भाजपा के आईटी सेल, गोदी मीडिया और खुद अफवाह फैलाने वाली केंद्र सरकार के कारण पिछले 5 साल में भारत की जनता वाकई बिल्कुल बंट गई है और इसलिए उसका जमीर भी मर गया है. सड़क पर सिर्फ चलती फिरती लाशों को देखकर मनुष्य नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इस निर्जीव शरीर में आत्मा नहीं है.
यह लोग सरकार के कठपुतली और खिलौने बन गए हैं. सरकार इनके शरीर से जितना भी खून चूस ले, जितना भी जुल्मो सितम कर ले, यह बेहया लोग कहीं भी प्रतिकार या विरोध नहीं करेंगे. कारपोरेट घराने और सभी भाजपाई नेता जनता के इसी डर का लाभ उठा रहे हैं.
जनता का शोषण हो रहा है और कोई भी विरोध नहीं कर रहा है. धर्म, जाति के नाम पर बंटी हुई जनता लाशों के समान अपने घरों में शहरों, कस्बों में बैठी हुई है और चुपचाप गुलामों की भांति चंद हजार की नौकरी कर रही है.
पिछले 7 साल से काली अंग्रेज सरकार ने देशवासियों पर इतने जुल्म किए, दर्जनों जनविरोधी फैसले किए, फिर भी अजगर की भांति जनता निर्जीव अपने बिल में पड़ी हुई है. सब कुछ लुटा कर केंद्र की कारपोरेट सरकार ने मजदूरों के सारे 27 कानून खत्म कर दिये पर क्या मजदूरों की कोई हड़ताल दिखी ?
भारत की सर्वश्रेष्ठ तीन यूनीवर्सिटियों जेएनयू , एएमयू और जामिया के छात्रों का भीषण दमन हुआ, हर यूनीवर्सिटी मे फीस बहुत बढा दी गयी पर छात्रों का कोई बडा आंदोलन हुआ ?
एक, एक कर के सारे सार्वजनिक उपक्रम, रेलवे सहित, जिनमें कहते थे कि बहुत तगडी यूनियन हैं, बेची जा रही हैं पर कहीं कोई विरोध भी दिखाई नहीं दे रहा है.
केवल जो बिक रही हैं उन का ही छुटपुट विरोध दिखता है, बाकी सोई हुई हैं, कोई सामूहिक विरोध नहीं.
सारे स्थायी पद खत्म कर के ठेके की नौकरी आ गयी. ठेके की नौकरी केवल गुलामी का दूसरा नाम है, जिसमें नौकरी की कोई गारन्टी नहीं, कोई सुविधा नहीं, भारत के संविधान में दिये गये समान कार्य का, समान वेतन के अधिकार को हवा मे फाड़ कर उडा दिया गया.
कही किसी युवा आक्रोश की कोई खबर है ? कारण कि क्रिकेट, छोकड़ी और मोबाइल फोन, पिज़्ज़ा बर्गर के चकाचौंध में फंसे युवा अपना शोषण करवाने के लिए तैयार हैं, पर आंदोलन करने को तैयार नहीं है. मरी हुई नपुंसक जनता जातियों में बंटी हुई है और सिर्फ दहेज लेने में अपनी बहादुरी दिखाती है.
सारे सिविल कर्मचारियों की पेंशन, जीपीएफ आदि खत्म हो गये, पर सरकार बिल्कुल सामान्य रूप से चल रही है, किसी को अपने भविष्य की चिंता नही है. आज के युवा इतने लापरवाह और इतने खत्म हैं कि वह फुटपाथ पर ठेला लगाकर सामान बेचने को तैयार हैं, लेकिन सरकार के खिलाफ गोलबंद होने या सरकार की सत्ता को हटाने के लिए एकजुट नहीं हो रहे हैं.
कहीं नौकरी नहीं मांगते हैं, बस चाय बेचने का ढाबा खोल लेते हैं. ऐसे समाज और देश में किसान ने एकजुट हो कर इतने लम्बे समय से, तमाम दिक्कतों और सारे विरोधों के बाबजूद 700 से ज्यादा शहादत दी है.
किसान शब्द सुनते ही भारत के गांव याद आते हैं, एक आम पढ़ा लिखा शहरी व्यक्ति गांव के निवासियों को अनपढ़ गंवार कहता है, पर वर्तमान किसान आन्दोलन ने अच्छे अच्छे बुध्दिजीवियों की आंख खोल दी हैं. वे न केवल अपने अधिकारों के लिये बल्कि हम सब के लिये आंदोलनरत हैं.
यह एक असाधारण कार्य है. कृषि कानूनों के तीसरे कानून को देखें, जिस में जमाखोरी के कानून को ही खत्म कर दिया गया है. अब कभी प्याज, कभी दाल तो कोई अन्य चीज बाजार से गायब कर दी जाती है, केवल जमाखोरों के कारण और यह सभी जमाखोर व्यापारी ज्यादातर संघी/भाजपा वाले ही हैं.
जब यह कानून ही खत्म हो रहा है तो भविष्य की कल्पना आप कर सकते हैं. आने वाले दिनों में लोग अनाज की कमी से भूखे मर जाएंगे, लेकिन सरकारी प्रचार माध्यमों से भ्रमजाल का शिकार होकर जाति, धर्म में ऐसे बंटे हैं कि भविष्य का भयंकर अंधकार नजर नहीं आ रहा है.
उनके परिवार वाले भी अनाज के अभाव में भूखे मर जाएंगे, लेकिन वह सारे लोग सरकार के अंधभक्त बने हुए हैं. अगर अपने लिये भी नही लड़ सकते तो कम से कम आप के लिये लड़ने वालों का विरोध तो न कीजिये. मनुष्य होने का बोध जगाइए तो साथ देने की हिम्मत भी आ जाएगी.
- तबरेज शम्स
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