विजय दिगम्बर बचपन से ही खोजी बनना चाहता था. अतः उसने पुर्तगाल की खोज की. परन्तु जानकारी मिली कि पुर्तगाल पहले ही खोजा-खोजाया हुआ था…इसलिए उसने वापस भारत को ही खोजने का फैसला किया.
दरअसल उसके गोरखपुर वाले चचेरे भाई कौशल्य बिष्ट ने भी यही प्रयास किया था. मगर रस्ते में गलत मोड़ लेने के कारण राह कारण वह अस्त्रालय पहुंच गया. यह इलाका पहले ही ऋषि मुनियों ने खोज लिया था.
तो उसने अपने लिए पड़ोस में दूसरा द्वीप खोज निकाला, जहां आम के बगीचों की बहुलता के कारण उसका नाम अमेरिका रख दिया. कौशल्य बिष्ट को लोग अपभ्रंश में कोलंबस कहते हैं.
इससे विजय डींगम्बर को सीख मिल गयी. उसने गलत मोड़ नहीं लिया और सीधे भारत आ गया. इस खोज के पीछे उसका मकसद पूरी तरह से व्यापारिक था. वो भारत के समुद्र तट विकसित कर, मालदीव से बेहतर टूरिस्ट डेस्टिनेशन बनाना चाहता था.
वो बाली, हवाई, फ्लोरिडा, और मोरिशस से बेहतर बना सकता था. परन्तु मालदीव से उसका पुराना झगड़ा था, उसका किस्सा फिर कभी. अभी तो यह जानिए की वह 20 मई 1498 को भारत के दक्षिण में कालीकट पहुंचा.
उसके ये खोज वास्तव में बड़ी लाभकारी थी क्योंकि उसने अरब जगत का वो राज जान लिया, जिसको न बताकर वो यूरोप से मोटा माल कमा रहे थे.
दरअसल, यूरोपीय देश अरब जगत के माध्यम से मसाले, चाय की खरीद करते थे. अरबों को ये सामान भारत से हासिल होता था, पर ये बात वे गुप्त रखते थे. चूंकि विजय दिगम्बर, इसी बात का पता लगाने के लिए भेजा गया अंडरकवर एजेंट था, तो वो अपना असली नाम नही बताता था.
एक फेक आईडी ‘वास्कोडिगामा’ के नाम से बनाकर, उसने कालीकट के राजा से चैट की. उसको धमकाकर, औऱ ब्लैकमेल करके व्यापार के लिए राजी किया. फिर 18 घण्टे बाद सारा व्यापार अपने गुजराती मित्र को सौंपकर वह आगे बढ़ गया.
अब वह गोआ पहुंचा और सुरम्य वातावरण देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ. उसने एक होटल तथा बियर बार खोला. वहां आने वाले टूरिस्टों को दीदी ओ दीदी कहकर बुलाता. इससे उसका धंधा चल निकला.
समुद्री इलाका होने के कारण वहां मीठे पानी की कमी थी. इससे शच्चै हिँड्यू बडी संख्या में वहां आने लगे, और बीयर शक कर उसे पानी बनाने लगे.
गोआ तब से एक पॉपुलर टूरिस्ट डेस्टिनेशन बन गया. जिस जगह पर उसके बियर बार के अवशेष मिले हैं, गोआ की उस जगह को लोग वास्कोडिगामा के नाम से ही जानते हैं. फिर 18 घण्टे बाद अपना बियर बिजनेस भी उसने गुजराती मित्र को सौप दिया, और चुनाव लड़ने पुर्तगाल चला गया.
1522 में वो दोबारा भारत आया.
इस बार उसका मकसद लक्षद्वीप का विकास करना था. वो वहां के सारे आइलैंड, विदेशी होटल कम्पनियों को बेचकर, इंटरनेशनल टूरिस्ट डेस्टिनेशन बनाना चाहता था. उसके गुजराती मित्र ने सारी तैयारी कर ली थी.
कोच्चि से लक्षद्वीप पास पड़ता है. 18 घण्टे बाद वो वहां से लक्षद्वीप जाने की तैयारी में था कि…24 मई 1524 को शर्दी न सह पाने से उसका दुःखद निधन हो गया.
वास्कोडिगामा की कब्र आज भी कोचीन में ही है. जो जेनमोनीयस मोनेस्ट्री के संता मारिया चर्च में रखी है. कभी जाएं तो अवश्य देखे. शानदार नक्काशी वाला पत्थर का सरकोफेगस, अपने आपमे देखने लायक चीज है.
मगर सत्य यह है कि वास्कोडिगामा के दिल में आज भी लक्षद्वीप है. इसलिए कभी कभी उसका भूत लक्षद्वीप के समुद्र तटों पर भटकता दिखाई देता है.
फोटो वास्कोडिगामा की नहीं है, और फ़ोटो का इस लेख से कोई सम्बन्ध नहीं है. यह तस्वीर, तो प्रशिक्षित डाइवर द्वारा तट पर स्कूबा करने की आधुनिक निंजा टेक्निक का प्रदर्शन मात्र है, जो आगामी समय में लक्षद्वीप पर उपलब्ध हो सकती है.
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