Home गेस्ट ब्लॉग स्टेन स्वामी और आत्मतुष्ट खुदगर्ज़ों की जमात

स्टेन स्वामी और आत्मतुष्ट खुदगर्ज़ों की जमात

13 second read
0
0
495

जितने लोग जीवित स्टेन स्वामी को नहीं जानते थे, उससे अधिक लोग अब दिवंगत स्टेन स्वामी को जान रहे हैं. मीडिया में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी चर्चाएं हो रही हैं, उनकी संघर्ष गाथा को लोग जान रहे हैं, पुलिस और अदालतों के उनके प्रति रवैये पर चर्चाएं हो रही हैं. जीवित स्टेन स्वामी से अधिक प्रभावी दिवंगत स्टेन स्वामी साबित हो रहे हैं. अब वे देह नहीं रहे, अब वे विचार बन गए हैं, वंचितों के खिलाफ सत्ता और कारपोरेट की दुरभिसंधियों के साथ चल रहे संघर्षों के प्रतीक बन गए हैं. आज के दौर में, जब प्रतिरोध युग की मांग हो, सत्तासीनों के प्रति तटस्थ विश्लेषण की बातें करने वाला दरअसल तटस्थता के आवरण में अपने पाखण्ड और अपनी वर्गीय खुदगर्जी को छुपाता है.

स्टेन स्वामी और आत्मतुष्ट खुदगर्ज़ों की जमात

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

चार-छह महीने पहले अखबारों में एक खबर थी कि पटना इलाके का कोई कुख्यात अपराधी, जो कई हत्याओं का आरोपी था, जिस पर अपहरण, रंगदारी, लूट, डकैती आदि के न जाने कितने केस दर्ज थे, जो पुलिस रिकार्ड में फरार था, एक शादी समारोह में पुलिस के हत्थे चढ़ गया.

जाहिर है, गिरफ्तारी के बाद उसे कोर्ट में पेश किया गया. आनन-फानन में उसे जमानत मिल गई. खबरों के अनुसार गिरफ्तारी के दो-तीन दिनों के भीतर ही. उसके बाद वह ऐसा विलुप्त हुआ, पुलिस के शब्दों में फिर से फरार हुआ कि उसको ट्रेस कर पाना आसान नहीं रह गया. पटना के कई अखबार उसके लिये ‘दुर्दांत’ शब्द का विशेषण देते हुए उसके बारे में खबरें छापते रहे और आम लोगों के बीच यह चर्चा का विषय बना रहा कि इतनी जल्दी उस दुर्दांत को जमानत कैसे मिल गई ?

अब यह पुलिस जाने कि उसने कितनी तत्परता से उसके खिलाफ अदालत में सबूत प्रस्तुत किये और अदालत जाने कि उस आदतन अपराधी, जो स्पष्ट तौर पर इस शान्तिकामी समाज के लिये खतरा था, को किस बिना पर महज दो-तीन दिनों में जमानत दे दी.

स्टेनस्वामी, जो कारपोरेट परस्त व्यवस्था के खिलाफ आदिवासी हितों के संघर्षों के प्रति समर्पित थे, जो 84 वर्ष के अतिवृद्ध थे, अनेक शारीरिक व्याधियों से ग्रस्त थे, पार्किंसन्स जैसे असाध्य रोग के कारण ठीक से चलने-फिरने से भी लाचार थे, उन्हें कानून की किसी सख्त धारा में, किसी बड़े आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया.

गिरफ्तार करने वाले जानें कि स्टेनस्वामी के खिलाफ उन्हें कितने और कैसे सबूत मिले थे, अदालत जाने कि उसने सतत गुहारों के बाद भी उस बीमार वृद्ध को अंतरिम जमानत तक क्यों नहीं दी और अंततः जेल की अमानवीय परिस्थितियों में लंबे समय तक घिसट-घिसट कर जीते उस संघर्षशील योद्धा की दारुण मौत हो गई.

