आज जब नागरिकता संशोधन विधेयक, CAB के माध्यम से भारत की अवधारणा के अस्तित्व पर आघात किया जा रहा है तो लगभग डेढ़ सौ साल पहले विवेकानंद के उस कालजयी भाषण का अंश यह पढा जाना चाहिये, जिसके लिये विवेकानंद, स्वामी विविदिशानंद से स्वामी विवेकानंद बने थे. उनको यह सम्बोधन खेतड़ी के महाराजा ने, शिकागो में होने वाली विश्व धर्म संसद में भाग लेने के पहले दिया था.
विवेकानंद आधुनिक भारत के उन मनीषियों में से रहे हैं, जिन्होंने हिंदू धर्म की मूल आत्मा का दर्शन अमेरिका में लोगो को कराया था. उनके संक्षिप्त पर सारगर्भित भाषण ने ईसाई पादरियों की सोच को हिला कर रखा दिया था, जो भारत को एक जादू टोने वाला और संपेरो का देश समझते थे.
ईसाई मिशनरी खुद को सभ्य और वैचारिक रूप से प्रगतिशील समझने के एक सतत दंभ की पिनक में सदैव रहते हैं. अपने धर्मावलंबियों की संख्या बढ़ाने के लिये धर्मांतरित करने वाले सेमेटिक धर्मो के अनुयायियों और धर्मगुरुओं के लिए भारतीय, वांग्मय, विश्व बंधुत्व, एकेश्वरवाद, से लेकर सर्वेश्वरबाद, बहुदेववाद, से होते हुये, निरीश्वरवाद तक और मूर्तिपूजा से लेकर निराकार ब्रह्म तक की मान्यता वाला यह महान धर्म, अनोखा और विचित्र ही लगा था.
यह भी एक दुःखद सत्य है कि धर्म की सनातन और दार्शनिक व्याख्या करने वाले महान शंकराचार्य और विवेकानंद दीर्घजीवी नहीं रहे, पर उनके लिखे और कहे गए प्रवचन तथा साहित्य से उनकी सोच का पता चलता है. इसी उदारता, तार्किकता और सबको साथ लेकर चलने की आदत ने भारत भूमि में जैन, बौद्ध, सिख, और यहां तक इस्लामी सूफीवाद को भी अपनी बात कहने और उन्हें पनपने के लिये उर्वर वातावरण उपलब्ध कराया.
आज भारत मे धर्म, ईश आराधना, उपासना पद्धति के जितने रूप विद्यमान हैं, और थे, वे सभी, दार्शनिक रूप से हिंदू धर्म की किसी न किसी मान्यता से जुड़े हुये हैं. धर्म धारण करता है. वह आधार देता है. वह मनुर्भव की बात करता है. वसुधैवकुटुम्बकम के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है. विवेकानंद ने इसी बात को अपनी ओजस्वीवाणी और प्रभावपूर्ण शब्दो मे सबके सामने शिकागो में रखा था.
आज जिस हिंदुत्व का पाठ पढ़ाया जा रहा है, वह न तो वेदों का है, न उपनिषदों का, न शंकराचार्य का है, न विवेकानंद का, न भक्तिकाल के निर्गुण ब्रह्म की उपासना करने वाले संत कवियों का है, न राम और कृष्ण को अपनी लेखनी से घर घर पहुंचा देने वाले तुलसीदास और सूर का है; न यह राजा राममोहन राय के ब्रह्मो समाज का है, न वेदों की ओर लौटो का संदेश देने वाले स्वामी दयानंद का है. न तो यह मानसिक विकास की बात करने वाले गूढ़ दार्शनिक अरविंदो का है और न ही सबको एक समान धरातल पर रख कर सोचने वाले अधोर कीनाराम का है. वह तो यह संकट काल मे राह दिखाने वाली गीता का भी नहीं है; फिर वह किस हिंदू धर्म की बात करता है ?
हिंदुत्व की यह विचारधारा, जिसका ढोल आज पीटा जा रहा है, वह भारत मे यूरोपीय संकीर्ण राष्ट्रवाद को रोपने के लिये भारतीय प्रतीकों, और शब्दजाल से बुनी हुयी एक प्रच्छन्न अवधारणा है जो सनातन धर्म से बिलकुल अलग है. यह स्वामी विवेकानंद के शिकागो भाषण का एक अंश जो उनके द्वारा 11 सितंबर 1893 को दिया गया था. अब उनके भाषण का यह अंश पढें –
स्वामी विवेकानंद का विश्व धर्म सम्मेलन शिकागो संबोधन –
अमेरिका के बहनों और भाइयों,
आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है. मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं. मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिंदुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं. मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है. मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है. हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं.
मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है. मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इजरायलियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़-तोड़कर खंडहर बना दिया था और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी. मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और अभी भी उन्हें पाल-पोस रहा है.
भाइयो, मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा जिसे मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और जो रोज करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता हैरू जिस तरह अलग-अलग स्त्रोतों से निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद में जाकर मिलती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है. वे देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, पर सभी भगवान तक ही जाते हैं. वर्तमान सम्मेलन जो कि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, गीता में बताए गए इस सिद्धांत का प्रमाण है, जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं. लोग चाहे कोई भी रास्ता चुनें, आखिर में मुझ तक ही पहुंचते हैं.
सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इसके भयानक वंशज हठधमिर्ता लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं. इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है. कितनी बार ही यह धरती खून से लाल हुई है. कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं.
अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है. मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा.
- बी. एम. प्रसाद
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