Home गेस्ट ब्लॉग तार-तार होती संवैधानिक व्यवस्था

तार-तार होती संवैधानिक व्यवस्था

6 second read
0
0
421

तार-तार होती संवैधानिक व्यवस्था

गुरूचरण सिंह

लोकशाही एक ऐसी व्यवस्था है जिसे कुछ समझदार और नेकनीयत लोगों ने तमाम देशवासियों की भलाई के लिए तय किया है. इन्हीं समझदार लोगों में हुई काफी बहस और एक राय न बनने पर रायशुमारी के बाद तय पाए असूलों को संविधान में एक किताब की शक्ल दी गई. इसी संविधान को लागू किए जाने के दिन को ही हर साल हम गणतंत्र दिवस के रूप में मनाते हैं. सिद्धांत के रूप में यह किताब जाति, धर्म, रंग, अमीरी गरीबी के भेदभाव बिना सभी लोगों को एक ही जमीन पर ला खड़ा करती है.

लेकिन विडंबना यह है कि दूसरी सभी पवित्र किताबों की तरह इसकी भी बातें तो हम खूब करते हैं, इसकी रक्षा के नाम पर आपस में लड़ते-झगड़ते भी हैं, इसके बेजा इस्तेमाल की तोहमतें भी लगाते हैं – सब कुछ करते हैं, बस पढ़ते ही नहीं हैं ! दूसरी तरफ जो लोग इसे गौर से पढ़ते हैं, वे एक खास वर्ग की तरह इसकी जानकारी को अपना पेशा बना लेते हैं, फिर वो चाहे वकील हों या राजनीतिबाज और यकीन मानिए ये दोनों ही अपने ‘ग्राहकों’ की चमड़ी तक उधेड़ लेने से भी गुरेज़ नहीं करते. जैसे वेद, कुरआन, बाइबिल और नास्तिकों के पवित्र ग्रंथ ‘दास कैपीटल’ के बारे में पंडित, मौलवी, पादरी और खाली सैद्धांतिक चर्चा करने वाले मार्क्सवादी विद्वान पारिभाषिक शब्दावली में जो भी बता देते हैं, वही हमारे लिए अंतिम सत्य हो जाता है, ठीक वैसे ही संविधान के बारे में हमारे राजनीतिबाजों ने जो कह दिया हमारे लिए तो वही पत्थर की लकीर हो जाता है. जय भीम का नारा लगाती बहुजन भीड़ भी शोर तो बहुत करती है, लेकिन पढ़ती वह भी नहीं ! वैसे भी यह संवैधानिक व्यवस्थाओं का लाभ उठा चुके ही ज्यादा शोर करते हैं, बाकी समाज तक तो शिक्षा का प्रकाश तो अभी पहुंचा तक नहीं है !

दरअसल लोकशाही की यह पवित्र किताब मान कर चलती है कि सब लोग पढ़े-लिखे और समझदार हैं, जो खुद की बनाई सरकार को मजबूर कर सकते हैं कि वह इस किताब के बताए रास्ते पर ही चले. यह तो किसी ने सोचा तक भी न था कि ये लोकतंत्र कभी भीडतंत्र का रूप भी ले सकता है. संख्या बल से आबादी के बड़े हिस्से को इसी किताब में कुछ फेर बदल करके निशाना भी बनाया जा सकता है. लगभग एक लाख शब्दों वाला संविधान होने के बावजूद 104 संविधिक संशोधन हो चुके इसमें, जबकि मार्च, 1789 में लागू हुए अमरीकी संविधान में केवल 27 बार ही बदलाव हुआ है. यह तथ्य भी गवाही देता है कि एक राष्ट्रीय जुड़ाव का विकास अब तक नहीं ही पाया है हम लोगों में. जुड़ाव पैदा करने के लिए धर्म का का भी इस्तेमाल किया जा सकता है जैसा पिछले दो आम चुनावों के दौरान किया गया था ! विभिन्न संवैधानिक संशोधन भी इसी नजरिए का नतीजा हैं !

