हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की नवीनतम रिपोर्ट बताती है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियाद कमजोर होती जा रही है. वैश्विक आर्थिक संस्थाओं ने भारत की संभावित जीडीपी को लेकर जो अनुमान व्यक्त किए थे उनमें भी कटौती कर दी है. चुनाव विशेषज्ञ बता रहे हैं कि भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक बुनियाद पिछले वर्षों के मुकाबले और अधिक मजबूत हुई है, जबकि उसकी आर्थिक बुनियाद तो बेहद बेहद मजबूत हो गई है.
आर्थिक विशेषज्ञ बता रहे हैं कि भारत में सर्विस सेक्टर फैलने की जगह सिकुड़ने के खतरे से दो चार है और आर्थिक मंदी की आशंकाओं के मद्देनजर बड़ी संख्या में लोगों की नौकरियां छूटने वाली हैं. इधर, भाजपा के सदस्यों की संख्या बढ़ती ही जा रही है. लोगों को नौकरियां बहुत कम मिल रही हैं जबकि भाजपा की सदस्यता लगे हाथ मिल जा रही है. मोदी जी के ‘विजन’ से अब तो ऐसा है कि एक मिस्ड कॉल दो, भाजपा की सदस्यता आपके द्वार तक पहुंच जाएगी. ऐसे ही वह थोड़े ही दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है.
हालांकि, देश के सर्विस सेक्टर का हाल बुरा है. जब सर्विस सेक्टर फैलने की जगह सिकुड़ने के खतरे से जूझ रहा हो और नौकरियां खत्म होने की आशंका से बाजार आक्रांत हो तो नए रोजगारों के सृजन की बात ही क्या करनी ! रिपोर्ट्स बताते हैं कि भारत में गुणवत्ताहीन शिक्षा लेकर डिग्रीधारियों की जो फौज अकुशल मजदूर की शक्ल में रोजगार के बाजार में आ रही है वह रोजगार प्रदाताओं के किसी काम की साबित नहीं हो रही है, सिवाय बोझा ढोने और एक डंडा लेकर सिक्युरिटी गार्ड बनने के. तो, कंपनियों का रोना है कि जो थोड़े बहुत रोजगार हैं भी, उनके लायक लोग उन्हें नहीं मिल पा रहे.
2014 में चुनाव जीतने के बाद नरेंद्र मोदी सरकार की देश भर में ‘कौशल विकास केंद्रों’ को स्थापित कर युवाओं को बड़े पैमाने पर कौशलयुक्त बनाने की योजना असफल होकर जमीन सूंघ रही है. आज कल मोदी खुद या उनके कोई सिपहसालार किसी भी राजनीतिक रैली में कौशल विकास केंद्रों की बातें करते सुनाई नहीं देते.
वे तो रोजगार की बातें भी नहीं करते, यहां तक कि अपने भाषणों में ‘रोजगार’ शब्द का उच्चारण करने से भी बचते हैं. बोलने के लिये शब्दों की कमी थोड़े ही है. एक से एक शब्द हैं जिनके सतत उच्चारण से तालियां भी मिलती हैं, जयजयकार भी मिलता है. जैसे, राष्ट्र, पाकिस्तान, घुस कर मारा, औकात बता दिया, जय श्रीराम, वंदे मातरम, हिंदुत्व, मां भारती, तीन सौ सत्तर आदि. बीच बीच में परिवारवाद, भ्रष्टाचार, दुनिया लोहा मानने लगी है आदि कुछ शब्द भी अनिवार्य रूप से उच्चरित होते हैं.
अर्थशास्त्रियों का कहना था कि भारत के बाजार को अगर उत्पादन, क्रय शक्ति और रोजगार का सामंजस्य बिठाना है तो देश में औसतन दो करोड़ नौकरियां प्रतिवर्ष सृजित करनी होंगी. अर्थशास्त्रियों के इसी कथन को भारतीय जनता पार्टी के थिंक टैंक ने लपक लिया और नरेंद्र मोदी अपने पहले राष्ट्रीय चुनावी अभियान में दो करोड़ नौकरियां प्रतिवर्ष देने का वादा करते देश भर में घूमने लगे.
