लेनिन को खत्म करने का सबसे आसान तरीका है स्टालिन को खत्म कर देना. इसके लिए पूंजीवादी-साम्राज्यवादी ताकतें एक ओर तो लेनिन का जमकर समर्थन करते हैं तो दूसरी ओर वे स्टालिन को लेनिन का विरोधी बताते हुए उनपर हमला करते हैं. अभी मैंने एक अंग्रेजी वेब पोर्टल पर ‘लेनिन बनाम स्टालिन‘ शीर्षक लेख देखा, जो यह बताता है कि लेनिन स्टालिन के बीच गहरा अन्तरद्वन्द था और लेनिन, स्टालिन को फूटी आंख देखना नहीं चाहते थे, वहीं स्टालिन लेनिन की मौत का इंतजार कर रहे थे. सम्राज्यवादी नीचता और दुर्भावना का समंदर लिए इस पोर्टल पर प्रकाशित लेख के लेखक लिखते हैं कि –
‘उत्तर-साम्राज्यवादी राज्य को कैसे परिभाषित किया जाए, इस पर दो राजनीतिक दिग्गजों के बीच तीखी नोकझोंक हुई, जो इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे, वे थे व्लादिमीर लेनिन और जोसेफ़ स्टालिन. उस समय, लेनिन बोल्शेविक क्रांति के सम्मानित वास्तुकार और वरिष्ठ राजनेता थे, जबकि स्टालिन एक महत्वाकांक्षी उभरते हुए पार्टी नेता थे. उनका संघर्ष न केवल राजनीतिक दृष्टि और शासन कला का था, बल्कि व्यक्तिगत अपमान और दुर्भावनाओं का भी था. और जब वे राष्ट्र के भविष्य पर विचार कर रहे थे, तो उनकी लड़ाई समाधान में नहीं, बल्कि लेनिन की असामयिक मृत्यु में समाप्त हुई. दिसंबर 1922 के आखिरी दिनों में दोनों नेताओं के बीच संघर्ष चरम पर पहुंच गया, जब भूतपूर्व रूसी साम्राज्य के सभी हिस्सों से 2,000 प्रतिनिधि मॉस्को के बोल्शोई थिएटर के मुख्य हॉल में एक नए राज्य , सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ के निर्माण के लिए एकत्र हुए…’
दरअसल 2017 के अक्टूबर क्रांति की विजय ने साम्राज्यवादी डाकुओं को भयभीत कर दिया. इसलिए पहले तो सर्वहारा के महान शिक्षक लेनिन को शारीरिक तौर पर खत्म करने के लिए भारे के हत्यारे से गोलियां चलवाई, लेकिन बुरी तरह घायल होने के बाद भी सोवियत जनता ने उन्हें बचा लिया और तत्काल लेनिन की राजनीतिक विरासत को अपने मजबूत कांधों पर उठाया सोवियत के अप्रतिम योद्धा और लेनिन के सबसे भरोसेमंद कामरेड स्टालिन ने.
यूं लेनिन की राजनीतिक विरासत को स्टालिन के द्वारा आगे ले जाते देख एक बार फिर साम्राज्यवादी डाकुओं के हाथ पांव फुल गये और पार्टी के अंदर मौजूद त्रात्स्की, जिनेवियेव, कामेनेव जैसे अवसरवादियों के माध्यम से स्टालिन पर हमला बोल दिया. यहां तक कि बेहद ही व्यक्तिगत आक्षेपों को अपना आधार बनाया. स्टालिन जहां अत्यंत बीमार लेनिन को हर संभव तरीकों से उनका जीवन बचाना चाहते थे, वहीं इन अवसरवादियों ने लेनिन की जल्दी से जल्दी मौत सुनिश्चित करने के लिए डॉक्टरों और पार्टी के आदेशों को धता बताते हुए लेनिन को गलत रिपोर्टें गुप्त रुप से देकर उनको और उत्तेजित करते रहते थे.
इतिहास गवाह है इन अवसरवादी गद्दारों ने लेनिन की जिन्दगी को बचाने के लिए डॉक्टरों और पार्टी के आदेशों का सख्ती से पालन करने वाले स्टालिन के खिलाफ काफी हद तक लेनिन की पत्नी क्रुप्सकाया को भड़काकर लेनिन की मौत सुनिश्चित कर दिया. इतना ही नहीं, लेनिन की मौत के बाद सामाजवादी सोवियत राज्य को खत्म करने के लिए स्टालिन पर हमले तेज कर दिये. अब जब सोवियत संघ खत्म हो गया है, आज भी साम्राज्यवादी डाकुओं को थर्राने वाले लेनिन को खत्म करने के लिए स्टालिन पर हमले तेज कर दिये हैं क्योंकि वह समझ गया है कि स्टालिन को खत्म किये बगैर लेनिन को छूना भी संभव नहीं है.
यह वेब पोर्टल स्टालिन पर किये हजारों-लाखों हमलों में से केवल एक उदाहरण मात्र है, जो तथ्यों को तोड़ते-मड़ोड़ते रहते हैं. यही कारण है कि हम इन आततायी साम्राज्यवादी डाकुओं के झूठे मनगढंत आरोपों के तथ्यात्मक जवाब में कम्युनिस्ट कार्यकर्ता मणि गुहा के इस वृहद लेख को प्रकाशित कर रहे हैं, जो बंगला पत्रिका ‘रौरव’ के स्तालिन विशेषांक (वर्ष 17, अंक 1) में प्रकाशित हुआ था. हमने यह लेख ‘अन्तर्राष्ट्रीय प्रकाशन’ द्वारा प्रकाशित पुस्तिका ‘समकालीनों की नजर में स्टालिन’ से लिया है, जिन्होंने इस लेख को बंगला से अनूदित किया है.
प्रकाशन ने स्पष्ट किया है कि बंगला में प्रकाशित लेख में कुछ स्थानों पर मुद्रण सम्बन्धी त्रुटियां थी जिन्हें लेखक की अनुमति से अनुवाद में सुधार लिया गया है. मूल लेख में प्रयुक्त उद्धरणों में से अधिकतर को अनुवाद करते समय फिर एक बार अंग्रेजी या हिन्दी में उपलब्ध आधिकारिक सन्दर्भों से मिला लिया गया है और उपलब्ध होने पर उद्धृत अंश को सोवियत हिन्दी अनुवादों से हूबहू ले लिया गया है – सम्पादक
मृत्युशैय्या पर पड़े हुए लेनिन ने अपनी ‘अन्तिम इच्छा’ के बतौर स्तालिन के ही समान प्रतिभासंम्पन्न परन्तु किसी विनम्र व्यक्ति को पार्टी का महासचिव बनाये जाने का सुझाव दिया और चिरनिद्रा में सो गये. इसी ‘अन्तिम इच्छा’ को ‘लेनिन की वसीयत’ बताकर प्रचारित किया गया है. ख़ुश्चोव जैसे संशोधनवादियों ने इसी ‘अन्तिम इच्छा’ को अपना हथियार बनाकर 1956 से विस्तालिनीकरण के नाम पर वस्तुतः विसमाजवादीकरण का अभियान चलाया. बीमार लेनिन की इस ‘अन्तिम इच्छा’ की पृष्ठभूमि को उन्होंने न केवल छुपाया वरन इस बारे में भी पूरी तरह चुप्पी साध ली कि किस प्रकार 1905 से 1922 तक स्वस्थ और प्राणवन्त लेनिन सदा ही स्तालिन की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते रहे तथा स्तालिन को अपना अत्यधिक विश्वस्त और निर्भरयोग्य सहयोगी और दाहिना हाथ मानते रहे. इसके अतिरिक्त लेनिन की जिस ‘अन्तिम इच्छा’ पर खुश्चोवरपन्थियों ने लगभग धार्मिक उन्माद की हद तक जाकर महत्व आरोपित किया, उस बाबत वे इस बात का कोई सुसंगत कारण बताने में असमर्थ रहे कि उन्होंने क्यों नहीं स्तालिन को सन् 1924 में ही महासचिव पद से उतार दिया और क्यों, इसके विपरीत, वे मृत्युपर्यन्त इस पद पर बने रहे. हालांकि स्तालिनोत्तर खुश्चोव नेतृत्व ने यह सफाई दी थी कि स्तालिन ने यह वादा किया था कि वे खुद-को सुधार लेंगे और इसीलिए उनको पद् पर बनाये रखा गया. परन्तु यह कथन एक सफेद झूठ के अलावा कुछ भी नहीं है और इस लेख में यथास्थान तथ्यों द्वारा इस बात की पुष्टि की जाएगी. स्तालिन को महासचिव पद पर चिपके रहने के लिए कभी नाक रगड़ने की जरूरत नहीं पड़ी. कभी भी नहीं.
स्तालिनोत्तर पीढ़ी के लोग आमतौर पर स्तालिन विरोधी कुप्रचार से ही परिचित हैं और किसी हद तक उससे प्रभावित भी. अत: इस लेख में निम्न तीन बातों को तथ्याधारित और विश्लेषणात्मक चर्चा का विषय बनाया गया है:
पहला यह कि स्तालिन के बारे में लेनिन की राय और भावनाएं कैसी थीं; दूसरा यह कि क्यों अपनी मृत्युशैय्या पर लेनिन ने स्तालिन को किसी राजनीतिक गलती के कारण नहीं बल्कि उनके सिर्फ कटुभाषी और अविनग्न होने के कारण महासचिव पद से उतारे जाने का परामर्श दिया और तीसरा यह कि लेनिन की इस ‘अन्तिम इच्छा’ पर स्तालिन की प्रतिक्रिया क्या हुई.
लेनिन-स्तालिन परिचय
स्तालिन सन् 1896 में रूसी सामाजिक-जनवादी मजदूर पार्टी के बोल्शेविक धड़े के सम्पर्क में आये. 1898 के अगस्त में उन्होंने पार्टी की सदस्यता अर्जित की. तब से लेकर 1905 तक लेनिन और स्तालिन एक दूसरे द्वारा लिखे गये लेखों आदि के माध्यम से ही परिचित हुए. उनकी सीधी मुलाकात पहली बार फिनलैण्ड में 1905 के दिसम्बर माह में हुई. यहीं पहली अखिल रूस बोल्शेविक कांग्रेस आयोजित हुई थी. इस तरह यह कहा जा सकता है कि बोल्शेविक धड़े के जन्म की औपचारिक घड़ी से ही स्तालिन लेनिन से प्रत्यक्ष रूप से परिचित थे. इस सीधी मुलाकात के पहले ही 1905 के अगस्त में स्तालिन ने ‘प्रोलेतारिएटिस ब्रडजोला’ नामक पत्रिका में ‘सोशल डेमोक्रेट’ के जबाव में’ शीर्षक से एक लेख लिखा. इस लेख ने लेनिन का ध्यान आकर्षित किया. लेनिन ने पार्टी के केन्द्रीय मुखपत्र ‘प्रोलेतारी’ के 22वें अंक में स्तालिन के इस लेख के बारे में यह राय रखी कि ‘बाहर से चेत्तना संचार करने के’ प्रसिद्ध प्रश्न का यह उत्कृष्ट सूत्रीकरण है.’ ( विदेशी भाषा प्रकाशन-गृह, मास्को द्वारा प्रकाशित ‘जोसफ स्तालिन : अ शॉर्ट बायोग्राफी’ के पृष्ठ 25 से उद्धृत.)
यही है लेनिन द्वारा किया गया स्तालिन का पहला अनुमोदन.
बहरहाल, फिनलैण्ड में आयोजित कांग्रेस में ही लेनिन के प्रस्ताव पर स्तालिन को ‘प्रस्ताव मसौदा लेखन कमेटी’ का सदस्य चुना गया. इस मनोनयन द्वारा यह प्रमाणित होता है कि लेनिन की नजर में स्तालिन पार्टी के एक महत्वपूर्ण सदस्य बन चुके थे.
यह था लेनिन द्वारा किया गया स्तालिन का दूसरा अनुमोदन, जो दोनों के बीच पहली मुलाकात के दौरान सामने आया.
लेनिन के साथ स्तालिन की दूसरी मुलाकात स्टाकहोम में 1906 के अप्रैल-मई के महीनों में हुई. वहां सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी की चौथी कांग्रेस आयोजित थी. इस कांग्रेस में भी स्तालिन ट्रांसकाकेशियाई सामाजिक-जनवादी मजदूर पार्टी के दोनों धड़ों (बोल्शेविक-मेनशेविक) के बीच से मतदान द्वारा प्रतिनिधि चुनकर आये थे. निश्चित तौर पर यह स्तालिन की कम बड़ी उपलब्धि नहीं थी. इस कांग्रेस में लेनिन और स्तालिन के बीच क्या बातचीत हुई, इस बारे में किसी तथ्य की मुझे जानकारी नहीं है.
दोनों के बीच अगली मुलाकात हुई सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी की 1907 में लन्दन में आयोजित कांग्रेस में. लन्दन कांग्रेस में ही लेनिन ने स्तालिन को तिफलिस छोड़ कर बाकू जाने का निर्देश दिया. यहां इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि ट्रांसकाकेशियाई इलाके में तब बाकू ही सबसे बड़ा औद्योगिक शहर था. और इसीलिए वह रूस के मजदूर आन्दोलन की दृष्टि से अत्यधिक सम्भावना-सम्पन्न और असाधारण महत्व के केन्द्रों में से एक था. स्तालिन की सांगठनिक क्षमता को मान्यता प्रदान करते हुए ही लेनिन ने स्तालिन को इस महत्वपूर्ण केन्द्र में जाकर काम करने का निर्देश दिया था.
यह है लेनिन द्वारा स्तालिन की सांगठनिक क्षमता के अनुमोदन का तीसरा उदाहरण.
1909 में स्तालिन द्वारा लिखित ‘काकेशस की चिट्ठी’ शीर्षक राजनीतिक विश्लेषणात्मक रिपोर्ट को लेनिन ने इस बात के उदाहरण के बतौर पार्टी के केन्द्रीय मुखपत्र में प्रकाशित किया कि ‘किस प्रकार रिपोर्ट लिखी जानी चाहिए.’
यह है लेनिन द्वारा स्तालिन के अनुमोदन का चौथा उदाहरण.
स्तालिन 1910 में लेनिन द्वारा केन्द्रीय कमेटी की ओर से रूस के आन्तरिक पार्टी संगठन के संगठनकर्ता और सलाहकार मनोनीत किये गये और इस उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए उन्हें बाकू छोड़कर सेण्ट पीटर्सबर्ग आ जाना पड़ा. यहां उल्लेखनीय है कि तब तक बोल्शेविक धड़े ने रूस के अन्दर केन्द्रीय कमेटी के मातहत एक रूसी ब्यूरो का गठन नहीं किया था.
यह है एक सक्षम संगठनकर्ता और नेता के बतौर स्तालिन को मिला लेनिन का पांचवां अनुमोदन.
1911 में लेनिन लिखते हैं : ‘कोबी (स्तालिन के एकाधिक छद्मनामों में से एक) द्वारा लिखे गये लेखों को ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए. हम लोगों को शान्ति बनाये रखने का सुझाव देने वालों की राय और इच्छाओं-आकांक्षाओं का खण्डन करने के तर्क की इससे अच्छी प्रस्तुति की आशा नहीं की जा सकती.’
