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भगतसिंह के जन्मदिन पर : तख़्तापलट का गुप्त षड्यन्त्र

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जब भगत सिंह और उनके साथी भारतीय और अन्तरराष्ट्रीय क्रान्तिकारी आन्दोलन की समीक्षा करते हुए लोगों से उसे साझा कर रहे थे तो भारत की स्वतन्त्रता-प्राप्ति के ढंग और स्वतन्त्रता-आन्दोलन के दरपेश पैदा रुकावटों के बारे में चर्चा भी पूरे ज़ोर से चल रही थी. मई, 1928 से सितम्बर, 1928 तक जब भगत सिंह पूरी तरह ‘किरती’ अख़बार चलाने में व्यस्त थे, उस समय के ये लेख यहांं दिये जा रहे हैं. चाहे इनके लेखकों के नामों का पता नहीं, लेकिन ये लेख शहीद भगत सिंह और उनके साथियों के तत्कालीन विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसीलिए इन्हें यहांं दिया जा रहा है. शहीद भगवतीचरण वोहरा ‘किरती’ अख़बार से गहरे रूप से जुड़े हुए थे.

जनवरी, 1928 में जब शहीद भगत सिंह के दो लेख ‘किरती’ में छपे तो उनके साथ एक लेख ‘तख़्तापलट गुप्त षड्यन्त्र’ नाम से भी छपा. इसके लेखक का नाम नहीं दिया गया, लेकिन अंग्रेज़ सरकार किस तरह के तरीके इस्तेमाल कर क्रान्तिकारी आन्दोलन के खि़लाफ प्रचार करती थी, यह लेख इस सम्बन्ध में अच्छी जानकारी देता है.

इस लेख को विस्तार देकर अगर आज की परिस्थिति तक लाया जाय तो यह लेख आज के सरकार पर भी उसी तरह खड़ी उतरती है, जैसे अंग्रेजों के दौर में सही थी. बल्कि आज का यह सरकारी दमन अंग्रेजी काल से भी ज्यादा भयानक और क्रूर है, जब पुलिस और न्यायतंत्र एक साथ मिलकर देश की आम जनता पर टुट पड़ी है. फर्क केवल इतना ही पड़ा है कि अंग्रेज तख्तापलट करने वाले को पकड़ता था, पर यहां तो मास्क न पहनने वाले, बिजली पानी की मांग करने वाले भी देशद्रोह जैसे मुकदमे में पीस रहे हैं, या उन्हें मारा जा रहा है.

एक आंकड़े के अनुसार पिछले 6 महीने में भारतीय सत्ता की लठैत पुलिस और दलाल जजों ने मिलकर तकरीबन 92 हजार लोगों को मौत के घाट उतार दिया है, बहानों की पड़ताल आप करते रहिये. वहीं, हजारों जनवादी लोगों को जेलों में ठूंस दिया है, जो बेहद ही हास्यास्पद मुकदमें में डाले गये हैं. मसलन, एक जनवादी लेखक ने मोदी को मारने का प्लान बनाकर वह अपने तकिया के नीचे छिपा कर रखे हुए थे. एक ने तो बकायदा लेपटॉप पर मोदी को मारने का प्लान बना कर रखे थे. वैसे भी सोचने की बात है मोदी जैसे अधपागल को भला कोई क्यों मारना चाहेगा जबकि उसका पागलपन भरा हिस्टिरिया पूरी दुनिया में कुख्यात हो चुका है. बहरहाल इस लेख पर नजर डालते हैं. (सं.)

भगतसिंह के जन्मदिन पर : तख़्तापलट का गुप्त षड्यन्त्र

अख़बार पढ़ने-सुनने वाले लोग इस बात से परिचित हैं कि ऐसी ख़बरें अक्सर छपती ही रहती हैं कि हिन्द में आज फलांं जगह अंग्रेज़ी सरकार के खि़लाफ षड्यन्त्र का पता पुलिस ने लगाया है और फलांं स्थान पर षड्यन्त्र का मुकदमा चलाया गया है. आज फलांं जगह षड्यन्त्रकारियों को फांंसी दी गयी है. अभी ही एक ख़बर छपी है कि एक ऐसे षड्यन्त्र का मुकदमा चलने वाला है, जिसमें चारों उत्तरी प्रान्त लपेटे जायेंगे. ऐसी ख़बरें पढ़कर आम भोले-भाले लोग इन षड्यन्त्रों सम्बन्धी अपने दिल में बड़े बुरे विचार रखने लगते हैं. वास्तव में उन्हें इन षड्यन्त्रों से सम्बन्धी कोई जानकारी नहीं होती, जिससे इस विषय पर प्रकाश डालना ज़रूरी है. जिस तरह रात के बाद दिन और दिन के बाद रात आने की वास्तविकता से कोई इन्कार नहीं कर सकता, उसी तरह की वास्तविकता इस कथन में है कि हिन्दुस्तान इस गुलामी को उतारकर आज़ाद हो जायेगा. यह बात अलग है कि इस मनोरथ को पूरा करने में समय कम या ज़्यादा लगे, और मूल्य भी महंगा ही देना पड़े. यही वास्तविकता मज़दूर वर्ग सम्बन्धी है कि आज वह भी पूंंजीपतियों की गुलामी का जुआ उतारकर ही रहेगा.

