हिन्दू-समाज में पुजने के लिए केवल लंगोट बांध लेने और देह में राख मल लेने की जरूरत है; अगर गांजा और चरस उड़ाने का अभ्यास भी हो जाए, तो और भी उत्तम. यह स्वांग भर लेने के बाद फिर बाबाजी देवता बन जाते हैं. मूर्ख हैं, धूर्त हैं, नीच हैं, पर इससे कोई प्रयोजन नहीं. वह बाबा हैं. बाबा ने संसार को त्याग दिया, माया पर लात मार दी, और क्या चाहिए ? अब वह ज्ञान के भंडार हैं, पहुंचे हुए फकीर, हम उनके पागलपन की बातों में मनमानी बारीकियां ढूंढ़ते हैं, उनको सिद्धयों का आगार समझते हैं. फिर क्या है ! बाबा जी के पास मुराद मांगने वालों की भीड़ जमा होने लगती है.
सेठ-साहूकार, अमले फैले, बड़े-बड़े घरों की देवियां उनके दर्शनों को आने लगती हैं. कोई यह नहीं सोचता कि एक मूर्ख, दुराचारी, लंपट आदमी क्योंकर लंगोटी लगाने से सिद्ध हो सकता है. सिद्धि क्या इतनी आसान चीज़ है ? इसमें मस्तिष्क से काम लेने की मानो शक्ति ही नहीं रही. दिमाग को तकलीफ नहीं देना चाहते हैं. भेड़ों की तरह एक-दूसरे के पीछे दौड़े चले जाते हैं, कुएं में गिरें या खंदक में, इसक गम नहीं. जिस समाज में विचार-मंदता का ऐसा प्रकोप हो, उसको संभालते बहुत दिन लगेंगे.
हमारे इस अंध-विश्वास से अपना मतलब निकालने वालों के बड़े-बड़े जत्थे बन गए हैं. ऐसी कई जातियां पैदा हो गई हैं, जिनका पेशा ही है इस तरह स्वार्थ से भोले-भाले भक्तों को ठगना. ये लोग रूप भरना खूब जानते हैं. बाबाओं की पेटेंट शैली में बातचीत करने का और नए-नए हथकंडे खेलने का उन्हें खूब अभ्यास होता है. एक सिद्ध बन जाता है, कई उसके चेले बन जाते हैं, और किसी उजाड़ स्थान पर डेरा डाल देते हैं, मानो आदमियों के साथ से भी भागना चाहते हैं, भोग-विलास में लिप्त मनुष्यों से किसी तरह का संसर्ग नहीं रखना चाहत.
किसी तरह यह अफवाह उड़ा दी जाती है कि बाबा जी फौहारी हैं, केवल एक बार तोला पर दूध ही लेते हैं. एक दिन, दो दिन यह मंडली, निष्काम भाव से ऊजड़ में घात लगाए पड़ी रहती है. बस, भक्तों का आना शुरू हो जाता है. बाबा जी ‘संसार मिथ्या है’ का उपदेश देने लगते हैं, उधर घी, शक्कर और आटे की झड़ी लग जाती है, लकड़ियों के कुवें गिरने लगते हैं. कुछ भक्त लोग इन त्यागियों के लिए कुटी बनाना शुरू कर देते हैं, और मर्द भक्तों से कहीं अधिक संख्या स्त्री भक्तों की होती है. कोई लड़के की मुराद लेकर आती है, कोई अपने पति की किसी सौतिन के रूप-फांस से छुड़ाने के लिए.
जिन लफंगों को दो आने रोज की मंजूरी न भी लगती, वे ही हिन्दुओं के इस अंधविश्वास के कारण खूब तर माल उड़ाते हैं, खूब नशा पीते हैं और खूब मौज करते हैं, और चलते वक्त सौ पचास रुपये, कोई ब्रह्म-भोज कराने या भंडारा चलाने के लिए वसूल कर लेते हैं. समाज सेवा का कोई-न-कोई आधार यह लोग जरूर खड़ा कर लेते हैं. कोई मंदिर बनवाने का व्रत ठाने बैठा है, कोई तलाब खुदवानें का, कोई पाठशाला खोलने का और कुछ न हुआ तो तीर्थयात्रा तो है ही- ‘इतनी मूर्तियां रामेश्वरम् यात्रा करने जा रही है, हिन्दू मात्र का कर्तव्य है कि उन्हें रामेश्वरम् पहुंचाए !’
