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गरीबी की कोख से जन्मी मजबूरी इंसानियत का भी भक्षण कर लेती है

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गरीबी की कोख से जन्मी मजबूरी इंसानियत का भी भक्षण कर लेती है
गरीबी की कोख से जन्मी मजबूरी इंसानियत का भी भक्षण कर लेती है
राम अयोध्या सिंह

गरीबी से बढ़कर कोई क्रुर नहीं, कोई हत्यारा नहीं, कोई दुश्मन नहीं, कोई मजबूरी नहीं, जिंदगी का कोई सबक नहीं, और न कोई शिक्षक होता है. गरीबी सबसे बड़ा अपहरणकर्ता है, जो हमारा बचपन, जवानी और बुढ़ापा भी छीन लेती है. न जाने हमारे कितने सपने, कितने अरमान और कितनी हसरतें गरीबी के नाम बलि चढ़ जाते हैं, या चढ़ा दिए जाते हैं.

हमसे हमारा बचपन के खेल, हंसी-खुशी, जवानी की उमंगें, उत्साह और ऊर्जा भी थोक के भाव हमसे गरीबी छीन लेती है. हमारे व्यक्तित्व को विखंडित, कुंठित और विकृत बना देती है. पग-पग पर हमें गरीबी मजबूर करती रहती है. हमें वही करने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जिसे सामान्य रूप में हम नहीं करते, और वह करने की मनाही होती है, जिसे हम दिल से करना चाहते हैं.

गरीबी में हम न तो खुलकर हंस सकते हैं और न ही रो सकते हैं. गा भी नहीं सकते. हमारे मनोभावों को गरीबी प्रतिबंधित करती है. हमारी क्षमता को इस कदर न्यूनतम पर लाकर खड़ा कर दिया जाता है कि हम अंततः समझ ही नहीं पाते कि हमारी वास्तविक क्षमता है क्या? हमसे लोग न तो खुलकर मिलना चाहते हैं और न ही बातें करना चाहते हैं. उपेक्षा और अपमान का दंश सहते-सहते हम एक उपेक्षित और अपमानित जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त हो जाते हैं. उपेक्षा और अपमान ही हमारी जिंदगी का आवश्यक अंग बन जाते हैं. अंततः हम एक कुंठाग्रस्त जीवन जीने के लिए अभिशप्त हो जाते हैं.

गरीबी हमें अपने मनोभावों को सही ढंग से अभिव्यक्त भी नहीं करने देती. कहना चाहते कुछ और हैं और कह कुछ और देते हैं. घूटघुटकर जीना ही हमारी नियति बन जाती है. हम पूरी जिंदगी यह समझ नही पाते कि हमारा कौन अपना है, और कौन पराया. रिश्तों पर द्वंद और संदेह के घने बादल छाए रहते हैं. मन से हम टूट जाते हैं, और यही टूटन हमारे व्यक्तित्व के साथ हमेशा के लिए जुड़ जाती है. कुछ भी सही-सलामत नहीं बचता. टूटा-फूटा घर, टूटे बर्तन, फूटी किस्मत और टूटे हम खुद. जिंदगी भर टूटते रहना ही हमारी जिंदगी बन जाती है. जिंदगी का रोना-धोना, उसकी मजबूरी, उसकी तड़प, उसकी मनोव्यथा, उसकी सिसकी और उसकी उठा-पटक तो देखते रहते हैं, पर कभी उसे हंसते-मुस्कुराते, इतराते, इठलाते, झूमते-गाते और ठहाके लगाते कभी भी नहीं देखा. हमेशा ही एक छुईमुई और लिजलिजी सी चीज बनकर रह जाती है.

जीवन के सारे शौक, सपने, हसरतें और उल्लास मजबूरियों के तहखाने में कैद होकर रह जाते हैं. पूरी जिंदगी इन मजबूरियों के साथ ही गुजारना पड़ता है. मजबूरियाँ हमारी शौक नहीं, बल्कि बलात लाद दिया गया ऐसा बोझ है, जिसे हम न चाहते हुए भी ढोने के लिए मजबूर होते हैं. हम अपनी चाहतों और खुशियों को हर अगले दिन के लिए सिर्फ टालते ही रह जाते हैं, पर वह दिन जिंदगी में कभी आता ही नहीं. हमारी भी इच्छा होती है कि खुलकर गाऊँ, पर आवाज गले में ही अटक जाती है, और घों घों कर विलीन हो जाती है. हल्की हंसी और मुस्कुराहट के लिए भी कितना परिश्रम करना पड़ता है, यह गरीब को छोड़ और कौन जान सकता है.

चाहकर भी कभी किसी को कुछ दे नहीं पाया. आखिर देता भी क्या ? जब लेने से ही फुर्सत नहीं, तो देता क्या ? सिर्फ चाहने से तो कुछ होता नहीं है. चाहने से रोटी तक तो कभी-कभी नसीब नहीं होती, तो और किस चीज की चाहत करूं ? बड़ों के दुःख-तकलीफ और आंसू तो हर कोई न सिर्फ देखता है, बल्कि उसे दूर करने और पोंछने का भी भरसक प्रयास करता है. पर, गरीब के दुःख और आंसू भला कब किसने देखे और पोंछे हैं ? लोग तो मजबूरी में भी फायदा उठाने से नहीं चुकते.

गरीबी की कोख से जन्मी मजबूरी इंसानियत का भी भक्षण कर लेती है. वह एक चलता-फिरता काठ का पुतला बना जाता है, जिसके पास न तो कोई जीवन मूल्य होते हैं, न कोई आदर्श, न सिद्धांत और न ही कोई मानवीय संवेदना. अनवरत नीरसता की जिंदगी जीते-जीते वह खुद ही इतना शुष्क, ठंडा और नीरस हो जाता है कि लोग उसे देखकर किनारा कर लेते हैं. रिश्तेदार भी उसे रिश्तेदार मानने और कहने से इंकार कर देते हैं. कोई प्यार से कभी कोई बोल भी बोल दे, यह इच्छा भी उसकी मर जाती है.

न चाहते हुए भी वह दया का पात्र बन जाता है, पर दया करता कोई भी नहीं. दया और सहानुभूति भी उसे तभी मिलती है, जब उसे शोषण के लायक समझा जाता है. पूरा जीवन ही उसका खराद पर चढ़ा होता है. उसका अपना कोई रूप या स्वरूप नहीं होता. वह वही होता है, जैसा दूसरे गढ़ते हैं. वह बस मिट्टी का माधो होता है, जिसे दूसरे ही गढ़ते हैं. अपना गढ़ा उसका कुछ भी नहीं होता. गरीबी और मजबूरी का रिश्ता चोली और दामन का है. दोनों एक-दूसरे से चाहकर भी अलग नहीं हो सकते. गरीबी और मजबूरी की जिंदगी से बड़ा अभिशाप और कुछ नहीं.

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