आज़ादी के आन्दोलन दुनिया में न कभी रुके हैं और न रुक सकते हैं, लेकिन इन्हें रोकने के लिए कौमों और मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के विरोधियों ने जो-जो हथियार इस्तेमाल किये हैं, वे साक्षात रूप में इतिहास में मौजूद हैं और इन्हें अच्छी तरह समझने के लिए हिन्दुस्तान का मौजूदा इतिहास ही काफी है.

जब आज़ादी का कोई आन्दोलन सफल तरीकों पर चलता दिखायी दे तो इसे असफल करने के लिए इसके सेवकों पर सबसे बड़े आरोप जो लगाये जाते हैं, वे यह होते हैं – 1. कि ये षड्यन्त्र कर रहे हैं, और 2. ये धर्म-विरोधी हैं. इस लेख में इन दोनों विषयों पर विचार करने का यत्न करना है ताकि आम जनता को इनकी तह तक पहुंंचने का अवसर मिले और यह पता चल सके कि सही मायनों में षड्यन्त्र करने वाला और धर्मों का विरोधी कौन होता है और किस तरह दुनिया का भला करने वालों को षड्यन्त्रकारी और अधर्मी कहा जाता है. वास्तव में षड्यन्त्रकारी और अधर्मी तो ये स्वयं होते हैं.

गुप्त तख़्तापलट आन्दोलन

वर्तमान सरकार यह हल्ला करती नहीं थकती कि हिन्दुस्तान में गुप्त तख़्तापलट आन्दोलन कायम है. इस आन्दोलन के अस्तित्व को प्रकट करने के लिए कहीं न कहीं से टूटे-फूटे पिस्तौल और बम आदि अपने ख़ुशामदियों के माध्यम से पकड़ने का ढोंग रच लेती है और कहीं किसी अधिकारी पर कोई ख़ाली जाने वाला हमला ही करवाया जाता है और कभी रेलपटरी के पेंच ढीले किये जाते हैं, जबकि लाट साहिब आदि को गुज़रना हो. यह सब ऐसी बातें हैं, जिन्हें गुप्त तख़्तापलट षड्यन्त्र या आन्दोलन आमतौर पर इस्तेमाल करते हैं लेकिन इस समय यह सब कुछ पुलिस की ओर से हो रहा है, जिसका सबूत इस बात से मिलता है कि बताये गये तख़्ता पलटने वालों की इस कार्रवाई से नुकसान कहांं तक होता है ?

बंगाल को इस समय सरकार इस आन्दोलन का घर बता रही है. पिछले कुछ सालों में चाहे बंगाल पुलिस ने कितनी ही जगहों से टूटे-फूटे हथियार आदि पकड़े और कई बार सरकारी अधिकारियों पर हमलों की साज़िश का अस्तित्व भी बताया, लेकिन आज तक वहांं किसी भी सरकारी अधिकारी की या कोई राजनीतिक मृत्यु नहीं हुई, जिससे यह सिद्ध होता है कि यह सबकुछ पुलिस के आदमी ही करते हैं. यदि तख़्ता पलटने वाले किसी सरकारी अधिकारी की जान लेने के लिए तैयार हो जायें तो क्या वे उसे सूखा जाने देंगे ? यदि तख़्ता पलटने वाले हथियार आदि रखें तो क्या इस तरह के टूटे-फूटे ही रखें, जिनके बारे में बंगाल पुलिस भी अपनी गवाहियों में बता चुकी है कि ये हथियार चलाने वालों के लिए ही ज़्यादा ख़तरनाक हैं और जिस पर चलाये जाते हैं उसके लिए कम ! यदि तख़्ता पलटने वाले गाड़ियांं उलटने का यत्न करें तो क्या इसमें सफल न हों ? ये सब ऐसी बातें हैं जो सिद्ध करती हैं कि यह सबकुछ आज़ादी के उपासकों को कुचलने के लिए पुलिस-कर्मचारियों की ओर से किया जाता है.

