हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
बीबीसी ने एक ऑडियो क्लिप सुनाया, जिसमें बिहार के पूर्वी चंपारण जिले की एक 12 वर्षीया बच्ची के साथ सामूहिक दुष्कर्म, उसकी हत्या और फिर जबर्दस्ती उसकी लाश को जलवा देने का आरोपी फोन पर भोजपुरी मिश्रित हिन्दी में स्थानीय थानाध्यक्ष को समझा रहा है ‘…थाना में लिख दीजिये कि लड़की ठंड से मर गई.’
अगले ऑडियो क्लिप में बीबीसी ने सुनाया, जिसमें उस हतभागी बच्ची का कोई असहाय परिजन रुंधे गले से कह रहा था, ‘कोई मीडिया नहीं है ? कोई पुलिस नहीं है ? यह क्या हो गया ? यह क्या हो रहा है ?’
सभ्यता के इस मुकाम पर, विकास की इस अवस्था में पहुंचने के बाद भी हमारे देश और राज्य का एक निर्बल और निर्धन व्यक्ति तंत्र की अमानुषिक हो चुकी संरचना के सामने कितना हताश, कितना असहाय है, यह उसकी आवाज में ध्वनित हो रहा है.
आज ही एक अन्य वीडियो साक्षात्कार में पटना के एक चर्चित हत्याकांड के आरोपी की पत्नी बता रही है, ‘मुझे पुलिस थाना ले गई, वहां मुझे नंगा कर पीटा.’
किसी आरोपी या अभियुक्त की पत्नी को थाना में ले जा कर नंगा कर पीटने का लाइसेंस पुलिस को कानून की किस धारा के तहत मिल सकता है, नहीं पता. जैसा कि वह पीड़ित महिला वीडियो में पत्रकार को कहती सुनाई दे रही है, ‘पुलिस के कई लोग थे वहां, सबके सामने मुझे नंगा कर दिया, फिर खूब पीटा.’
यह है किसी हत्याकांड के सच की तह तक पहुंचने का पुलिस का तरीका. हालांकि, बहुत सारे लोग, जिनमें बड़ी संख्या में पत्रकार भी शामिल हैं, आरोप लगा रहे हैं कि पुलिस की यह कार्रवाई सच तक पहुंचने की कवायद नहीं, सच पर पर्दा डाल कर केस की दिशा को कहीं और मोड़ने की मंशा का नतीजा है, जिस क्रम में ही किसी महिला की गरिमा को तार-तार कर दिया गया है.
नीतीश कुमार को अब क्या पाना है ? राजनीति में वे बहुत कुछ पा चुके. बिहार की जनता ने उन्हें लगातार जितना सम्मान और समर्थन दिया है, उसकी मिसाल बहुत कम ही है. वे लोकतांत्रिक भारत के उन उंगली पर गिने जा सकने वाले मुख्यमंत्रियों में से हैं, जिन्हें लगातार कई कार्यकाल मिले.
कभी वे सुशासन के पर्याय की तरह माने गए थे लेकिन आज, बिहार की अराजकताओं की चर्चा चहुं ओर है. आज के ही अखबार में खबर है कि पटना के एक बेहद व्यस्त और भीड़ भाड़ भरे चौराहे पर ऑटो में बैठी युवती से उचक्कों ने दिन दहाड़े मोबाइल और पर्स लूट लिये. वह युवती रोते कलपते बेहाल हो गई. इस घटना पर वहां के थाना प्रभारी ने कहा, ‘ऐसे उचक्कों के प्रति हमलोग सख्ती कर रहे हैं.’ उस पुलिस अधिकारी का यह कथन हंसी नहीं, जुगुप्सा पैदा करता है, क्योंकि दिन दहाड़े छिनतई की घटनाएं आजकल पटना में आम हैं.
सक्रिय राजनीति में बने रहने के लिये अभी नीतीश कुमार के पास उम्र बची हुई है, बावजूद हालिया चुनावी परिघटनाओं के, उनका एक आभामण्डल है जो उनकी राजनीतिक सम्भावनाओं के खत्म होने की बातों को नकारता है. वे आज भी भारतीय राजनीति के संभावनाशील राजनेताओं में गिने जाते हैं.
लेकिन, आश्चर्य है कि आज वे ऐसे मुख्यमंत्री के रूप में नजर आ रहे हैं जिनके राज में हैवानियत की शिकार किसी मासूम बच्ची का निर्धन और निर्बल परिजन चीत्कार करता है, ‘कोई मीडिया नहीं है यहां, कोई पुलिस नहीं है यहां.’ किसी आरोपी की पत्नी कैमरे के सामने बिलखती है, ‘मुझे पुलिस ने नंगा कर पीटा.’
क्या पाना है अब नीतीश जी को ? और क्या खोना है उन्हें ? आज के बिहार की इन राजनीतिक जटिलताओं में उन्हें खोना कुछ नहीं है अब. जो खोना है वह वे बीते विधानसभा चुनाव में खो चुके. तब भी, इतना समर्थन तो उन्हें मिला ही कि वे फिर से मुख्यमंत्री हैं.
अब, नीतीश कुमार जो खो रहे हैं, वह है जनता का विश्वास, निर्बलों की आस्था, जो कभी उनकी पूंजी थी. उन्हें सोचना होगा कि अचानक से बिहार की आपराधिक घटनाओं का सुर्खियों में आना और उससे भी अफसोसनाक, पुलिस का ऐसा चरित्र सामने आना अतीत की उनकी तमाम गौरव गाथाओं को कलंकित कर रहा है.
बातें नीतीश कुमार से आगे भी जाती हैं. तंत्र की ऐसी अमानुषिकताएं सिर्फ किसी राजनेता की प्रशासनिक विफलताओं से सम्बद्ध नहीं की जा सकती. यह पूरे तंत्र के ही नहीं, पूरी सभ्यता के सांस्कृतिक और नैतिक पतन का आख्यान है. आखिर, कोई दारोगा नैतिक रूप से इतना पतित कैसे हो सकता है कि कोई हत्यारा, बलात्कारी उसे फोन पर डिक्टेट करे ? कोई पुलिस अधिकारी थाने में किसी महिला को नंगा कर कैसे पीट सकता है ? ये लोग पहले इंसान हैं, उसके बाद ही तो पुलिस हैं.
बैद्धिक, वैज्ञानिक और तकनीकी विकास के ऊंचे शिखर पर खड़ी मनुष्यता नैतिक रूप से कितनी पतित होती गई है ? मानवता और कानून की रक्षा करने वाले तंत्र में कितनी अमानवीयता पसर चुकी है ?
लगता है, यह सब लिखना अरण्य रोदन के सिवा कुछ भी नहीं लेकिन, इन सब घटनाओं के बारे में सुन कर, पढ़ कर कोई आम आदमी, कोई निरीह आदमी क्या करे ? वह अगर कहीं कुछ बोल सकता है तो बोले तो सही, वह अगर कहीं कुछ लिख सकता है तो लिखे तो सही. भले ही उसके बोलने या लिखने से कुछ फर्क नहीं पड़ता, लेकिन अगर कभी भी कुछ भी फर्क पड़ना है तो यह बोलने और लिखने से ही पड़ेगा.
Read Also –
[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]