उनकी मौत के बाद कल एक न्यूज चैनल पर देख रहा था, वे चाहते थे कि ज़िन्दगी के अंतिम लम्हों को वे अपनों के बीच गुजारें. लेकिन शायद, उन पर लगे आरोप बेहद गम्भीर होंगे. उम्र के 9वें दशक में जो चल-फिर सकने में भी लाचार था, व्याधियों से जीर्ण काया के साथ जो मौत की घड़ियां गिन रहा था, उसका बाहर निकलना पुलिस और अदालत की नजर में शायद देश और समाज के लिये खतरा उपस्थित कर सकता था. अंततः स्टेनस्वामी मर गए. उन्हें गिरफ्तार करने वाली पुलिस और जमानत न देने वाली अदालत पर अनेक सवाल छोड़ते हुए.

यह तो कानून के जानकार ही बताएंगे कि उन पर लगी कानूनी धाराओं की कैसी जटिलताएं थी और आखिर क्यों अदालत उन्हें जमानत देने से इन्कार करती रही ? कल न्यूज में सुन रहा था, उन्हें देश के लिये खतरा बताया गया था और प्रधानमंत्री की हत्या के षड्यंत्रों में शामिल रहने का आरोपी भी बताया गया था.

स्टेनस्वामी के पूरे जीवन और उनकी गतिविधियों को देखते हुए ऐसे आरोप आश्चर्य पैदा करते हैं. उनके केस को देखने वाले पुलिस वाले बेहतर जानते होंगे कि इन आरोपों के पीछे कैसी सच्चाई थी, कैसे सबूत थे.

गिरफ्तारी के दो-तीन दिनों के भीतर किसी दुर्दांत अपराधी को जमानत मिल जाना और उसका फिर से फरार हो जाना, मौत की देहरी पर घिसटते, अंतिम समय में अपनों के बीच रहने की लालसा लिये स्टेन स्वामी को अंतरिम जमानत भी नहीं मिल पाना क्या बताता है ? कि, स्टेनस्वामी को कैद कर सत्ता के उपकरण सोचते रहे कि उन्होंने किसी बीमार वृद्ध को नहीं, विचारों को कैद में जकड़ रखा है.

मदान्ध सत्ता अक्सर इतिहास से सीख नहीं लेती. सीख लेती तो अधिक मानवीय, अधिक उदार होती. तब वह समझती कि जो व्यक्ति विचारों का वाहक है, जो शोषण के विरुद्ध संघर्षों का प्रतीक है. उसकी देह को गिरफ्त में ले लेने से विचार गिरफ्त में नहीं आते. स्टेनस्वामी विचारों के वाहक थे. वे बंदी बनाए गए, लेकिन उनके विचार कैसे बंदी बनाए जा सकते थे ?कारपोरेट के हितों के साथ आदिवासियों के हितों का संघर्ष सत्ता के दमन और उत्पीड़न के अनेक अध्यायों को अपने में समेटे है.

किसी दुर्दांत अपराधी को आनन-फानन में जमानत मिल जाने में व्यवस्था को अधिक दिक्कत नहीं लेकिन, कारपोरेटपरस्त सत्ता के शोषण के खिलाफ संघर्षों की मशाल थामे किसी विचारक के जेल से बाहर आने को वे बड़े खतरे के रूप में देखते हैं. वे सोचते हैं, उन्होंने विचारों को बंदी बना लिया है. कि गम्भीरतम आरोपों में घेर कर वे किसी संघर्ष से जुड़े विचारों की धार को भी कुंद कर देंगे.

इतिहास में सत्ताएं ऐसा सोचती और करती रही हैं क्योंकि, वे इतिहास से कोई सीख नहीं लेती कि इससे विचारों की धार को कुंद नहीं किया जा सकता, कि इससे संघर्षों की धार और तेज होती है.

जितने लोग जीवित स्टेनस्वामी को नहीं जानते थे, उससे अधिक लोग अब दिवंगत स्टेनस्वामी को जान रहे हैं. मीडिया में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी चर्चाएं हो रही हैं, उनकी संघर्ष गाथा को लोग जान रहे हैं, पुलिस और अदालतों के उनके प्रति रवैये पर चर्चाएं हो रही हैं.