बिना हर्र-फिटकरी के माल चोखो करने का यह व्यवसाय इतना आम हो गया है कि आज हर पच्चीस आदमियों में से एक साधू है और ऐसे भिक्षुकों की तो गिनती ही नहीं, जो खैरात पर जिंदगी बसर करते हैं. ज्यादा नहीं तो पच्चीस करोड़ में पांच करोड़ तो ऐसे लोग होंगे ही. जिसे तुम धर्म समझ रहे हो असल में वह एक व्यापार हैं भोग विलास सुख सुविधाओं को इकठ्ठा करने का एक पुख्ता साधन. जिसे तुम धर्म समझ रहे हो असल में वह एक व्यापार हैं भोग विलास सुख सुविधाओं को इकठ्ठा करने का एक पुख्ता साधन.
जिस समाज पर इतने मुफ्तखोरों का भार लदा हुआ है, वह कैसे पनप सकता है, कैसे जाग सकता है ? ये लोग बार-बार यही प्रयत्न करते रहते हैं कि समाज अंधविश्वास के गर्त में मूर्च्छित पड़ा रहे, चेतने न पावे. हमें खूब चकाचक माल खिलाओ, स्वर्ग में तुम्हें इससे भी बढ़िया माल मिलेगा. इस हाथ दो, उस हाथ लो. स्वर्ग का रूप भी कितना मोहक खींच रखा है कि इन लोगों की कल्पना शक्ति पर कुर्बान जाइए. मृत्यु-लोक में जो कुछ दुर्लभ है, वह सब वहां गली-गली मारा-मारा फिरता है. ऐसे सुख के लिए किसी भिक्षुक को थोड़ा-सा भोजन करा देना, किसी देवता को जल चढ़ा देना या किसी नदी में एक डुबकी लगा देना, कौन खुशी से स्वीकार न करेगा. जब इतनी आसानी से मोक्ष मिल सकता है, तो किसी साधना की, ज्ञान की, सद्व्यवहार की जरूरत ?
और आज बड़ी-बड़ी ज़मींदारियों के मालिक कितने ही महंत हैं. उनकी लेन-देन की कोठियां चलती हैं, तरह-तरह के व्यवसाय होते हैं और बहुधा उन्हीं दानियों की संतानें, जिन्होंने यह जायदाद शक्ति से बनायी थी, महंतों से रुपये कर्ज़ लेती हैं. इनका भोग-विलास और ऐश्वर्य हमारे राजाओं को भी लज्जित कर सकता है. इस जायदाद का उपयोग अब इसके सिवा कुछ नहीं है कि मुस्टंडे खाएं, डंड पेलें और व्यभिचार करें. राष्ट्र के उत्थान या जागृति में यह भी एक बहुत बड़ी बाधा है. अंच विश्वासी जनता अब भी उन पर श्रद्धा रखती है. वे उसे एक चुटकी राख से स्वर्ग में दाखिल कर सकते हैं. ऐसी विभूति और किसके पास है ?
इन महंतों के दुराचार, ऐयाशी और पैशाचिकताओं की खबरें कभी-कभी प्रकाश में आ जाती हैं, तो मालूम होता है कि इनका कितना पतन हो गया है, लेकिन मुरादियों को उन पर वही श्रद्धा है. हम इतने अकर्मण्य हो गए हैं, इतने पुरुषार्थहीन कि हमें अपने पुरुषार्थ से ज्यादा भरोसा आशीर्वाद पर है. एक प्रकार से हमारी विचार-शक्ति लुप्त हो रही है. हमारे तीर्थ स्थान क्या हैं ? उगों के अड्डे और पाखड़ियों के अखाड़े. जिधर देखिए धर्म के ढोंग का बाजार गर्म है. गली-गली मंदिर, गली-गली पुजारी और भिक्षुक, पूरे नगर के नगर इन्हीं जीवों से आबाद हैं, जिनका इसके सिवा कोई उद्यम नहीं कि धर्म का ढोंग रचकर बेवकूफ भक्तों को ठगें, और क्यों न ठगें ? जब जनता खुद ठगी जाना चाहती है, तो ठगने वाले भी जरूर पैदा होंगे. जरूरत ही तो आविष्कार की मां है.
