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गनीमत मानिए पौराणिक कथाओं और तमाम धार्मिक कथाओं में खलनायक कोई मुसलमान नहीं है !

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गनीमत मानिए पौराणिक कथाओं और तमाम धार्मिक कथाओं में खलनायक कोई मुसलमान नहीं है !
गनीमत मानिए पौराणिक कथाओं और तमाम धार्मिक कथाओं में खलनायक कोई मुसलमान नहीं है !
सुहैल अंसारी

ये तो पौराणिक कथाओं और तमाम धार्मिक कथाओं में खलनायक कोई मुसलमान नहीं है वरना आज देश में जाने क्या हो रहा होता. मर्यादा पुरुषोत्तम राम को वनवास एक मुसलमान ने नहीं बल्कि हिंदू कैकई ने ही कराया था, मैय्या सीता का अपहरण करने वाला‌ भी मुसलमान नहीं था बल्कि हिन्दू रावण ही था.

बल्कि रावण से बड़ा हिंदू तो उस समय कोई नहीं था. प्रगाढ़ पंडित था, तमाम देवता उसके बस में थे. रावण के नाम से देवता तक कांपते थे क्योंकि वह बेहद बलशाली था. यहां तक कि रावण को ‘रावण’ नाम भी शिव जी ने दिया था और रावण ने ही ‘डमड्डमड्डमड्डमनिनादवड्डमर्वयं. /चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम’, शिव तांडव स्त्रोत को रचा था, जो आज शिव की पूजा में सबसे अधिक लोकप्रिय है.

रावण की तरफ़ से मर्यादा पुरुषोत्तम राम से लड़ने वाले भी मुसलमान नहीं बल्कि सारे हिन्दू ही थे. राम जी तो जंगल के बंदरों को लेकर रावण से युद्ध कर रहे थे‌. ले देकर लक्ष्मण ही एक हिंदू राम की तरफ़ थे, बाकी सब तो जंगल के बंदर थे. यद्यपि पवनपुत्र हनुमान की शक्ति भी उनके साथ थी, जो बाद में रामभक्त हुए.

और महाभारत में भी कोई खलनायक मुसलमान नहीं था. दुर्योधन को तो ‘कलयुग का अवतार’ कहा गया था. वह भी हिन्दू ही था जिसने द्रोपदी को अपनी जंघा पर बिठाने की चेष्टा की. गुजरात के वेरावल में श्रीकृष्ण के पैरों में तीर मारकर उनकी हत्या करने वाला बहेलिया ‘जरा’ भी मुसलमान नहीं था, हिन्दू ही था. अभिमन्यु को चक्रव्यूह में घेर कर मारने वाले सब हिन्दू ही थे, मुसलमान नहीं थे.

यह सब कहने का अर्थ कोई तंज़ या किसी की धार्मिक भावना को आहत करना नहीं है बल्कि यह बताना है कि यदि पौराणिक कथाओं में यह सब खलनायक मुसलमान होते तो आज देश में क्या हो रहा होता ? तब जबकि खोद खोद कर और कुछ नहीं तो मुग़ल काल से ही खलनायक ढूंढे जा रहें हैं, गढ़ा जा रहा है.

हर दिन 1.5 मन जनेऊ तौल कर खाना खाने के प्रोपगंडा से चला सिलसिला अजमेर ख्वाजा गरीब नवाज तक पहुंच गया. उस ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती तक जिसकी दरगाह हमेशा से राजस्थान के राजपूत राजाओं की सुरक्षा में रही.

ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ईरान से आए भारत के अजमेर की तारागढ़ पहाड़ी की तलहटी में अपना आध्यात्मिक केंद्र स्थापित किया और यहीं वह सन 1236 ईस्वी में दफ़न हो गये. ज़ाहिर सी बात है कि किसी मंदिर में दफ़न तो नहीं हुए होंगे.

करीब 200 सालों तक ग़रीब नवाज़ ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की कब्र कच्ची रही. इस 200 साल में भी किसी को ख्वाजा की कब्र के नीचे कोई मंदिर नहीं मिला. सन 1464 में मांडू के सुलतान गयासुद्दीन खिलजी ने इसे पक्का करवा दिया. उसके बाद मुगल शासन में ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह का सफेद संगमरमर का गुंबद हुमायूं ने 1532 में बनाया और यही जगह ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती अजमेर शरीफ की दरगाह के नाम से जानी जाती है.

इस दरगाह पर कभी कोई विवाद नहीं रहा. बस 1912 में किसी हरबिलास शारदा की लिखी किताब ‘अजमेर : हिस्टोरिकल एंड डिस्क्रिप्टिव’ मिल गयी, और वही सबूत बन गयी अदालत के लिए और नोटिस जारी हो गया. इसीलिए कहा कि यह तो पौराणिक कथाओं में खलनायक के रूप में कहीं मुसलमान नहीं है नहीं तो आज पता नहीं क्या क्या हो रहा होता.