चूंकि हमारा संविधान किसी भी नागरिक को बड़ा या छोटा नहीं मानता है, इसलिए सब से पहले तो खास और आम लोगों का भेद मिटाना जरूरी है. प्रधानमंत्री हो या कोई भी आम आदमी वीआईपी नहीं होता, ऐसा इस देश का संविधान कहता है लेकिन आम लोग अपनी सुविधा के लिए जब किसी ‘अच्छे’ आदमी को चुन लेते हैं और वह सत्ता का स्वाद चख लेता है तो यही आम आदमी बहुत ही खास बन जाता है (उसकी सुरक्षा और रहन-सहन के शाही अंदाज़ पर होने वाला खर्च इसका गवाह है). इस खास हैसियत को बनाए रखने के लिए भी अच्छा और फ़कीर आदमी आम आदमी की विरोध करने की आज़ादी तक को भी छीन लेना चाहता है, जैसा शाहीन बाग के साथ ही रहा है.

1975 में पहली बार जेपी की अगुवाई में जनता सड़कों पर उतरी थी अपने संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए. जेपी के उसी अंदोलन में भाग लेने वाले सियासी दल दशकों से खुद सत्ता में रहे हैं और अब भी हैं लेकिन ये सब के सब अब बहुत ही ‘खास आदमी’ हैं, सभी अपने परिवार को आगे बढ़ाने में लगे हैं, जाति और क्षेत्र की राजनीति कर रहे हैं; संक्षेप में जेपी के असूलों के खिलाफ आचरण कर रहे हैं. इसी आंदोलन के चलते स्वीकार्यता पाई राजनीतिक दृष्टि से ‘अछूत’ भाजपा तो संविधान को बदलने का संकल्प दोहराती रही है. सत्ता में आने के बाद लोकतांत्रिक मूल्यों को ताक पर रखकर उसने ऐसा करके भी दिखा दिया है. कांग्रेस की अन्य नीतियों की तरह इंदिरा गांधी के आपातकाल और आज की सरकार के तौर-तरीकों में रत्ती भर भी अंतर नहीं है और सभी पार्टियां अपनी-अपनी सहूलियत के मुताबिक संविधान की व्याख्या कर रही हैं.

ऐसे में संविधान की मूल भावना की रक्षा करना बहुत जरूरी हो जाता है क्योंकि इसके चलते ही लोकशाही कायम रह सकती है. यही तो गारंटी है आदमी के सम्मान की, उसके सामूहिक विकास की. कोई भी सियासी पार्टी या नेता देश और संविधान से बड़ा नहीं हो सकता लेकिन इसे जमीनी हकीकत बनाने के लिए संविधान की बुनियादी समझ होना बहुत जरूरी है क्योंकि सविधान ने एक संघीय ढांचे के तहत थोड़ी जटिल किस्म की व्यवस्था की है, जिसमें दोनों केंद्र और राज्य सरकारें मिल कर इस देश को चलाती हैं. दोनों के हित कई बार टकरा भी जाते हैं.

संविधान के तहत किसी भी व्यक्ति या व्यक्ति समूह के पास सारी ताकत या सारी जिम्मेदारी नहीं है अर्थात ताकतों, जिम्मेदारियों का स्पष्ट बंटवारा किया हुआ है. यह तेरा काम, यह मेरा काम, एक दूसरे के काम में कोई हस्तक्षेप नही कर सकता. सिद्धांततः यह बहुत अच्छी व्यवस्था है, जिससे मतभेद पैदा नहीं हो सकते लेकिन जब नीयत खराब हो तो मतभेद भी पैदा होंगे, मतभेद होंगे तो शाहीन बाग भी ऐसे ही चुनौती देते रहेंगे !

Read Also –

दीपक चौरसिया : दलाल पत्रकारिता का विद्रुप चेहरा
गणतंत्र दिवस समारोह के मुख्य अतिथि : क्या मोदी जी को लोकतंत्र में यक़ीन है ?
CAA-NRC के विरोध के बीच जारी RSS निर्मित भारत का नया ‘संविधान’ का प्रारूप
गणतंत्र दिवस समारोह के मुख्य अतिथि : क्या मोदी जी को लोकतंत्र में यक़ीन है ?
दुनिया में चमकता भारत का – ‘लोकतंत्र’

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

शातिर हत्यारे

हत्यारे हमारे जीवन में बहुत दूर से नहीं आते हैं हमारे आसपास ही होते हैं आत्महत्या के लिए ज…