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‘Stalin Waiting For … The Truth’

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‘Stalin Waiting For ... The Truth’
‘Stalin Waiting For … The Truth’

2010 में Timothy D. Snyder की एक किताब आयी थी – ‘Bloodlands’. इसमें बताया गया था कि हिलटर और स्टालिन ने मिलकर कुल 1 करोड़ 40 लाख लोगों को मारा. इस किताब को Hannah Arendt Prize मिला और यह किताब बहुत चर्चित रही. 2017 में 1184 पेज की एक वृहद किताब आयी – ’Stalin: Waiting for Hitler, 1929-1941′. [Stephen Kotkin].

1184 पेज की इस किताब में करीब 300 पेज फुटनोट्स थे, जिन्हें आप नंगी आंखों से नहीं पढ़ सकते. लेकिन इतने बारीक 300 पेज के फुटनोट्स को देखकर आपको यह विश्वास तो हो ही जायेगा कि लेखक ने अपनी बातें तथ्यों के आधार पर कही है लेकिन हम जैसे आलसी पढ़ाकू कभी भी फुटनोट्स को जांचने की जहमत नहीं उठाते.

1184 पेज की यह वृहद किताब स्टालिन पर वे सारे आरोप लगाती है, जो स्टालिन विरोधी लोग उन पर लगाते रहे हैं. अभी हाल में जो आरोप कविता कृष्णन ने लगाया है, वे सब आरोप इस किताब में फुटनोट्स के साथ दिए गए हैं ताकि संदेह की कोई गुंजाइश न रहे.

इस किताब को भी कई पुरस्कार मिले और सोवियत इतिहास पर काम करने वाले शोधार्थियों के लिए यह किताब किसी बाइबिल से कम नहीं है. 2017 में Red Famine: Stalin’s War on Ukraine आयी. आज के रूस उक्रेन युद्ध के माहौल में यह किताब बेस्ट सेलर है.

2019 में एक और किताब आयी ‘Stalin Waiting For … The Truth’ इसके लेखक हैं- ‘Montclair State University’ [अमरीका] के प्रोफ़ेसर Grover Furr.
उन्होंने Stephen Kotkin की किताब ‘Stalin: Waiting for Hitler’ के 300 पेज के बारीक फुटनोट्स की 2 सालों तक जांच की और पाया कि अधिकांश ओरिजिनल फुटनोट्स में जो ब्यौरा है, वह या तो किताब में कही गयी बातों से अलग है या एकदम झूठ है. फुटनोट्स के इसी ‘रिसर्च’ पर आधारित उनकी किताब है- ‘Stalin Waiting For … The Truth’

इसमें उन्होंने स्टालिन पर लगाये सभी आरोपों को गलत पाया
लेकिन इस किताब की कहीं कोई चर्चा नहीं हुई. पुरस्कार मिलना तो दूर की बात है.

इसी श्रमसाध्य तरीके से उन्होंने 2014 में एक किताब लिखी थी – ’Blood Lies: The Evidence that Every Accusation Against …’. इसमें उन्होंने स्टालिन के खिलाफ लिखी बहुचर्चित किताब ‘Bloodlands’ का तथ्यों के साथ जवाब दिया है. लेकिन इस किताब की भी कोई चर्चा नहीं हुई.

अर्थशास्त्र का यह सिद्धांत कि खोटा सिक्का असली सिक्के को बाज़ार से बाहर कर देता है, अकादमिक जगत पर भी लागू होता है. विशेषकर आज के माहौल में, जिसे Groover Furr ने उचित ही ‘Anti-Stalin Paradigm’ कहा है.

यहां भी झूठ और प्रोपगंडा पर आधारित ‘शोध’ तथ्यों पर आधारित शोध को अकादमिक जगत के हाशिये पर डाल देते हैं. यहां मैं आपको सिर्फ एक किताब पढ़ने की सलाह दूंगा जो ‘आकार बुक्स’ ने छपी है – ‘The Murder of Sergei Kirov: History, Scholarship and the Anti-Stalin Paradigm’. सच जानने के लिए कुछ मेहनत तो करनी ही पड़ेगी. नहीं तो ‘post truth’ के इस दौर में narrative ही काफी है.