जीवित स्टेनस्वामी से अधिक प्रभावी दिवंगत स्टेनस्वामी साबित हो रहे हैं. अब वे देह नहीं रहे, अब वे विचार बन गए हैं, वंचितों के खिलाफ सत्ता और कारपोरेट की दुरभिसंधियों के साथ चल रहे संघर्षों के प्रतीक बन गए हैं.
स्टेनस्वामी की दारुण मौत जीवित लोगों को चेतावनी दे रही है कि संस्थाओं का क्षरण अंततः किसी के लिये भी हितकर नहीं. उनके लिये भी नहीं जो आज सत्ता के हर दमन चक्र के समर्थन में तर्क दे रहे हैं.

मनुष्यता के साथ खड़े विचारों को कुछ समय के लिये धुंध में धकेला जा सकता है, लेकिन उनका स्थायी दमन संभव नहीं। संस्थाओं की मजबूती नागरिकों की गरिमा के लिये, उनके अधिकारों के लिये आवश्यक शर्त्त है. उनका कमजोर होना सबके लिये घातक है. उनके लिये भी, जो आज सत्ता के मद में इतिहास की ओर झांकने की भी ज़हमत मोल लेना नहीं चाहते.
ऐसी हर मौत, ऐसी हर कहानी मनुष्यता के विरुद्ध खड़ी शक्तियों का पर्दाफाश करती है. कानून के राज के होने की जरूरत का अहसास कराती है.

मनुष्य विरोधी सत्ता के प्रति कोई तटस्थ कैसे रह सकता है ? लेकिन, वे चाहते हैं कि विश्लेषणों में तटस्थता होनी चाहिये. जैसे कि यह किसी कविता की व्याख्या हो. हालांकि, तटस्थता तो कविताओं की व्याख्या में भी नहीं होती. निर्भर इस पर करता है कि आपकी सोच की दिशा क्या है ?

तटस्थता क्या है ? यह न्याय की कुर्सी पर बैठे किसी जज के लिये आभूषण है, इतिहास के व्याख्याकारों के लिये सत्य की कसौटी है, लेकिन, वर्त्तमान की चुनौतियों से जूझने वालों के लिये पलायन का एक रास्ता है.

जो तटस्थ है, तटस्थता की बातें करता है वह जलते हुए सवालों से पलायन कर रहा है. उनसे बेहतर वे हैं जो सत्ता के साथ खुल कर हैं, वे छिपे हुए नहीं हैं. आप उन्हें चाहे जिन विशेषणों से नवाजें, वे सत्ता के पक्ष में हैं तो हैं. भक्ति एक मानसिक अवस्था है, जहां तर्कों के अधिक मायने नहीं होते. लेकिन, तटस्थता ? सत्ता के प्रति ? वह भी आज की तारीख में ? यह आत्मतुष्ट प्रजाति की चरम स्वार्थपरता है.

उनकी पहचान करिये जो आज की तारीख में भी सत्ता के प्रति विश्लेषण में तटस्थता की अपेक्षा रखते हैं. वे यह मानने के लिये तैयार ही नहीं कि कभी ऐसा भी होता है जब तटस्थता अपराध बन जाती है. वे आत्मतुष्ट हैं, आत्ममुग्ध हैं.
या तो वे ऐसे निरीह प्राणी हैं जो अपने अस्तित्व के लिये दिन-रात संघर्ष कर रहे हैं लेकिन प्रचार तंत्र ने जिनकी चेतनाओं का हरण कर लिया है, या फिर, आर्थिक सुरक्षा की खोल में आराम से लेटे, टीवी के रिमोट से खेलते या मोबाइल की स्क्रीन पर उंगलियां फिराते, निश्चिंत जीवन जीते ऐसे विचारहीन प्राणी हैं जिन्हें आधुनिक समय की त्रासदियों और मनुष्यता के समक्ष गहराते संकटों से कुछ खास नहीं लेना-देना. महीने की पहली तारीख को जिनके एकाउंट में सरकारी वेतन या पेंशन की अच्छी-खासी राशि आ जाती है.

जिन्हें नियमित सरकारी पेंशन मिलती है, वे पेंशन खत्म करने की नीतियों के बड़े पैरोकार बन गए हैं. तर्क देते हैं कि जब औसत आयु बढ़ रही हो तो सरकारें पेंशन का बोझ कितना उठाएं. जिनकी पक्की सरकारी नौकरी है वे संविदा प्रणाली और आउट सोर्सिंग की नीतियों के समर्थक बन गए हैं. तर्क देते हैं कि नौकरी पक्की होने पर आदमी कामचोर हो जाता है. जिन्होंने सस्ती सरकारी शिक्षा और वजीफे के सहारे कैरियर की बुलंदियों को छुआ वे अब शिक्षा के निजीकरण के समर्थन में तर्क देते हैं कि सरकारी स्कूल-कालेजों के मास्टर लोग ठीक से नहीं पढ़ाते.

