लगता है, गणतंत्र ठिठुरते हुए हाथों की तालियों पर टिका है। गणतंत्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलती हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिए गर्म कपड़ा नहीं है – हरिशंकर परसाई
पढ़ लिखकर सोचा था नौकरी करेंगे
रोजगार के लिए सरकार से मांग किया तो
पुलिस ने मारकर बुरा हाल कर दिया गया.
रोते कलपते बिलखते हुए बच्चे जब घर जाकर
अपनी हालात दिखाया अपनी माई को…
माई ने उसके सिर पर हाथ रखकर
आंसू चुआने लगी….
तभी वह युवा हिम्मत करके अपनी माई को कहता है…
‘बता दो पिताजी को, हम जिंदा लौट आए हैं’ – बादल
सौमित्र राय
हर साल गणतंत्र दिवस पर यही ख़्याल आता है कि हमारे गणतंत्र की स्थिति क्या है ? क्या देश में वाकई जनता का राज है ? साल-दर-साल ख़ुद सरकारी मशीनरी इस सवाल का जवाब दे देती है. कल गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर ही जवाब मिल गया. इलाहाबाद में एक लॉज के दरवाजे तोड़कर पुलिस ने छात्रों को बेरहमी से पीटा. भर्ती परीक्षाओं में धांधली रोकने की मांग करना, विरोध करना क्या इस गणतंत्र में गैरकानूनी है ?
आज पूरे दिन इस सवाल पर विचार कीजिए, शायद जवाब मिल जाए. न मिले तो समझें कि आपको ऐसा ही गणतंत्र चाहिए था. जहानाबाद के रेलवे ट्रैक पर राष्ट्रगान और सलामी देकर गणतंत्र दिवस मानते रेलवे के परीक्षार्थी. जवाब में रेलवे ने परीक्षाएं ही स्थगित कर दी हैं. कल सहरसा में पुलिस ने रेल रोके छात्रों पर गोली चलाई थी.
‘हम भारत के लोग’- संविधान की प्रस्तावना के ये 4 शुरुआती शब्द मोदी राज में सिर्फ़ और सिर्फ़ मरने, पिटने और वोट डालने के लिए ही हैं, बाकी सब पाखंड है. प्रतियोगी परीक्षाओं के अभ्यर्थी, बेरोज़गार छात्रों को हॉस्टल, स्टूडेंट्स लॉज और घरों से घसीटकर नौकरी देने का महान काम कर रही है यूपी सरकार.
गणतांत्रिक भारत ने 73 साल में इतनी तरक्की की है कि रोज़गार मेले में पुलिस खुद बेरोज़गारों को घेरकर उन तक पहुंच रही है. बेरोजगार कह रहे हैं कि साहेब, बख़्श दो, हमें नौकरी नहीं चाहिए. मोदीजी ने वादा किया था – अच्छे दिन आएंगे, आ तो गए.
कल यूपी और बिहार में रेलवे की भर्ती परीक्षा में धांधली का विरोध कर रहे छात्रों को लाठी-गोली से नौकरी देने के वीडियो से कई छिपे हुए संघियों की सुलग गई. 40 हज़ार साल पुराना डीएनए है, जो मोहन भागवत के मुताबिक बदला ही नहीं. दरअसल, इन संघियों को देश की बेरोज़गारी, मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों और युवाओं में बढ़ते असंतोष से कोई लेना-देना नहीं.
बिहार ने 1999 के बाद से कभी भी विकास के मुद्दे पर वोट नहीं डाला. 2014 में बिहार ने 40 में से 31 संसदीय सीटें बीजेपी की झोली में डाल दी. 2019 में उससे भी ज़्यादा 39 सीटें दी. राज्य में डबल इंजन सरकार है.
अब जब रेलवे में नौकरी के मामले में केंद्र का इंजन पटरी से उतरा तो बीजेपी को वोट देने वाले बिहारी छात्रों को खेल समझ आया तो क्या इन समझदार हो चुके छात्रों को ‘गद्दार’ मानकर उन्हें उनकी बदहाली के हवाले छोड़ देंगे ? या फ़िर नितीश अगर राजद के साथ हाथ मिला लें तभी उसे मास्टरस्ट्रोक कहेंगे ?
ये अवसरवादी सियासत छोड़ दीजिए क्योंकि आपके हाथ में वाट्सअप के सिवा कुछ है नहीं, न ही हालात को बदलने की औकात है इसलिए, ज़मीन से उठे हर आंदोलन को मजबूती देने में ही अक्लमंदी है.
मोदी सरकार ने देश का 80% तो अम्बानी-अडाणी को बेच दिया. अब पैसा कहां से आएगा ? उन्हीं से, जिन्हें देश बेचा गया है. जीडीपी का 90% मोदीजी के दोस्त साहूकार सेठों से क़र्ज़ पर आ रहा है.
