‘यूरोप को एक भूत आतंकित कर रहा है-कम्युनिज्म का भूत. इस भूत को भगाने के लिए पोप और ज़ार, मेटर्निख़ और गीजो, फ्रांसीसी उग्रवादी और जर्मन खुफ़िया पुलिस- बूढ़े यूरोप की सभी शक्तियों ने पुनीत गठबंधन बना लिया है.’
– कार्ल मार्क्स-फ्रेडरिक एंगेल्स, कम्युनिस्ट घोषणापत्र
1947 में आज़ादी के तुरत बाद भारत खाद्यान्न के भारी संकट से जूझ रहा था. भारत सरकार ने अमेरिका और रूस दोनों को आग्रह भेजा कि वे खाद्य सहायता तुरत प्रदान करे. जब अमेरिकी सरकार के पास आग्रह पहुंचा तो वह खाद्य सहायता पहुंचाने का प्रारूप की तैयारी में लग गयी कि इसके लिए क्या शर्तें लगयी जाय, किन नियमों के तहत इन्हें भेजा जाय.
दूसरी ओर जब खाद्य सहायता का यही त्राहिमाम संदेश क्रेमलिन पहुंचा, तब किसी दूसरी ज़गह प्रस्थान को तैयार खाद्यान्न से लदे एक जहाज को आदेश हुआ कि वह अपने मार्ग का रुख़ बदल दे और भारत की ओर जाने को तैयार हो जाय. क्रेमलिन के अधिकारियों को जब इसका पता चला तो वे दौड़े-दौड़े स्तालिन के पास पहुंचे. उन्हें बताने लगे कि अभी तक कोई डॉकुमेंट भी पूरा नहीं हुआ है और उस पर दस्तख़त भी होने बाक़ी हैं. इस पर स्तालिन का ज़वाब था – ‘डॉकुमेंट इंतज़ार कर सकता है, भूख इंतज़ार नहीं कर सकती.’
उस स्तालिन को भारत के कृतघ्न लोग हिटलर के समकक्ष रखकर गाली देते हैं और चर्चिल व रूजवेल्ट की जनतंत्रवादी कहकर सराहना करते हैं, जिसके निर्णयों के फलस्वरूप 1943 में बंगाल में तीस लाख लोग अकाल से भूख से मर गए, बंगाल की आबादी घट गयी, नरसंहार से भी वीभत्स दृश्य उत्पन्न हो गया.
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आज सत्तर साल उनके निधन के हो गए. पूंजीवादी साम्राज्यवादी दुनिया ने और अंध कम्युनिज़्म के विरोधस्वरूप उदारवादी, नव उदारवादी, फेबियन समाजवादी, राष्ट्रवादी समाजवादी, घोरराष्ट्रवादी, संशोधनवादी कम्युनिस्ट, त्रॉत्स्कीपंथी, यूरो- कम्युनिस्ट, ख्रुश्चेव से लेकर गोर्बाचोव तक सत्तासीन सोवियत नेताओं आदि सभी ने इन साठ सालों में एक स्वर से या स्वरों को आपस में उधार देकर स्तालिन को नीचा दिखाने, इतिहास के खलनायकों के साथ खड़ा करने और यहां तक कि जिस स्तालिन के कुशल नेतृत्व और रणनीतियों के बदौलत हिटलर-मुसोलिनी-तोजो के ख़ूनी अभियान को शिकस्त देने में सफल हो पाये थे, उसके समकक्ष खड़ा करने में मनगढ़त और आविष्कृत तथ्यों से कोई हिचक नहीं दिखाते.
लेकिन तमामतर कोशिशों के बाद भी स्तालिन के एक कम्युनिस्ट क्रांतिकारी और क्रांति के बाद एक कम्युनिस्ट शासक के रूप में उनकी वास्तविक छवि को ढंक नहीं पाते. और, जितना वे इसमें असफल होते हैं उतने ही झूठ के नए नए गोएबल्सीय धारदार हथियार से उनपर हमला बरपा करना ज़ारी रखते हैं.