इन वादों का जो कारुणिक हश्र हुआ उसने भारतीय अर्थव्यवस्था को उम्मीदों के उजाले से नाउम्मीदी के अंधेरों की ओर धकेलने में अपनी बड़ी भूमिका निभाई. देश आर्थिक रूप से कमजोर होता गया जबकि भारतीय जनता पार्टी आर्थिक रूप से मजबूत होती गई. रिपोर्ट्स बताने लगे कि राजनीतिक फंडिंग, थोड़े साफ शब्दों में कहें तो कारपोरेट की राजनीतिक फंडिंग का अधिकतम हिस्सा भाजपा की झोली में जाता रहा और सितम यह कि देश के लोग यह सवाल भी नहीं पूछ सकते कि किस कारपोरेट घराने ने किस राजनीतिक पार्टी को कितना फंड दिया. कानून ही बना दिया गया कि वे देंगे, हम लेंगे, लेकिन आप कुछ पूछ नहीं सकते.
यह रहस्य ही है कि अंध निजीकरण और कारपोरेट की राजनीतिक फंडिंग के बीच क्या और कैसा रिश्ता है ? यह भी प्रायः रहस्य ही रह जाता है कि सरकार द्वारा किसी सार्वजनिक संपत्ति की बिक्री और किसी खास कारपोरेट घराने द्वारा उसकी खरीद के दौरान जिस प्रक्रिया को अपनाया जाता है, वह कितनी स्वस्थ या अस्वस्थ है ?
भारत की आर्थिक सेहत के गिरने और किसी खास राजनीतिक दल की आर्थिक सेहत की तंदुरुस्ती में चमत्कारिक वृद्धि तो नई सदी के बड़े रहस्यों में एक है. देश की आर्थिक बुनियाद कमजोर हो रही है, ऊपर के कुछ प्रतिशत लोगों को छोड़ बाकी तमाम देशवासियों की आर्थिक सेहत गिरती जा रही है लेकिन भाजपा की राजनीतिक बुनियाद आज भी इतनी मजबूत है कि कोई बड़ा राजनीतिक उलटफेर ही इसे आगामी आम चुनाव में सत्ता से बाहर कर सकता है.
इतना सेलीब्रेटेड नेता, मातृ संगठन आरएसएस का इतना सुव्यवस्थित थिंक टैंक, दुनिया की सबसे अधिक सदस्य संख्या का दम भरने वाली राजनीतिक पार्टी, फिर ऐसा क्यों है कि इस निर्धन किंतु विशाल देश की जटिल आर्थिक संरचना को मजबूत कर आगे ले जाने में ये तमाम तत्व असफल रहे ?
क्या इसका कारण यह है कि इन सबों से सांस्कृतिक मुद्दों, मसलन हिंदुत्व, हिंदू राष्ट्र, राम मंदिर, ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा जन्मभूमि की तथाकथित मुक्ति आदि पर चाहे जितने लेक्चर सुन लो, राष्ट्र आराधन, राष्ट्र पर बलिदान, राष्ट्र का गौरव, मां भारती के पुराने गौरव की पुनर्स्थापना आदि आदि पर चाहे जितनी प्रेरणा ग्रहण कर लो, इनसे नौकरियां नहीं ले सकते आप, इनसे देश की अर्थव्यवस्था के सही साज संभाल की उम्मीद नहीं कर सकते आप, क्योंकि राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय आर्थिक चुनौतियों के संदर्भ में इनका चिंतन ही दरिद्र है.
वैसे भी, भाजपा के पथ प्रदर्शक, प्रेरक मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ मूलतः अपने विशिष्ट सांस्कृतिक चिंतन के लिए जाना जाता है. करोड़ों निर्धन देशवासियों की आर्थिक मुक्ति के संबंध में इसका जो ढीला ढाला सा आर्थिक चिंतन है, वह समय की शिला पर व्यावहारिक और प्रभावी साबित नहीं हो सका. तभी तो, संघ के दुलारे कहे जाने वाले लेकिन मोदी की आंखों के कांटा कहे जाने वाले नितिन गडकरी ने अभी पिछले दिनों कहा, ‘देश की जो भी आर्थिक वृद्धि हो रही हो लेकिन आम लोग और गरीब ही होते जा रहे हैं.’