चलिए अब कुछ ख़ास ख़ास बिन्दुओं पर बात कर लेते हैं. अभी स्टालिन को थोड़ा आराम देते हैं और माओ पर आते हैं. अपनी कब्र में शायद सबसे कम स्टालिन ही सो पाते होंगे.

खैर, कविता कृष्णन ने चीन में ‘ग्रेट लीप फॉरवर्ड’ के दौरान हुई करोड़ों मौत का मुद्दा उठाया है. यह आंकड़ा उन्हें कहां से मिला ? यह आंकड़ा सबसे पहले दुनिया के सामने जो लाया, उसका नाम था- ’Deng Xiaoping’. उसके अनुसार इस भुखमरी में 1 करोड़ 60 लाख लोग मारे गये थे.

जब चीन खुद मान रहा है, तो इसे स्वीकार करने में क्या दिक्कत है ! कुछ अमेरिकी लेखकों ने इस आंकड़े को बढ़कर 3 करोड़ कर दिया.
2006 में ‘Monthly Review’ में नियमित लिखने वाले लेखक ‘Joseph Ball’ ने ‘Groover Furr’ की तरह इसे क्रास चेक करने का निर्णय लिया. बहुत मेहनत के बाद उन्होंने www.morline.org में एक लम्बा लेख लिखा.

इसमें उन्होंने बताया कि तथाकथित अकाल से होने वाली मौतों में वे मौतें भी जोड़ी गयी है, जो हर साल उस क्षेत्र में नेचुरल तरीके से होती थी. चीनी क्रांति के बाद उस क्षेत्र से बड़ी संख्या में शहर की ओर पलायन हुआ, क्योंकि शहरों में सोवियत रूस की तर्ज पर ही तीव्र औद्योगीकरण हो रहा था.

मौतों की संख्या को बढ़ाने के लिए एक आंकड़ा क्रांति के पहले का लिया गया, जब पलायन नहीं के बराबर था. दूसरा आंकड़ा ठीक 1960 के बाद का लिया गया. और इस दौरान जो लोग गांव छोड़कर शहर जा चुके थे, उन सब को अकाल से हुई मौत के आंकड़े में डाल दिया गया.

सबसे कठिन होता है, आंकड़ों का झूठ पकड़ना. जो हम जैसों के लिए तो असंभव है. इसके लिए हमे ‘Joseph Ball’ और ‘Groover Furr’ जैसे लोगों की जरूरत पड़ती है. बाकी उन आंकड़ों में क्या-क्या हेर फेर किया गया, इसके लिए आपको वह लम्बा लेख पढना पड़ेगा.

लेकिन आंकड़ों का यह झूठ बोलकर माओ और ‘Great Leap Forward’ को बदनाम तो कर ही दिया गया. दरअसल यही ’Deng Xiaoping’ का उद्देश्य भी था. इस बहाने समाजवादी नीतियों को बदनाम करना और चीन में पूंजीवाद की पुनर्स्थापना करना.

चलिए अब फिर से स्टालिन की ओर रुख करते हैं. स्टालिन पर हमले के सभी मुद्दों को यहां लेना संभव नहीं है. कुछ उन मुद्दों को लेते हैं, जिन पर कमोवेश आम राय है कि यह तो स्टालिन ने किया ही है.

प्रसिद्ध पोलिश फिल्म डायरेक्टर आंद्रे वाजदा [Andrzej Wajda] ने 2007 में एक फिल्म बनाई- ’Katyn’ यह फिल्म ‘Post Mortem: The Story of Katyn’ [Andrzej Mularczyk] नामक उपन्यास पर आधारित है. इस फिल्म को बेहद लोकप्रियता मिली. इसे ऑस्कर [विदेशी भाषा कटेगरी में] के लिए भी नामित किया गया. इस फिल्म के बाद लगभग यह सहज बोध का हिस्सा बन गया कि करीब 22 हजार पोलिश लोगों की क्रूर तरीके से हत्या स्टालिन के आदेश से बेरिया ने करवाई थी.