वे सबसे बड़ा हमला सोवियत संघ में खेती के सामूहिककरण की कथित विफलता को लेकर करते हैं जिनमें कथित लाखों लोगों की अकाल से मौत की बात करते हैं. ऐसा करनेवाले चर्चिल और रूज़वेल्ट के पैरोकार बंगाल की अकाल या अफ़्रीका की अकाल की चर्चा नहीं करते और करते भी हैं तो अपराधभाव से ग्रसित होकर ही करते हैं. सच्चाई के दूसरे पक्ष की सिरे से अवहेलना कर देते हैं कि जिन अवधि में अकाल की चर्चा को बढ़ाचढ़ाकर पेश किया जाता है उसी अवधि में सोवियत संघ के पुनर्निमाण के परिणाम और आंकड़े का उल्लेख ग़ायब कर देते हैं.
यह वही अवधि थी 1930 के दशक की शुरुआत जब प्रतिक्रांति की दुरभिसंधि, वारकम्युनिज़्म तथा साम्राज्यवादी हस्तक्षेप के विध्वंस के बाद सोवियत संघ में वृहत्तर बदलाव दिखाई पड़ने लगे आंकड़े बताते हैं कि उद्योगों के विद्युतीकरण के लेनिन के जो सपने थे, वे लगभग पूरे हो चुके थे. भारी उद्योगों से उत्पादन का कुल औसत युद्ध पूर्व (1913) के स्तर से पांच-छः गुना ज़्यादे पर पहुंच गया था. विश्वयुद्ध और गृहयुद्ध की मारी सोवियत जनता को तब अपनी अभूतपूर्व उर्जाक्षमता पर आश्चर्य होता हुआ महसूस हो रहा था कि अक्तूबर क्रांति ने किस तरह इसकी सोची हुई कार्यक्षमता की मुक्ति का द्वार खोल दिया. वे खुद से यह विश्वास प्रकट कर रहे थे ‘हम बहुत कुछ कर सकते हैं. .. हम पंचवर्षीय योजना को चार में तब्दील कर सकते हैं !’ मानो वे स्तालिन के शब्दों को मुकम्मल जामा पहना रहे हों, ‘जीवन पहले से बेहतर हो चुका है. ..जीवन पहले से ज़्यादे आनन्दप्रद है…’.
1930 के दशक के आख़िर तक सैकड़ों की तादाद में नये कल-कारखानों, औद्योगिक प्रतिष्ठानों, सड़कों, नगरों, सांस्कृतिक भवन, आरामगाह, अस्पताल एवं स्वास्थ्य-सेवा केंद्र, स्कूलों, प्रयोगशालाओं का जाल बिछ गया. भू-परिदृश्य को बदल कर रख दिया.
शिक्षा के क्षेत्र में विकास का आलम यह था कि 1913 में ज़ारशाही के उत्थान के समय जितने उच्च शिक्षाप्राप्त विद्वान विशेषज्ञ हुआ करते थे उस तादाद में लगभग सात गुना वृद्धि हुई और माध्यमिक शिक्षा की उपलब्धियां अट्ठाइस गुना ज़्यादा बढ़ गयीं. निरक्षरता बिल्कुल नीचे स्तर पर आ गयी. प्रेस, सिनेमा, रेडियो, वैले थियेटरों का इतना अधिक और तेजी से विस्तार हुआ कि वे लोगों के जीवन का अहम हिस्सा बनते चले गए. निस्संदेह समाजवादी समाज के नवनिर्माण में इनके योगदान फलीभूत हो रहे थे. लोगों को यक़ीन हो चला था कि सुबह जब इतनी सुहानी है तो आगे आनेवाला सूरज ख़ुशहाली और सलामती के रोज रोज नए नए क्षितिज के साथ उदित होगा.
प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में स्कूलों, यूनिवर्सिटियों, रिसर्च सेंटरों की संख्या हजारों तक पहुंचने लगीं. लगभग तीस साल के स्तालिन शासन में क़रीब साढ़े तीन करोड़ लोग सुशिक्षित होकर निकले जो संपूर्ण ग़ैर-कम्युनिस्ट मुल्क की कुल संख्या से भी अधिक सिर्फ़ इस एक देश में पहुंच गयी.