यह है लेनिन द्वारा किया गया स्तालिन का छठा अनुमोदन, जो उनकी राजनीतिक बुद्धिमत्ता और विपक्षियों के तकों के खण्डन करने की उनकी क्षमता की पुष्टि करता है.
1912 के जनवरी माह में रूसी सामाजिक-जनवादी मजदूर पार्टी के बोल्शेविक धड़े के जीवन में एक युगान्तरकारी घटना घटी. इसी समय आयोजित प्राग सम्मेलन में सामाजिक-जनवादी मजदूर पार्टी के मेनशेविक धड़े से अपना नाता तोड़ कर बोल्शेविकों ने एक अलग पार्ट, बोल्शेविक पार्टी के रूप में एक नये तरह की पार्टी का गठन किया. स्तालिन उस समय निर्वासित थे इसलिए वे इस सम्मेलन में शामिल नहीं हो सके. इस सम्मेलन में एक पूर्णतः नयी केन्द्रीय कमेटी और एक रूसी ब्यूरो का गठन किया गया. लेनिन ने रूसी ब्यूरो को स्तालिन के निर्वासन से निकल भागने का इन्तजाम वगैरह करने का निर्देश दिया. जिसके अनुरूप स्तालिन को प्राग सम्मेलन के निर्णयों से अवगत कराया गया. इसी वर्ष 29 फरवरी को स्तालिन निर्वासन से निकल भागे और पीटर्सबर्ग लौट कर उन्होंने पार्टी की जिम्मेदारियों को सम्भाल लिया. इसी प्राग सम्मेलन में ही पार्टी के दैनिक मुखपत्र ‘प्रावदा’ के प्रकाशन का निर्णय लिया गया था. स्तालिन के प्रयासों से ही 1912 के 5 मई को ‘प्रावदा’ का प्रथम अंक प्रकाशित हुआ.
यह है लेनिन द्वारा किया गया स्तालिन का सातवां अनुमोदन.
1912 में ही स्तालिन ने दूमा (रूसी संसद) में ‘मजदूर प्रतिनिधियों को सेण्ट पीटर्सबर्ग के श्रमजीवियों का निर्देश (मैण्डेट)’ शीर्षक एक घोषणापत्र लिखा और उसे स्वीकृति के लिए लेनिन के पास भेज दिया. इस लेख को स्वीकृत करते हुए लेनिन ने प्रकाशन हेतु रूस वापस भेजते समय उसके हाशिये पर यह टिप्पणी लिखी: ‘इसे बिना किसी चूक के वापस भेजें ! साफ सुथरा रखें. इस दस्तावेज को सुरक्षित रखना बहुत ही आवश्यक है !‘ (जोर लेनिन का)
इस बारे में ‘प्रावदा’ के सम्पादकों को उन्होंने लिखा ‘सेण्ट पीटर्सबर्ग के प्रतिनिधियों को (सम्बोधित) इस मैण्डेट को बिना किसी चूक के, प्रमुख स्थान पर और बड़े अक्षरों में प्रकाशित करें !’ (वी.आई. लेनिन, सम्पूर्ण ग्रन्थावली, चौथा रूसी संस्करण, खण्ड 35, पृष्ठ 38: जोसेफ स्तालिन : अ शॉर्ट बायोग्राफी, विदेशी भाषा प्रकाशन- गृह, मास्को, 1952, पृष्ठ 44, से उद्धृत.)
यह है लेनिन द्वारा मजदूर आन्दोलन में बुर्जुआ संसद का इस्तेमाल किस प्रकार किया जाना चाहिए इस बाबत स्तालिन की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा का उदाहरण; उनके द्वारा स्तालिन के अनुपोदन की आठवीं घटना.
1913 के 15 फरवरी से 25 फरवरी के बीच किसी एक दिन (सही तारीख का निर्धारण करना सम्भव नहीं हो सका है) लेनिन ने मैक्सिम गोकी को एक पत्र में लिखा : ‘राष्ट्रवाद के बारे में, मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूं, इस विषय पर और गम्भीरता से विचार-विश्लेषण करना आवश्यक है. हम लोगों को एक विलक्षण जार्जियाई मिला है. उन्होंने ‘प्रस्वेस्चेनिए’ (एनलाइटमेण्ट अथवा प्रबोधन) पत्रिका के लिए एक विस्तृत लेख लिखने का काम अपने हाथों में लिया है और इस हेतु उन्होंने आस्ट्रियाई व दूसरे दस्तावेज वगैरह एकत्र किये हैं. (‘लेनिन एवं गोर्की’ (बंगला), प्रगति प्रकाशन, मास्को, 1973; पृष्ठ 102)[1].
इस सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि उस समय पार्टी के निर्देश पर राष्ट्रीय समस्या पर अनेक पार्टी सदस्यों ने लेख आदि लिखे धे. इन सभी रचनाओं को देखने के बाद लेनिन ने यह राय व्यक्त की कि ‘हाल में मार्क्सीय साहित्य में सामाजिक-जनवादी राष्ट्रीय कार्यक्रम के उसूलों पर काफी चर्चा हुई है. (इस बारे में स्तालिन का लेख सबसे ऊपर है.)’ (लेनिन, सम्पूर्ण ग्रन्थावली, चौथे रूसी संस्करण, खण्ड 19, पृष्ठ 488 से ‘जोसेफ स्तालिन : अ शॉर्ट बायोग्राफी पृष्ठ 45 में उद्धृत.)
इस संदर्भ में यह भी बताना आवश्यक है कि राष्ट्रीय समस्या के बारे में स्तालिन का यह गहरा और विस्तृत ज्ञान देखकर स्तालिन को लेनिन विएना ले गये और वहां इस बात को व्यवस्था की कि राष्ट्रीय समस्या पर वे आस्ट्रियाई व अन्य सभी रचनाओं का अध्ययन कर सकें. विएना में ही स्तालिन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘मार्क्सवाद और राष्ट्रीय प्रश्न’ पूरी की.
यह है लेनिन द्वारा अपनी विलक्षण खोज के प्रति आस्था प्रदर्शन का नौवां एवं दसवां उदाहरण.
1916 के दिसम्बर माह में जब स्तालिन क्रास्नोयार्स्क में निर्वासित थे, उन्हें सेना में शामिल किये जाने का जारशाही फरमान आया. इस उद्देश्य से उन्हें फौजी पहरे में अचिन्स्क लाया गया. यहीं पहुंचकर उन्हें फरवरी क्रान्ति का समाचार मिला. थोड़ा भी विलम्ब किये बिना स्तालिन ने निकल भागने का फैसला किया. 12 मार्च, 1917 को रात के अन्धेरे और कड़ाके की ठण्ड में पैदल चलकर वे राजधानी पेत्रोग्राद पहुंचे. पार्टी ने स्तालिन को ‘प्रावदा’ के संचालन की जिम्मेदारी सौंपी. एक अर्से से स्वेच्छया निर्वासन भुगतने के बाद 1917 के 3 अप्रैल को लेनिन रूस लौट आये. एक बार फिर लेनिन और स्तालिन का मिलन हुआ. बोल्शेविक पार्टी अब गैरकानूनी संगठन नहीं थी. अगले दिन ही लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध ‘अप्रैल थीसिस’ प्रस्तुत की और यह स्थापना रखी कि अब बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति नहीं, अब बारी है सर्वहारा समाजवादी क्रान्ति की.
1917 के 28 अप्रैल को बोल्शेविक पार्टी की सातवीं कांग्रेस आयोजित हुई. इस कांग्रेस के बाद ही 1917 के मई महीने में क्रान्ति को संचालित करने एवं क्रान्ति के दौर में तात्कालिक राजनीतिक-सामरिक-सांगठनिक निर्देशादि देने के लिए केन्द्रीय कमेटी के मातहत एक छोटे से ब्यूरो का गठन किया गया और इस ब्यूरो को ‘पॉलिटिकल ब्यूरो’ का नाम दिया गया जो आगे चलकर ‘पोलित ब्यूरो’ के रूप में प्रसिद्ध हुआ. लेनिन के प्रस्ताव पर स्तालिन को इस राजनीतिक ब्यूरो का सदस्य बनाया गया.
स्तालिन की राजनीतिक व सांगठनिक क्षमता की स्वीकृति के बतौर लेनिन द्वारा उनके अनुमोदन का यह है ग्यारहवां उदाहरण.
1918 में जर्मनी के साथ युद्धविराम और शान्ति समझौता सम्पादित करने के लिए त्रात्स्की को ब्रेस्त लितोवस्क भेजा गया. 12 फरवरी, 1918 को त्रात्स्की ने लेनिन की सलाह मांगते हुए एक तार भेजा. इस तार का जवाब लेनिन ने इस प्रकार दिया: ‘इस प्रश्न का उत्तर देने के पहले मुझे स्तालिन से मशविरा करना पड़ेगा.’
तीन दिन बाद 18 फरवरी को लेनिन ने सूचना भेजी. ‘स्तालिन अभी ही पहुंचे हैं. हम दोनों परिस्थिति की चर्चा करेंगे और यथाशीघ्र आपको एक संयुक्त जवाब भेजेंगे-लेनिन.’
स्तालिन लेनिन के कितने अधिक विश्वासपात्र थे और स्तालिन के राय-मशविरे पर लेनिन किस हद तक भरोसा करते थे, यह तार उसका जाज्वल्यमान उदाहरण है.
गृहयुद्ध की अग्निपरीक्षा में[2]
कालिनिन[3] ने स्तालिन के बारे में कहा है: ‘1918 से 1920 के बीच स्तालिन ही वह एकमात्र व्यक्ति थे जिन्हें केन्द्रीय कमेटी लगातार युद्ध के एक मोर्चे से दूसरे मोर्चे तक दौड़ाती रही, खासकर उन जगहों की ओर जहां क्रान्ति सबसे अधिक खतरे में पड़ी हुई हो.’ कालिनिन के इस वक्तव्य का हर अक्षर सही है.
जरित्सिन मोर्चा : स्तालिन को सबसे पहले भेजा गया जरित्सिन मोर्चे पर. उनको सिर्फ सेना के क्रियाकलापों के पर्यवेक्षक के तौर पर वहां नहीं भेजा गया था. उन्हें जरित्सिन भेजा गया था दक्षिण एशिया के मध्य से टूट चुकी खाद्य आपूर्ति लाइन को पुनर्गठित करने और मास्को में खाद्य आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए. यहां उल्लेखनीय है कि जरित्सिन की परिस्थिति पर और उसके चारों ओर के पूरे इलाके पर बोल्शेविकों का नियन्त्रण बनाये रखने पर ही खाद्य आपूर्ति लाइन का टिके रहना और नियमित रूप से खाद्य आपूर्ति का सुनिश्चित होना निर्भर करता था. दोन इलाके में कज्जाकों के विद्रोह और जरित्सिन को खोने का अर्थ था काकेशस के उत्तर के सभी गेहूं उत्पादक इलाकों को हाथ से निकल जाने देना.
जरित्सिन पहुंचने के बाद स्तालिन ने एक तार भेजकर लेनिन को यह सूचित किया: ‘कामरेड लेनिन आप निश्चिन्त रहें. जिनको आंख तरेरने की जरूरत है, उनको मैं वही कर रहा हूं. किसी को भी नहीं बख्शा जा रहा है. खुद को भी नहीं और दूसरों को भी नहीं. हमारे सामरिक विशेषज्ञ (जिनकी अक्ल मोटी है) अगर आलसी नहीं होते या सो नहीं रहे होते तो हमारी लाइन को तोड़ना मुमकिन नहीं था. और अगर हम उसे फिर से बहाल में सफल होते हैं तो ऐसा उनके (सामरिक अफसरों के) चलते नहीं होगा वरन उनकी मौजूदगी के बावजूद होगा.’
स्तालिन के इस पत्र की अन्तिम दो पंक्तियां गौर के काबिल हैं. बावजूद इसके कि वे खाद्य आपूर्ति के असामरिक काम से आये थे, यहां उन्होंने सामरिक अधिकारियों के क्रियाकलापों में हस्तक्षेप करने के अपने इरादे की ओर इशारा किया है.
यहां आकर स्टालिन ने पूरे इलाके को एक अकल्पनीय अराजकता की स्थिति में देखा. सोवियत प्रतिष्ठान, कम्युनिस्ट और सामरिक संगठन एक दूसरे से पूरी तरह कटे हुए परस्पर झगडे में व्यस्त थे. चारों ओर से वे कज्जाक प्रतिक्रांतिकारियों से घिरे हुए थे. ये कज्जाक जर्मन हमलावर सेनाओं से लगातार सहायता प्राप्त कर शक्तिशाली हो उठे थे. श्वेत रक्षकों की टुकडियां जरित्सिन के आसपास के शहरों पर एक के बाद एक कब्जा करती जा रही थीं. फलस्वरूप मास्को और पेत्रोग्राद आदि जिस अनाज की प्रतीक्षा में दिन काट रहे थे, उसकी आपूर्ति न केवल बन्द हो गयी थी, वरन खुद जरित्सिन की स्थिति भी आशंकाजनक गयी थी.
इस सम्पूर्ण परिस्थिति पर विचार करते हुए स्तालिन ने यह महसूस किया कि सामरिक जिम्मेदारियों को खुद अपने हाथ में ले लेने के अलावा और कोई चारा नहीं है. उन्होंने देखा कि वहां का सामरिक नेतृत्व बहुत ही दुर्बल, दुविधाग्रस्त और ढुलमुल मानसिकता से ग्रस्त था. इसीलिए 1918 के 11 जुलाई को पुनः एक तार भेजकर स्तालिन ने लेनिन को सूचित किया :
‘उत्तर काकेशस के सामरिक मुख्यालय के अधिकारीगण प्रतिक्रान्ति के खिलाफ युद्ध में पूरी तरह अक्षम हैं क्योंकि वे अपने को प्रधान मुख्यालय (त्रात्स्की के मुख्यालय) के अधीनस्थ कर्मचारी समझते हैं और यह समझते हैं कि उनकी जिम्मेदारी सिर्फ अभियान की योजनायें तैयार करने की है. अतः वे परिस्थिति के प्रति उदासीन हैं और युद्ध सम्बन्धी किसी चीज में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है.’
स्तालिन उस धातु में ढले इंसान नहीं थे जो पर्यवेक्षक के बतौर एक रूटीन रिपोर्ट लिखकर ही अपने जिम्मेदारियों को पूरा कर देते. आवश्यकता होने पर वे औपचारिकता की बेडियों को तोड़कर किसी भी विभाग में हस्तक्षेप करने की क्षमता रखते थे. क्योंकि क्रान्ति की जिम्मेदारियां उनके जीवन के साथ अविभेद्य रूप से जुड़ी हुई थीं और इसीलिए, क्रान्ति के हितों की तुलना में औपचारिकता का कोई बहाना उनके लिए ग्राह्म नहीं हो सकता था. इसीलिए उपरोक्त तार में उन्होंने आगे लिखा:
‘अब जबकि कालिनिन के मोर्चे (उत्तरी काकेशिया) पर आपूर्ति लाइन दूट चुकी है, मुझे नहीं लगता है कि यह सब निर्विकार भाव से देखते रहना मेरे लिए उचित होगा.