क्यों न देश कंगाल हो ? जिस समाज पर एक करोड़ कोतल मूसलचंदों के भरण-पोषण का भार हो, वह न कंगाल रहे तो दूसरा कौन रहेगा. गरीबों पर भी धर्म का जितना बड़ा टैक्स है, उतना शायद सरकार का भी न हो. कोई ग्रहण लगा और जनता तीर्थस्थानों की ओर दौड़ी. जो कुछ तन-पेट काटकर बचाया था, वह सब अंध-विश्वास की भेंट चढ़ गया, और आज स्वराज्य भी मिल जाए, और यह भी मान लें कि उस वक्त किसानों से लगान कम लिया जाएगा और टैक्सों का भार कम हो जाएगा, फिर भी अंध विश्वास के सम्मोहन में अचेत जनता इससे ज़्यादा सुखी न होगी.
तब उसका परलोक-प्रेम और भी बढ़ेगा और वह भी आसानी से पाखंडियों का शिकार हो जाएगी, और इस आर्थिक दरिद्रता से बढ़कर इस अंधविश्वास का फल जनता की बौद्धिक दुर्बलता है, जो उसकी सामाजिक उपयोगिता में बाधक होती है. उसे नदी में गोता मार लेना, या शिवलिंग पर जल चढ़ा देना, किसी भाई से सहानुभूति रखने या अपने व्यवहारों में सच्चाई का पालन करने की अपेक्षा ज्यादा फलदायक मालूम होता है.
उसने असली धर्म को छोड़कर, जिसका मूल तत्व है समाज की उपयोगिता, धर्म के ढोंग को धर्म मान लिया है. जब तक वह धर्म का यह असली रूप न ग्रहण करेगा, उसके उद्धार की आशा नहीं. शिक्षित समाज के सामने जितनी समस्याएं हैं, उनमें शायद सबसे कठिन समस्या यही है. यहां उसे अंधविश्वास की पोषक प्रबल शक्तियों का सामना करना पड़ेगा, जो अनंत काल से जनता की विचार-शक्ति पर कब्जा जमाए हुए हैं.
कितना बीभत्स है. वह दृश्य एक मोटा-सा जटाधारी जीव धूनी जलाए बैठा हुआ है और एक दर्जन मनुष्य उसके पास बैठे चरस के दम लगाकर अपने जीवन को सफल कर रहे हैं. जनता की मनोवृत्ति जब तक ऐसी है, केवल राजनैतिक अधिकारों से उसका कल्याण नहीं हो सकता.
सौभाग्य से अब देश में ऐसे सच्चे संन्यासियों का एक दल निकल आया है, जो समाज सेवा को और राष्ट्रीय जागृति को अपने जीवन का ध्येय बनाए हुए हैं; लेकिन अभी तक उन्होंने निकम्मे साधुओं में जागृति उत्पन्न करने के जितने प्रयत्न किए हैं, वे सफल नहीं हुए. न जाने कब वह शुभ अवसर आएगा कि हमारा साधु-समाज अपने कर्त्तव्य को समझ जाएगा और उसके हाथों में देश को जगाने की कितनी बड़ी शक्ति है.
अंधविश्वास, रूढ़िवाद व तमाम कुरीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद करें और बेहतर समाज बनाने के लिए संघर्ष करें.
Read Also –
प्रेमचंद के किसान और कुलक का चरित्र : एक अध्ययन
31 जुलाई : महान कथाकार प्रेमचंद के जन्मदिन पर हमलावर होते अतियथार्थ के प्रदूषण
कलम का सिपाही : तीन कहानियां निजी दायरे में
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]