हिमांशु कुमार, प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक
14 जुलाई 2022 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि 16 आदिवासियों की हत्या बाबत दायर किया गया मुकदमा झूठा है और इसके लिए हिमांशु कुमार पर पांच लाख रूपये का जुर्माना लगाया जाय और मुझ पर धारा 211 के अंतर्गत मुकदमा चलाया जाय तथा सीबीआई मेरा सम्बन्ध माओवादियों से होने की जांच भी कर सकती है.
इस बारे में मेरा कहना यह है कि मामला झूठा होने का फैसला गलत है क्योंकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कोई जांच ही नहीं कराई है.।2009 में छत्तीसगढ़ के सुकमा ज़िले के गोमपाड गांव में सोलह आदिवासियों की पुलिस और सुरक्षा बलों द्वारा हत्या की गई थी. मारे गये लोगों में महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग लोग थे. एक डेढ़ साल के बच्चे की उंगलियां काट दी गई थी.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मैंने यह मुकदमा माओवादियों की मदद करने के लिए किया है लेकिन मुझे यह समझ में नहीं आ रहा कि अगर सुप्रीम कोर्ट पीड़ित लोगों को न्याय देगा तो उससे माओवादियों को क्या फायदा हो जाएगा ? और अगर न्याय ना दिया जाय तथा मुझ जैसे न्याय मांगने वाले व्यक्ति पर ही जुर्माना लगा दिया जाय तो उससे देश का क्या फायदा हो जाएगा ?
मेरे द्वारा यह कोई अकेला मामला कोर्ट में नहीं ले जाया गया है. मैंने 519 मामले सुप्रीम कोर्ट को सौंपे हैं, जिनमें पुलिस द्वारा की गई हत्याएं, बलात्कार, अपहरण और लूट के मामले शामिल हैं. मेरे द्वारा उठाये गये मामले सही साबित हुए हैं. एक भी मामला झूठा नहीं पाया गया है.
2009 में सिंगारम गांव में 19 आदिवासियों को लाइन में खड़ा करके पुलिस ने गोली से उड़ा दिया था, जिनमें चार लडकियां थी, जिनके साथ पहले बलात्कार किया गया था. इस मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने अपनी रिपोर्ट में इसे फर्जी मुठभेड़ माना है.
2008 में माटवाड़ा में सलवा जुडूम कैम्प में रहने वाले तीन आदिवासियों की पुलिस ने चाकू से आंखें निकाल ली थी और उन्हें मार कर दफना दिया था और इलज़ाम माओवादियों पर लगा दिया था. उस मामले को लेकर मैं हाई कोर्ट गया. मानवाधिकार आयोग ने इस मामले की जांच की और स्वीकार किया कि हत्या पुलिस ने की थी. इस मामले में थानेदार और दो सिपाही जेल गए.
2012 में सारकेगुडा गांव में सत्रह आदिवासियों की हत्या सीआरपीएफ ने की। सरकार ने कहा यह लोग माओवादी थे. हम लोगों से गांव वालों ने मिलकर बताया कि मारे गये लोग निर्दोष थे, जिसमें नौ बच्चे थे. अंत में न्यायिक आयोग की जांच रिपोर्ट में पाया गया कि मारे गये लोग निहत्थे, निर्दोष आदिवासी थे.
2013 में एडसमेट्टा गांव में सात आदिवासियों की पुलिस ने हत्या की. सरकार द्वारा दावा किया गया कि यह लोग माओवादी थे. बाद में न्याययिक आयोग की रिपोर्ट आई कि यह लोग निर्दोष आदिवासी थे.
हमारे द्वारा, सुरक्षा बलों के सिपाहियों द्वारा आदिवासी महिलाओं से बलात्कार की शिकायतें दर्ज कराई गई. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की टीम ने जांच की और रिपोर्ट दी कि सोलह आदिवासी महिलाओं के पास प्राथमिक साक्ष्य मौजूद हैं, जिससे पता चलता है कि उनके साथ सुरक्षा बलों के सिपाहियों ने बलात्कार किये हैं.
2011 में सरकार ने मेरी छात्रा और आदिवासी शिक्षिका सोनी सोरी को माओवादी कहा और उन पर सात मुकदमें लगा कर उन्हें जेल में डाल दिया. हमने कहा कि सोनी सोरी निर्दोष है. अंत में अदालत ने भी माना कि सोनी सोरी निर्दोष हैं. उन्हें सातों मामलों में बरी कर दिया.