‘मैं इस कमजोरी को एवं अनेक अन्य स्थानीय कमजोरियों को दूर करूंगा. मैं उपयुक्त उपाय कर रहा हूं और आगे भी ऐसा ही करूंगा, यहां तक कि उन रेजिमेण्टल और स्टाफ अफसरों को जिन्होंने हमारा यह सर्वनाश किया है, औपचारिकता की दिक्कतों के बावजूद, निकाल बाहर करूंगा. जरूरत होने पर मैं ऐसी बाधाओं की परवाह नहीं करूंगा. इस हेतु, स्वाभाविक रूप से, सारी जिम्मेदारियां मैं अपने कन्धों पर ही ले ले रहा हूं.’
ऐसे ही थे स्तालिन ! क्रान्ति के हित से बढ़कर कुछ भी नहीं है-जीवन के अन्तिम दिन तक वे इसी मानसिकता में काम करते रहे. स्तालिन ने अपने अन्तिम दिनों में औपचारिकता के बन्धनों को तोड़कर संशोधनवाद के खिलाफ जो संघर्ष छेड़ा था, उसी को आधार बनाकर और ‘जनतन्त्र’ और औपचारिकता की दुहाई देकर स्तालिन के आलोचकों ने उनके अन्तिम दिनों की याद पर कालिख पोतने की कोशिश की है. लेकिन क्या लेनिन ने भी स्तालिन द्वारा औपचारिकताओं की परवाह न करते हुए क्रान्ति के हितों की रक्षा करने की कार्रवाइयों का समर्थन नहीं किया था ?
स्तालिन के उपरोक्त तार के जवाब में मास्को से भेजे गये तार में उन्हें सूचित किया गया: ‘व्यवस्था फिर से बहाल करें; फौज की टुकडियों से चुनकर नियमित सेना का गठन करें. उचित कमाण्ड लागू करें, आदेश न मानने वालों को बर्खास्त करें.’
यह तार ‘केन्द्रीय क्रान्तिकारी युद्ध परिषद’ की ओर से आया था. स्तालिन को आश्वस्त करने के लिए यह भी लिखा हुआ था: ‘लेनिन की सम्मति से ही यह तार भेजा जा रहा है.’
सामरिक नेताओं के हाथ से नेतृत्व छीन कर सम्पूर्ण जिम्मेदारी स्तालिन को सौंप देने की इस घटना से स्तालिन के विवेक और कार्यक्षमता पर लेनिन की आस्था का ही पता चलता है. जैसा कि बताया जा चुका है, उस समय सामरिक मामलों के सर्वोच्च केन्द्र-प्रधान मुख्यालय के प्रमुख त्रात्स्की थे. त्रात्सकी की घोर आपत्ति के बावजूद स्तालिन के प्रति लेनिन के इस आस्था प्रदर्शन और उन्हें जिम्मेदारियां देने से स्वाभाविक रूप से त्रात्स्की क्षुब्ध हुए और उन्होंने अपमानित महसूस किया. त्रात्स्की ने सामरिक मुख्यालय के प्रमुख का पद छोड़ने की धमकी भी दी. लेनिन ने त्रात्स्की का त्यागपत्र स्वीकार नहीं किया और उन्हें अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने को कहा. लेकिन यह तो एक स्वतन्त्र इतिहास है.
मास्को से तार मिलने के बाद स्तालिन ने जरित्सिन में एक ‘क्रान्तिकारी युद्ध परिषद’ का गठन किया और उसके माध्यम से नियमित सेना को पुनर्सगठित करने का काम शुरू कर दिया. सेना के ऊपरी हलकों से शुरू कर आपूर्ति व्यवस्था, अग्रिम मोर्चों के पृष्ठ भाग के सामरिक संगठन, कम्युनिस्ट और सोवियत संगठनों तक हर जगह से प्रतिक्रान्तिकारियों को निकाला गया और नये सिरे से व्यवस्था बहाल की गयी.
लेकिन, गड़बड़ी इतनी ही नहीं थी. पूरे जरित्सिन शहर में श्वेत गार्ड के लोगों, क्रान्तिकारी-समाजवादियों, उग्र-राजतन्त्रवादियों और आतंकवादियों ने अपना डेरा जमाया हुआ था, इन सब को निकाल बाहर किया गया. स्तालिन के नेतृत्व में क्रान्तिकारी युद्ध परिषद ने एक विशेष ‘चेका’ संगठन का निर्माण किया. यह सभी सन्देहजनक लोगों पर कड़ी नजर रखती थी. वामपन्थी समाजवादी क्रान्तिकारियों द्वारा संकट पैदा किये जाने की आशंका व्यक्त करते हुए लेनिन ने एक तार द्वारा स्तालिन को सतर्क किया. इसके जवाब में उन्होंने लेनिन को यह तार भेजा: ‘इन खब्तियों के बारे में आप चिन्तित न हों. हम कड़ाई से काम ले रहे हैं. शत्रुओं के साथ हम शत्रुओं जैसा ही बर्ताव करेंगे.’
सोवियत सेना से भागकर श्वेत गार्ड फौज में अफसर बने नवोसोविच ने इस दौर के बारे में प्रतिक्रान्तिकारी मुखपत्र ‘द सर्ज आफ द दोन’ (दोन का उफान) में 1919 की 3 फरवरी को लिखा ‘स्तालिन एक बार जिस काम को हाथ में लेते हैं वे उसे पूरा करने के पहले छोड़ देने वाले व्यक्ति नहीं हैं.’ अपने इसी लेख में नवोसोविच ने जरित्सिन में स्तालिन की गतिविधियों के बारे में एक और घटना का उल्लेख किया है: ‘जरित्सिन के तत्कालीन सामरिक नेतृत्व को हटाये जाने से त्रात्स्की क्षुब्ध हो गये. उन्होंने लेनिन के पास एक तार भेजकर कहा कि मुख्यालय में स्टाफ और कमिसारों को फिर से अपने पदों पर बहाल करने और उनको काम करने का अवसर देने की जरूरत है.’ स्तालिन ने उस तार पर यह राय दर्ज कर दी: ‘इस बात पर कोई ध्यान न दें.’ लेनिन ने स्तालिन के मशविरे के मुताबिक ही त्रात्स्की की बात पर ‘कोई ध्यान नहीं दिया’ और हटाये गये लोगों की फिर से बहाली का कोई निर्देश नहीं दिया. आखिरकार, जरित्सिन के मोर्चे पर जीत हासिल की गयी. आगे चलकर जरित्सिन सोवियत ने इस स्थान का नया नामकरण किया- स्तालिनग्राद.
पूर्वी मोर्चे, पेर्म में: पेर्म मोर्चे की दशा भी जरित्सिन की तरह ही निराशाजनक थी. लेनिन ने पेर्म की क्रान्तिकारी युद्ध परिषद् को एक तार द्वारा सूचित किया: ‘हमें पेर्म और आसपास के इलाकों से तथा वहां की पार्टी से तीसरी सेना की शराबखोरी व पियक्कड॒पने और इसके चलते खतरनाक स्थिति की अनेक रपटें मिली हैं. मैं स्तालिन को भेजने की सोच रहा हूं.’
केन्द्रीय कमेटी ने स्तालिन और जर्जिन्सकी को पेर्म भेजा. जरित्सिन की ही तरह कड़े उपायों द्वारा यहां 1919 की जनवरी में दुश्मनों का आगे बढ़ना रोका जा सका और पूरे पूर्वी मोर्चे पर आक्रामक अभियान द्वारा उराल्स्क तक का इलाका कब्जे में ले लिया गया.
स्तालिन की क्षमताओं के बारे में लेनिन की आस्था का यह एक और उदाहरण है.
पेत्रोग्राद मोर्चे पर: पेर्म के मोर्चे से लौटे दो माह भी पूरे नहीं हुए थे कि फरवरी के आखिरी दिनों में उन्हें पेत्रोग्राद मोर्चे पर भेजा गया. उस समय पेत्रोग्राद की हालत बहुत ही संकटापन्न थी. पेत्रोग्राद प्रायः हाथ से निकलने को था. इस बार भी केन्द्रीय को ही हालात को सम्भालने की जिम्मेदारी सौंपी. पेत्रोग्राद मोर्चे की स्थिति का वर्णन यहां स्टालिन के ही शब्दों में प्रस्तुत है. उन्होंने लेनिन को सूचित किया;
‘क्रास्नाया-गोर्का सुरक्षित कर लेने के बाद सेराया लोश्द पर आक्रमण किया गया. सभी किलों और किलेबन्दियों पर तेजी से व्यवस्था कायम की जा रही है. नौसैनिक विशेषज्ञ मुझे बतला रहे हैं कि क्रास्ताया-गोर्का पर अधिकार करने के मामले में मैंने नौसैनिक विज्ञान के सभी सिद्धान्तों की धज्जियां उड़ा दी हैं. मुझे सिर्फ इसका अफसोस है कि वे विज्ञान न जाने किसे कहते हैं. गोर्का पर अधिकार करने के लिए पानी और जमीन के रास्तों पर जो आज्ञाएं जारी की गयी थीं, हमने और आमतौर पर नागरिकों ने उसके खिलाफ सशस्त्र हस्तक्षेप करके और हमारे द्वारा जारी निर्देशों पर अमल करते हुए बिजली की तेजी के साथ हमला करके गोर्का पर कब्जा किया है. मैं आपको यह सूचित करना अपना कर्तव्य समझता हूं कि जरूरत होने पर मैं आगे भी ऐसा ही करूंगा.’
नौसैनिक विशेषज्ञों के आदेशों को नजरअन्दाज कर स्तालिन के निर्देश पर बिजली की तेजी से किए गये ‘अवैज्ञानिक’ हमले का परिणाम क्या हुआ उसका वर्णन छह दिनों पश्चात स्तालिन द्वारा लेनिन को भेजे गये तार में बखूबी मिलता है:
‘हमारे सैनिकों का कायाकल्प होना शुरू हो गया है. विगत सारे सप्ताह में एक दिन भी वैयक्तिक या सामूहिक पलायन या आत्मसमर्पण की कोई घटना नहीं घटी. हजारों कौ संख्या में भगोड़े वापस लौट आये हैं. दुश्मन के खेमे से भागकर हमारी ओर आ मिलने की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं. एक सप्ताह में अपने सारे हथियारों को साथ लिए करीब-करीब चार सौ आदमी हमारी सेना में आकर शामिल हो गये है. कल से हमने अपना आक्रमण शुरू किया है. प्रस्तावित कुमक अभी नहीं पहुंची है, लेकिन इसके बावजूद हम आगे बढ़ने में सफल हुए हैं. हमारे लिए पुरानी रेखा पर बने रहना असम्भव था क्योंकि वह पांत पेत्रोग्राद के बहुत नजदीक थी. इस बार हमारा आक्रमण सफल रहा है. शत्रु सिर पर पैर रखकर भाग रहा है. आज हमारी पांतें कारनीबो, वारनिना, स्लेपिवो और कस्कोवो पर हैं. हमने बहुत से बन्दियों, तोपों, मशीनगनों और गोलाबारूद पर अधिकार कर लिया है. शत्रु-अंग्रेजों के युद्ध पोतों ने मुंह नहीं दिखाया है. जाहिर है वे क्रास्ताया-गोर्का से डर रहे हैं जो अब पूरी तरह से हमारे कब्जे में है.’
दक्षिणी मोर्चे पर: इस मोर्चे की हालत भी दूसरे मोर्चों से अलग नहीं थी. यहां भी एक ही प्रश्न मुंह बाये खड़ा था-निश्चित पराजय के हाथों से किस तरह निजात पायी जाय ? और कौन इसका सूत्रधार बनेगा ? मानूइल्सकी लिखते हैं: ‘हर कोई सन् 1919 के शरद के बारे में जानता है. यह पूरे गृहयुद्ध का निर्णायक और बहुत ही संकट का समय था.’
इस खतरे से नवजात सोवियत रूस और समाजवाद की रक्षा भला कौन कर सकता था ? स्तालिन के अलावा कौन उसे गृहयुद्ध के इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण मोचें पर विजयी बना सकता था ? स्तालिन ही इस काम के लिए एकमात्र योग्य व्यक्ति थे. इसीलिए केन्द्रीय कमेटी ने स्तालिन को इस काम की जिम्मेदारी सौंपी. लेकिन केन्द्रीय कमेटी ने इस बार उन्हें वहां निहत्था नहीं भेजा. केन्द्रीय क्रान्तिकारी युद्ध परिषद का पूर्ण सदस्य बनाकर और इस कमेटी के स्वीकृत प्रतिनिधि के तौर पर स्तालिन इस मोर्चे पर भेजे गये. यानी इस बार उनकी हैसियत इस मोर्चे के सर्वाधिकार प्राप्त सर्वोच्च अधिकारी की थी. यह स्तालिन की क्षमताओं का एक महत्वपूर्ण अनुमोदन था. त्रात्स्की के मुख्यालय को नजरअन्दाज कर क्यों और किस प्रकार स्तालिन को इस जटिल मोर्चे का सर्वाधिकार सौंपा गया ? मानूइल्सकी इस बारे में लिखते हैं :
‘आज इस बात को छिपाने की कोई जरूरत नहीं है कि स्तालिन ने दक्षिणी मोर्चे की ओर प्रस्थान करने से पहले केन्द्रीय कमेटी के समक्ष तीन शर्ते रखी. पहली-दक्षिणी मोर्चे के कामकाज में त्रात्स्की का कोई दखल नहीं होगा. उन्हें अपनी जगह पर ही रहना होगा. दूसरी-सेना के उन नेतृत्वकारी अधिकारियों को जिन्हें सेना की हालत सुधारने की दृष्टि से स्तालिन अयोग्य समझें, उनका नोट मिलते ही अधिकारों से वंचित कर तुरन्त वापस बुला लेना होगा; और तीसरी, यह कि, स्तालिन जिन नेतृत्वकारी सैन्य अधिकारियों को उपयुक्त समझेंगे, उनका नोट मिलते ही उन्हें तुरन्त दक्षिणी मोर्चे पर भेज देना होगा.
‘केन्द्रीय कमेटी की बैठक में त्रात्स्की की उपस्थिति और विरोध के बावजूद केन्द्रीय कमेटी ने इन तीनों को मान लिया था.’
स्तालिन के प्रति केन्द्रीय कमेटी और लेनिन के अगाध विश्वास का यह एक और उदाहरण है.