दरअसल जब हिटलर ने रूस पर हमला किया, उसके बाद पहली बार जर्मनी ने ही 13 अप्रैल 1943 को यह ऐलान किया कि Katyn क्षेत्र के जंगलों में बड़ी संख्या में गुमनाम कब्रें मिली हैं और ये हत्याएं सोवियत रूस ने की हैं. सोवियत रूस ने तुरंत इसका खंडन किया और इन हत्याओं के लिए हिटलर को जिम्मेदार ठहराया. उस वक़्त हिटलर के खिलाफ पश्चिमी देशों के साथ सोवियत रूस का समझौता था. लिहाजा पश्चिम देशों ने भी यही माना की ये हत्याएं हिटलर ने करवाई हैं.

द्वितीय विश्व युद्ध ख़त्म होने के कुछ समय बाद ही शीत युद्ध शुरू हो गया और नैरेटिव बदल गया. अब पश्चिम के अकादमिक जगत में यह माना जाने लगा कि कात्यन हत्याकांड [Katyn massacre] स्टालिन ने करवाया है.

पश्चिम और विशेषकर अमेरिका के अकादमिक जगत में Anti-Stalin Paradigm शुरू हो चुका था. जब गोर्बाचेव सत्ता में आया तो उसने अपने उत्तराधिकारी येल्तसिन को एक लिफाफा ‘Closed Packet No. 1’ सौंपा. कहा गया कि यह सबूत है कि कात्यन हत्याकांड स्टालिन ने करवाया. येल्तसिन ने यह लिफाफा पोलैंड के लेक वालेशा को सौंपा. अब ‘पूरी दुनिया’ ने मान लिया कि जब रूस खुद यह बात कह रहा है तो यही सच है. गोर्बाचोव और लेक वालेशा दोनो को ‘नोबेल पीस प्राइज’ मिल गया.

दरअसल यह ‘पीस प्राइज’ किसी ‘पीस’ के लिए नहीं बल्कि स्टालिन पर कीचड़ उछालने में महत्वपूर्ण योगदान के लिए दिया गया था. बाद में जब ‘Closed Packet No. 1’ की कुछ शोधार्थियों ने जांच की तो यह फर्जी पाया गया.

2011 में यूनिवर्सिटी ऑफ़ ओटावा के प्रोफेस्सर ‘Ivan Katchanovski’ ने एक शोध पूर्ण लेख [Owning a massacre: ‘Ukraine’s Katyn] लिखा और एक अन्य महत्वपूर्ण स्रोत के हवाले से बताया कि कुछ कब्रों को जब खोला गया तो वहां से जो गोलियां मिली वे हिटलर की सेना इस्तेमाल करती थी. मतलब कात्यन हत्याकांड [Katyn massacre] को स्टालिन ने नहीं हिटलर ने अंजाम दिया था.

आइये अब कुछ ‘छोटे’ मुद्दों की चर्चा करते हैं और देखते हैं कि ‘Anti-Stalin Paradigm’ कैसे काम करता है.

स्टालिन विरोधियों में यह बात सहज बोध का हिस्सा बन चुकी है कि स्टालिन ने सोवियत रूस में सभी प्रेस को बोल दिया था कि वे क्रुप्स्काया के बारे में कुछ भी न छापें. यह बात लिखते हुए ‘Stephen Kotkin’ जो फुटनोट दिया, जब उसकी जांच की गयी तो पता चला कि यह बात किसी एक सामान्य अधिकारी ने किसी एक मामूली पत्रिका को बोली थी. उसे बढ़ाकर यह लिख दिया गया कि स्टालिन ने सोवियत रूस में क्रुप्स्काया के छपने पर रोक लगा दी [Stalin Waiting For … The Truth, पेज-260] और यह बात इतने लेखों और किताबों में दोहराई गई कि यह सहज बोध का हिस्सा बन गयी. फुटनोट्स देखकर किसी को भी लगेगा कि बात सही है. उस फुटनोट्स की जांच कौन करेगा ?
आप खुद सोच सकते हैं कि इतने बड़े देश में इस तरह की चीजें तो होती ही होंगी. लेकिन सभी चीजों को ‘फुटनोट्स’ के जरिये स्टालिन पर मढ़ देना, एक ख़ास तरह की राजनीति है, ‘वस्तुगत इतिहास’ नहीं.

