की घुसी तो वह भी भौचक रह गई. जो चकाचौंध उस प्रधानमंत्री के घर के भीतर था, हरी दूब की घास पर नहीं, गद्देदार बिछौने ही नहीं, जो वहां पर खाना पीना पड़ा था. इन तमाम परिस्थितियों में आप कह सकते हैं जनता को यह सब कुछ यादा आने लगा.

लेकिन अगला सवाल यह है कि उस आंदोलन की परिस्थिति जिन मुद्धों से उठी, सुप्रीम कोर्ट ने उसे पलट दिया, बावजूद इसके आंदोलन सत्ता पलटने की ताकत के साथ कैसे बढ़ गया ? इसके लिए एक दो पन्ने आपको पहले के खोलने होंगे. क्योंकि शेख हसीना जिस वक्त चीन गई थी और चीन जाने के बाद वहां पर उनका दौरा दो तीन दिन का था, लेकिन बीच में ही उन्हें बीजिंग छोड़ना पड़ा. और ये बीजिंग क्यों छोड़ रहे हैं, इसको लेकर जब बात सामने आई तो दो बातें सामने आई. एक आई कि तीस्ता परियोजना में भारत और चीन दोनों की दिल्चस्पी है. उन्होंने ढ़ाका लौटकर पत्रकारों से कहा.

फिर दूसरा सवाल किया कि दरअसल इस परियोजना को भारत पूरा करना चाहता है. एक बिलियन डॉलर का मामला है. चीन ने इससे पहले कहा था एक बिलियन डॉलर वो लगाने को तैयार है. भारत ने कहा वो भी लगाने को तैयार है. और भारत ने ये ऑफर मई के महीने में जब कवात्रा साहब फारंसकेक्री थे उस दौर में वो गए थे और उन्होंने भारत की तरफ से ये ऑफर दिया था. भारत ये जानता है कि सामरिक ट्रिटी से तीस्ता परियोजना भारत के अनुकूल क्यों होने की जरूरत है.

क्योंकि जो समझ पाएं उस वक्त भुटान और वो चिकन नेक की परिस्थतियां थी, जहां पर भारत और चीन की सेना आमने सामने भुटान के सेना के त्रिकोण बना कर खड़ी हुई थी. और वो चिकन नेक है भारत के लिए खासतौर से उत्तर-पूर्वी राज्यों के लिए बड़ा महत्वपूर्ण माना जाता है. उस जगह पर अगर चीनी पहुंच गए तो मुश्किल होगी. इसलिए भारत नहीं चाहता है कि किसी भी हालत में चीन किसी भी तरीके से उस तीस्ता प्रयोग, प्रोजेक्ट में घुसे भी.

इस दौर में हमारी टीम ने कुछ नई चीजों को परखा, लोगों से बातचीत की और उस बातचीत में ये नजर आया कि चीन पहुंच कर लगभग 21 समझौतों पर हस्ताक्षर शेख हसीना ने किये थे, जिसमें तीन नए समझौते थे. एक तो समझौता जो एएमयू था, उसमें सरकारी समाचार एजेन्सी जो बंगलादेश संगबात संस्था है, उसने जो छापा और उसके बाद जो निकलकर सामने आया, उसमें रणनीतिक साझीदारी को व्यापक रणनीतिक सहकारी साजझेदारी में बदलने का जिक्र था.

दोनों देशों की प्रतिक्रिया विपक्षीय और द्विपक्षीय वार्ता के मद्देनजर हसीना और ली द्विपक्षीय वार्ता में रोहंगिया मुद्दे को लेकर थे. व्यापार और वाणिज्य के मुद्दे को लेकर थे. निवेश को लेकर थे और दोनों देशों के बीच छः सवाल सिर्फ इतना भर नहीं था कि चीन ढ़ाका को एक अरब डॉलर की आर्थिक मदद प्रदान करेगा. जरवने के लिए प्रतिक्रिया विपक्षीय और द्विपक्षीय वार्ता के मद्देनजर हसीना और ली द्विपक्षीय वार्ता मुद्दे को लेकर थे. निवेश, जो बंगलादेश के विदेश मंंत्रालय ने बताया था और इस बात का जिक्र हुआ था कि ढ़ाका और अधिक आर्थिक मदद की उम्मीद कर रहा था, जो उसे नहीं मिला.