दक्षिणी मोर्चे की परिस्थिति का अच्छी तरह जायजा लेने के बाद स्तालिन ने त्रात्स्की के मुख्यालय द्वारा मोर्चे के लिए बनायी गयी योजना को रद्द कर दिया और केन्द्रीय कमेटी के पास स्वीकृति के लिए एक नयी योजना प्रस्तुत की. स्तालिन को दूरदृष्टि और सामरिक योजनाएं बनाने में उनकी दक्षता का परिचय प्राप्त करने के लिए, आइये, इस ऐतिहासिक वैकल्पिक योजना के बारे में लेनिन को लिखे गये पत्र पर एक नजर डालें. स्तालिन ने लिखा:
‘दो महीने पहले उच्चतर कमेटी ने सिद्धान्त रूप में यह स्वीकार किया था कि मुख्य आक्रमण पश्चिम से पूर्व की ओर दोनेत्स्क की घाटी के भीतर से होकर होना चाहिए. इस पर अमल नहीं किया गया क्योंकि गर्मियों में दक्षिण से सेना के पीछे हटने के कारण पैदा हुईं स्थिति उसके अनुकूल नहीं थी. अर्थात दक्षिण-पूर्वी मोर्चे पर सेनाओं के पुनर्विभाजन में जो समय लगा, उससे देनिकिन ने फायदा उठाया. लेकिन सेनाओं के पुनर्विभाजन के साथ मिलकर अब स्थिति बिल्कुल बदल गयी है. पूर्वी आठवीं सेना (पुराने दक्षिणी मोर्चे की एक प्रधान सेना) आगे बढ़ी है, और दोनेत्सक की घाटी उसके सामने है. बुद्योन्नी-रिसाला जैसी दूसरी महत्वपूर्ण सेना भी आगे बढ़ी है. लेत डिविजन नामक एक नयी सेना की हमारी सेना में और वृद्धि हुई है. एक महीने को भीतर, जब यह पुन: संगठित हो जाएगी, तो वह देनीकिन के लिए खतरा पैदा कर देगी. …ऐसी स्थिति में उच्चतर कमेटी की पुरानी योजना को कायम रखने की क्या मजबूरी है ? इसका कारण स्पष्टत: ही ऐसी हठथर्मिता है जो कि हमारे गणतन्त्र के लिए बहुत ही खतरनाक और अदूरदर्शितापूर्ण हो सकती है, और जिसे सैनिक दांवपेचों के महान विशेषज्ञ[4] उच्चतर कमेटी के माध्यम से लालित-पालित कर रहे हैं.
‘कुछ समय पहले उच्चतर कमेटी ने कोरिन को दोन के कान्तार को पार करके, नवोरोसिस्क पर आगे बढ़ने का आदेश दिया था. यह ऐसा रास्ता है, जो कि हमारे वायुसैनिकों के लिए ही व्यवहार्य हो सकता है. हमारी सेना और तोपखाने का दोन कान्तार होते हुए आगे बढ़ना असम्भव है. यह निपट लड़कपन है. यह बतलाना बिल्कुल आसान है कि शत्रु-देश में एक असम्भव पांत के ऊपर होते हुए बढ़ाव की यह योजना बिल्कुल निर्बुद्धितापूर्ण है, और सत्यानाश का कारण बन जायेगी. यह बतलाना बिल्कुल आसान है कि इस प्रकार कज्जाक गांवों के ऊपर से बढ़ने का एक ही फल होगा-जो कि कुछ ही समय पहले हो भी चुका है-अपने गांवों की प्रतिरक्षा के लिये कज्जाकों का देनीकिन के साथ मिल जाना, और देनीकिन को दोन का त्राता बनने का मौका देना अर्थात देनीकिन को इस प्रकार अपने हाथों को मजबूत करने में सफल होने देना. इसलिये, पुरानी योजना एक क्षण की भी देर किये बिना बदलनी होगी और उसकी जगह खरकोव ओर दोनेत्स-घाटी के बीच से रस्तोव के ऊपर केन्द्रीय आक्रमणवाली योजना स्वीकार करनी पड़ेगी. इस प्रकार,
- शत्रु-देश के बीच से नहीं, बल्कि हमें मित्रतापूर्ण इलाकों से गुजरना पड़ेगा, जिससे आगे बढ़ने में आसानी होगी;
- हम दोनेत्स जैसी एक महत्वपूर्ण रेलवे लाइन-देनीकिन की सेना के संचार की मुख्य लाइन-बोरोनेज-रस्तोव लाइन पर अधिकार कर सकेंगे;
- हम देनीकिन की सेना को दो भागों में काट देंगे जिनमें से एक भाग (स्वयंसेवकों) को मखनो ठीक कर देगा, और हम कज्जाक सेना को पीछे से खतरा पैदा कर देंगे;
- यह भी हो सकता है कि हम देनीकिन से कज्जाकों को नाराज करा दें, क्योंकि यदि हमारा बढ़ाव कामयाब रहा तो देनीकिन कज्जाकों को पश्चिम की ओर हटाने की कोशिश करेगा, जिसे अधिकांश कज्जाक मानने से इन्कार कर देंगे; और
- हमें कोयला मिल जायेगा, जब कि देनीकिन को कुछ भी कोयला नहीं मिल सकेगा.
‘अभियान की इस योजना को स्वीकार करने में जरा भी देर नहीं करनी चाहिये. ….संक्षेपत;, हाल की घटनाओं के कारण अब समय से पिछड़ी हुई पुरानी योजना को किसी भी हालत में काम में नहीं लाना चाहिये, क्योंकि यह गणतन्त्र के लिये खतरा पैदा करते हुए, देनीकिन की स्थिति को बेहतर बनाने का कारण अवश्य होगी. उसकी जगह एक नयी योजना स्वीकार करनी होगी. उसके लिए परिस्थितियां और अनुकूलतायें भी पूरी मात्रा में मौजूद हैं, बल्कि इस तरह के परिवर्तन की भारी आवश्यकता है. अन्यथा, दक्षिणी मोर्चे पर मेरा काम व्यर्थ, अपराधपूर्ण और बेकार हो जायेगा; जो मुझे अधिकार देता या मजबूर करता है कि मैं यहां न रह कर चाहे जहां, शैतान के पास भी, चला जाऊं. -आपका, स्तालिन.’
कितना गहरा आत्मविश्वास और कितनी गहरी अन्तर्दृष्टि ! स्तालिन के इस पत्र को लेनिन ने विचार-विमर्श के लिए केन्द्रीय कमेटी में प्रस्तुत किया. केन्द्रीय कमेटी ने बिना किसी दुविधा के स्तालिन की योजना को स्वीकार कर लिया और लेनिन ने खुद दक्षिणी मोर्चे के जनरल स्टाफ को उनकी योजना में बदलाव की आवश्यकता के बारे में लिख भेजा. स्तालिन की योजना के अनुरूप ही दक्षिणी मोर्चे पर मुख्य आक्रमण संचालित किया गया और सभी जानते हैं कि उसका परिणाम क्या हुआ. देनीकिन की सेनाओं को काले सागर तक खदेड़ दिया गया था, यूक्रेन और उत्तर काकेशस श्वेत गार्डों से मुक्त हो गया था और गृहयुद्ध में क्रान्ति की जीत हुई थी.
स्तालिन कौ चिट्ठी की अन्तिम दो पंक्तियों से क्या यह पता नहीं चलता कि लेनिन के प्रति उनके मन में कितनी गहरी श्रद्धा और आस्था थी ?
रैंगल मोर्चा: हालांकि गृहयुद्ध में क्रान्ति विजयी हो चुकी थी, परन्तु तब भी श्वेत गार्ड सेना के सेनानायक रैंगल के हमले को रोकने और उसे पूरी तरह पराजित करने का काम अभी बाकी था. कलाकृति पर कूंची की अन्तिम लकीरें भी इस चित्रकार के हाथों ही डाली जाने वाली थीं; केन्द्रीय कमेटी ने एक बार फिर स्तालिन को जिम्मेदारी सौंपी. 2 व 3 अगस्त, 1920 को केन्द्रीय कमेटी ने निम्न आशय के प्रस्ताव पारित किये:
‘रैंगल की सफलताओं और कूबान इलाके पर आये हुए खतरे को देखते हुए, रैंगल-मोर्चे को जबर्दस्त और विशेष महत्व वाला एक बिल्कुल स्वतन्त्र मोर्चा मानकर, उसकी अलग व्यवस्था करनी होगी. इस मोर्च की जिम्मेदारी स्तालिन की होगी, वे वहां एक क्रान्तिकारी युद्ध-परिषद का गठन करें और अपनी सेनाओं की पूरी शक्ति को एकत्र कर इसी मोर्चे पर केन्द्रित करें. इगोरोव या फ्रुंजे को इस मोर्चे की कमाण्ड देनी होगी, उच्चतर परिषद् स्तालिन के साथ परामर्श करके इस बारे में निर्णय करेगी.’ (रूसी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रस्ताव, खण्ड- 1)
अकेले में लेनिन ने स्तालिन से कहा; ‘पोलित ब्यूरो ने इलाके को विभिन्न मोर्चों में बांट दिया है, जिससे कि आप स्वतन्त्रतापूर्वक रैंगल मोर्चे पर काम कर सकें.’
स्तालिन की क्षमताओं पर लेनिन की आस्था का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है ?
स्तालिन इस मोर्चे पर भी विजयी रहे और इस तरह गृहयुद्ध के मोर्चे पर क्रान्ति की विजय का अन्तिम अध्याय भी पूरा हुआ. गृहयुद्ध में स्तालिन की भूमिका और योगदानों की स्वीकृति के तौर पर सोवियत गणतन्त्र ने उन्हें दो बार सर्वोच्च सोवियत सम्मान ‘आर्डर ऑफ रेड पलैग‘ से सम्मानित किया. सोवियत गणतन्त्र के अध्यक्ष स्वयं लेनिन ने उनकी वर्दी पर यह प्रतीक चिह्न लगाया.
बाद में इस दौर की यादों पर मनन चिन्तन करते हुए स्तालिन ने एक बार कहा था: ‘मैं युद्ध विभाग के अस्तबलों की सफाई का विशेषज्ञ बन बैठा था.’
स्तालिन से योग्य कौन है ?
1922 के मार्च महीने की बात है. पार्टी की ग्यारहवीं कांग्रेस की तैयारी चल रही थी. पार्टी और सरकारी मशीनरी को अलग किये जाने के सवाल पर गैर-सरकारी स्तर पर विचार-विमर्श चल रहा था. इसी बीच कुछ नाराजगी के साथ ही प्रोओबरजेन्स्की ने लेनिन से पूछा कि स्तालिन को क्यों दो कमिसारियतों की जिम्मेदारियां दी गयी हैं ? स्तालिन उस समय राष्ट्रीयताओं से सम्बन्धित मामलों तथा मजदूर-किसान निरीक्षणालय के कमिसार (मन्त्री) थे. आइये, लेनिन के ही शब्दों में ईर्ष्यालु प्रोओब्रजेन्स्की के आक्षेप का उत्तर सुना जाय.
‘ऐसा करना (पार्टी और सरकारी मशीनरी को अलग करना) बहुत कठिन है. हमारे पास (सक्षम) आदमियों की कमी है.’ लेकिन प्रोओब्रजेन्स्की आगे आकर गुस्से से इस बात की शिकायत करते हैं कि स्तालिन के अधीन दो कमिसारियत हैं. हममें से कौन है जो इस प्रकार की गलती के लिए दोषी नहीं है ? …हम लोग राष्ट्रीयताओं की जन कमिसारियत के अधीनस्थ तुर्किस्तानी, काकेशियाई और दूसरे तमाम सवालों का मुकाबला करने की वर्तमान स्थिति को बनाये रखने के लिए भला और क्या कर सकते हैं ? …हम लोग इनका (समस्याओं का) समाधान कर रहे हैं और हमें एक ऐसे आदमी की जरूरत है जिसके पास इन सभी राष्ट्रीयताओं के प्रतिनिधि आसानी से पहुंच सकें और अपनी परेशानियों के बारे में विस्तार से बातचीत कर सकें. ऐसा आदमी हमें कहां मिलेगा ? मुझे नहीं लगता इस काम के लिए साथी प्रोओब्रजेन्स्की भी साथी स्तालिन से योग्य किसी व्यक्ति का नाम प्रस्तावित कर सकते हैं.’
इसी के साथ ही मजदूर-किसान निरीक्षण की कमिसारियत के बारे में लेनिन कहते हैं :
‘यही बात मजदूर-किसान निरीक्षणालय पर भी लागू होती है. यह एक बहुत बड़ा काम है, लेकिन जांच-पड़ताल के काम को ठीक से करने के लिए इसकी जिम्मेदारी ऐसे आदमी को दी जानी चाहिए जो (मजदूर-किसानों की नजर में) उच्च मर्यादा वाला हो; नहीं तो हम छोटी-छोटी तिकड़मों में ही डूब जाएंगे.’ (लेनिन, सम्पूर्ण ग्रन्थावली, खण्ड 33, पृष्ठ 315
इससे दो बातें स्पष्ट हैं: एक, लेनिन स्तालिन को एक ऐसा व्यक्ति मानते थे जो मजदूरों और किसानों की नजर में ‘उच्च मर्यादा’ के आसन पर विराजमान थे और दूसरी यह कि वे उन्हें छोटी-छोटी तिकड़मों में उलझने वाला आदमी नहीं मानते थे, यानी उनमें वस्तुनिष्ठ तरीके से सोचने समझने और न्याय करने की योग्यता थी. स्तालिन के लिए लेनिन का इससे बड़ा प्रमाणपत्र भला और क्या हो सकता है ?
महासचिव पद पर स्तालिन : 1922 में आयोजित पार्टी की ग्यारहवीं कांग्रेस में लेनिन ने घोषणा की कि ‘नेप’ (नयी अर्थिक नीति) का, पीछे हटने का काल अब खत्म हो रहा है, अब पूरी ताकत को नये सिरे से संगठित करने के बारे में सोचना होगा. दसवीं कांग्रेस में पार्टी की एकता के बारे में चिन्तित लेनिन ने कहा था: पार्टी की एकता और नेतृत्व की सफलता आज चन्द ऐसे नेताओं पर निर्भर है जिन पर पार्टी के आम सदस्यों का गहरा विश्वास हो. ग्यारहवीं कांग्रेस में उन्होंने कहा कि परिस्थितियों के सही संचालन की कुंजी ऐसे योग्य और मजबूत आदमी को चुन लेने में है, जो पतवार थामने के काबिल हो.
ग्यारहवीं कांग्रेस के अन्त में हुई केन्द्रीय कमेटी की प्लेनम बैठक में 1922 के 3 अप्रैल को लेनिन ने पतवार सम्भालने के काबिल जिस व्यक्ति का चुनाव किया, वे जोसेफ स्तालिन ही थे. लेनिन के प्रस्ताव पर वे महासचिव निर्वाचित किये गये. (शब्दों पर जोर मेरा है)
क्या इसके उपरान्त भी इस बारे में किसी सन्देह की गुंजाइश बची रह जाती है कि स्तालिन के बारे में लेनिन की राय और भावनाएं कैसी थीं ?