हमें इस बात से इन्कार नहीं कि हिन्दुस्तान में तख़्ता पलटने का आन्दोलन है, लेकिन हमारा कहना है कि इस समय जो हो रहा है वह पुलिस की ओर से है और इतिहास बताता है कि जब भी कोई तख़्ता पलटने का काम शुरू करते हैं, वे अपने वार कम ही ख़ाली जाने देते हैं. और सरकार को भी यह निश्चय रखना चाहिए कि ऐसे लोगों को (जिनका धर्म-ईमान ही देश की आज़ादी हो और जो बांंकी सब तरीकों से निराश होकर आज़ादी के लिए इस तरीके पर भरोसा रखने लगें) दबाने में वह कभी भी सफल नहीं हो सकती, चाहे वह कितनी ही सख़्तियांं करे और कितनी ही चालें चले और न ही आज तक कोई सरकार इसमें सफल हुई है. इन आन्दोलनों को समाप्त करने का सही तरीका तो यही है कि उन लोगों की मांंग पूरी की जाये, ताकि वे शान्त हों.

ऊपर जो बताया गया है यह केवल हमारा अपना ही ख़याल नहीं, बल्कि इसकी पुष्टि बंगाल आर्डिनेंस सम्बन्धी कई ज़िम्मेदार सज्जनों के भाषणों और उनके बयानों से होती है. इन्हीं सज्जनों के सवालों का उत्तर सरकार की ओर से सिवाय चुप के कुछ नहीं मिला. नीचे हम अपने विचारों की पुष्टि के लिए कुछ उद्धरण दे रहे हैं जिनसे स्पष्ट सिद्ध हो जायेगा कि सरकार कैसे हिन्दुस्तान को गुलाम रखने के लिए कमीनी चालें चल रही है.

श्रीयुत सुभाषचन्द्र बोस को, जो कि कलकत्ता नगर सभा के चीफ एग्ज़्यूक्टिव ऑफिसर थे और जिन्हें तख़्ता पलट करने का अपराधी कहकर बंगाल आर्डिनेंस के अनुसार जेल में बन्द किया गया था, अब ख़राब सेहत के कारण रिहा किया गया है. आपने बंगाल आर्डिनेंस के सम्बन्ध में अभी एक बयान प्रकाशित करवाया है, जिसमें आप लिखते हैं –

बंगाली राजनीतिक नज़रबन्दों को और देर तक जेलों में बन्द रखने की कोई सन्तोषजनक वजह न होने के कारण पुलिस ने अब बम और टूटे हुए पिस्तौल पकड़ने शुरू कर दिये हैं, ताकि सिद्ध किया जा सके कि तख़्तापलट आन्दोलन अभी तक मौजूद है. वास्तव में पिछले कुछ सालों में जब भी कभी बंगाली राजबन्दियों की रिहाई की चर्चा चली है और जब भी कभी असेम्बली या बंगाल कौंसिल में नज़रबन्दों के सवाल पर विचार करने के लिए बैठक हुई है तो पुलिस के हाथों में खेलने वाले कुछ लोग अपने पास से हथियार लेकर झट गिरफ्तारी के लिए पुलिस के आगे पेश हो जाते रहे हैं और फौरन ही कथित बम-कारख़ानों का पता पुलिस को लग जाता है. इन कारख़ानों में आमतौर पर कुछ मसाला होता है, जो हर जगह मिल सकता है. फिर टूटे हुए पिस्तौल, जोकि जिस पर निशाना साधा जाये उससे ज़्यादा ख़तरनाक उसे चलाने वालों के लिए हो सकते हैं, जैसाकि दक्षिणेश्वर बम केस में पुलिस के गवाहों ने अपने मुंंह से माना कि ये दोनों चीज़ें चाहे इस्तेमाल में किसी काम की न हों, लेकिन किसी को अपराधी ठहराने के लिए काफी होती हैं.

तख़्तापलट षड्यन्त्र साबित करने के लिए शस्त्र कानून के अन्तर्गत चलाये गये साधारण मुकदमों को पुलिस और एंग्लो-इण्डियन अख़बारों की ओर से पोलिटिकल मुकदमे सिद्ध किया जाता है. अभी एक ऐसे पोलिटिकल मुकदमे में जो वायदा माफ गवाह बना, वह एक पुराना पुलिस एजेण्ट है.

