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एक वोट लेने की भी हक़दार नहीं है, मज़दूर-विरोधी मोदी सरकार

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एक वोट लेने की भी हक़दार नहीं है, मज़दूर-विरोधी मोदी सरकार
एक वोट लेने की भी हक़दार नहीं है, मज़दूर-विरोधी मोदी सरकार
‘चूंकि मज़दूरों कि मौत का कोई आंकड़ा सरकार के पास मौजूद नहीं है, इसलिए उन्हें मुआवजा देने का सवाल ही पैदा नहीं होता.’

14 सितम्बर, 2020 को संसद में बोलते हुए, तत्कालीन केन्द्रीय श्रम एवं रोज़गार मंत्री संतोष गंगवार.

कितना क्रूर बयान है ये !! बहुत विकराल संवेदनहीनता, क्रूरता और अमानवीयता चाहिए मुंह से ये अल्फ़ाज़ निकालने के लिए, जिसे सुनकर पूरा देश सन्न रह गया था. परिणाम सोचे बगैर घोषित सख्त लॉकडाउन के बाद, अनंत यात्रा को मज़बूर मज़दूर, हर रोज़ चलते, बिलखते, मरते गए. देश के लोग जहां भी संभव हुआ, उनके लिए लंगर, पानी के इंतज़ाम कर रहे थे लेकिन मोदी सरकार ने कुछ नहीं किया. कोई सरकार इतनी निष्ठुर, इतनी संवेदनहीन हो सकती है !! हालांकि, सरकार ने ख़ुद स्वीकार किया कि एक करोड़ से भी ज्यादा मज़दूर, लॉक डाउन के बाद अपने घरों को लौट जाने को विवश हुए.

‘नरेंद्र मोदी सरकार ने, ज़रूरत के वक़्त अर्थ व्यवस्था और लोगों दोनों को धोखा दिया है’, मंत्री के बयान के अगले ही दिन, ‘द प्रिंट’ की ये हेडलाईन थी. 1947 के बाद से देश ने ऐसा भयावह पलायन, ऐसी मानवीय त्रासदी नहीं देखी. वज़ह थी, 24 मार्च 2020 को बगैर किसी योजना, तैयारी अथवा पूर्व सूचना के क्रूर लॉक डाउन का ऐलान. अभूतपूर्व भयावह त्रासदी में, ऐसी क्रूर प्रतिक्रिया, दुनिया में किसी सरकार की नहीं हो सकती – ‘मुआवज़े का सवाल ही पैदा नहीं होता !!’

मोदी सरकार ने सिर्फ़ क्रूरता ही नहीं दिखाई, झूठ भी बोला.

कोरोना महामारी के शुरू होते ही मोदी सरकार की गैरजिम्मेदारी, घोर संवेदनहीनता और आपराधिक लापरवाही के चलते जो करोड़ों विस्थापित मज़दूर, उस अनंत, 1600 किमी तक की जीवन-मरण कि यात्रा पर निकलने के लिए मज़बूर हो गये और रास्ते में, अवर्णीय मुसीबतें झेलते हुए शहीद हो जाने वाले मज़दूरों की क्रूर हकीक़त, देश का बच्चा-बच्चा जानता है.

इसके बावजूद भी, घोर मज़दूर विरोधी, मोदी सरकार, उन्हें कोई भी मुआवज़ा देने से इंकार कर सकती है, जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ सकती है, ये अंदेशा लोगों में मौजूद था. इसीलिए एक स्वयं-सेवी संस्था, स्वान (Stranded Workers Action Network, SWAN) के युवा कार्यकर्ताओं-छात्रों की ऊर्जावान टीम ने, ये दुश्वार आंकडे, उस भयानक महामारी के दरम्यान एकत्रित किए और मोदी सरकार तथा सुप्रीम कोर्ट के साथ साझा किए.

25 मार्च 2020 से 31 जुलाई 2020 के बीच, कुल 990 विस्थापित मज़दूरों ने अपने प्राण गंवाए, जिनका पूरा ब्यौरा नाम, पता, उम्र, मृत्यु की तारीख, मृत्यु का स्थान, राज्य, मृत्यु की वज़ह और उक्त सूचना का स्रोत, सभी जानकारियां इस लिंक में मौजूद है. कृपया नोट करें, इन आंकड़ों में कोरोना से हुई मौतें शामिल नहीं हैं.