ठीक यही तरीका 32-33 में उक्रेन के ‘अकाल’ पर अपनाया गया. इसी किताब में Stephen Kotkin कहते हैं कि स्टालिन ने कहा था कि उक्रेन के किसान अन्न ही नहीं उपजाना चाहते. इस पंक्ति के ऊपर जो फुटनोट्स दिया हुआ था, जब उसकी जांच की गयी तो पता चला कि यह बात उक्रेन के किसी डॉक्टर ने महज कुछ किसानों के बारे में कही थी, जिसे स्टालिन पर मढ़ दिया गया.

दरअसल स्टालिन और माओ के बाद सोवियत रूस और चीन में जो संशोधनवाद आया, उसके पास राज्य की शक्ति थी. यह बर्नस्टीन टाइप का संशोधनवाद नहीं था जो मार्क्सवाद के खिलाफ महज किताबें ही लिख सकता था.

ख्रुश्चेव से लेकर गोर्बाचेव तक ने जो पूंजीवादपरस्त नीतियां अपनाई, अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के साथ जो गद्दारी की, उसे तो हम जानते ही हैं, लेकिन अगर हम Groover Furr की माने तो सत्ता में लम्बे समय तक होने का फायदा उठाकर उन्होंने ऐतिहासिक दस्तावेजों से भी छेड़छाड़ की है. ताकि आने वाली पीढ़ियां कभी भी सच न जान पायें और समाजवाद के प्रति सशंकित बनी रहें.  Groover Furr ने अपनी किताब में ऐसे कई उदाहरण दिए हैं जहां स्टालिन के मरने के बाद बहुत से आपत्तिजनक दस्तावेज स्टालिन के नाम से आर्काइव में डाल दिए गये.

हमें यह बात भी समझनी होगी कि सोवियत रूस और चीन के संशोधनवाद का गहरा रिश्ता साम्राज्यवाद से रहा है. इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है. 1956 की 20 वीं कांग्रेस में खुर्श्चेव ने जो ‘सीक्रेट’ भाषण दिया था, वह कुछ माह बाद ही सबसे पहले अमेरिका के ‘न्यूयार्क टाइम्स’ में छप गया. संशोधनवाद और साम्राज्यवाद का यह रिश्ता आज भी बदस्तूर जारी है.

साम्राज्यवादियों की रंगीन चकाचौंध भरी पार्टियों में संशोधनवादी ‘वेटर’ की भूमिका निभाते आज भी बड़ी संख्या में मिल जायेंगे. मेरा यह कहना कतई नहीं है कि स्टालिन ने कोई गलती नहीं की या सोवियत रूस और चीन के समाजवादी मॉडल में कोई दिक्कत नहीं थी. स्टालिन और सोवियत आर्थिक मॉडल की सबसे तीखी आलोचना और किसी ने नहीं खुद माओ ने की है. माओ का यह कथन देखिये –

’स्टालिन की पुस्तक में पहले पृष्ठ से आखिर तक अधिरचना के विषय में एक शब्द भी नहीं मिलता. वह जनता से सरोकार नहीं रखती. वह वस्तुओं की बात करती है, लोगों की नहीं. … इसमें शामिल आखिरी पत्र में स्टालिन का दृष्टिकोण सरासर गलत है. बुनियादी गलती है किसानों के प्रति अविश्वास.’ [सोवियत अर्थशात्र की आलोचना, राहुल फाउंडेशन प्रकाशन, पेज-120]

एक अन्य जगह उन्होंने साफ़-साफ़ लिखा है कि स्टालिन कभी-कभी जनता के बीच के अंतरविरोधों को दुश्मन के साथ के अंतरविरोधों से उलझा देते थे. लेकिन 1963 में शुरू हुई ‘महान बहस’ में उन्होंने स्टालिन की कमियों को चिन्हित करते हुए उन्हें सर्वहारा का एक महान नेता और शिक्षक बताया और लिखा कि ‘बेबी टब के गंदे पानी के साथ खुर्श्चेव बेबी को भी फेंक देना चाहता है’. मतलब स्टालिन की गलतियों का फायदा उठाकर वह स्टालिन से ही यानी समाजवाद से ही पल्ला झाड़ लेना चाहता है.