यही नहीं, संघ के बड़े ओहदेदार दत्तात्रेय होसबोले साहब ने भी हाल में ही कहा, ‘देश में बढ़ती आर्थिक असमानता चिंताजनक है.’ तो, गडकरी और होसबोले की बातों के मर्म को समझें तो समझ बनती है कि देश के आर्थिक विकास के अधिकतम लाभ ऊपर के ही कुछ लोगों की जेब में जाते रहे हैं. तो, ये बड़े लाभार्थी कौन हैं ? देश के आर्थिक निर्णयों में उनकी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भूमिका कैसी है ?
क्या यह ऐसी है कि सर जी, आपलोग मंदिर-मस्जिद, कश्मीर-पाकिस्तान करो, राष्ट्र आराधन की प्रेरणा बांटों, तिरंगा यात्रा आदि करो-करवाओ, लोगों को जम कर भरमाओ, विश्व गुरु, विश्व नेता, विश्व शक्ति आदि के सपने दिखाओ; बात रही रुपए पैसे के हिसाब की तो टेंशन मत लो. हम हैं न, हमारे गुर्गे आपके सलाहकार बन कर आपका सारा बोझ अपने माथे पर ले लेंगे, वे नीतियां बताएंगे, आप निर्णय की घोषणा करना. आप राज करो, करते रहो, हम देश के संसाधनों पर कब्जा करते रहेंगे, करते जाएंगे. आप भी खुश, हम भी खुश.
नई सदी में दुनिया के बहुत सारे देशों में ‘नेशन फर्स्ट’ टाइप की राष्ट्रवादी नारेबाजी करती पार्टियों का बोलबाला बढ़ा है. यूरोप के आधे दर्जन से अधिक देश इस राजनीतिक फेनोमिना से रूबरू हैं. फिलीपींस, ब्राजील आदि तो इस टाइप के बुखार से इतने ग्रस्त कर दिए गए कि वहां वैचारिक विरोध का कोई स्पेस नहीं रहने देने की तानाशाही पर नेता लोग उतर गए. लेकिन, एक भी राजनीतिक दल, एक भी नेता इस नारेबाजी के साथ अपने देश का आर्थिक उद्धार नहीं कर सका. एक भी उदाहरण ऐसा नहीं है कि ‘नेशन फर्स्ट’ की बातें करता कोई देश आर्थिक विकास का कोई पैमाना गढ़ सका, सब के सब आर्थिक कसौटी पर फेल ही हुए.
नतीजा, आज पूरी दुनिया आर्थिक आशंकाओं से ग्रस्त है. नई सदी के अधिकतर नेताओं ने शोशेबाजी अधिक की लेकिन अपने अपने देशों की अर्थव्यवस्था को संभालने की योग्यता नहीं दिखा पाए. रूस और यूक्रेन का युद्ध भी इसी अतिराष्ट्रवाद की उपज है, जो आज पूरी दुनिया के संकटों को बढ़ा रहा है, वे दोनों स्वयं तो बर्बाद हो ही रहे हैं.
‘सो कॉल्ड अल्ट्रा नेशनलिस्ट’ जमातों ने आर्थिक चिंतन और आर्थिक प्रबंधन में जो दरिद्रता दिखाई है उसने पूरी दुनिया में बेरोजगारी को बढ़ाया है, महंगाई को बेकाबू हो जाने दिया है, उत्पादन और क्रयशक्ति के संतुलन को पटरी से उतार दिया है और नतीजे में आम लोगों को त्राहि त्राहि करने पर विवश कर दिया है. भारत इसका एक उदाहरण है.