अभी हाल के संकटों के सन्दर्भ में देखें. हॉस्पिटल के बेड या ऑक्सीजन सिलिंडर के लिये जिन्हें जूझने की जरूरत नहीं पड़ी, उनमें से बहुत सारे लोग बताते हैं कि अचानक से कोई महामारी आ जाए तो सरकार क्या करे ! इन्हें नहीं पता कि त्रासदियों के इस दौर में, जब सत्तासीनों की अकर्मण्यता और कल्पनाशून्यता खुल कर सामने आ चुकी है, इस तरह की बातें करना ठस दिमाग होने की ही नहीं, हद दर्जे के संवेदनशून्य होने की निशानी भी है. हालांकि, खुद की संवेदनहीनता की पहचान करना आसान नहीं होता.

दो तिहाई आबादी ऐसी शिक्षा से महरूम है, जो उन्हें सही-गलत की पहचान करने में समर्थ बना सके. वे सुनियोजित प्रचार तंत्र के सबसे आसान शिकार हैं. ज़िन्दगी के लिये जूझते रहेंगे, लेकिन, उन लोगों की शिनाख्त नहीं करेंगे जो उनकी ऐसी हालत के लिये जिम्मेदार हैं. उनके चिंतन की सीमाएं समझी जा सकती हैं.

लेकिन, जो पढ़े-लिखे हैं, अपने पिताओं और दादाओं की पीढ़ियों के संघर्षों से हासिल आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा के कवच से लैस हैं, आने वाली पीढ़ियों के जीवन से जुड़े सवालों के प्रति उनका उपेक्षा भाव उनकी विचारहीनता के प्रति जुगुप्सा जगाता है. आज के दौर में, जब प्रतिरोध युग की मांग हो, सत्तासीनों के प्रति तटस्थ विश्लेषण की बातें करने वाला दरअसल तटस्थता के आवरण में अपने पाखण्ड और अपनी वर्गीय खुदगर्जी को छुपाता है.

इतिहास इस पर विचार करेगा कि जो लोग स्कूल-कालेजों के सरकारीकरण से प्रत्यक्ष लाभान्वित हुए, बैंकों के राष्ट्रीयकरण से जिनके जीवन का स्तर और काम का माहौल सुधरा, पब्लिक सेक्टर के विकास और विस्तार से जिन्हें स्थायी रोजगार मिला, आत्मसमान के साथ जीने का जरिया मिला. उनमें से ही अधिकतर क्यों निजीकरण करने वाली सरकारों के घोर समर्थक बन कर सामने आए ? क्या इस समर्थन का कोई वैचारिक आधार है ?

नहीं, विचारहीनता का उत्सव मनाने वाले लोगों का कोई वैचारिक आधार नहीं होता. न वे अपने पीछे देख सकते हैं न अपने आगे. वे राष्ट्र की बातें करते हैं, संस्कृति की चिंता करते हैं. अजीब विरोधाभास है.

सत्ता की राजनीति करने वाले लोगों का पाखंड समझा जा सकता है, लेकिन, उन लोगों का पाखंड अधिक खतरनाक है जिन्हें आर्थिक निश्चिंतता और भविष्य के प्रति सुरक्षा बोध ने बृहत्तर समाज के मौलिक सवालों से विरत कर दिया है. यह शोध का विषय है कि इससे पहले इतिहास के किस कालखंड में आत्मतुष्ट खुदगर्ज़ों की ऐसी जमात किसी देश में इकट्ठी हुई थी ?

Read Also –

 

[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

कामरेडस जोसेफ (दर्शन पाल) एवं संजीत (अर्जुन प्रसाद सिंह) भाकपा (माओवादी) से बर्खास्त

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने पंजाब और बिहार के अपने कामरेडसद्वय जोसेफ (दर्शन पाल…