अस्वस्थ लेनिन और षड्यन्त्रकारियों की साजिश
1921 से ही लेनिन के स्वास्थ्य में गिरावट आने लगी. 1921 के ही 9 अगस्त को एक पत्र में उन्होंने गोर्की को लिखा: ‘मैं इतना थका हुआ महसूस करता हूं कि कोई काम नहीं कर पाता हूं.’ (लेनिन, सम्पूर्ण ग्रन्थावली, खण्ड 45, पृष्ठ 289)
1921 के 5 दिसम्बर को लेनिन बुरी तरह बीमार पड़ गये. उन्हें छुट्टी लेकर गोर्की[5] जाना पड़ा. दो सप्ताह बाद वे काम पर वापस लौटे. लेकिन 1922 की पहली जनवरी को उन्हें फिर डेढ़ महीने की छुट्टी लेनी पड़ी. डेढ़ महीने बाद काम पर वापस लौटने के कुछेक सप्ताह के अन्दर ही 6 मार्च से 19 मार्च तक उन्हें छुट्टी लेनी पड़ी. 23 अप्रैल, 1922 को (ग्यारहवीं कांग्रेस के बाद) उनका एक ऑपरेशन हुआ और उनके शरीर से दो गोलियों में से एक को निकालना सम्भव हुआ. 1918 के अप्रैल माह में क्रान्तिकारी-समाजवादी डोरा कापलान ने लेनिन को गोली मारकर हत्या करने की जो घृणित कुचेष्टा की थी, उसी समय लगी दो गोलियों में से एक को अब निकाला गया था. इस ऑपरेशन के एक माह बाद 25 मई को लेनिन को पहला दौर (स्ट्रोक) पड़ा और वे आंशिक तौर पर लकवाग्रस्त हो गये. सामयिक तौर पर उनके बोलने की शक्ति भी जाती रही. 1922 के 2 अक्टूबर से पहले वे पुनः काम पर नहीं लौट पाये और बाद में काम पर लौटने के बाद भी वे फिर कभी पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो पाये.
20 नवम्बर, 1922 को मास्को सोवियत में उन्होंने अपना अन्तिम भाषण दिया. 7 दिसम्बर को बे स्वास्थ्य लाभ के लिये पुन: गोर्की चले गये. 13 दिसम्बर को उन्हें एक के बाद एक दो दौरे पड़े. 22-23 दिसम्बर को उनके शरीर का दायां हिस्सा फिर से बेकार हो गया और वे क्रेमलिन में अपने फ्लैट में पूरी तरह बिस्तर से बंध गये. लेनिन की सेक्रेटरी फोतीयेवा ने 10 फरवरी, 1923 के जर्नल[6] में लेनिन के बारे में लिखा ‘….थके हुए दिखायी देते हैं, बहुत कष्ट से कुछ बोलते हैं, बातचीत के विषय से भटक जाते हैं और रुक-रुक कर अस्पष्ट ढंग से बात करते हैं. सिर पर कम्प्रेस चल रहा है.’ (लेनिन, सम्पूर्ण ग्रन्थावली, खण्ड 42, पृष्ठ 492)
1923 के 6 मार्च को लेनिन के स्वास्थ्य में और अधिक गिरावट आ गयी. 10 मार्च को उनको एक और दौरा पड़ा और उनका दायां भाग पूरी तरह संज्ञाशून्य हो गया और इसी के साथ उनकी वाकशक्ति भी पूरी तरह से चली गयी. वास्तविक रूप से उनके राजनीतिक क्रियाकलापों का अन्त हो गया. 15 मई को उनको क्रेमलिन से गोर्की ले जाया गया. दो महीने बाद अचानक उनके स्वास्थ्य में आश्चर्यजनक रूप से सुधार हुआ. उन्होंने चलना-फिरना शुरू कर दिया और बायें हाथ से लिखने का अभ्यास करने लगे और किताब पढ़ना शुरू कर दिया. लेकिन बोलने की दिक्कत बनी रही. 1924 की 21 जनवरी को अचानक उनकी दशा बहुत खराब हो गयी और उसी दिन शाम को वे सदा के लिए सो गये.
स्तालिन के महासचिव बनने (यानी 3 अप्रैल, 1922) से लेकर लेनिन की मृत्यु तक लेनिन के स्वास्थ्य के उतार-चढ़ाव का यह संक्षिप्त विवरण है. लेनिन को सम्भवतः इस बात का अनुमान हो गया था कि उनकी मृत्यु नजदीक आ चुकी है, इसी ने शायद उन्हें किसी हद तक अस्थिर और जिद्दी बना दिया था. लेनिन के चिकित्सकों ने लेनिन को पूर्ण विश्राम और किसी भी प्रकार की मानसिक उत्तेजना से बचने की सलाह दी थी. इसके अलावा उनकी सलाह थी कि लेनिन को तत्काल मास्को छोड़कर किसी शान्त परिवेश में जाकर रहना चाहिए. लेनिन इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए, क्योंकि उन्हें लगता था कि उनका बहुत काम बाकी है. लेनिन की बहन मारीया उल्यानोवा ने लिखा है: ‘सभी कामकाज पूरी तरह बन्द कर किसी ग्रामीण इलाके में जाने के बारे में ब्लादीमीर इल्यीच को समझाने में डॉक्टरों को काफी परेशानी हुई. जब तक गांव न जाया जाये, तब तक अधिकतम सम्भव समय लेटकर गुजारने और चलना-फिरना बन्द करने का परामर्श दिया गया.’ (लेनिन, सम्पूर्ण ग्रन्थावली, खण्ड 42, प्रृष्ठ 608-609)
जिस तरह लेनिन डॉक्टरों के सुझाव को मानने को तैयार नहीं थे उसी तरह जिनेवियेव, कामेनेव और त्रात्स्की भी उसे मानने को तैगार नहीं थे, परन्तु स्तालिन ने उन्हें चिकित्सकों के परामर्श के मुताबिक चलने को बाध्य किया. पार्टी की पोलित ब्यूरो ने 28 दिसाबर की मीटिंग में निम्न प्रस्ताव पास करके भेजा:
- ‘ब्लादिमीर इल्मीच को प्रत्येक दिन पांच रो दस मिनट तक (सेक्रेटरी द्वारा लिखे जाने के लिए) बोलने को अनुमति दी जा रही है, लेकिन इसे किसी भी हालत में पत्राचार के रूप में (उत्तर-प्रत्युत्तर के रूप में) नहीं होना चाहिए. इल्यीच उपरोक्त सभी टिप्पणियों के उत्तर की आशा न करें. सभी मुलाकातों पर पाबन्दी है.
- परिवारजनों और सेवकों को इस बात की ताकीद की जाती है कि राजनीतिक क्रियाकलापों के बारे में वे लेनिन को कुछ भी सूचित न करें क्योंकि यह उनकी दुश्चिन्ता, उत्तेजना का कारण हो सकता है. (लेनिन, सम्पूर्ण गन्थावली, खण्ड 45, एष्ठ 701)
लेकिन षड्यन्त्रकारियों ने लेनिन की अस्वस्थता एवं उसमें सुधार करने के लिए स्तालिन द्वारा अपनायी जा रही कठोरता का पूरा फायदा उठाया. बाहरी जीवन से, खासकर पार्टी जीवन से पूरी तरह से कटे हुए बन्दी लेनिन को प्रभावित कर लेने का इससे अच्छा अवसर भला क्या हो सकता था. ‘अस्वस्थ एवं बन्दी’ लेनिन की यह धारणा बनी होगी कि उनको अखबार न पढ़ने देना, उन्हें राजनीतिक, खासतौर पर हाल के राजनीतिक घटनाक्रम की जानकारी न देना और इन विषयों पर विचार-विमर्श पर पाबन्दी लगाना दरअसल चिकित्सकों की राय नहीं, स्तालिन कौ साजिश है. क्योंकि उनको लगता होगा कि जिनेवियेव, कामेनेव वगैरह तो गुप्त रूप से समाचार वगैरह उपलब्ध कराते हैं, उनके प्रति हमदर्दी रखते हैं, लेकिन स्तालिन ही इसमें बाधक हैं. 12 फरवरी, 1923 को लेनिन की सेक्रेटरी फोतीयेवा ने जर्नल में लिखा:
‘ब्लादिमीर इल्यीच की हालत और खराब हो गयी है. सिर में बहुत दर्द है. मुझे कुछ मिनटों के लिए बुलाया. मारीया इल्यीनिज्ञा (लेनिन की बहन) के कहे अनुसार डॉक्टर ने उनको (लेनिन को) इतना मानसिक आघात पहुंचाया कि उनके होंठ कांप रहे थे. परसों फोएरस्टर (लेनिन के जर्मन चिकित्सक) ने कहा था कि अखबार पढ़ने, मुलाकात और राजनीतिक समाचार के आदान-प्रदान पर पूर्ण पाबन्दी रहेगी. यह बात वे खासतौर पर जोर देकर कह रहे हैं. लेनिन ने जानना चाहा कि राजनीतिक समाचारों के आदान-प्रदान से उनका क्या आशय है, फोएर्स्टर ने उसके उत्तर में कहा-उदाहरण के तौर पर आपने सोवियत कर्मचारियों की कुल संख्या जाननी चाही है. डॉक्टर को इस घटना के बारे में पता है, यह जानकर व्लादिमीर इल्यीच को मानसिक आघात लगा (क्योंकि यह काम उन्होंने बहुत ही गुप्त रूप से और षड्यन्त्रकारियों की मदद से किया था और एक तरह से पार्टी की पाबन्दी को नहीं माना था.) इसके अलावा तात्कालिक तौर पर ब्लीदिमीर इल्यीच की यह धारणा बनी थी कि डॉक्टर ने ये परामर्श (पाबन्दी वाले परामर्श) केन्द्रीय कमेटी को नहीं दिये हैं, बल्कि, केन्द्रीय कमेटी ने ही ये परामर्श डॉक्टर को दिये …’. (लेनिन, सम्पूर्ण ग्रन्थावली, खण्ड 42, पृष्ठ 492-93)
जर्नल में लिखा है : ‘… वे (लेनिन) स्नायु दुर्बलता के शिकार हैं. कभी-कभी बहुत स्वस्थ महसूस करते हैं, यानी, उस समय उनका दिमाग काफी साफ रहता है …’. (वही, पृष्ठ 493)
लेनिन की बीमारी के समय विदेशी व्यापार में राज्य के इजारेदाराना आकार के मामले में और जार्जियाई प्रश्न पर पार्टी के अन्दर, खासतौर पर स्तालिन का लेनिन के साथ, रणकौशल के प्रश्न पर, रणनीति के प्रश्न पर नहीं, कुछ मतान्तर दिखायी दिया था. पस्तु इस पर लेनिन से बहस करके, स्तालिन उन्हें बिना वजह उत्तेजित करने को तैयार नहीं थे. इसी का फायदा उठाकर षड्यन्त्रकारियों ने स्तालिन के खिलाफ गुप्त रूप से टिप्पणियों का आदान-प्रदान कर लेनिन को लगातार उत्तेजित करने का क्रम जारी रखा. (इन मतभेदों के बारे में उत्सुक पाठक लेनिन और स्तालिन की रचनाओं के सम्बन्धित खण्ड देख सकते हैं. इस लेख में इन विषयों पर चर्चा नहीं की जा रही है.)
घड्यन्त्रकारियों ने लेनिन को किस तरह अपनी साजिश के जाल में, जो खासतौर पर स्तालिन के खिलाफ था, जकड़़ लिया था, उसका एक उदाहरण दिया जा रहा है. 3 फरवरी, 1923 को फोतीयेवा ने जर्नल में लिखा, ‘क्या यह प्रश्न (जार्जियाई प्रश्न) पोलित ब्यूरो की मीटिंग में उठाया गया है ? (लेनिन ने पूछा). उत्तर में मैंने कहा: ‘मुझे इस विषय में कहने का कोई अधिकार नहीं है.’ उन्होंने पूछा- ‘क्या तुमको स्पष्ट रूप से खासतौर पर इस बारे में कुछ न बोलने को कहा गया है ?’ ‘नहीं, सामान्य तौर पर किसी भी आम विषय के बारे में मुझे कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है.’ ‘तो क्या यह एक आम विषय है ?’ मुझे समझ में आया कि मैंने गलती की है, मैंने फिर कहा: ‘यह सब बताने का मुझे अधिकार नहीं है.’ (लेनिन, सम्पूर्ण ग्रन्थावली, खण्ड 42, पृष्ठ 485)
इसके बाद 1 फरवरी को फोतीयेवा ने जर्नल में लिखा, ‘आज व्लादिमीर इल्यीच ने बुला भेजा … ‘व्लादिमीर इल्यीच ने कहा, ‘अगर मैं मुक्त होता’ (पहले ये शब्द मानो असावधानी से उनके मुंह से निकल गये हों) उसके बाद उन्होंने पुनः मुस्कराकर कहा, ‘अगर मैं मुक्त होता.’ इस बात से पता चलता है लेनिन अपनी इस ‘बन्दी अवस्था’ को शायद बहुत सहज तरीके से स्वीकार नहीं कर पाये थे और इसे शायद एक तरह की साजिश मान बैठे थे.
1923 की 24 फरवरी को फोतीयेवा ने लिखा – ‘मुझे फिर बुलाया. बातचीत करने में परेशानी हो रही है. स्पष्टतः ही थके हुए हैं. उन्होंने अपने निर्देश के तीन नुक्तों पर फिर बात की …. जार्जियाई सवाल पर वह बहुत उत्तेजित थे और इस प्रश्न पर वे विस्तार से बोले. उन्होंने इस मामले को और तेज किये जाने की बात की.’ लेनिन, सम्पूर्ण ग्रन्थावली, खण्ड 42, पृष्ठ 493)
जार्जियाई प्रश्न पर लेनिन कैसे बोल पाये ? जबकि जार्जिया के मामले में घटनाक्रम के बाबत सरकारी तौर पर उन्हें कुछ भी सूचित नहीं किया गया था और इस बारे में कोई कुछ भी सूचना दे, इस पर पार्टी की ओर से पाबन्दी थी. इस पाबन्दी का उल्लंघन कर षड्यन्त्रकारी जार्जियाई प्रश्न पर लेनिन को अनेक झूठे और अतिरंजित समाचार पहुंचाते रहे और इस प्रकार लेनिन के मन में जहर भरते रहे. लेनिन की मृत्यु के पश्चात पार्टी की तेहरवीं कांग्रेस में जार्जियाई प्रश्न के बारे में स्तालिन ने सिफ॑ इतना कहा कि रोगशैय्या पर पडे हुए लेनिन इस बारे में बहुत कुछ नहीं जानते थे. स्तालिन ने इससे अधिक कुछ भी नहीं कहा और न लेनिन पर कोई अभियोग लगाया या टिप्पणी की. स्तालिन के खिलाफ लेनिन के मन में षड्यन्त्रकारियों ने किस कदर जहर भरा था उसका एक उदाहरण यहां दिया जा रहा है.
1923 के 5 मार्च को लेनिन ने निम्नलिखित चिट्ठी लिखवायी और त्रात्स्की को फोन द्वारा सूचित करने का निर्देश दिया:
‘अत्यन्त गोपनीय
‘व्यक्तिगत
‘प्रिय कामरेड त्रात्स्की, मेरा हार्दिक आग्रह है कि पार्टी की केन्द्रीय कमेटी में आप जार्जियाई प्रश्न पर संघर्ष करें. यह विषय फिलहाल स्तालिन और जर्जिन्स्की द्वारा निपटाया जा रहा है और मैं उनकी निष्पक्षता पर भरोसा नहीं कर पा रहा हूं. बल्कि मामला इसके ठीक विपरीत है. आप अगर इसके पक्ष में खड़े होने की सहमति दें तो मैं निश्चिन्त हो सकूंगा. यदि किसी कारण से इस काम को करने में आपको आपत्ति हो तो सारे संलग्न दस्तावेज वापस भेज दें, तब मैं समझ लूंगा आपने मेरा प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया.