पिछले कुछ सालों में निःसन्देह पुलिस की ओर से मनगढ़न्त तख़्तापलट आन्दोलन बनाने के लिए दलाल (Agent Provocateuors) रखे जाते हैं ताकि ख़ुफिया पुलिस के ख़ास हिस्से (Intelligence Branch) को कायम रखने की ज़रूरत सिद्ध की जा सके, जिन्हें कुछ साल पहले बंगाल की सरकारी ख़र्च कम करने वाली समिति (Bengal Retrenchment Committee) ने हटाने की सिफारिश की थी. मैं यह बयान अपनी ज़िम्मेदारी को पूरी तरह अनुभव कर लिख रहा हूंं और जो आरोप मैं पुलिस पर लगा रहा हूंं, इनकी जांंच के लिए यदि कोई निष्पक्ष समिति बनायी जाये और नज़रबन्दों और पब्लिक को यदि इसके सामने गवाहियांं देने में कोई बाधा न दी जाये और पूरी छूट हो तो इसके प्रमाण देने को भी मैं प्रस्तुत हूंं…

स्वर्गवासी श्रीयुत देशबन्धुदास जी ने भी बंगाल कौंसिल में भाषण देते हुए 23 जनवरी, 1924 को साफ-साफ बताया कि कैसे ऊल-जलूल (सबूत) इकट्ठा कर बंगाली देशभक्तों को जेल में डाल दिया गया है और किस प्रकार के निराधार आरोप लगाये गये हैं. आपने यह भी ज़ाहिर किया कि इस तरह के आन्दोलन दमनकारी तरीकों से दबाये नहीं जा सकते. नीचे आपके द्वारा कौंसिल में दिया गया भाषण पूरे का पूरा दर्ज़ है –

हमें यह शिकायत नहीं है कि सरकार ने इन व्यक्तियों को बग़ैर कोई सूचना एकत्र किये ही गिरफ्तार कर लिया है, लेकिन हमारी शिकायत यह है कि इन सूचनाओं की अच्छी तरह जांंच नहीं की गयी और हमारी इस शिकायत के उत्तर में एक शब्द भी नहीं कहा. हमें यह बताया गया है कि इस सम्बन्ध में कई आदमियों ने बयान दिये हैं और यह भी बताया गया है कि जो रिपोर्टें मिली हैं, सरकार ने उन पर विचार किया है. लेकिन जो कुछ मैं पूछना चाहता हूंं वह यह है कि कोई सरकारी अधिकारी चाहे कितना भी योग्य क्यों न हो, किसी बयान के ठीक होने का अनुमान कैसे कर सकता है, जब तक कि बयान देने वाले को सामने बुलाकर उससे सवाल न किये जायें ?

भगत सिंह और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित यह लेख यहां समाप्त हो जता है. यह लेख बताता है कि किस तरह सरकार स्वयं पुलिस का सहारा लेकर क्रांतिकारी ताकतों को बदनाम करने, उन्हें फर्जी तरीके से फंसाने और उनकी हत्या करने के षड्यंत्रों में लिप्त रहती है. आज की यह साम्प्रदायिक फासीवादी सरकार भी अंग्रेजी हुकूमत से प्राप्त इस हथकंडा का इस्तेमाल बेरोकटोक कर रही है, जिसके शिकार जनवादी प्रगतिशील लोग हो रहे हैं, चाहे मामला भीमा कोरेगांव में संघियों द्वारा भड़काई हिंसा में देश के बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों की अवैध गिरफ्तारी हो या दिल्ली दंगा के नाम पर बनाये गये फर्जी मुकदमों का ममला हो.

पुलिस सरकारी तंत्र के संगठित अपराधी गिरोह की तरह कार्य कर रही है. इसका खामियाजा भी स्वयं पुलिस बल ही भुगतती है और इसकी कीमत भी अदा करती है. वह न केवल जनता की निगाह में ही बदनाम होती है वरन सरकार भी उसे भाड़े के गुंडे से ज्यादा कुछ भी नहीं समझती है. इसके पहले की पुलिसिया तंत्र जनता के गुस्से का शिकार हो कर अपने प्राण गंवा दे, सचेत हो जाना चाहिए क्योंकि जनता से बड़ी और शक्तिशाली इस दुनिया में और कुछ भी नहीं है.

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ROHIT SHARMA

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