द्वितीय विश्व युद्ध में कुल 5 करोड़ लोग मरे थे. अकेले रूस में 2 करोड़ लोग मारे गये थे. 1939 हुई जनगणना के अनुसार सोवियत रूस की जनसंख्या उस वक़्त 17 करोड़ 5 लाख थी. यानी हर घर से कोई न कोई इस युद्ध में शहीद हुआ था. ये 2 करोड़ लोग किसी तानाशाह के कहने पर नहीं लड़ रहे थे, बल्कि समाजवाद और जनवाद के लिए लड़ रहे थे. इन्होंने हिटलर की बर्बर तानाशाही से दुनिया को बचाने के लिए अपनी कुर्बानी दी थी.

इस युद्ध में अगर सोवियत रूस हार जाता तो चीनी क्रांति भी शायद नहीं हो पाती और राष्ट्रीय मुक्त युद्धों को वह उर्जा और मदद नहीं मिलती जो उसे सोवियत रूस और चीन से मिली. फिर कल्पना करना मुश्किल है कि दुनिया कैसी होती और आज हम कहां खड़े होते.

स्टालिन ने जो गलतियां की है, उनका भी एक सन्दर्भ रहा है. उन सन्दर्भों को समझना बहुत जरूरी है. स्टालिन विरोधियों को एक मसाला देते हुए मैं इस बात को साफ़ करता हूं. 1942 में चार्ली चैपलिन की फिल्म ‘Modern Times’ रूस में प्रतिबंधित हो गयी थी. यह वो दौर था, जब सोवियत रूस हिटलर के साथ जीवन मरण के युद्ध में था. मजदूर 14-14 घंटे काम कर रहे थे, ताकि युद्ध की जरूरतों को पूरा किया जा सके और सोवियत रूस में समाजवाद को बचाया जा सके. ऐसे में ‘Modern Times’ फिल्म मजदूरों का ध्यान भटका सकती थी. क्योंकि चेतना की असमानता के कारण सभी मजदूर समाजवाद को बचाने के लिए 14-14 घंटे काम नहीं कर रहे थे. कुछ दबाव में भी काम कर रहे थे.

लेकिन आज यदि कब्र से स्टालिन को उठाकर पूछा जाय तो वो वह यही कहेंगे कि फिल्म को प्रतिबंधित करने की जरूरत नहीं थी. जनता की चेतना पर भरोसा रखते हुए, उसे और उन्नत करने का कार्यभार लेना चाहिए था. [हालांकि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि ‘Modern Times’ पर प्रतिबन्ध स्टालिन के आदेश से लगाया गया था. उस वक़्त स्टालिन युद्ध के रणनीति बनाने और विश्व में ‘फासीवाद विरोधी मोर्चा’ बनाने में व्यस्त थे और हो सकता है कि उन्हें इस बात की जानकारी भी न हो]

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि स्टालिन ‘एक देश में समाजवाद’ का निर्माण कर रहे थे, जो फासीवादी और साम्राज्यवादी देशों से घिरा हुआ था और रोज समाजवाद को उखाड़ फेंकने की साजिश रची जा रही थी. 1917-20 के बीच जो ‘वार कम्युनिज्म’ [जहां सभी साम्राज्यवादी देशों की सेनाएं अपने अंतर्विरोधों को किनारे रखते हुए ‘नवजात समाजवाद’ को नेस्तनाबूद करने के लिए अपनी सेनायें उतार दी थी. उस वक़्त भी कम चेतना के कुछ किसानों के साथ ज्यादती हुई थी. क्योंकि वे सैनिकों के लिए पर्याप्त अनाज नहीं दे रहे थे और बोल्शेविकों को अनाज के लिए ऐसे किसानों से जबरदस्ती करनी पड़ी थी.] तमाम मेमायर [Memoirs] और अन्य स्रोतों के आधार पर उस वक़्त लेनिन पर भी तानाशाही का आरोप लगा है.