‘कामरेडाना अभिवादन सहित
– लेनिन’
(लेनिन ग्रन्थावली, खण्ड 45, पृष्ठ 607)
इस पत्र के साथ लेनिन ने जार्जियाई प्रश्न पर लिखित एक ज्ञापन त्रात्स्की के पास भेज दिया.
अगले दिन लेनिन ने जार्जिया के उग्रराष्ट्रवादी म्दिवानी और खामराज्दे और दूसरों के पास निम्नोद्धृत चिट्ठी भेजी:
‘अत्यन्त गोपनीय
‘त्रात्स्की व कामेनेव को प्रतिलिपि.
‘प्रिय कामरेडों, मैं पूरी तरह से आपके मामले पर ध्यान दे रहा हूं. मैं ओजोंनिकीदूजे के गलत आचरण और स्तालिन और जर्जिन्स्की के द्वारा उसको नजर अन्दाज कर देने पर बहुत क्षुब्ध हूं. मैं आप लोगों के समर्थन में टिप्पणी और भाषण तैयार कर रहा हूं.
सम्मान सहित, आपका
लेनिन
6 मार्च, 1923′
इस षड्यंत्र के पीछे कौन थे, यह लेनिन की चिट्ठी से स्पष्ट है. यहां मैं जार्जियाई प्रश्न पर दो बातें कहना चाहता हूं:
लेनिन यह चाहते थे कि उस समय आसन्न बारहवीं कांग्रेस में यदि ये स्वयं उपस्थित न हो सकें तो इस विवादित प्रश्न पर उनकी ओर से स्तालिन आदि के विरुद्ध त्रात्स्की वक्तव्य रखें. यही लेनिन-त्रात्सकी ब्लाक था. जिनेवियेव, कामेनेव और त्रात्सकी ने इस सम्बन्ध में अतिरंजित, रंग-रोगन चढ़ाकर व झूठी रिपोर्ट पेश करके बीमार लेनिन को उत्तेजित कर रखा था. लेनिन के जीवित रहते ही 1923 में पार्टी को बारहवीं कांग्रेस आयोजित हुई थी, लेकिन लेनिन अस्वस्थता के चलते इस कांग्रेस में शामिल नहीं हो पाये. परन्तु लेनिन से पहले तय होने के बावजूद उनकी गैर-मौजूदगी में त्रात्स्की बारहवीं कांग्रेस में जार्जियाई प्रश्न पर विचार-विमर्श के समय अनुपस्थित रहे. त्रात्स्की, जिनेवियेव व कामेनेव वगैरह की तो यह कोशिश थी कि अपनी झूठी और अतिरंजित रिपोर्टों के द्वारा वे बारहवीं कांग्रेस में लेनिन के द्वारा स्तालिन के खिलाफ हमला बुलवा देंगे. लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो झूठ और अतिरंजना के ऊपर जो पक्ष खड़ा किया गया था, उसकी ओर से स्तालिन के ऊपर हमला बोलने की परिणति क्या हो सकती है, यह त्रात्स्की समझ चुके थे. इसीलिए जार्जियाई प्रश्न पर बहस के समय खुद को अनुपस्थित कर लेने के अलावा उनके पास कोई रास्ता नहीं बचा था. जार्जियाई प्रश्न पर बहस के समय खुद को अनुपस्थित रखकर त्रात्स्की ने जहां एक ओर अस्वस्थ्य और ‘असहाय’ लेनिन के साथ वादाखिलाफी और विश्वासघात किया था वहीं, दूसरी ओर घटनाक्रम और पार्टी गतिविधियों से अनभिज्ञ लेनिन को त्रात्स्की वगैरह ने जो झूठी और अतिरंजित रिपोर्ट दीं, उसका पर्दाफाश हो जाने के डर से कांग्रेस में खुद को बचाये रखा और स्तालिन विरोधी पड्यन्त्र को भविष्य के लिए जिन्दा रखा.
यही थे त्रात्स्की, विश्वासघात जैसे उनकी चारित्रिक विशेषता हो. बारहवीं कांग्रेस में अपने अन्तिम भाषण में स्तालिन ने जार्जियाई प्रश्न पर कहा था: ‘अनेक वक्ताओं ने लेनिन की टिप्पणी व लेख आदि का उल्लेख किया है. चूंकि वे यहां नहीं हैं अतः मैं अपने शिक्षक साथी लेनिन का उद्धरण नहीं देना चाहता, क्योंकि मुझे डर है कि उनको उद्धृत करते हुए मैं कहीं उनको गलत ढंग से उद्धत न कर बैठूं.’
यह त्रात्स्की के लिए सुनहरा अवसर था. क्योंकि त्रात्स्की को भेजे गये लेनिन के पत्र से हम यह जान चुके हैं कि लेनिन ने अपनी टिप्पणी, वक्तव्य व ज्ञापन त्रात्सकी को भेजे थे. अत: यदि इन षड्यंत्रकारियों द्वारा स्तालिन के विरुद्ध गढे गये आरोप ठीक और सच होते तो त्रात्सकी बड़ी आसानी से स्तालिन को खिलाफ, लेनिन की ओर से उनके उद्धरण प्रस्तुत कर सकते थे और उनको लिखी गयी लेनिन की चिट्ठी भी कांग्रेस के सामने पेश कर सकते थे. परन्तु उन्होने ऐसा क्यों किया ? क्यों उन्होंने यह अवसर हाथ से निकल जाने दिया ? क्योंकि इससे उनकी जालसाजी पकड़ में आ जाती.
त्रात्सकी के एक अनुगामी व शिष्य ब्रिटिश त्रात्स्कीपन्थी टोनीक्लिफ ने बाद में अपने चार खण्डों के ‘लेनिन’ शीर्षक ग्रन्थ के चौथे खण्ड में ऊपर उद्धृत वक्तव्य को देते हुए अत्यन्त क्षुब्ध होकर लिखा है: ‘और त्रात्स्की (तब) क्या कर रहे थे ? राष्ट्रीय प्रश्न पर बहस के समय वे अनुपस्थित थे, उनका कहना है, वे तब अपने उद्योग सम्बन्धी प्रस्ताव को संशोधित करने में व्यस्त थे, (इसी बीच) राष्ट्रीय प्रश्न पर स्तालिन का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हो गया.’ (टोनीक्लिफ, लेनिन, खण्ड 4, प्लूटो प्रेस, लंदन, 979, पृष्ठ 291)
अनुपस्थिति का त्रात्स्की कोई भी कारण बतायें, दरअसल वे जानते थे कि वे इस झूठ को लेकर कांग्रेस में खड़े नहीं हो सकते. आगे चलकर त्रात्सकी ने ‘माई लाईफ’ में लिखा है: ‘1923 के शुरू में केन्द्रीय कमेटी के खिलाफ हमारा (लेनिन व त्रात्स्की का) संयुक्त अभियान निस्सन्देह हम लोगों को विजयी बनाता, इसके अलावा इस बारे में मुझे कोई सन्देह नहीं, यदि बारहवीं कांग्रेस के समय स्तालिन की नौकरशाही के खिलाफ ‘लेनिन एवं त्रात्स्की ब्लाक’ की भावना को लेकर हम आगे बढ़ते तो इस संघर्ष में, लेनिन द्वारा प्रत्यक्षतः हिस्सेदारी न कर सकने की स्थिति में भी, में विजयी होता.’ (त्रात्स्की, माई लाईफ, पृष्ठ 581)
एक ही प्रश्न बचा रहता है. तब लेनिन के साथ ये विश्वासघात और स्तालिन के साथ इतनी उदारता क्यों ? इसका एक ही उत्तर है: यह पूरा ही एक षड्यन्त्र था, लेनिन के जरिये अपना काम साधने का षड्यन्त्र. लेकिन लेनिन के कांग्रेस में अनुपस्थित रहने के चलते इसे अंजाम देना मुमकिन नहीं हुआ.
लेनिन की वसीयत
‘लेनिन की वसीयत’ के रूप में प्रचारित दस्तावेज को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की जरूरत है. ऐसा करना न्याय-संगत और तर्कसंगत होगा तथा इतिहास एवं राजनीति सम्मत भी. इस परिप्रेक्ष्य से काट कर ‘वसीयत’ को एक अपने में पूर्ण व स्वतन्त्र दस्तावेज मानकर इस पर विचार करने का अर्थ है लेनिन, स्तालिन और इतिहास, इन तीनों के साथ अन्याय करना और इतिहास को विकृत करना. संशोधनवादी ख़ुश्चोव से लेकर ख़ुश्चोवी संशोधनवाद विरोधी स्तालिन के आलोचकों तक सभी ने इस परिप्रेक्ष्य से पूरी तरह काट कर लेनिन की इस ‘वसीयत’ को प्रचारित और विश्लेषित किया है. इसके अतिरिक्त इस ‘वसीयत’ का एक दूसरा महत्वपूर्ण पहलू भी है जिसकी बात, ये इतिहास को विकृत करने वाले नहीं कहते.
लेनिन की इस वसीयत के दो हिस्से हैं. एक है मूल हिस्सा जिसे लिखा गया था 1922 के 23 दिसम्बर से लेकर 31 दिसम्बर तक. इस मूल हिस्से के मूल और केन्द्रीय वक्तव्य में लेनिन ने स्तालिन के बारे में कहा है:
‘साथी स्तालिन के महासचिव बनने के कारण उनके हाथों में असीम सत्ता केन्द्र हो गयी है और वे इस सत्ता का उपयोग सदैव पर्याप्त सावधानी के साथ कर पायेंगे या नहीं, मैं इस बारे में निश्चित नहीं हूं.’ (लेनिन, सम्पूर्ण ग्रन्थावली, खण्ड 35, पृ: 596)
स्पष्ट है, वसीयत के इस मूल हिस्से में स्तालिन के खिलाफ लेनिन की कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं है. हालांकि अनेक संशोधनवादी और बुर्जुआ पत्र-पत्रिकाओं और लेख आदि में इसका निम्नवत बंगला अनुवाद किया गया है;[7]
‘महासचिव बनकर साथी स्तालिन ने अपने हाथों में असीम सत्ता केन्द्रित कर ली है और मैं निश्चित नहीं हूं कि वे सदैव इस सत्ता का पर्याप्त सावधानी के साथ उपयोग कर पायेंगे.’
साफ दिखता है कि इस अनुवाद में लेनिन के वक्तव्य का अर्थ और सार एकदम उल्टा हो गया है. ‘महासचिव बनकर साथी स्तालिन ने अपने हाथों में असीम सत्ता केन्द्रित कर ली है’ कहने का एक ही अर्थ निकलता है और वह है स्तालिन की सत्तालिप्सा के चारित्रिक पहलू पर जोर देना. दूसरी ओर ‘साथी स्तालिन के महासचिव बनने के कारण उनके हाथों में असीम सत्ता केन्द्रित हो गयी है’ कहने से पार्टी के महासचिव पद के स्वाभाविक पहलू पर जोर पड़ता है जो कोई दोष नहीं है, हां, चिन्ता की बात हो सकती है और बहुत स्वाभाविक तौर पर ही लेनिन ने यहां सिर्फ अपनी आशंका व्यक्त की है, निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा है. लेनिन यदि इन अनुवादकों की ही तरह कहना चाहते तो वे ‘सर्वदा’, ‘निश्चित नहीं’ और ‘सावधानी के साथ’ जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं करते बल्कि वे यह कहते कि ‘मैं निश्चित हूं कि समय के साथ-साथ स्तालिन और अधिक सत्ता अपने हाथों में केन्द्रित करते जाएंगे.’
संशोधनवाद कितने सूक्ष्म रूप से और निपुणता के साथ मार्क्सवाद-लेनिनवाद में प्रवेश करता है यह इस उदाहरण से साफ दिखाई देता है. लेनिन की सम्पूर्ण ग्रन्थावली के अंग्रेजी अनुवाद में यह हिस्सा इस प्रकार दिया गया है:
‘Comred Stalin’ having become Secretary General has unlimited authority concentrated in his hands, and I am not sure whether he will always be capable of using that authority with suffcient caution.’ (जोर हमारा है)
पाठकगण खुद ही इसका अनुवाद कर नतीजा निकाल सकते हैं. नतीजन, हम स्पष्टत: देखते हैं कि लेनिन की ‘वसीयत’ के पहले हिस्से के मूल और केन्द्रीय वक्तव्य में स्तालिन के विरुद्ध कोई प्रतिकूल टिप्पणी या मन्तव्य नहीं है.
इसी पहले हिस्से में स्तालिन के बारे में उपरोक्त वक्तव्य के बाद वे त्रात्स्की के बारे में राय रखते हैं, जिसके तुरन्त बाद लेनिन लिखते हैं:
‘मौजूदा केन्द्रीय कमेटी के दो विशिष्ट नेताओं के ये दो गुण अनजाने ही फूट की ओर पहुंचाने में सक्षम हैं और यदि हमारी पार्टी इसे रोकने के लिए कार्रवाई नहीं करती, तो फूट अप्रत्याशित रूप से प्रकट हो सकती है.’ इसके पश्चात क्रमश: जिनेविएव, कामेनेव, बुखारिन और प्याताकोव के बारे में राय रखने के बाद 23 और 25 दिसम्बर को लेनिन ने इस फूट की रोकथाम के तौर पर केन्द्रीय कमेटी का आकार बढ़ाकर और स्तालिन तथा त्रात्स्की के बीच तालमेल रखते हुए सामूहिक नेतृत्व की रक्षा करने की आवश्यकता के बारे में लिखवाया.
यहीं लेनिन की वसीयत का पहला हिस्सा समाप्त होता है जिसके केन्द्रीय वक्तव्य का सार है: फूट से पार्टी की रक्षा के लिए जरूरी है कि (i) श्रमजीवियों की संख्या बढ़ाकर केन्द्रीय कमेटी का विस्तार किया जाय, और (ii) स्तालिन और त्रात्स्की को आधार बनाकर संयुक्त नेतृत्व प्रदान किया जाय.