और इन सब के बीच चीन दौरे से पहले बीजिंग ने कहा था कि पांच अरब डॉलर के वह कर्ज जरूर देगा, इसका वादा किया गया था लेकिन मामला सिर्फ एक अरब डॉलर के पैकेज पर आकर अटक गया. यह परिस्थिति सामान्य तौर पर इकॉनॉमिक्स एस्पैक्ट की लगती है. और इससे पहले जरा चीजों की और पन्ने खोलें कि इसके आगे का मसला क्या हो सकता है तो जो बंगलादेश में भारत के पूर्व एम्बैसडर रह चुके हैं, हर्षवर्दन श्रिंगला के मुताबिक वहां की आर्थिक परिस्थिति बंगलादेश की नाजुक हो चुकी थी और इन परिस्थितियों के बीच बंगलादेश भी इस बात को समझ गया कि चीन के साथ संज़ोते व्यापार के हो सकते हैं और वो कभी भी अपने मुनाफ़े को कम नहीं करेगा. लेकिन भारत के साथ उसके सांस्कृतिक मुद्दे जुड़े हैं. और बंगलादेश तो बना ही भारत के सहयोग के साथ. तो ना सिर्फ राजनैतिक तौर पर और डिपलोमेसी के तौर पर बल्कि कल्चरली भी भारत से उसका जुुुवड़ा है. और इकनौमी जब बंगलादेश की डगमगाती है तो बड़ी तादाद में बंगलादेश के जो भी लोग होते हैं, वो भारत में कैसे घुसते हैं, ये पश्चिम बंगाल और असम की राााजनैतिकक स्थिति से भी समझा जा सकता है. जो मुद्दे बन जाते हैं. किस तरीके से दोनों देश सटे हुए हैं और इसीलिए इसका असर चीन पर पड़ रहा था. और चीन, बंगलादेश के हर उस प्रोजेक्ट को बंद करवा रहा था. दर्जनों प्रोजेक्ट पर उसकी नजर थी और उसने कहा था कि इसे बंद कीजिए, जो बंगलादेश के प्रोजेक्ट भारत के साथ बंगलादेश को कनेक्ट करते हों. और इसी कडी में एक प्रोजेक्ट सोनाधिया दीप सी पोर्ट का था, जो कॉक्स बाजार के करीब है और चीन इसको पूरा करना चाहता था. राजनीतिक या डिपलोमेसी के तौर पर ये एक ऐसी परिस्थिति थी जो चीन पचा नहीं पा रहा था.

लेकिन दूसरी तरफ सच यह भी है कि चीन के साथ बंगलादेश सटा हुआ नहीं है. बंगलादेश भारत के साथ सटा हुआ है. जो बड़ी तादाद में बिजली जाती है और बंगलादेश और भारत के बीच जो समझौता भी हुआ, एनर्जी को लेकर उसमें अडानी का जो पावर प्लांट झारखंड के गोडडा में लगा हुआ है, वो बिजली भी बेची जाती है बंगलादेश को. सामान्य तौर पर भारत के भीतर भी नियम कहता है कि जिस क्षेत्र में आप पावर प्रोजेक्ट लगाएंगे, वहां के लोगों को पहले आप बिजली देंगे. लेकिन एक नए नियम कायदे के तहत उसको अंतरराष्ट्रीय बाजार में वह भी बंगलादेश को उससे पावर पिलता है.

अब यहां पर दूसरा सवाल ये था कि बंगलादेश और शेख हसीना ने इस दौर में अगर ये महसूस किया कि भारत के साथ निकटता है और उसके साथ ही चलना है तो इसी दौर में क्या बंगलादेश के भीतर चीन ने बड़ी तादाद में आईएसआई के जरिये या दूसरे कई माध्यमों के जरिये या फिर वहां के जो राजनीतिक दल हैं, उनके जरिये अपनी मौजूदगी आंदोलन की शक्ल में वहां टिकाने की शुरुवात कर दी ? और खास तौर से बंगलादेश नैशनल पार्टी हो या फिर बंगलादेश जमायत-इसलामी हो इनकी मौजूदगी इस रूप में नजराने लगी कि ये पूरे तरीके से 1971 में बंगलादेश के बनने को लेकर विरोध में निकल कर आ जाएं ?

क्योंकि इस दौर में शेख हसीना ने जो आंदोलन कर रहे थे उन्हें राजोकार कहा. राजोकार कहा जाता है देशद्रोही को और राजोकार का मतलब यह भी था कि 1971 में जो लोग पाकिस्तान की सेना का साथ दे रहे थे और जो स्वतंत्र वाहिनी जो उस समय मुजीबुर रहमान ने बनाई थी, उसके साथ नहीं खरे थे. उनको लेकर जो शब्द का इस्तेमाल शेख हसीना ने किया वह भी आग में घी का काम कर गया और एक शक्ल में आंदोलन तीब्र होते चला गया.

