चन्द्रभूषण
राहुल गांधी ने टीवी रिपोर्टर मौसमी सिंह को एक घपलात्मक सवाल के जवाब में भाजपा की टी-शर्ट पहनकर आने की सलाह दी. जवाब में एक ट्वीट करके उन्होंने राहुल गांधी को राजनीतिक अनपढ़ जैसा कुछ बताया और अपने चैनल के अलावा यू-ट्यूबर पत्रकार बिरादरी की भी तारीफ पाई. कल्पना करें, ऐसा ही ट्वीट वे नरेंद्र मोदी या अरविंद केजरीवाल के खिलाफ करती. इससे बहुत कम विरोध पर कुछ पत्रकारों की नौकरी जाते हम देख चुके हैं, लेकिन मौसमी का दूर तक कुछ बिगड़ते मैं नहीं देख रहा.
बहरहाल, इस प्रकरण से मुझे अपनी नौकरी के शुरुआती दिनों की याद आई, जब बसपा नेता कांशीराम ने अपने घर पर जमावड़ा लगाए पत्रकारों को अकारण पीट दिया था. कोई सवाल भी उनसे नहीं पूछा गया था. यूपी में उनकी सरकार नहीं बन पा रही थी, उसी फ्रस्ट्रेशन में घर से निकले और मारने लगे. उनके पीछे-पीछे उनके पार्टी कार्यकर्ताओं के भी हाथ चलने लगे और आशुतोष समेत कई पत्रकारों को ठीक-ठाक चोटें आ गईं. बाद में बीएसपी ने इस पर औपचारिक माफी भी नहीं मांगी और इसे दलित दावेदारी के ही एक नए आयाम की तरह प्रचारित किया.
संयोग ऐसा कि उस घटना के समय ‘अमर उजाला’ में संपादकीय टिप्पणी लिखने की जिम्मेदारी मुझपर थी. मेरे प्रभारी संजीव क्षितिज अपनी बेटी के जन्म के कारण ऑफिस नहीं आ रहे थे और दफ्तर के शीर्ष व्यक्ति, बिजनेस अखबार ‘कारोबार’ के संपादक राजेश रपरिया भी उस दिन शायद कहीं और थे. किस्साकोताह यह कि जीवन का सबसे गुस्से वाला संपादकीय मैंने उसी दिन लिखा, जिसमें कहा कि ये नेता हम पत्रकारों को न जीने देते हैं, न मरने देते हैं. चाहते हैं कि हम इनके पाप धोएं, साथ में इनके कारिंदों की मार भी खाएं. घटना का समय ? सन 1996 का अंत या 1997 की शुरुआत.
अगले दिन संभवतः अखबार पर बीएसपी का दबाव पड़ा और संजीव जी को ऊपर से बातें भी सुननी पड़ी. लेकिन वे आए तो मुझसे इतना ही कहा कि संपादकीय टिप्पणी लिखते वक्त हमें भावना में बहना नहीं चाहिए. अपनी लिखाई वाली रात मैंने 20 मिनट के ‘आजतक’ प्रोग्राम में एसपी सिंह को भी मेरा वाला ही स्टैंड लेते देखा था. साथ ही यह कहते हुए कि वे चुप नहीं बैठेंगे, कांशीराम की इस दबंगई का जहां तक हो सकेगा, विरोध करेंगे. लेकिन एसपी का कमाल यह था कि वे जितने आक्रोश में कोई बात कहते थे, उतनी ही सहजता से उससे हट भी जाते थे. बाद में एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि इस मामले में आगे जाने का मतलब था किसी का मोहरा बनना.
इस प्रकरण के बाद राजनेताओं द्वारा मीडिया पर हमले और पत्रकारों के उनका मोहरा बन जाने के कितने ही मामले देखे, लेकिन ऐसे मामलों में सख्त स्टैंड लेते किसी को नहीं देखा. यहां बताना जरूरी है कि नेताओं की मार खाने वाला मीडिया का हिस्सा अक्सर कोई और होता है और उनकी दलाली करके मजा मारने वाले मीडियाकर्मी कोई और ही होते हैं. यह हकीकत बाहर के लोग नहीं जानते, लिहाजा मीडिया से घृणा का शिकार भी अक्सर वही लोग होते हैं, जो मामूली पगार पर किसी धूर्त लाला की गुलामी करते हैं, साथ में लुटेरे नेताओं के गुंडे कार्यकर्ताओं की मार भी खाते हैं.
हालिया मामले पर आएं तो राहुल गांधी के बारे में इतना ही कहना है कि अभी वे देश के सबसे कद्दावर राजनेता हैं और उन्हें याद रखना चाहिए कि चंद्रमा पर ग्रहण हमेशा ऐन पूर्णिमा के दिन ही लगता है. यह भी कि संघी राजनीति अपने जन्मकाल से चरित्र हनन पर ही आधारित है और बड़ी पूंजी का टहलुआ बड़ा मीडिया चोट खाए नाग की तरह उन्हें डंसने को उछल रहा है. ऐसे में मीडिया से उनके रिश्तों का शत्रुतापूर्ण होना स्वाभाविक है. लेकिन उससे संसर्ग के दौरान उन्हें लगातार संयत और टैक्टफुल रहना चाहिए. फासिस्ट तानाशाही के खिलाफ एक बड़ी लड़ाई भारत में चल रही है, जो आगे और तीखी होने वाली है. देश का थोथा लिबरल तबका इसे देख ही नहीं रहा, सो ‘राहु’ बनने का उतावलापन उसी में सबसे ज्यादा है.
Read Also –
भारत-मालदीव विवाद: क्या सोशल मीडिया विदेश नीति को चला रहा है ?
गरीबों के घरों पर दहाड़ने वाला बुलडोजर और गोदी मीडिया अमीरों के घरों के सामने बुलडॉग क्यों बन जाता है ?
अत्यंत महत्वपूर्ण ख़बर जिसे इंडियन मीडिया ने मार डाला
पुंसवादी मोदी का पापुलिज्म और मीडिया के खेल
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]