स्तालिन के आलोचक जीवनीकार आइजक द्वैशर बताते हैं अगर पंचवर्षीय योजना लागू नहीं होती तो द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर को हराना नामुमकिन-सा था. उन्होंने आगे बताया कि यह जीत इसलिए संभव हो पायी कि सोवियत संघ के पूर्वांचल के औद्योगिकरण और सामूहिक खेती के मशीनीकरण का काम पूरा हो गया.
सोवियत संघ पर हिटलर के हमले के दस साल पूर्व 1931 में स्तालिन का यह कथन महत्व रखता है कि ‘हम विकसित देशों से पचास से सौ साल अभी पीछे हैं या तो हमें दस सालों में इस पिछड़ेपन पर फ़तह हासिल करनी होगी या पूंजीवादी साम्राज्यवादी देशों के हाथों कुचलने के लिए तैयार रहना होगा.’
इस वक्तव्य के आलोक में हम अगर तत्कालीन वास्तविकता को परखते हैँ तो इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि अगर पंचवर्षीय योजना के विकास लक्ष्यों के पूरा होने में कुछ भी देरी होती, तो जर्मनी के हमले के मुकाबले में सोवियत संघ टिक नहीं पाता . रूस की जनता को स्तालिन ने इस ढंग से विचारनिष्ठ और प्रेरित किया था कि उसने पांच साल के लक्ष्य को चार साल में ही पूरा कर लिया.
यह अकारण नहीं है कि स्तालिन के कार्यों के ग़लत मूल्यांकन का नतीज़ा ही था कि समाजवाद-दुश्मन अनासिर को सोवियत संघ के साथ ग़द्दारी का मौक़ा मिल गया, जिसका ख़ामियाजा न केवल सोवियत जनता को भुगतना पड़ रहा है बल्कि वह साम्राज्यवादी पूंजीवादी देशों, ख़ासकर नाटो के युद्ध का प्रयोगशाला बन गया है.
समाजवाद की सारी उपलब्धियां देश के भीतर और बाहर के पूंजी और उसके साम्राज्य के दैत्याकार विश्व को हाथ लग गया. एक सर्वेक्षण के मुताबिक रूस की 76% जनता ने इच्छा जतायी कि उसके देश को स्तालिन जैसे नेता की ऐतिहासिक ज़रूरत है. समाजवादी विश्व के इस कालजयी प्रहरी को सलाम.
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‘ब्रिटिश राज में महामारी से साढ़े तीन करोड़ लोग मर गए. स्तालिन के खेती के सहकारीकरण अभियान तथा राजनीतिक सफाई में ढाई करोड़ और माओ के सांस्कृतिक क्रांति में साढ़े चार करोड़ तथा द्वितीय विश्वयुद्ध में मारे गए साढ़े पांच करोड़ मौतें की याद दिलाता है.’
स्तालिन का इस संदर्भ में उल्लेख शशि थरूर ने अपनी शानदार किताब ‘द एरा ऑफ़ डार्कनेस’ में और कई ज़गह इसी रूप में किया है ताकि जिस कैंब्रिज में वे अपना संभाषण दे रहे थे वहां के श्रोताओं को तुष्ट कर सकें कि वे न सिर्फ़ उनकी करतूतों को उजागर कर रहे हैं बल्कि उनके सबसे बड़े दुश्मन पर भी प्रहार कर रहे हैं. ऐसा वे दो कारणों से करते हुए दिखते हैं. एक तो यह कि वे जिस वर्गीय विचारधारा के संपोषक हैं या जिनमें संस्कारित हो पाए हैं, वह स्वतः स्तालिन विरोध को पहुंचता है.
मैंने पहले ही लिखा है स्तालिन के विरोधियों की कतार कितनी लंबी है, जिसमें न सिर्फ़ पूंजीवादी-साम्राज्यवादी अपितु उदार जनतंत्रवादी से लेकर यूरोकम्युनिस्ट तक शामिल हैं. दूसरे, वह ब्रिटिश शासन की आलोचना की वैधता और औचित्य की स्थापना के लिए तटस्थता को यक़ीनी तरीक़े से पेश करना चाहते हैं. विद्वानों के बीच वादविवाद से परे जाने के दिखावे में इस तरह का मनोवैज्ञानिक संकट आम होता है.