इसके पहले एक हज़ार साल में महाराणा प्रताप हुए, छत्रपति शिवाजी महाराज हुए, ब्राह्मण पेशवा समेत सैकड़ों महाबली हिंदू राजा हुए जिन्हें दरगाह में मंदिर नहीं दिखा.

यही नहीं ब्रिटिश हुकूमत में बेहद मजबूत रहे राजपूत राजाओं को भी अजमेर दरगाह के नीचे मंदिर नहीं दिखा. बल्कि राजपूत शासक राजा जयसिंह ने दरगाह के अंदर ख्वाजा साहब की कब्र को सुरक्षित रखने के लिए बेहतरीन नक्काशी किया हुआ एक चांदी का कटघरा बनवाया और आज भी इसी कटघरे के अंदर ख्वाजा साहब की मजार सुरक्षित है.

दरगाह शरीफ पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु, महान कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर, सरोजिनी नायडू, पंडित मदनमोहन मालवीय से लेकर जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी और इंदिरा गांधी जैसी विख्यात हस्तियों ने ख्वाजा साहब के संदेश को समझा और अजमेर स्थित दरगाह आकर फूल पेश किए, उन्हें कहीं मंदिर नहीं दिखा.

प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेई से लेकर वर्तमान में नरेंद्र मोदी तक हर साल ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर चादरें भेजते रहें, मगर उन्हें ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के नीचे मंदिर नहीं दिखा. एक टुटपूंजिए की किताब पर अदालती आदेश आ गया. कल को मैं एक किताब लिख कर मर जाऊं कि राष्ट्रपति भवन के नीचे मस्जिद है तो 100 साल बाद क्या यही होगा जो आज हो रहा है ?

यह महान लेखक पंडित राहुल सांकृत्यायन को भी नहीं मानते जिन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘अकबर’ में सूफ़ी संत मोइनुद्दीन चिश्ती को सबसे बड़े रहस्यवादी दार्शनिक संत कहा. उन्हें भी दरगाह के नीचे मंदिर नहीं दिखा. स्वामी विवेकानंद को, स्वामी दयानन्द सरस्वती को, गोलवलकर, सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, बलिराम हेडगेवार, अशोक सिंघल, प्रवीण तोगड़िया को भी दरगाह के नीचे कोई मंदिर नहीं दिखा.

दरअसल आर्यसमाजी उसी हरविलास सारदा ने अपनी पुस्तक ‘अजमेर : हिस्टॉरिकल एंड डिस्क्रिप्टिव’ में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के फ़कीराना अंदाज़ के बारे में भी लिखा है कि –

‘वे थिगलियां लगे कपड़े पहनते थे, ऊपर अंगरखा और नीचे दो-दो टुकड़े जोड़कर बनाई गई दुताई पहना करते थे. ख़्वाजा कई-कई दिन में एक रोटी खाते थे. लेकिन भूखों के लिए हर समय लंगर तैयार कराया करते थे. अनजान और भूखे ग़रीब लोगों के लिए उनकी मेहमाननवाज़ी के क़िस्से बहुत मशहूर हैं.’

वही हर विलास सारदा इस पुस्तक में इस दरगाह को ‘अजमेर की एक ऐतिहासिक उपलब्धि’ के रूप में भी दर्शाते हैं. उसी दरगाह में गरीबों को खाना खिलाने के लिए मुग़ल बादशाह अकबर की दी हुई एक ऐसी देग है, जिसमें एक समय में करीब 4500 किलो तक खाना बनाया जाता है, और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पर भी इसमें खाना बना कर गरीबों को खिलाया गया.

ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ की धर्म निरपेक्ष शिक्षाओं के कारण ही, इस दरगाह के द्वार सभी धर्मों, जातियों और आस्था के लोगों के लिए खुले हुए हैं, हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई सबके लिए दरगाह के दरवाजे खुले हुए हैं. यह सब भी इन्हें नहीं दिखता मगर नफ़रत की खेती करने वाले कहीं ना कहीं मुसलमान और मुगल ऐंगल ढूंढ ही लेते हैं.

इसीलिए कहा कि इनकी पौराणिक कथाओं का खलनायक मुसलमान होता तो आज क्या होता ? जब हर विलास सारदा की किताब की चंद लाईनों से देश में इतना सांप्रदायिक ज़हर फैला है, मुगलों को लेकर झूठी कहानियां बना कर इतना ज़हर फैला है तो रामायण और महाभारत का खलनायक मुसलमान होता तो क्या होता ?

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