तुर्रा यह कि इस बात की बहुत अधिक संभावना है कि 2024 में भी ‘आएगा तो मोदी ही…’..क्योंकि, वे नौकरी पैदा करने में, लोगों की क्रयशक्ति बढ़ाने में, बाजार को गतिशील बनाने में भले ही फिसड्डी साबित हुए, वोटों की फसल पैदा करने में और उसे कुशलता पूर्वक काटने में उन्होंने अपनी भारी महारत साबित की है. वोट उपजाने में उस्ताद लेकिन नौकरी उपजाने में फेल नेताओं की जमात ने देश और दुनिया को आर्थिक दुर्गति के जिस मुहाने पर ला खड़ा किया है, उसका कहर तो झेलना ही होगा. ऊपर के कुछ प्रतिशत लोगों को छोड़ कर सबको झेलना होगा.
बावजूद इसके कि कमोबेश पूरी दुनिया में किसी भी तरह के आंदोलन के खिलाफ स्थापित सत्ताओं की असहनशीलता बढ़ती जा रही है, प्रतिरोध की आवाजों का बुलंद होते जाना उम्मीद जगा रहा है. महिला अधिकारों के लिए ईरान में उग्र होता आंदोलन हो या नागरिक अधिकारों के हनन के खिलाफ हांगकांग में लाखों लोगों का सड़क पर उतरना हो, जनजीवन पर कारपोरेट शक्तियों के सख्त होते शिकंजे के खिलाफ यूरोपीय देशों में जनभावनाओं का उभरना हो या श्रीलंका में अर्थव्यवस्था की बदहाली पर नागरिकों की उग्र प्रतिक्रिया हो, प्रायः सबमें देखा गया कि विरोध प्रदर्शनों को दबाने के लिए सत्ता ने निर्मम तरीके अपनाए लेकिन विरोध के स्वर उग्र से उग्रतर ही होते गए.
यह नई सदी में आकार लेती सत्ता-संरचना और नागरिकों के मानवीय अधिकारों के बीच बढ़ते अंतर्विरोध का भी उदाहरण है. कोरोना पूर्व के दौर में यूरोप के अधिकतर देशों में सार्वजनिक प्रतिरोध की जो आग सुलगी थी उसे महामारी की अफरातफरी ने भले ही अव्यवस्थित कर दिया, लेकिन, जैसी कि खबरें आती रहती हैं, बेचैनियां अपनी अभिव्यक्ति के रास्ते फिर से तलाश रही है.
वैचारिक उहापोह से घिरी यूरोप की जनता आत्ममंथन की प्रक्रिया से गुजर रही है. यूरोपीय यूनियन में आ रहा बिखराव इसी उहापोह का नतीजा है, लेकिन बात जब नागरिकों के मानवीय हितों की आती है तो आधुनिक इतिहास में यूरोप पूरी दुनिया में एक उदाहरण प्रस्तुत करता रहा है. संदेह नहीं कि भीतर ही भीतर सुलगती आग की धधक जल्दी ही तीव्र होगी और यूरोप की राजनीति इसके प्रभावों से अछूती नहीं रहेगी.
भले ही आज इटली की राजनीतिक उलटबांसी ने दुनिया को हैरत में डाल दिया है, लेकिन वहां के हालिया चुनाव परिणाम बताते हैं कि कोई भी राजनीतिक शक्ति, भले ही वह तकनीकी तौर पर सत्ता में आ जाए, निर्णायक सत्ता हासिल नहीं कर पा रही. स्पष्ट है कि इटली वैचारिक संकटों से दो-चार है, वहां का आर्थिक संकट बढ़ता ही जा रहा है और किसी पतली रस्सी पर नट की तरह चलती वहां की वर्तमान दक्षिणपंथी सत्ता अपने स्थायित्व को लेकर कतई मुतमइन नहीं हो सकती.