न सिर्फ़ थरूर ने बल्कि पूरा पश्चिम जगत, उसके बौद्धिक व राजनीतिक प्रतिनिधि, संचार माध्यम आदि सभी 1931-33 के रूस में व्याप्त खाद्यान्न संकट को सोवियत प्रणाली की विफलता के रूप में प्रचारित प्रसारित करने में युद्ध स्तर पर लगा था. स्तालिन की ‘तानाशाही’ से जोड़कर इसे और वीभत्स बनाया जा रहा था. आंकड़ों को आकाश में पहुंचाकर दिखाया जा रहा था ताकि सर्वहारा वर्ग की सत्ता और क्रांति की वैधता और अपरिहार्यता को ख़ारिज़ किया जा सके. खेती के सहकारीकरण व सामूहिककरण के ग़ैर पूंजीवादी-ग़ैरसामंती अमल को निरर्थक व विनाशकारी बताकर पलटा जा सके और उसकी ज़गह प्रवर वर्ग के हितसाधन के उद्देश्य में निजी मिल्कियत की पूंजीवादी नीतियों की स्थापित शाश्वतता को सवाल के दायरे से परे रखा जा सके.
उनके लिए एक और कारण से ऐसा करना ज़रूरी था. उसी समय संपूर्ण पूंजीवादी-साम्राज्यवादी जगत महान आर्थिक मंदी से व्यवस्था के संकट का शिकार था, जो समाजवादी सोवियत प्रणाली की श्रेष्ठता से होड़ लेने में उसके लिए अवरोधक बन गया था. इसके मुक़ाबले के लिए तथा इससे उत्पन्न पीड़ा से अपनी जनता का ध्यान हटाने के लिए वे सोवियत खाद्यान्न संकट से उपजी त्रासदी को बढ़-चढ़कर और बढ़ा-चढ़ा कर तारीख़ी लहज़े में पेश कर रहे थे.
बहरहाल, वे ऐसा करते हुए इस उल्लेख से परहेज़ कर रहे थे कि स्तालिन या सोवियत सत्ता इस संकट से उबरने के लिए क्या ज़रूरी क़दम उठा रही थी, उसमें सफलता और असफलता की क्या दर रही, उससे कितनी ज़ल्दी निबटा गया और कैसे निबटा गया. इस पक्ष की अवहेलना का सबसे बड़ा कारण था कि सोवियत प्रणाली की सफलता उन्हें जनकल्याणकारी योजनाओं की तरफ़ मुड़ने के लिए दबाव बना रही थी जो उनके निज़ाम की रीढ़ पर ही प्रहार कर रही थी, जिसे वे लैसेज फ़ेयर के एडम स्मिथ और रिकार्डो के स्वर्ग से उतार लाए थे.
स्वर्ग में सोवियत प्रणाली की सफलता व टिकाऊपन से आग लगती हुई दिखाई पड़ रही थी. थरूर भी समझकर यह समझना नहीं चाह रहे हैं पूंजीवादी जनवाद के प्रति उनकी आग्रहशीलता उन्हें ऐसा करने से रोक रहा हो. यह जगजाहिर है कि मानव अधिकार, स्वतंत्रता और लोकतंत्र की लाख दुहाई देनेवाले यूरोप और अमेरिका को इस बात की परवाह शायद ही कभी थी कि औपनिवेशिक जनता और अपने देश की मेहनतकश जनता किस संकट और संहार के दौर से गुजर रही है. बल्कि सच्चाई यह है कि वे अपने तमाम संकट से निजात पाने के लिये उसे इन्हीं पर डालकर इत्मीनान होते हैं, सुरक्षित हो पाते हैं, अपनी वर्गीय सत्ता-व्यवस्था को बचा पाते हैं.
उस समय ऐसा करने की राह में उनके सामने विश्व में अस्तित्व पा गए समाजवादी निज़ाम के रूप में जबरदस्त चुनौती खड़ी हो गई थी. फिर भी कोई और ऊपाय नहीं रहने के कारण वे वही रास्ते अपनाने को विवश थे कि संकट को उत्पादन शक्तियों यानि आम मेहनतकश नागरिकों के विनाश पर यथासंभव अधिकाधिक डालकर संकटमुक्त हो जा सके. आज जब वह चुनौती शिकस्त खाकर ग़ायब हो चुकी है तो वे बेरोकटोक बेख़ौफ़ होकर उसी राह पर चलते अपने जांबाजी के पताका फहरा रहे होते हैं.