किन्दु दस दिन के बाद, 1923 की 4 जनवरी को लेनिन ने अपनी ‘वसीयत’ में एक परिशिष्ट जोड़ा. इसका शीर्षक स्वयं लेनिन ने दिया: ’24 दिसम्बर, 1922 के पत्र का परिशिष्ट’. इस परिशिष्ट को ही मैं दूसरा हिस्सा कह रहा हूं. इस हिस्से में लिखा गया है: ‘स्तालिन अत्यन्त अशिष्ट हैं और यह दोष, जो हमारे, कम्युनिस्टों के बीच तथा आपसी सम्बन्धों में तो पूरी तरह सहा है, महासचिव पद के लिए असह्य है. अतः मैं साथियों को स्तालिन को इस स्थान से हटाने के तरीके पर विचार करने और इस स्थान पर किसी ऐसे अन्य साथी को नियुक्त करने का सुझाव देता हूं, जो तमाम अन्य बातों में साथी स्तालिन से केवल इस श्रेष्ठता के कारण भिन्न हो, यानी वह अधिक सहिष्णु, अधिक शिष्ट, अधिक विनम्र, साथियों के प्रति अधिक चिन्ताशील, कम झकक्की हो, आदि. (लेनिन, सम्पूर्ण ग्रन्थावली; खण्ड 35, पृ. 596)
लेनिन ने 24 दिसम्बर को कांग्रेस को लिखे गये अपने पत्र या ‘वसीयत’ को पूरा करने के अचानक दस दिनों बाद यह परिशिष्ट क्यों जोड़ा ? इन दस दिनों में ऐसा क्या हुआ कि लेनिन को अपने पहले हिस्से की मूल व केन्द्रीय अवस्थिति से बुनियादी तौर पर हट जाना पड़ा ? क्यों स्तालिन-त्रात्स्की के संयुक्त नेतृत्व की अवस्थिति से हट कर स्तालिन को हटाये जाने की अवस्थिति पर आना पड़ा ? इस बीच कौन सी नयी गम्भीर राजनीतिक परिस्थिति कर पैदा हो गयी ? क्यों लेनिन ने पार्टी के नेतृत्व के संतुलन की रक्षा करने की अपनी अवस्थिति त्याग दी ? आइये, इस मसले पर ही विचार-विमर्श किया जाय.
1922 के 22 दिसम्बर को स्तालिन ने लेनिन की पत्नी क्रूप्सकाया को एक फोन किया. फोन पर स्तालिन ने लेनिन द्वारा क्रूप्सकाया को बोलकर लिखवाये गये एक पत्र को गुप्त रूप से त्रात्स्की को पहुंचा देने के बारे में बातचीत की. क्रुप्सकाया ने चिकित्सकों और पार्टी के निर्देशों की अवहेलना करके लेनिन की उत्तेजना वृद्धि में सहायता पहुंचाई है, इस बात का उल्लेख करके स्तालिन ने यह बात की कि लेनिन के जीवन को लेकर खिलवाड़ करने का कोई अधिकार क्रूप्सकाया को नहीं है और लेनिन सिर्फ क्रुप्सकाया के ही अपने नहीं हैं, बल्कि वे सारी दुनिया के हैं. क्रुप्सकाया ने, हालांकि, उस दिन लेनिन से इस घटना की चर्चा नहीं की क्योंकि उससे लेनिन की उत्तेजना के बढ़ने की आशंका थी, लेकिन 23 दिसम्बर को ऋष्सकाया ने कामेनेव को एक पत्र लिखा:
‘लेव बोरिसोविच,
‘डॉक्टरों की अनुमति लेकर ही मैंने लेनिन द्वारा बोला गया एक छोटा सा नोट लिखा था. उसके लिये कल स्तालिन ने मुझसे बहुत ही खराब शब्दों में गाली-गलौज का तूफान खड़ा किया. मैं कल ही पार्टी में शामिल नहीं हुई हूं. पार्टी जीवन के पिछले तीस सालों में मैंने साथियों से एक भी कठोर बात नहीं सुनी है. पार्टी और इल्यीच का हित मुझे स्तालिन से कम प्रिय नहीं है. इस समय सर्वाधिक जरूरत आत्मसंयम बनाये रखने की है. सभी डॉक्टरों से अधिक मैं इस बात को अच्छी तरह जानती हूं कि इल्यीच को क्या कहना उचित है और क्या अनुचित. क्योंकि मैं ही जानती हूं कि क्या उन्हें उत्तेजित करता है और क्या नहीं, किसी भी मामले में, मैं इस बात को स्तालिन से ज्यादा अच्छी तरह समझती हूं.’
क्रुप्सकाया अपने व्यक्तिगत जीवन में स्तालिन के इस असह्य हस्तक्षेप, दुस्सह गाली-गलौज और ‘डराने की कोशिशों’ से रक्षा करने के लिए कामेनेव से गुहार करते हुए आगे लिखती हैं:
‘कंट्रोल कमीशन के सर्वसम्मत निर्णय के खिलाफ मुझे कुछ कहने का अधिकार नहीं है. इसके सहारे स्तालिन ने मुझे डराने की जिम्मेदारी अपने हाथों में ले ली है, लेकिन इस तरह के एक व्यर्थ के नाटक में शक्ति व्यय करने लायक समय मेरे पास नहीं हैं, मैं भी एक मनुष्य हूं और तनाव से मेरी नसें टूटने की कगार पर हैं.’
-एन. क्रूप्सकाया. (लेनिन मिसेलिनी, पांचवां रूसी संस्करण, खण्ड 54, पृ. 674-75. एमलूइन लिखित और न्यूयार्क से प्रकाशित ‘लेनिन का अन्तिम संघर्ष, 1968, के प्रृष्ठ 156 से उद्धृत.)
क्रुप्सकाया की यह चिट्ठी कामेनेव के पास मानो स्तालिन के खिलाफ एक ब्रह्मास्त्र बनकर पहुंची. कामेनेव ने क्रुप्सकाया को अविलम्ब स्तालिन के इस ‘कारनामे’ के बारे में लेनिन को बताने को कहा. क्रूप्सकाया ने कहे अनुसार लेनिन को घटना की जानकारी दी. और अस्वस्थ लेनिन ने 24 दिसम्बर को समाप्त की गई ‘वसीयत” में 4 जनवरी का परिशिष्ट जोड़ने की जरूरत महसूस की.
क्रुप्सकाया के साथ घटी यह घटना केवल स्तालिन को हटाये जाने की सिफारिश पर ही आकर थम नहीं गयी. 1923 के 5 मार्च को लेनिन ने स्तालिन को निम्न चिट्ठी लिखी और इसकी प्रतिलिपि कामेनेव और जिनेवियेव को भेजी:
‘अत्यन्त गोपनीय
‘व्यक्तिगत
‘साथी कामेनेव व जिनेवियेव को प्रतिलिपि
‘प्रिय साथी स्तालिन,
‘मेरी पत्नी को टेलीफोन पर बुलाकर आपने अत्यन्त अशिष्ट आचरण किया है और असह्य भाषा में बातचीत की है. हालांकि उन्होंने आपसे कहा है कि वे इस बारे में सबकुछ भूल जाने को तैयार हैं, लेकिन स्थिति यह है कि उन्हीं के द्वारा इस घटना की जानकारी जिनेवियेव और कामेनेव को हुई है. मेरे खिलाफ आपने जो किया है उसे इतनी आसानी से भूल जाने की मेरी इच्छा नहीं है और यह बात कहने की जरूरत नहीं है कि मेरी पत्नी के खिलाफ आपने जो किया है वह दरअसल मेरे खिलाफ ही किया गया है. इसीलिए मैं जानना चाहता हूं कि आपने जो कुछ कहा है उसे वापस लेने और माफी मांगने के लिए आप तैयार हैं कि नहीं या फिर आप यह चाहते हैं कि हम लोगों के बीच का सम्बन्ध टूट जाय.
सम्मान सहित आपका
5 मार्च, 1923 लेनिन’
(लेनिन, सम्पूर्ण ग्रन्थावली, खण्ड 45 पृ. 507-8 9
लेनिन की इस चिट्ठी को लेकर लेनिन की बहन मारिया उल्यानोवा स्तालिन के पास गयी. स्तालिन ने तत्काल ही मारिया उल्यानोवा के हाथों लेनिन से माफी मांगते हुए लेनिन को चिट्ठी भेज दी.
उपरोक्त चिट्ठी लेनिन ने 5 मार्च को लिखी थी परन्तु ऋ्प्सकाया ने उसे तुरन्त ही नहीं भिजवाया, वरन दो-तीन दिनों के पश्चात मारिया उल्यानोवा के हाथों भिजवाया. लेकिन इसी बीच 7 मार्च को लेनिन को एक जबर्दस्त दौरा पड़ा. 10 मार्च को उनके शरीर का दायां हिस्सा फिर से बेकार हो गया और वे पूरी तरह वाकहीन हो गये. इसके बाद के दस महीने लेनिन ने कष्ट और पीड़ा की इसी हालत में गुजारे. 1924 की 19 जनवरी को वे बहुत शिथिल दिखायी दिये और परीक्षण से पता चला कि वे दृष्टि भी खो चुके हैं. सोमवार, 21 जनवरी को सायं छह बजे उन्हें एक और दौरा पड़ा और उसके पचास मिनट बाद उनका देहावसान हो गया.
स्तालिन को चिट्ठी लिखने और स्तालिन द्वारा माफी मांगने के बाद लेनिन को अपनी राय बदलने का समय या मौका मिला ही नहीं.
लेनिन को ‘वसीयत’ का यह ‘परिशिष्ट’ या दूसरा हिस्सा निश्चय ही राजनीतिक नहीं है, यह अस्वस्थता की मानसिक दशा में व्यक्त की गयी एक उग्र प्रतिक्रिया भर है. यदि ऐसा नहीं होता तो ‘वसीयत’ के पहले हिस्से में ही स्तालिन के खिलाफ राय शामिल होती. इसके अलावा ‘वसीयत’ के पहले हिस्से में नेतृत्व के संतुलन को बनाये रखने के लिए स्तालिन-त्रात्स्की तालमेल के रूप में लेनिन ने जो समाधान प्रस्तुत किया था, अस्वस्थता की मानसिक दशा के अलावा किस और कारण से लेनिन ने उस सन्तुलन को जड़ से उखाड् फेंक स्तालिन को पद से उतारे जाने की सिफारिश कर दी ?
लेनिन की वसीयत और स्तालिन की प्रतिक्रिया
आइये, अब देखें कि सन् 1929 से लेनिन की ‘वसीयत’ को लेकर षड्यन्त्रकरियों की जो साजिश लगातार जारी रही उसका जवाब किस तरह स्तालिन ने अपने जीवनकाल में ही दिया था. स्तालिन ने कहा :
‘…अब लेनिन की ‘वसीयत’ पर आया जाय. विरोधियों ने यहां चिल्ला-चिल्ला कर कहा है, और आप सबने सुना है, कि पार्टी की केन्द्रीय कमेटी ने लेनिन की ‘वसीयत’ को ‘छिपा’ दिया है. आप लोग जानते हैं, हमने केन्द्रीय कमेटी में और केन्द्रीय कण्ट्रोल कमीशन के प्लेनम में इस विषय पर चर्चा की है. (एक आवाज: ‘बीसियों बार’). यह बार-बार प्रमाणित हुआ है कि किसी ने कुछ नहीं छुपाया है. क्योंकि यह ‘वसीयत’ तेरहवीं कांग्रेस को सम्बोधित कर लिखी गयी थी और क्योंकि यह ‘वसीयत’ उस कांग्रेस में पढ़ी गयी थी (एक आवाज: ‘हाँ ठीक है’) और क्योंकि दूसरे सभी कारणों को अगर छोड़ भी दिया जाय तो, खुद लेनिन स्वयं यह नहीं चाहते थे कि यह प्रकाशित हो एवं उन्होंने इसको प्रकाशित करने की बात भी नहीं की थी, अत: उक्त कांग्रेस ने इसे सर्वसम्मत्ति से प्रकाशित न करने का निर्णय किया. जिस तरह हम इन बातों को जानते हैं उसी प्रकार हमारे विरोधी भी इन्हें जानते हैं. इसके बावजूद केन्द्रीय कमेटी ने इस वसीयत को छुपाया है, वे ऐसा कहने की धृष्टता कर रहे हैं.
‘अगर मैं कोई गलती नहीं कर रहा हूं, तो यह कहा जा सकता है कि लेनिन की ‘वसीयत’ का सवाल सन् 1924 में सामने लाया गया था. ईस्टमैन नामक एक भूतपूर्व अमरीकी कम्युनिस्ट ने, जो बाद में पार्टी से निष्कासित कर दिये गये थे और जो मास्को में त्रात्स्कीपन्थियों से मिलते जुलते थे, लेनिन की ‘वसीयत’ से सम्बन्धित कुछ अफवाहें और गप्पें बटोरीं और उसके बाद विदेश लौटकर ‘लेनिन की मृत्यु के बाद’ नामक एक पुस्तक प्रकाशित की. इस पुस्तक के द्वारा उन्होंने पार्टी, केन्द्रीय कमेटी और सोवियत व्यवस्था पर जितना सम्भव था कीचड़ उछाला- जिसका सार यह था कि हमारी पार्टी की केन्द्रीय कमेटी ने लेनिन की ‘वसीयत’ को छुपाया है. चूंकि यह ईस्टमैन नामक सज्जन कभी त्रात्स्की के सम्पर्क में धे, इसलिए हम पोलित ब्यूरो के सदस्यों ने ईस्टमैन से सम्बन्ध तोड़ लेने के बारे में त्रात्सकी से कहा. इसका कारण यह भी था कि ईस्टमैन इस ‘वसीयत’ के बारे में हमारी पार्टी के खिलाफ सारे झूठे और कुत्सित वक्तव्य त्रात्सकी को आधार बनाकर और विरोधियों के हवाले से देकर त्रात्स्की पर उसकी जिम्मेदारी डाल दी थी. क्योंकि मामला बहुत ही स्पष्ट था इसलिए त्रात्सकी ने प्रेस में एक खुला वक्तव्य देकर ईस्टमैन से सम्बन्ध तोड़ लिया.
‘मैं त्रात्स्की के लेख का वह हिस्सा पढ़् रहा हूं जहां उन्होंने, पार्टी और केन्द्रीय कमेटी ने लेनिन की ‘वसीयत’ को छुपाया है अथवा नहीं, इस मुद्दे पर अपनी राय रखी है. उनके लेख से मैं उद्धत कर रहा हूं:
‘इस पुस्तक के कई हिस्सों में ईस्टमैन ने कहा है कि केन्द्रीय कमेटी ने पार्टी सदस्यों से, लेनिन के उन असाधारण रूप से महत्वपूर्ण दस्तावेजों को जो उन्होंने खासकर अपने जीवन के अन्तिम दिनों में लिखे थे, छुपाया है (राष्ट्रीय प्रश्न पर और तथाकथित ‘वसीयत’ आदि के बारे में). इसे हमारी पार्टी की केन्द्रीय कमेटी के खिलाफ दुष्य्रचार के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता है. ईस्टमैन ने जो कहा है उससे यह धारणा वन सकती है कि ब्लादिमीर इल्यीच के ये पत्रादि जो आन्तरिक पार्टी संगठन में सलाह की प्रकृति रखते हैं,
दरअसल पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करने के उद्देश्य से लिखे गये थे. लेकिन वास्तव में यह पूर्णतः गलत है. अपनी अस्वस्थता के समय व्लादिमीर इल्यीच अकसर ही प्रस्ताव, चिट्ठी वगैरह, लिखते थे और उन्हें पार्टी के नेतृत्वकारी प्रतिष्ठानों एवं कांग्रेस को भेजते थे. यह कहने की जरूरत नहीं कि ये चिट्ठी-पत्री और प्रस्ताव वगैरह सदैव जिनके लिये लिखे थे, उन्हें दे दिये जाते थे और उसके बारे में बारहवीं और तेरहवीं पार्टी कांग्रेस प्रतिनिधियों को सूचित किया गया. निश्चित तौर पर इन्होंने हर समय पार्टी के निर्णयों को प्रभावित किया है और यदि कोई चिट्ठी-पत्री प्रकाशित नहीं हुई है तो उसका कारण यह है कि लेखक ने उन्हें पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ नहीं लिखा था. व्लादिमीर इल्यीच कोई ‘वसीयत’ छोड़ कर नहीं गये हैं, पार्टी के प्रति उनके रुख की प्रकृति और पार्टी की प्रकृति ही इस प्रकार की किसी ‘वसीयत’ की सम्भावना को खारिज कर देती है. आमतौर पर जिसे अप्रवासियों तथा विदेशी बुर्जुआ और मेनशेविक प्रचार माध्यमों में ‘वसीयत’ कहा और जिसे उन्होंने इस कदर विकृत कर दिया है कि उसे अब पहचानना मुश्किल है वह सिर्फ एक पत्र है जिसमें सांगठनिक मामलों में सलाह दी गयी है. पार्टी की तेरहवीं कांग्रेस ने अन्य दूसरे पत्रों की तरह ही इस पत्र पर गम्भीरता से विचार किया है और उस समय की तमाम स्थितियों और परिस्थितियों पर विचार करके उस पर उचित निर्णय लिया है. ‘वसीयत’ को छुपाने और उसका उल्लंघन करने की सारी बातें एक विद्वेषपूर्ण आविष्कार के सिवा कुछ भी नहीं है और वे पूरी तरह व्लादिमीर इल्यीच की वास्तविक इच्छा के खिलाफ और उनके द्वारा निर्मित पार्टी के हितों के खिलाफ केन्द्रित हैं.'[7]
(‘इस्टमैन की पुस्तक ‘लेनिन की मृत्यु के बाद’ के सम्बन्ध में’ शीर्षक त्रात्सकी का लेख देखें. ‘बोलशेविक’, संख्या 16, सितम्बर 1925, पष्ठ 68.)