क्रिसिल ने मोदी सरकार से निजी उपभोग बढ़ाने के लिए मनरेगा में पैसा डालने और पेट्रोल-डीजल की लूट बंद करने को कहा है. 1 फरवरी के बजट में सरकार के विकल्प सीमित हैं. निजी उपभोग जीडीपी का 55% होता रहा है, लेकिन लोगों के पास पैसा नहीं है इसलिए यह आंकड़ा 2018-19 पर टिका है.
मोदी सरकार के पास शहरों में नई नौकरियां पैदा करने का कोई प्लान नहीं है और न ही ऐसी कोई मंशा है. करीब 21 लाख करोड़ के कुल सरकारी क़र्ज़ में राज्यों का हिस्सा लगभग 9 लाख करोड़ है. बाजार शाम 6 बजे के बाद से सूने होने लगते हैं. आगे यदि पेट्रोल-डीजल 150 भी पार कर दे तो शॉपिंग मॉल में लोग ठंडी हवा खाने ही जायेंगे. यहां तक कि दिल्ली-मुम्बई जैसे शहरों में ट्रैफिक जाम की स्थिति माइनस 68% तक पहुंच चुकी है, वज़ह सिर्फ ओमिक्रोन या कोविड ही नहीं है.
मनरेगा के मजदूरों ने 2 साल में सरकार के 20 हज़ार करोड़ रुपये बचा लिए, क्योंकि सरकार ही उनसे बहुत कम मजदूरी में जितना काम करवाती है, वह शहरों के मजदूर दोगुनी मजदूरी में करते हैं, फिर भी सबसे आखिर में यूपी है. लेकिन मनरेगा में इस वित्त वर्ष तक सरकार का 21 हज़ार करोड़ का बकाया हो जाएगा, सरकार कहां से लाएगी ? अपने दोस्त सेठ-सहूकारों को कहां से खिलाएगी ?
बजट में सिर्फ मनरेगा के लिए करीब 3 लाख करोड़ रुपये चाहिए. अकेले अडाणी का 4.5 लाख करोड़ का बैंक लोन डूबत खाते में है. सेठजी भारत के सबसे अमीर आदमी हैं. मैं अपने वरिष्ठ पत्रकार मित्रों से अक्सर कहता हूं कि कोट-टाई पहनकर भी ज़मीनी मुद्दों की ही बात करो लेकिन वे पढ़ते नहीं. जो पढ़-लिखकर मुद्दों की बात करते हैं, उन्हें आप नहीं पढ़ते.
आशीष कह रहे हैं कि धर्म अलग विषय है. धर्म मेरा रिक्शा नहीं चलाएगा. असली और फ़र्ज़ी, स्वार्थी सियासत के इस फ़र्क़ को बहुत से लोग समझा नहीं पा रहे हैं क्योंकि, वे अपना कर्तव्य भूलकर ऊल-जलूल बातों को फॉरवर्ड करने और लोगों का दिमाग भटकाने में जुटे हैं पर आशीष जैसे युवा सब समझ रहे हैं. वे बीजेपी की सियासत को ही नहीं, एक दिन आपको भी सबक सिखाएंगे.
ऐसे ही मूर्खों को बीच सड़क पर आईना दिखा रहे हैं लखनऊ के आशीष. बीटीसी-टेट पास होने के बाद भी आशीष रिक्शा चलाते हैं. इन्हें थोड़ा सुनिए. आशीष की आवाज़ कल आपके बच्चों की भी आवाज़ बनेगी.
‘ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल’ के ‘करप्शन परेसेप्शन इंडेक्स’ (CPI) में भारत ने भ्रष्ट देशों की सूची में 85वां स्थान हासिल किया. भारत की अवाम और पालतू मीडिया के लिए ये कतई शर्म का विषय नहीं है. देश और सरकार का पालतू मीडिया पाकिस्तान की 140वीं रैंक पर जश्न मना रहा है.
यह बात और है कि बीते दो साल से भारत का स्कोर 40 पर अटका है और वह भी न खाऊंगा, न खाने दूंगा की जुमला सरकार के होते. इसी सरकार ने नोटबंदी के समय जुमला फेंका था कि भ्रष्टाचार ख़त्म हो जाएगा. अब नज़र पाकिस्तान पर है.
जब अवाम खुद पाखंड को पसंद करे, उसकी उड़ान अपने पड़ोस तक सीमित हो, उसके सपने अपने पड़ोसी को मिटाकर पूरे होते हों, उस देश की तरक्की और महाशक्ति बनने की सोचना भी पाखंड है. यह है गणतंत्र का हाल.
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