किंतु, जनता के प्रति जवाबदेह सोवियत सत्ता ने अपने इस बहुचर्चित, बहुप्रचारित खाद्यान्न संकट से निबटने के फ़ौरी क़दम उठाए थे. समकालीन इतिहास के अन्य कतिपय स्रोत इसकी गवाही देते दस्तावेज़ी सबूत के साथ मौज़ूद हैं.
अमरीकी पत्रकार अन्ना लुई स्ट्रांग संपूर्ण स्तालिन काल में सोवियत संघ से ख़बर को कवर करने के लिए मास्को और विभिन्न शहरों में मौज़ूद रहीं. अपने तीस वर्षीय प्रवास के दौरान उन्होंने स्तालिन शासन के लगभग तमाम पहलुओं को अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘स्तालिन युग’ में समेटने का प्रयास किया. इस खेती के संकट की भी विस्तृत रिपोर्टिंग उन्होंने अपनी इस पुस्तक में शामिल की है. उसे पढ़ते हुए यह सहज स्पष्ट हो जाता है कि किस तरह पश्चिम की दुनिया इस संकट का राजनीतिक लाभ लेने की ज़ल्दबाज़ी में थी.
वे यहां तक आगे बढ़ रहे थे कि इसी बहाने वे सोवियत सत्ता को फ़्रांस की क्रांति की तरह पलट दें. इसके साथ ही, उन्होंने यह भी दिखाया है कि किस तरह सोवियत सत्ता स्तालिन के नेतृत्व में असफलताओं, भूखमरी की भयावह अस्थायी स़्थितियों और कुलकों (धनी ज़मीन मालिकों) के वर्गीय हिंसक प्रतिरोध के बीच ‘खेती में क्रांति’ दर्ज़ की गई.
‘1928 में रूसी किसानों की खेती के तरीक़े मध्ययुगीन थे. कहीं कहीं तो ये तरीक़े बाइबल ज़माने इतना पुराने थे. सामाजिक जीवन भी इतना ही मध्ययुगीन था.
‘ऐसे में एक लंबी छलांग के तहत 1930-33 में लगभग 140 लाख नकारा छोटी जोतों को मिलाकर 2 लाख बड़े जोत बनाये गए. जिसका स्वामित्व सामूहिक प्रबंधन के मातहत डाला गया और खेती के लिए ट्रेक्टर और मशीनों का इस्तेमाल शुरू हुआ. नए जोश व उर्जा के साथ सतर्कता में तमाम गतिरोध के बीच इतिहास की सबसे बड़ी बुआई और सबसे अधिक खेतिहर उपज हासिल की गई. उस कटाई ने दुनिया के लिए खेती का इतिहास बदल दिया.
‘लेकिन, खेती के सामूहिककरण के स्वामित्व के लिए एक कटाई काफ़ी नहीं थी. अगले दो वर्षों में अनुभवहीन प्रबंधकों से भरे संगठन संबंधी कठिनाइयों तथा लगातार भीषण सूखे की स्थिति के कारण पांच बुनियादी क्षेत्रों के उपज में गिरावट आयी. यद्यपि 1932 में उपज में वृद्धि हुई लेकिन काफ़ी सारा अनाज अद्यतन प्रबंधन के अभाव में बर्फ़ के नीचे दब गया. जबतक मास्को की नींद खुलती तबतक अकाल जैसी स्थिति पैदा हो गई. पूरे देश में एक छोर से दूसरे छोर तक भूख छायी हुई थी. मृत्यु दर में हर कहीं बढ़ोत्तरी थी. लेकिन भूख को साझे तौर पर बांट लिया गया था.
अमरीकी और पश्चिम यूरोपीय टिप्पणीकार अक्सर इसे स्तालिन के जोर-जबरदस्ती को दोषी ठहराते हैं. लेकिन यह सच नहीं है. दरअसल, सामूहिकीकरण का आंदोलन इतनी तेज गति से चला कि स्तालिन की मशीनीकरण और मानवीय प्रबंधन की योजना पीछे छूट गई. किसानों की उम्मीदें ज़्यादा थीं और क्षमता कम पड़ गईं. साथ में कुलकों के बहकावे में आकर किसानों ने मवेशियों को मार डाला.