अगला सवाल ये था कि जो संसाधन जितनी बड़ी तादाद में बंगलादेश के भीतर मौजूद हो रहे थे, जिस तरीके से सेना के कमांडर इनकार कर रहे थे कि हम नहीं रोकेंगे जो जनता सडक पर है, तो क्या इन दो परिस्थितियों ने एक नई तरीके की स्थिति राजनीतिक, समाजिक, आर्थिक, डिपलोमेटिकली सब तरीके से भारत के करीब है और जो दक्षिण एशिया में भारत की मौजूदगी है, चीन उसको कम कर नहीं सकता है और इस दौर में जो अंतरराष्ट्रीय तौर पर वातावरण जो बना हुआ है, उसमें अमेरिका भारत के साथ पूरे दक्षिण एशिया में भारत की मौजूदगी अंतरराष्ट्रीय तौर पर चीन को डरा रही है. यह भी एक सच है.

और बंगलादेश की आर्थिक परिस्थितियों ने चीन को अपने अनुकूल करने की दिशा में बंगलादेश को लाकर ख़ड़ा कर देते हैं और बंगलादेश को दिया था, यह भी सच है और ये पूरी चीज़ें डगमगा गई. लेकिन भारत से बंगलादेश कैसे सटा है, हम आपको एक तस्वीर दिखलाते हैं .यह जलपाई गुरी की तस्वीर है जहां पर बंगलादेश और भारत की सीमा लगती है. आज जब शेख हसीना बंगलादेश छोड़कर चली गई तो उसके बाद छिटपुट लोग जो भारत से वापस बंगलादेश लौट रहे थे, देखिए जरा, यह तस्वीर तो जलपाईगुड़ी की है लेकिन दिल्ली में भी बंगलादेश के एम्बैसी को पूरे तरीके से घेराबंदी कर दी गई. कि वहां किसी तरीके की कोई परिस्थिति अगर विरोध की बनती है या फिर कोई सुरक्षा कारणों की बनती है तो वह स्थिति ना पनप पाए इसलिए पूरी घेराबंदी उस एम्बैसी की कर दी गई.

दिल्ली में तो सुरक्षा बंदोबस्त पूरे कर लिये गए एम्बैसी के चारों तरफ बैरिकेट लगा कर लेकिन नया सवाल उस बंगला देश का है जहां पर पहली बार किसी ने सोचा नहीं था कि मुजीबुर रहमान की आदमकद प्रतिमा को तोड़ा जाएगा. किसी ने सोचा नहीं था कि वहां की प्रधानमंत्री को देश छोड़ना पड़ेगा. किसी ने सोचा नहीं था कि पूरा देश ही सड़क पर होगा और किसी ने सोचा नहीं था कि डगमगाई अर्थव्यवस्था के मद्दे नजर लोगों की जरुरतों को कैसे पूरा किया जाए या दुनिया के बाजार से भीख मांगकर उस जरुरत को पूरा किया जाए ?

इन सवालों में उलझी हुई राजनीति ने बंगलादेश को लेकर खास तौर से दक्षिण एशिया में कुछ नए सवाल पैदा कर दिये हैं. और ये सवाल भारत के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है. भारत नए बैरिकेट्स बंगलादेश की सीमा पर कैसे लगाएगा, पहला सवाल तो यही है क्योंकि बंगलादेश में जो भी नई अंतरिम सरकार बनेगी, उस अंतरिम सरकार में आवामी लीग के लोग तो रहेंगे नहीं. और जो लोग रहेंगे जाहिर है वो जमायते इसलामी के होंगे, बंगलादेश नैसिल पार्टी के होंगे, सेना की उसमें मौजूदगी होगी, सेना की मदद होगी. इन सब के पीछे कौन होगा और उसके जरिये आने वाले वक्त में अंतरराष्ट्रीय लकीरों पर कैसे भारत के डिपलोमेसी चलेगी और खास तौर से चीन को लेकर जो अपना वरदहस्त बंगलादेश को उसने पहले से बड़ी तादाद में कर्ज दिया हुआ है, उस कर्ज की उसको वापसी चाहिए होगी या उस कर्ज की एवज में नया कर्ज देकर अपने अनुकूल डिपलोमेसी को बनाना होगा, जिसके दायरे में भारत भी आकर खड़ा हो ही जाएगा.