उस वक़्त साम्राज्यवादी प्रचार को रोकने के लिए प्रेस पर भी कुछ प्रतिबन्ध था. कुछ समाज्यवादी साजिशों में लिप्त पार्टियों पर भी प्रतिबन्ध लगाया गया था. सोवियत रूस की अंदरूनी स्थितियों को ठीक से न समझ पाने के कारण रोज़ा लक्ज़मबर्ग भी नाराज हो गयी थी और उन्होंने लेनिन को एक खुला पत्र भी लिख दिया था कि सोवियत रूस तानाशाही की ओर बढ़ रहा है.

अभी मैं यहां समाजवाद की उपलब्धियों की बात नहीं कर रहा हूं. लेकिन ये सच है कि धरती के एक हिस्से पर बेरोजगारी, वेश्यावृत्ति पूरी तरह से खत्म हो गयी थी. ‘हज़ार साल के अकाल के चक्र’ को तोड़ दिया गया था. जब दुनिया भीषण मंदी में गोते लगा रही थी तब सोवियत रूस की GDP दर 10 प्रतिशत से उपर थी. यह सब इतिहास के पन्नों में दर्ज है. बस उस पर पड़ी धूल को झाड़कर उनसे गुज़रने की जरूरत है.

आज शायद ही कोई ऐसा मार्क्सवादी होगा जो यह कहेगा कि भविष्य की क्रांतियों में हमें हूबहू सोवियत/चीनी समाजवादी मॉडल अपनाना होगा. यह 21 वीं सदी है. उत्पादक शक्तियों में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हुई है.

चीनी समाजवादी या सोवियत समाजवादी मॉडल की उपलब्धियों और कमियों पर दुनिया भर के कम्युनिस्टों के बीच बहस जारी है.
2006 में काठमांडू में दुनिया की अनेक कम्युनिस्ट पार्टियों ने ’21 वीं सदी में समाजवाद’ का रूप क्या होगा, इस पर बहुत महत्वपूर्ण चर्चा की थी. उसके पेपर नेट पर आज भी उपलब्ध हैं.

इसलिए भावी समाजवाद का बेमिसाल भवन पिछली सदी के समाजवाद की नींव पर ही बनेगा, उसको बाईपास करके नहीं और इस नींव में स्टालिन और माओ के योगदान को यदि हम नकारते हैं तो अंततः हम समाजवाद को ही नकार रहे हैं. प्राकृतिक विज्ञान की तरह यह भी एक विज्ञान है. न्यूटन के कंधे पर चढ़ कर ही आइन्स्टीन ने अपना सिद्धांत दिया, उन्हें नकार कर नहीं. स्टालिन और माओ को नकारकर जो वामपंथी होने का दावा करते है, वह उसी नंगे राजा की तरह हैं, जिसे किसी सयाने ने यह समझा दिया है कि उसने दरअसल बहुत खूबसूरत कपड़े पहने हैं.

आज के फासीवाद के दौर में हमे स्टालिन की और ज्यादा जरूरत है. फासीवाद की खिलाफ संयुक्त मोर्चे की दिमित्रोव की थीसिस कोमिनटर्न की 7वीं कांग्रेस में स्टालिन के नेतृत्व में ही तैयार हुई थी, जिसका जिक्र कविता कृष्णन कर रही थी.

बेहद महत्वपूर्ण किताब ‘The Dialectical Biologist’ के लेखक ‘Richard Levins’ और ‘Richard Lewontin’ ने अपनी किताब एंगेल्स को समर्पित करते हुए लिखा है- ‘बेशक एंगेल्स बहुत जगह गलत साबित हुए है, लेकिन वहां वे एकदम सही साबित हुए हैं, जहां आज हमें उनकी जरूरत है.’ गौरतलब है कि यहां एंगेल्स की किताब ‘Dialectics of Nature’ की बात हो रही है.

ठीक यही बात स्टालिन के बारे में भी कही जा सकती है. आज के फासीवादी दौर में हमें उनकी सख्त जरूरत है. स्टालिन के इस सूत्रीकरण से आज कौन असहमत होगा कि फासीवाद से बहस नहीं की जा सकती, उसे तो बस नष्ट किया जाना है ?

  • मनीष आज़ाद

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