ऐसे में एक तरफ़ तात्कालिक क़दम के तौर पर मास्को की केंद्रीय सरकार ने राशन प्रणाली के ज़रिए ही देश को संकट से उबारने में लग गयी तो दूसरी तरफ दीर्घकालिक उपाय के तौर पर तीन फ़ौरी क़दम उठाये गए; अनाज संग्रह के नए क़ानून बने, अच्छी फसल के लिए पुरस्कार और दंड के प्रावधान किये गए, कृषि पंडितों का राष्ट्रव्यापी सम्मेलन बुलाया गया, ट्रैक्टराइज़ेशन को लिए राजनीतिक विभाग खोले गए तथा 20 हज़ार नए सक्षम लोगों के मशीनीकरण का विस्तार किया गया.
पश्चिम ने इसकी भी खिल्ली उड़ाई. उनके अख़बारों ने इसे ‘किसानों के विरुद्ध स्तालिन का युद्ध’ की संज्ञा दी जबकि सोवियत अख़बारों ने ‘खेतिहर उपज के लिए हमारा संग्राम’ बताया.. ‘सूखे के विरुद्ध युद्ध’ की घोषणा के ज़रिए व्यवहारिक योजनाओं को खेतों तक पहुंचाया गया. इस तरह देशव्यापी आपसी सहयोग ने 1934 में सूखे को पराजित कर उच्चतम कीर्तिमान तक फसल को पहुंचा दिया. 1935 तक नई तरह की खेती टिकाऊपन की आशा से बंध गयी. (और भी देखें, शोलोख़ोव, कुंवारी धरती का जागरण, मास्को)
इसके अतिरिक्त यह भी उल्लेखनीय है कि जहां पूंजीवादी साम्राज्यवादी शासकों ने अपने उपनिवेशों में महामारी, भुखमरी या दमनात्मक नस्लीय राजनैतिक नरसंहार के लिए न कभी आत्मालोचना की, न आत्मावलोकन किया, न माफ़ी मांगी, न दोष क़ुबूल किया चाहे वह इथोपिया या अफ्रीका भारत का अकाल हो या इंडोनेशिया, चिली, कोरिया, वियतनाम, कांगो, केन्या, सीरीया, अल्जीरिया, अर्मीनीया, बांग्लादेश, हिंदुस्तान के बंटवारे का नरसंहार हो कभी किसी कथित ‘स्वतंत्रता प्रिय लोकतांत्रिक शासकों’ ने कोई पश्चाताप किया हो ऐसा उदाहरण नहीं मिलता.
ख़ुद हमारे देश में बंटवारे से लेकर ‘आज़ादी के अमृतकाल तक’ सांप्रदायिक फ़सादात में, किसानों के संघर्ष को कुचलने, मज़दूरों की हक़मारी के विरोध में चलनेवाले तथा जनतंत्र बचाओ आंदोलन में सरकारी मशीनरियों के दुरुपयोग और राजकीय हिंसाओं में मरनेवालों की कतार दर कतार खड़ी है, 1984 का सिखों और 2002 के गुजरात जनसंहारों के उदाहरण हैं जिनके पीड़ितों को न्याय मिलने की बात तो दूर न्याय की गुहार लगाने के लिए दंड का भागी होना पड़ा. क्या कभी हमारे शासकों में से किसी ने किसी की ज़वाबदेही तय की है ?
मार्क्सवादी चिंतक नरेंद्र कुमार ने ‘स्तालिन और उनके समय का संघर्ष’ की अपनी पुस्तक में सही उल्लेख किया है. जब मेहनतकश मरते हैं तो उसकी चर्चा नहीं होती लेकिन सोवियत संघ में भूख और अभाव से अपरिचित कुलक और खाते पीते अघाते अमीर लोगों को जब उसे झेलना पड़ा तब हंगामा कुछ ज़्यादे ही हुआ.