और भारत की चिंता सुरक्षा कारणों से भी बड़ी है. और इस दौर में भारत की जो वैपारिक परिस्थितियां हैं, उस पर भी कहीं चोट होगी. ये भी बड़ा महत्वपूर्ण है. यानी पहला सवाल ये है कि बंगलादेश में नई सरकार का झुकाव जिधर भी होगा वो शेख हसीना की तर्ज पर भारत के साथ नहीं होगा. भारत के लिए चिंता का पहला विषय है. दूसरा विषय है चीन अपने तौर पर लगातार अगर बंगलादेश के भीतर के आंदोलन को हवा देते रहा और हलकी पुलकी सुर्वाहड जो आईएसआई के जरिये निकल कर आती है, कि देखिए उसके जरिये भी वो घुसपैठ कर रहा था वहां के आंदोलन के भीतर और संसाधनों को दिला रहा था. तो ये सारी चीजे बतलाती है कि सरकार जो नई होगी, उसके तौर तरीकों का झुकाव चीन की तरफ कितना होगा. और ये भारत के लिए कितनी मुश्किल होगी ये दूसरा सवाल है.

तीसरी परिस्थिति है कि पूरी दुनिया जानती है कि बंगलादेश का होना ही भारत के साथ जुड़ा है और भारत के समाजिक-सांस्कृतिक पहलूओं के साथ बंगलादेश जुड़ा है. और खास तौर से पश्चिम-बंगाल और असम के लोग और बंगलादेश के जो सीमावर्ती लोग हैं, उनके बीच में आप कोई बहुत व्यापक अंतर समाजिक और सांस्कृतिक तौर से हट कर देख नहीं सकते हैं. अब सबाल यह है क्या ये एक नए दायरे में बंगलादेश उन परिस्थितियों के साथ खड़ा होगा, जैसे एक वक्त श्रीलंका खड़ा हो गया और श्रीलंका को भी अपने पोर्ट्स चीन के हवाले करने दिये गए.

यानी चीन की विस्तारवादी नीति श्रीलंका से निकल कर बंगलादेश तक पहुंच चुकी है और इन्हीं परिस्थितियों में नेपाल भी चीन के साथ राजनीतिक और डिपलोमेटिक तरीके से करीब है. पाकिस्तान पहले से है. यानी बिलकुल नई परिस्थिति में अगर भारत की मौजूदगी को आप समझें तो इस वक्त सबसे ज्यादा मुश्किल हालात भारत के सामने इसलिए है क्योंकि भारत के इर्दगिर्द जितने भी पड़ोसी हैं चीन पर उसका प्रभाव है. वो मालदीव हो, वो श्रीलंका हो, अब वो बंगलादेश हो, वो नेपाल हो, वो पाकिस्तान हो, यहां तक की अफगानिस्तान के भीतर भी.

यानी पूरे सार्क देशों के साथ साथ तमाम जो भी देश आपको नजर आते हैं और इस दायरे के बाहर भारत के रिश्ते इस्राईल के साथ भी रहे और इरान के साथ भी रहे लेकिन हमास को लेकर अब इस्राईल और इरान दोनों आमने सामने खड़े हैं. तो भारत के पॉलिटिकल बैलेंस की जरुरत मौजूदा वक्त में जो अंतरराष्ट्रीय तौर पर है उसके साथ साथ बड़ा सवाल देश के भीतर का भी है. यानी देश के भीतर भी एक सहमती इस दौर में कम से कम तमाम राजनीतिक दलों में होनी चाहिए और इस देश के भीतर की सहमती ही तय करेगी कि अंतरराष्ट्रीय तौर पर भारत किस तरीके से डिपलोमेसी को साधे और इस मुश्किल हालात का सामना करें.

एक आखिरी सवाल. इन तमाम परिस्थितियों के बीच आर्थिक मौजूदगी और देश के भीतर की आसमानता ही कहीं न कहीं सत्ता और जनता के बीच एक बड़ी लकीर खिचती है, जो कमोवेश हर देश के भीतर नजर आया है और आ रहा है और बंगलादेश उस से अछुता नहीं है. जहां पर बंगलादेश की सत्ता और बंगलादेश की जनता इसके बीच के सरोकार आर्थिक तौर पर पूरे तरीके से कैसे डिरेल हो गए और कोई वीजन के साथ जनता के साथ खड़े हो पाने के स्थिति में सत्ता नहीं आ पाई और शेख हसीना के चुनाव को लेकर इसलिए अभी भी सवाल उठते हैं और उन सवालों का जवाब अवामी लीग दे नहीं पाती है इसलिए शायद अपने देश की जनता के साथ जुड़ने के सवालों का समधान वो करे या ना करे वो पांच साल के लिए तो तय है तो फिर ये मुश्किल हालात है.

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