मां बेटी को फोन करने से डरती है
न जाने क्या मुंह से निकल जाए
और ‘खुफ़िया एजेंसी’ सुन ले
बाप बेटी को समझाता है
चिंता तो लगी रहेगी
लेकिन ज्यादा फोन मत करना
न जाने क्या मुंह से निकल जाए
और खुफ़िया एजेंसी…
कॉल बेल की घंटी अब उत्साह पैदा नहीं करती
कि कोई हाल खबर लेने आया है
अब वह सिहरन पैदा करती है
कि कहीं फिर छापा ??????
दोस्त समझाते हैं
राजनीतिक मैसेज मत भेजा करो
मैं अखबार देख लेता हूं
हालांकि यह कहते हुए उनकी आवाज
बहुत धीमी हो जाती है
मानो खुद को ही चोरी करते पकड़ लिया हो
राजनीतिक मित्र कहते हैं
काम करने का कोई रचनात्मक तरीका खोजना होगा
सत्ता बहुत दमनकारी है
लेकिन…
लेकिन सत्ता अगर दमनकारी है
तो मां को बेटी से खूब बात करनी चाहिए
खूब खूब बात
उसके प्रेम के बारे में भी
और हां, अपने प्रेम के बारे में भी
सत्ता दमनकारी है
इसलिए ही
बाप को बेटी से कहना चाहिए
जब समय मिले तब फोन करे
उन्हें नदियों, पहाड़ों, झरनों के बारे में बताए
और उन क़िताबों के बारे में भी
जो प्रतिबंधित की जा चुकी हैं
सत्ता दमनकारी है
इसीलिए तो
कॉल बेल बजने पर उत्साह से
गेट की ओर भागना चाहिए
शायद किसी बच्चे की बॉल
टप्पा खाकर अंदर आ गयी हो
सत्ता दमनकारी है
इसलिए अब अखबार की नहीं
संदेशों की जरूरत है
संदेश प्यार के, गम के, गुस्से के
संदेश रोटी के भी और संदेश बागियों के भी
संदेश खुले भी और संदेश गुप्त भी
सत्ता दमनकारी है
इसीलिए तो
सत्ता से सीधे टकराने की जरूरत है
बिना किसी ‘रचनात्मकता’ के
बस सीधे सत्ता की आंखों में आंख डालते हुए
ताकि आने वाली पीढ़ी जी सके
बेहद रचनात्मक तरीके से
ताकि आने वाले बच्चों की रंगीन कलम
कागज़ पर खिसक सके
बेहद रचनात्मक तरीके से
ताकि आने वाली पीढ़ी कविता लिख सके
बेहद रचनात्मक तरीके से…
- मनीष आजाद
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