‘लोग समझेंगे कि मामला पानी की तरह साफ है. यह लेख स्वयं त्रात्स्की ने लिखा है. फिर किस तर्क से त्रात्स्की, जिनेवियेव और कामेनेव अब पार्टी और केन्द्रीय कमेटी के खिलाफ इस बात की सूत कात रहे हैं कि लेनिन की वसीयत छिपायी जा रही है ? सूत कातना भी चल सकता है, लेकिन जानना चाहिए कि कहां रुकना है.
‘कहा जाता है, क्योंकि स्तालिन अशिष्ट हैं अत: साथी लेनिन ने स्तालिन की जगह दूसरे किसी साथी को महासचिव पद पर बैठाने का परामर्श दिया था. यह बात पूरी तरह सच है. हां, साथियों, मैं उन सभी व्यक्तियों के खिलाफ अविनम्र हूं जो पूरी तरह से और विश्वासघात करके पार्टी को तोड़ते और बर्बाद करते हैं. मैंने इस बात को कभी छुपाया नहीं है और अब भी नहीं छुपाता हूं. शायद पार्टी तोड़ने वालों के प्रति व्यवहार में थोड़ी नर्मी की जरूरत है, लेकिन मैं उसमें पारंगत नहीं हूं. तेरहवीं कांग्रेस के बाद हुई केन्द्रीय कमेटी की पहली प्लेनम बैठक में मैंने केन्द्रीय कमेटी के प्लेमम से महासचिव पद से मुझे मुक्त किये जाने का आग्रह किया था. कांग्रेस ने भी इस प्रश्न पर विचार-विमर्श किया. सभी प्रतिनिधिमण्डलों में इस पर अलग-अलग चर्चा की गयी और सभी प्रतिनिधिमण्डलों ने, जिनमें त्रात्स्की, कामेनेव और जिनेवियेव भी शामिल थे, सर्वसम्मति से स्तालिन को अपने पद पर बने रहने के लिए बाध्य किया.
‘मैं क्या कर सकता हूं ? अपने पद से पलायन ? यह मेरे स्वभाव में नहीं है. मैं कभी भी किसी जिम्मेदारी से भागा नहीं हूं और मेरे पास ऐसा करने का अधिकार भी नहीं है-क्योंकि उसका मतलब होगा, भगोड़ापन. मैंने पहले भी कहा है कि मैं स्वतन्त्र कार्यकर्ता नहीं हूं और पार्टी जब मुझको कोई जिम्मेदारी सौंपेगी, मुझे उसका पालन करना ही है.
‘एक साल बाद प्लेनम से मैंने पुनः पदमुक्त करने का आग्रह किया था, परन्तु मुझे मेरे पद पर बने रहने को पुनः बाध्य किया गया.
‘मैं और क्या कर सकता हूं ?
‘जहाँ तक ‘वसीयत’ को प्रकाशित करने का सवाल है, कांग्रेस ने इसे प्रकाशित न करने का फैसला किया है, क्योंकि इसे कांग्रेस को सम्बोधित करके लिखा गया था और प्रकाशित करने के उद्देश्य से नहीं लिखा गया था.
‘1926 की केन्द्रीय कमेटी और केन्द्रीय कण्ट्रोल कमीशन की प्लेनम बैठक का यह ‘फैसला है कि हम पन्द्रहवीं कांग्रेस में इसको प्रकाशित करने की इजाजत मांगेंगे. इसी केन्द्रीय कमेटी और केन्द्रीय कण्ट्रोल कमीशन की प्लेनम बैठक में यह निर्णय लिया गया कि लेनिन की वे सारी चिट्ठयां भी प्रकाशित की जानी चाहिए जिनमें उन्होंने अक्टूबर जनउभार के ठीक पहले कामेनेव और जिनेवियेव की गलतियां दर्शाते हुए उनके पार्टी से निष्कासन की मांग की थी.
‘स्पष्टत: ही यह कहना कि इन दस्तावेजों को पार्टी ने छुपाया है, निरा कुत्सा-प्रचार है. लेनिन के इन दस्तावेजों में जिनेवियेब और कामेनेव को पार्टी से निकाले जाने की आवश्यकता पर बल देते हुए पत्र भी थे. बोलशेविक पार्टी और बोलशेविक पार्टी की केन्द्रीय कमेटी सत्य से कभी नहीं डरी है. वास्तव में बोलशेविक पार्टी की शक्ति इस बात की सुस्पष्ट समझदारी में निहित है कि सत्य से मत डरो और सीधे सत्य का सामना करते हुए दृढ़तापूर्वक खड़े हो.
‘विरोधीगण लेनिन की ‘वसीयत’ को तुरुप के पत्ते की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं, परन्तु उस ‘वसीयत’ को पढ़ने से दिखाई देगा कि किसी भी रूप में यह ‘वसीयत’ उनमें से किसी के लिए भी तुरुप का पत्ता नहीं है वरन लेनिन की ‘वसीयत’ विरोधियों के मौजूदा नेताओं के लिए घातक है.
‘वास्तव में तथ्य यह है कि अपनी ‘वसीयत’ में लेनिन ने त्रात्स्की को गैर-बोलशेविज्म का दोषी ठहराया है और कामेनेव एवं जिनोवियेव की अक्टूबर की गलतियों के बारे में बताया है कि वह कोई ‘संयोग” की बात नहीं थी. इसका अर्थ क्या है ? इसका अर्थ है कि त्रात्स्की गैर-बोल्शेविज्म से ग्रस्त हैं और कामेनेव और जिनोवियेव की गलतियों की, जो संयोग की बात नहीं थी, पुनरावृत्ति हो सकती है और अवश्य होगी. इन पर राजनीतिक रूप से भरोसा नहीं किया जा सकता है.
‘एक विशिष्टता यह भी है कि ‘वसीयत’ में स्तालिन के बारे में ऐसी कोई बात नहीं है या ऐसा कोई इशारा भी नहीं जिससे यह अर्थ निकलता हो कि स्तालिन ने गलतियां की हैं. इसमें सिर्फ स्तालिन की अशिष्टता का हवाला दिया गया है. लेकिन
‘अशिष्टता’ स्तालिन की राजनीतिक लाइन या अवस्थिति की कोई गलती नहीं है और न ही इसे इस रूप में गिनाया जा सकता है.
‘वसीयत’ का प्रासंगिक अंश इस प्रकार है:
‘मैं केन्द्रीय कमेटी के अन्य सदस्यों के व्यक्तिगत गुणों-अवगुणों का चित्रण नहीं करूंगा. मैं सिर्फ आप लोगों को याद दिला देना चाहता हूं कि जिनोवियेव तथा कामेनेव के साथ घटी अक्टूबर की घटना, निस्संदेह, कोई संयोग की बात नहीं
थी, परन्तु उसके लिए उन्हें व्यक्तिगत तौर पर उससे ज्यादा दोषी नहीं ठहराया जा सकता हैं जितना गैर-बोलशेविज्म के लिए त्रात्स्की को.’ (स्तालिन अन्थावली, खण्ड 10, पु. 178-80)
यह थी लेनिन की ‘वसीयत’ पर स्तालिन की प्रतिक्रिया. खुश्चोवपन्थियों ने यह प्रचार किया है कि स्तालिन द्वारा भविष्य में अशिष्ट और अविनम्रता का व्यवहार न करने का वादा करने के कारण उन्हें महासचिव के पद पर बनाये रखा गया. परन्तु स्तालिन के इस विस्तृत वक्तव्य में उनके द्वारा ऐसे किसी वादे का उल्लेख नहीं है. वरन उन्होंने कहा है कि, हां, मैं विश्वासघातियों के प्रति कठोर हूं और विश्वासघातियों के प्रति नम्रता या सहिष्णुता दिखाना उनकी प्रकृति में नहीं है. इसके अतिरिक्त खुश्चोवपन्थी इस तथ्य को भी दबा गये हैं कि स्तालिन ने दो बार महासचिव पद से मुक्ति चाही थी, परन्तु दोनों बार उन्हें सर्वसम्मति से महासचिव पद पर बनाये रखा गया.
सम्पूर्ण घटनाक्रम पर निगाह डालने से यह बात स्पष्ट होती है कि लेनिन द्वारा स्तालिन को महासचिव पद से उतारे जाने की सिफारिश करना महज एक क्षणिक उत्तेजना से पैदा हुई आकस्मिक घटना भर है. जबकि इसी को बढ़ा-चढ़ा व रंग-रोगन लगाकर और इसी को पूंजी बनाकर खुश्चोवपन्थियों ने विस्तालिनीकरण और विसमाजवादीकरण के रंगमंच पर पदार्पण किया और दुनिया के तथाकथित कम्युनिस्टों ने उनकी वाहवाही कर समाजवाद की तात्कालिक पराजय में मदद की.
यह विश्व समाजवादी आन्दोलन की त्रासदी नहीं, बल्कि विश्व पूंजीवाद का एक सुनियोजित षड्यन्त्र है, जिसको परास्त करना आज के समय में मार्क्सवादी-लेनिनवादियों का प्रधान कर्तव्य है.
पाद टिपणियां :
- इस पुस्तक की पश्च टिप्पणियों में बताया गया है: यहां जे. वी. स्तालिन की चर्चा है. उन्होंने ‘राष्ट्रीय समस्या और सामाजिक जनवाद’ शीर्षक लेख लिखा था. उपरोक्त, पृष्ठ 394.
- विषयवस्तु को संक्षिप्त करने के लिए, इस अध्याय के घटनाक्रम और उससे सम्बन्धित उद्धरणों को थोड़ा सम्पादित किया गया है. दरअसल, यह अध्याय हेनरी बारबूस लिखित ‘स्तालिन’ से लिया गया है (‘रौरव’ की पाद-टिप्पणी.)
- राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक ‘स्तालिन (एक जीवनी)’ में ऐसे ही एक उद्धरण को वोरोशिलोव के हवाले से दिया है-सम्पादक.
- यहां इशारा त्रात्स्की की ओर है. (‘रौरव’ की पाद-टिप्पणी.)
- मास्को का निकटवर्ती एक कस्बा.
- लेनिन के सेक्रेटरी ‘जर्नल आफ द् ड्यूटी सेक्रेटरीज’ नामक एक लिखित रिपोर्ट रखा करते थे. इस जर्नल में लेनिन के निर्देश, परामर्श, उनकी शारीरिक दशा, मुलाकातियों का परिचय, मुलाकातियों के रुकने कौ अवधि और लेनिन द्वारा कही गयी बातें दर्ज रहती थीं.
- ब्ला, इ. लेनिन; संकलित रचनाएं (हिन्दी), खण्ड 10, प्रगति प्रकाशन, मास्को, 1986 में इस उद्धरण का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है: साथी स्तालिन ने महासचिव बनने पर असीम सत्ता अपने हाथों में केन्द्रित कर ली है और मुझे यकीन नहीं है कि वह इस सत्ता का सदैव पर्याप्त सावधानी के साथ उपयोग कर पायेंगे या नहीं. पृष्ठ 307.
- शब्दों पर जोर स्तालिन का है.
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सत्यवीर सिंह
June 23, 2024 at 5:09 am
स्टालिन से उपयुक्त व्यक्ति उस वक़्त बोल्शेविक पार्टी में नहीं था. उनकी निष्ठा और पार्टी और वर्ग के प्रति प्रतिबद्धता और समर्पण के बारे में शक़, कोई क्रांति का दुश्मन ही कर सकता है. स्टालिन का पूरा जीवन इतिहास पढ़कर लगता है कि एक व्यक्ति इतना सब कैसे कर पाया? विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन का भी उन्होंने क़ाबलियत से नेतृत्व किया और दूसरे विश्व युद्ध की जीत और फ़ासीवाद के उस संस्करण को इस तरह धूल में शायद दूसरा कोई ना मिला पाता. ये भी सही है कि स्टालिन पर हमला करने वाली ज़मात जो बहुत विशाल है, नेक नीयत से नहीं, बल्कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद पर हमला करने, उसे कमज़ोर करने के लिए ही कर रही है, ये अधिकतर लोग भाड़े के हैं. सब बातों से पूर्ण सहमति है. लेनिन की वसीयत के बारे में, मणि गुहा द्वारा दिए गए तर्क, सच्चाई बयान करते नज़र आते हैं.
स्टालिन के प्रति बेशर्त सम्मान रखते हुए, लेकिन, उनके द्वारा बुर्जुआ वर्ग के पूरी तरह खात्मे, सोवियत संघ समाज के वर्गविहीन होने की समझ, कम्युनिज्म में प्रवेश करने की तैयारी की बातें, बेरिया और खुश्चेव जैसे निकृष्ट तत्वों का, ना सिर्फ़ सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचना बल्कि उनके इर्द-गिर्द मंडराने की जुर्रत करना और बहुत सारे मामलों में ‘गोली मार देने’ के अलावा दूसरी सज़ाओं को नज़रंदाज़ करना और सबसे ऊपर कम्युनिस्ट पार्टी के पतन, कम्युनिस्ट आंदोलन के पतन आदि विषयों की तथ्यात्मक पड़ताल बहुत ही ज़रूरी विषय हैं. अगर हम स्टालिन के प्रति सम्मान की भावनाओं के चलते, उनके कार्यकाल की वस्तुपरक समीक्षा से कतराते रहेंगे तो इन घटक रोगों पर काबू नहीं कर पाएंगे. हम कम्युनिस्ट हैं, भक्ति भाव से संचालित नहीं हो सकते.