प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी, हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष, कलकत्ता विश्वविद्यालय, कोलकाता
सुनने और पढ़ने में अटपटा लग सकता है लेकिन सच यही है कि गुरू की जरुरत बेवकूफों को होती है और गुरूओं को बेवकूफों की जरुरत होती है. आज के जमाने में गुरू खोजना वैसे ही है जैसे ईश्वर खोजना. आधुनिककाल आने के साथ गुरू की शिक्षक के रुप में परिवर्तित छबि जब सामने आयी तो किसी ने सोचा नहीं था कि भविष्य में गुरू, शिक्षक, समीक्षक आदि मिडिलमैनों का क्या होगा ?
मध्यकाल और प्राचीनकाल में गुरू की महत्ता थी क्योंकि सामाजिक संचार का गुरू प्रमुख चैनल था. लेकिन आधुनिककाल आने के बाद गुरूरूपी मिडिलमैन का क्षय हुआ है. आज गुरू सर्विस सेक्टर का हिस्सा है और अपनी सेवाओं का दाम लेता है. वह अपनी सेवाएं बेचता है. आज कोई भी गुरू बगैर पैसा लिए किसी भी किस्म का ज्ञान नहीं देता.
मनुष्य ज्यों ज्यों आत्मनिर्भर होता गया उसने मिडिलमैन की सत्ता को अपदस्थ कर दिया. भारत में गुरू के नाम पर गुरूघंटाल वैसे ही पैदा हो गए हैं जैसे जंगल में घास पैदा हो जाती है. विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों से लेकर मीडियानिर्मित अरबपति-करोड़पति गुरूओं का सारा तामझाम संड़ाध से भरा है.
आधुनिककाल में मिडिलमैन यानी ज्ञानदाता, आप चाहें तो ज्ञान के दलाल भी कह सकते हैं, जो विश्वविद्यालय-कॉलेज शिक्षक अपने को गुरू कहलाना पसंद करते हैं उनमें ज्ञान की कोई भूख नहीं होती. वे कभी साल भर में बाजार जाकर एक किताब तक नहीं खरीदते.
अधिकांश हिन्दी शिक्षक अपने विद्यार्थियों को चेला और भक्त बनाने में सारी शक्ति खर्च कर देते हैं. अच्छे नागरिक बनाने और अधिकार संपन्न नागरिक बनाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती. मैं अपने निजी तजुर्बे और अपने शिक्षकों के अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि गुरू समाज की जोंक हैं, ये दीमक की तरह समाज को धीरे -धीरे खा रहे हैं.
प्राचीनकाल-मध्यकाल में गुरू ज्ञान का स्रोत था, आज ऐसा नहीं है. आज गुरू समाज की दीमक हैं. नयी संचार क्रांति का जिस तरह विकास हो रहा है, इससे गुरू नामक जोंक से समाज को कुछ समय के लिए राहत मिलेगी. संचार क्रांति को हम जितनी तेज गति से आगे ले जाएंगे उतनी ही जल्दी हमें गुरू नामक जोंक और दीमकों से मुक्ति मिलेगी.
आप अपने आसपास रहने वाले किसी भी गुरू को जरा गंभीरता के साथ श्रद्धा के आवरण के बाहर आकर देखेंगे तो शायद कभी गुरू के प्रति किसी तरह की इज्जत आपके मन में नहीं बचेगी. जो लोग यह सोचते हैं गुरू सामाजिक परिवर्तन का वाहक है, या रहा है, वे परले दर्जे के बेवकूफ हैं.
समाज में परिवर्तन ज्ञान से नहीं आता, ज्ञानी से नहीं आता, गुरू से भी परिवर्तन नहीं आता, परिवर्तन आता है श्रम के उपकरणों में नए उपकरणों के जन्म से. श्रम के उपकरणों का निर्माण गुरू, ज्ञानी, पंडित, शिक्षक वगैरह नहीं करते बल्कि श्रमिक करते हैं. श्रम के नए उपकरण जब आते हैं तो वे नयी सभ्यता और जीवनशैली को जन्म देते हैं.
गुरूओं ने आज तक नए को जन्म नहीं दिया बल्कि यह कहें तो ज्यादा सही होगा कि गुरूओं ने परिवर्तन के फल जरूर खाए हैं लेकिन गुरूओं ने हमें श्रम और श्रमिक से नफरत करना सिखाया है. इसका दुष्परिणाम निकला है कि हमारी समूची शिक्षा व्यवस्था, कला, साहित्य, संस्कृति आदि का श्रम और श्रमिक से अलगाव बढ़ा है. श्रम और श्रमिक से अलगाव का अर्थ है समाज से अलगाव.
ज्ञानी या गुरू हमेशा ज्ञान का परिवर्तन के विपक्ष में इस्तेमाल करते रहे हैं. मूलतः गुरू परिवर्तन विरोधी रहे हैं और आज भी हैं. यदि मेरी बात पर विश्वास न हो तो जरा किसी भी शिक्षक से किसी भी नई संचार तकनीक के बारे में सामान्य-सी बातों के बारे में पूछकर देखें, भयानक निराशा हाथ लगेगी.
गुरू को परिवर्तन नही रूढ़िबद्धता पसंद है, बुनियादी सामाजिक बदलाव नहीं यथास्थिति पसंद है. संचार क्रांति के सभी परिवर्तनों का समाज के निचले हिस्सों तक में इस्तेमाल करने वाले मिल जाएंगे, लेकिन गुरूओं को तो अभी एसएमएस तक खोलना और करना नहीं आता. कायदे इन्हें सबसे पहले आना चाहिए था लेकिन हमारे गुरू अपनी ज्ञान की गठरी को संभालने में ही व्यस्त हैं.
वे नहीं जानते उनके ज्ञान की समाज में कोई प्रासंगिकता नहीं रह गयी है. जब गुरू के पास अप्रासंगिक ज्ञान हो, समाज से विच्छिन्न शिक्षा व्यवस्था हो, ऐसे में अक्लमंद गुरू तो सिर्फ जोरासिक पार्क में मिलेंगे.
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