मेरे द्वारा शिकायत की गई कि छत्तीसगढ़ की जेलों में ऐसी आदिवासी लडकियां बंद हैं, जिन्हें पहले पुलिस थाने में बिजली के झटके देकर जलाया गया, यौन प्रताड़ना दी गयीं और उसके बाद उन्हें फर्जी मामलों में फंसा कर जेल में डाल दिया गया है.
मेरे इस इलज़ाम के समर्थन में महिला उप जेलर वर्षा डोंगरे ने कमेन्ट किया और लिखा कि ‘हिमांशु कुमार बिलकुल सच कह रहे हैं. मैं जब बस्तर जेल में पदस्थ थी तो मैंने खुद ऐसी नाबालिग आदिवासी लड़कियों को देखा था, जिनके शरीर पर बिजली से जलाए जाने के निशान थे. जिसे देख कर मैं कांप गई.’ इस कमेन्ट के बाद सरकार ने वर्षा डोंगरे को सच बोलने के जुर्म में सस्पेंड कर दिया था. बाद में उन्हें फिर से बहाल किया गया.
जब आज तक मेरे द्वारा उठाया गया एक भी मामला झूठा नहीं पाया गया है तो सर्वोच्च न्यायालय गोमपाड गांव में मारे गये सोलह आदिवासियों के इस मामले में बिना जांच कराये मुझे झूठा कैसे कह रहा है ?
न्यायालय ने कहा है कि इस मामले में पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज कर ली थी और चार्जशीट भी फ़ाइल कर दी थी इसलिए हमें पुलिस की कार्यवाही पर भरोसा करना चाहिए था और सर्वोच्च न्यायालय नहीं आना चाहिए था, लेकिन जो पुलिस हत्या करने वाले गिरोह में शामिल थी, उसकी जांच पर पीड़ित कैसे भरोसा कर सकते थे ?
पीड़ित आदिवासी इसीलिये सुप्रीम कोर्ट आये थे क्योंकि उन्हें पुलिस के खिलाफ ही न्याय चाहिए था इसलिए उन्होंने मांग की कि सीबीआई या एसआईटी से जांच कराई जाय क्योंकि पुलिस ही हत्याकांड में शामिल थी.
इसके अलावा पीड़ित ग्रामीणों ने पहले दंतेवाडा के पुलिस अधीक्षक को पूरी घटना की शिकायत लिख कर भेजी थी लेकिन उन्होंने कोई मदद नहीं की. एसपी को भेजे गये इन शिकायती पत्रों की प्रतिलिपि सुप्रीम कोर्ट को सौंपी गई थी. सुप्रीम कोर्ट जानता था कि लोकल पुलिस ने कोई मदद नहीं की थी.
कहा गया है कि बारह में से छह आवेदकों ने दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट में मजिस्ट्रेट के सामने दिए गये बयान में हमलावरों को ना पहचानने का बयान दिया जबकि पेटीशन में उन्होंने हमलावरों को पुलिस के रूप में बताया था. इस बाबत तथ्य यह है कि इन छह लोगों का पुलिस ने अपहरण किया था ताकि खुद को बचने के लिए फर्जी सबूत गढे जा सकें (false evidence). इस अपहरण का विडियो भी हमारे पास मौजूद है जिसे वहां मौजूद पत्रकारों ने बनाया था.
अपहरण के बाद अवैध हिरासत में रख कर पुलिस ने इन पीड़ित आदिवासियों को जान से मारने की धमकी देकर बयान दिलवाया, जिसमें आदिवासियों ने कहा कि जंगल से वर्दीधारी लोग आये और उन्होंने हमारे परिवार के सदस्यों की हत्या की. इन लोगों ने यह नहीं कहा कि हिमांशु झूठ बोल रहा है या मुकदमा उन्होंने किसी दबाव में डाला है. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट की यह जिम्मेदारी बनती थी कि वह यह जांच करवाता कि हत्यारे कौन थे ?
आखिर सुप्रीम कोर्ट हत्या में आरोपी पुलिस को बिना जांच के कैसे क्लीन चिट दे सकता है ? और बिना जांच के हमें कैसे दोषी कह सकता है ?
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