कुछेक दशक पहले पूंजीवादी जनतंत्र के विश्वव्यापी फैलाव और शासकों की चमकती दमकती आकाशगंगा के बीच जब इथोपिया और अफ़्रीका के दीगर इलाक़े में और आज सूडान, सोमालिया, यमन, अफ़ग़ानिस्तान, सीरीया आदि में जब भीषण रक्तपात के बीच भुखमरी फैली तो उसी समय यूरोप और लोकतांत्रिक विश्व अपनी मुनाफ़ाखोरी को बरक़रार रखने के लिए हज़ारों मीट्रीक टन अनाज और फलों को समुंदर में फेंकने की ख़बरों को अपनी उपलब्धियां मानकर चला रहे थे.
स्तालिन एक शासक के रूप में ऐसा नहीं थे. भुखमरी से मौत के लिए अपने पार्टी की ग़लतियों को छुपा नहीं रहे थे बल्कि अधिवेशनों में दोष को क़ुबूल कर रहे थे, उसे दुरुस्त करने का आह्वान कर रहे थे. ‘सफलता के उन्माद’ और ‘कृषि समस्या की चुनौतियों’ पर आलेख के ज़रिए भूखमरी के संकट से बचने के उपायों पर फ़ौरी अमल के लिए विघटनकारी पार्टी तत्वों और वर्ग दुश्मन कुलकों और पूंजीवादी तत्वों के विरुद्ध मध्यम किसानों की एकजुटता से सामूहिककरण के मूलभूत तत्वों को लागू करने में युद्ध स्तर पर संगठन और प्रबंधन की ग़लतियों को दुरुस्त कर रहे थे.
वे हंगामे को नज़रंदाज़ कर अपनी आंखें दृढ़तापूर्वक भूख से तमतमाए लाखों मेहनतकश चेहरे पर टिकाये रखे, उनकी अवरुद्ध चीख़ों और निःशब्द स्वरों को सुनते जा रहे थे. दुनिया भर के हमलों के बीच स्तालिन वही कर रहे थे जो एक संवेदनशील नेता या शासक को फ़ौरी तौर पर करना चाहिए. ग़लतियों को दुरुस्त कर संकटों से निज़ात के लिए निर्णय लेते रहे और साल भर नहीं बीता कि सूखे, अकाल को तर्क कर उसी सामूहिककरण के स्वैचिछक निवेश के ज़रिए उसी किसानवर्ग ने 1933-35 में रिकॉर्ड अनाज उपजाए, रिकॉर्ड खेत आबाद हुए, रिकॉर्ड स्तर पर मशीनीकरण हुआ जिसका गवाह दस साल बाद प्रकाशित 29 मार्च 1943 के अपने विशेष अंक में अमेरिका की प्रतिष्ठित ‘लाइफ़’ पत्रिका ने दिया –
‘खेती के सामूहिककरण की क़ीमत चाहे कितनी भी ज़्यादा रही हो …खेती की इन बड़ी इकाईयों ने ..मशीनों के इस्तेमाल को संभव बनाया…जिससे उत्पादन दुगुना हो गया. इनके बग़ैर..रूस उन उद्योगों का निर्माण नहीं कर सकता था जो जर्मन सेनाओं को रोकने के लिए आवश्यक गोला बारूद का निर्माण करते…’.
दरअसल, स्तालिन के मरने और सोवियत संघ के पतन के दशकों बाद भी स्तालिन का नाम, उपलब्धियां, सफलताएं विश्व पूंजीवाद और उसके ‘उदार लोकतंत्र’ के पैरोकारों के सामने एक प्रेत बनकर खड़ा रहता है और उनकी नींद हराम होने का ख़ौफ़ उन्हें लगा रहता है. वे वास्तव में स्तालिन की ‘व्यक्ति पूजा’, ‘प्रशासनिक आदेश-व्यवस्था’, ‘अतिकेंद्रीयतावाद’ के बहाने समाजवाद के मूलभूत आधारों, पूंजीवादी विश्व को चौंका देनेवाली उपलब्धियों और उनके वैचारिक-दार्शनिक-राजनीतिक सिद्धांत मार्क्सवाद-लेनिनवाद पर हमलावर होते हैं. दुनिया के मेहनतकशों के बीच उसकी असफलताओं का राग अलापकर दिग्भ्रमित कर अपनी श्रेष्ठता की शाश्वतता क़ायम रखना चाहते हैं.
- भगवान प्रसाद सिन्हा
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