मृत्यु का कारण                                 मौतें

भूख और आर्थिक विपन्नता                  216
ईलाज ना हो पाना                                77
सड़क तथा रेलगाड़ी-पटरी पर दुर्घटनाएं    209
‘विशेष श्रमिक रेलगाड़ियों’ में मौत            96
आत्महत्या                                       133
कोविद क्वारंटाइन केन्द्रों में भयावह
अव्यवस्था से मौतें                                49
लॉक डाउन से सम्बद्ध अपराध                  18
पुलिस द्वारा हुए अत्याचार                       12
शराब कि लत सम्बन्धी                           49
पूरी तरह पस्त हो जाना।                         48
अन्य कारण                                        83

कुल योग                                         990

इनके अलावा, 9 से 27 मई तक, 19 दिनों में श्रमिक रेलगाड़ियों में, कुल 80 मज़दूरों कि मौत हुई; ये रेलवे ने स्वीकार किया – ‘रेलवे में हो रही मौतों के लिए अत्यधिक गर्मी, थकान और प्यास मुख्य कारण हैं, जिन्हें मज़दूरों को झेलना पड़ा.’ हमें याद है, कैसे पंजाब से बिहार के लिए निकली रेलगाड़ियां, आंध्र और ओडिशा तक घूमकर आती थीं. आपराधिक लापरवाही और संवेदनहीनता की ऐसी मिसालें शायद ही इतिहास में मिलें !!

उस वक़्त, ‘स्वान’ की टीम द्वारा इकट्ठे किए, दिल दहलाने वाले अन्य आंकडे इस तरह हैं. अमानवीय लॉक डाउन की वज़ह से अपनी झोंपड़ियों में फंसे विस्थापित मज़दूरों में 96% को, केंद्र अथवा राज्य सरकारों से कोई मुफ्त राशन नहीं मिला. फंसे हुए मज़दूरों में से 78% के पास कुल रु 300 या उससे कम रुपये ही बचे थे. 89% मज़दूरों को अपने मालिकों द्वारा कोई वेतन नहीं मिला.

मज़दूरों ने ‘स्वान’ टीम को ये भी बताया, ‘ना तो हमारे पास एक भी पैसा है और ना अनाज का एक दाना’ !! सूरत में फंसे मज़दूरों ने बताया, ‘हमारे मालिक अभी भी हमें ये कहते हुए काम करने को मज़बूर कर रहे हैं कि काम करोगे तब ही खाने को मिलेगा. हमें खाना एक वक़्त ही मिल रहा है.’

हर्ष मन्दर और अंजलि भारद्वाज द्वारा दायर, याचिका केस डायरी नम्बर 10801/2020 में, सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश का बयान था – ‘अगर इन्हें (मज़दूरों को) खाना दिया जा रहा है तो इन्हें खाने के पैसे क्यों चाहिएं ?’ जैसे-जैसे लॉक डाउन की अवधि बढती जा रही थी, वैसे-वैसे बेक़रारी की तीव्रता वाली/भूखे होने की फोन कॉल भी बढ़ती जा रही थीं. ‘उनको ज्यादा ज़रूरत है हमसे, उनको दीजिएगा. हमारे पास इतना राशन है कि अभी दो दिन चल जाएगा’, बिकट परिस्थितियों में भी, मज़दूर अपने साथियों के प्रति संवेदना से भरे थे.

विस्थापित मज़दूर मुआवज़े के हक़दार हैं

देश में लॉक डाउन से उत्पन्न भयानक परिस्थितियों द्वारा कुल 990 मज़दूरों ने अपनी जानें गंवाई, मतलब 990 परिवार तबाह हुए. सरकार ने ये भी स्वीकार किया कि लॉक डाउन की वज़ह से कुल 12.2 करोड़ लोगों ने अपने रोज़गार खोए. 4 फरवरी 2020 से लागू, वित्त मंत्रालय के ‘भरपाई कानून’ के अनुसार ‘कोई भी दुर्घटना होने पर, विभाग इस बात कि परवाह ना करते हुए कि ग़लती, लापरवाही अथवा कमी की वज़ह क्या है, और दूसरे किसी भी कानून में क्या लिखा है, इसे नज़रंदाज़ करते हुए, विभाग, इस तरह मुआवजा देगा – ‘मौत अथवा गंभीर, स्थाई अपंगता अथवा दोनों होने पर कुल रु. 10 लाख तथा दूसरी स्थाई अपंगता होने पर रु 7 लाख’.

अत: विस्थापित मज़दूरों को मिलने वाले मुआवज़े/ नुकसान भरपाई का मूल्य हुआ; 10,00,000 x 990 = 99 करोड़. जो सरकार, 10 सालों में, धन्ना सेठों के, 10 लाख करोड़ के क़र्ज़ माफ़ कर सकती है, वह, ग़रीब मज़दूरों के 990 परिवारों को तबाही से बचाने के लिए 99 करोड़ क्यों नहीं दे सकती ? तो फिर मज़दूर मोदी सरकार को क्यों वोट दें ?

  • सत्यवीर सिंह

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