उधर, दिलचस्प स्थिति लैटिन अमेरिकी देश ब्राजील की है, जहां राष्ट्रपति बोलसोनारो अपनी आसन्न चुनावी पराजय से पार पाने के लिए अपने समर्थकों से आह्वान कर रहे हैं कि वे अमेरिकी नेता ट्रंप के समर्थकों की तरह संवैधानिक प्रावधानों की धज्जियां उड़ाते सड़कों पर उतर जाएं. बोलसोनारो की विभाजनकारी राजनीति और लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने वाले उनके कार्यकलापों ने वहां व्यापक जन असंतोष को बढ़ावा दिया है और प्रथम चरण के राष्ट्रपति चुनावों में वाम रुझान वाले नेता लूला डा सिल्वा ने भारी बढ़त हासिल की है.
ब्राजील सहित लैटिन अमेरिका के अन्य देशों, मेक्सिको, अर्जेंटीना, कोलंबिया, पेरू आदि में राजनीतिक नीतियों के कारण आर्थिक असमानता, बेरोजगारी और भुखमरी इतनी बढ़ गई है कि जनता में त्राहि-त्राहि मची है. जन प्रतिरोध उन देशों में सुनामी की शक्ल अख्तियार करता जा रहा है. नतीजा, जनता वहां ऐसे नेताओं की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देख रही है जो जन-सापेक्ष नीतियों की वकालत करते रहे हैं. ब्राजील में लूला डा सिल्वा की चुनावी बढ़त इन्हीं उम्मीदों का राजनीतिक परिणाम है.
हालांकि, अशिक्षा और धार्मिक-जातीय खांचों में बंटी दक्षिण एशियाई जनता की आंदोलन धर्मिता प्रायोजित राजनीतिक कुहासे में कहीं दबी सी लग रही थी, लेकिन श्रीलंका में हुए जन आंदोलन ने एक नई राह दिखाई है और इन देशों की राजनीतिक सत्ताओं के चेहरों पर भय और परेशानी की रेखाएं साफ देखी जा सकती हैं. चाहे वे भारत के नरेंद्र मोदी हों या पाकिस्तान के शाहबाज शरीफ, आर्थिक नीतियों की विफलताओं ने उनकी जनता में बेचैनियों का ग्राफ जितना बढ़ाया है, वह हालिया वर्षों में सबसे अधिक है.
इतिहास में ऐसे विरल उदाहरण होंगे कि किसी आंदोलन की कमान पूरी तरह महिलाओं के हाथों में हो और क्रूर दमन की परवाह किए बिना वे अपनी जान हथेली पर लेकर सड़कों पर उग्र प्रदर्शन कर रही हों, ईरान ऐसे ही दौर से गुजर रहा है. स्त्री अस्मिता के लिए ईरानी महिलाओं का आंदोलन इस तथ्य की ओर स्पष्ट संकेत कर रहा है कि वहां धार्मिक तानाशाही का दौर चिर काल तक नहीं बना रह सकता.
नई सदी ने जिस सत्ता संरचना को मजबूती दी है उसका आधार मुख्यतः कारपोरेट का समर्थन, सांप्रदायिक-नस्लीय विभाजन और प्रायोजित मीडिया का अनवरत प्रशस्तिगान है. लेकिन, इस जटिल शिकंजे को तोड़ने के लिए वंचित, शोषित और प्रताड़ित जनता की आवाज ऊंची होती जा रही है, प्रतिरोध सघन होता जा रहा है और आर्थिक विचारों के मामले में दरिद्र राजनीतिक जमातों की जड़ें हिलने लगी हैं.
आने वाले वर्षों और दशकों में हम दुनिया के अनेक देशों में व्यापक राजनीतिक-आर्थिक परिवर्तनों के साक्षी बनेंगे. जाहिर है, भारत भी इस फेहरिस्त में शामिल है, जहां बेरोजगार युवाओं और वंचित जमातों की आंदोलनधर्मिता को षड्यंत्रपूर्वक कुंद करने की तमाम कोशिशें की जा रही हैं. लेकिन, इतिहास बताता है कि भारतीय लोग जब जगते हैं तो पूरी दुनिया के लिए उदाहरण प्रस्तुत करते हैं. वैचारिक स्तरों पर कुंठित कर दी गई वंचितों शोषितों की जमातें जब स्वयं की अस्मिता को पहचानने की कोशिश करेंगी तो तमाम षड्यंत्र पराजित होंगे.
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