हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
बीते वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वैचारिक आलोचना करते हुए मैंने बहुत लिखा, लेकिन, कभी भी, एक बार भी उनकी डिग्री के विवाद पर मैंने एक शब्द भी नहीं लिखा. एक नागरिक और सरकार की नीतियों के विश्लेषक के रूप में मुझे इस तथ्य से अधिक मतलब नहीं कि किस नेता की डिग्री या औपचारिक पढ़ाई-लिखाई का स्तर क्या है. महत्व इस बात का है कि उनका विजन क्या है, उनकी नीतियां क्या हैं ?
उसी तरह, मुझे तेजस्वी यादव के नौवीं पास मात्र रहने से कोई अधिक दिक्कत नहीं. हालांकि, यह कोई उत्साहवर्द्धक तथ्य नहीं है कि बिहार के मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी मैट्रिक पास भी नहीं है, लेकिन, इससे उनकी सीमाओं का आंंकलन नहीं किया जा सकता. महत्व इस बात का है कि उनकी वैचारिकता क्या है ? उनका विजन क्या है ? और वर्त्तमान चुनाव में अपनी धमक से उन्होंने साबित किया है कि भविष्य के नेता के रूप में उनकी संभावनाएं बेहतर हैं.
वे अच्छा बोलते हैं, जन सभाओं में भी और पत्रकार वार्त्ताओं में भी. एक स्पष्ट दृष्टि के साथ वे चुनाव में उतरे हैं और जैसा कि अनेक स्रोतों से कहा जा रहा है, उन्होंने सत्ताधारी एनडीए की नींद तो हराम कर ही दी है.
नेता की औपचारिक डिग्री पर विवाद खड़ा कर के हम उनकी नीतिगत आलोचनाओं के संदर्भ में मौलिक तथ्यों की उपेक्षा करने लग जाते हैं. संविधान बनाने वाले विद्वान और तपे-तपाए नेताओं ने अगर जरूरी समझा होता तो मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बनने के लिये किसी अकादमिक अर्हता को अनिवार्य कर दिया होता लेकिन, उन्होंने ऐसा नहीं किया. अपने इस कदम से उन्होंने लोकतंत्र को व्यापकता दी और बाकी सब मतदाताओं पर छोड़ दिया.
इतिहास में हम अकबर के बारे में पढ़ते हैं जिसकी औपचारिक शिक्षा-दीक्षा नहीं के बराबर हुई थी, लेकिन अपनी नेतृत्व क्षमता और विजनरी व्यक्तित्व से उसने एक नए हिंदुस्तान की रचना कर दी. हम पढ़ते हैं कि अकबर विद्वानों की संगति पसंद करता था, उन्हें बहुत सम्मान देता था और उसके दरबार में कला और बौद्धिकता के विभिन्न क्षेत्रों के निष्णात लोग शामिल रहते थे. उनकी सलाहों को वह महत्व देता था, लेकिन, निर्णय खुद की समझ-बूझ से ही लेता था. अच्छा पढा-लिखा होना अच्छी बात है, ऊंची डिग्रीधारी होना और भी अच्छी बात है, लेकिन, किसी राज्य या देश का नेता होने के लिये यह कतई जरूरी शर्त्त नहीं.
मैंने तो माननीया स्मृति ईरानी के डिग्री विवाद पर भी कभी एक शब्द नहीं लिखा. यद्यपि, नरेंद्र मोदी की पहली केंद्रीय सरकार में उनका मानव संसाधन मंत्री बनना मुझे बुरी तरह खल गया. इसलिये नहीं कि वे ऊंची डिग्रीधारी नहीं हैं, बल्कि इसलिये कि उस पद के लिये मैं उनको कतई उपयुक्त पात्र नहीं मानता था. क्योंकि, एक नागरिक के रूप में मेरा मानना था कि देश को अकादमिक दिशा देने के लिये मैडम ईरानी के पास कोई भी विजन नहीं है. कालांतर में उनका विभाग बदल कर मोदी जी ने भूल सुधार तो किया, लेकिन, तब तक वे देश के शिक्षा तंत्र को कई तरह की हानियांं पहुंचा चुकी थी.
किसी तरह की फर्जी या भ्रामक डिग्री रहने का दावा करने से बेहतर है कि खुल कर यह बताया जाए कि मैंने मात्र नवीं क्लास तक की पढ़ाई की है. स्मृति ईरानी आदि ने तो अपनी औपचारिक डिग्री के संबंध में अलग-अलग समय में अलग-अलग तथ्य प्रस्तुत किये. और, यह बेहद गलत बात है.
तेजस्वी यादव से सवाल इस पर होने चाहिये कि उन्होंने जो दस लाख सरकारी नौकरियों की बात की है, लाखों नियोजित शिक्षकों को ‘समान काम के लिये समान वेतन’ देने का भरोसा दिया है, जीविका दीदियों आदि के मानदेय को दोगुना करने का आश्वासन दिया है, वृद्धा, विधवा आदि पेंशनों की राशि को बढाने का वादा किया है, इन सब के लिये फंड कहांं से आएगा ?
हालांकि, ऐसे सवाल तब जोरदार तरीके से उठेंगे जब वे चुनाव जीत जाएंगे और मुख्यमंत्री पद की शपथ ले लेंगे. अभी तो, बतौर प्रत्याशी वे इन सवालों को भोथरा कर सकते हैं, लेकिन, जब उन्हें सच का सामना करना होगा तो वे ऐसे सवालों को भोथरा नहीं कर पाएंगे.
सब जानते हैं कि क्रिकेट के प्रति समर्पण के कारण उन्होंने औपचारिक पढ़ाई पर अधिक ध्यान नहीं दिया. अगर, वे एक सफल क्रिकेटर बन जाते तो उनके प्रशसंक उसी तरह इसका उदाहरण देते, जैसे सचिन तेंदुलकर के बारे में ‘गर्व से’ बताया जाता है कि वे तो दसवीं की परीक्षा में फेल हो गए थे.
तेजस्वी की डिग्री से अधिक बिहार के लोगों को इस तथ्य से चिंतित होने की जरूरत है कि बिहार में फर्जी डिग्रीधारी शिक्षकों की भरमार है क्योंकि, एक शिक्षक बनने के लिये कानून द्वारा निर्धारित डिग्री रहना अनिवार्य है.
मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी को अपेक्षाओं पर तौलने के लिये उसकी वैचारिकता और उसके नेतृत्व कौशल पर ध्यान देना चाहिये. फिलहाल तो तेजस्वी यादव की वैचारिकता बहुत सारे लोगों को पसंद आ रही है और अपना नेतृत्व कौशल वे दिन-प्रति दिन साबित करते जा रहे हैं. उन्हें इसी कसौटी पर आंका जा सकता है. डिग्रियों का क्या है, बिहार में तो पैसे और रसूख पर कोई भी डिग्री घर बैठे पा जाने के न जाने कितने उदाहरण भरे पड़े हैं. बेहतर है कि तेजस्वी की डिग्री के फर्जी होने का कोई विवाद नहीं है, डिग्री नहीं रहना फर्जी डिग्री रहने से हमेशा बेहतर ही है.
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