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श्रीलंका : प्रतिक्रांति के समर्थक ही आज सत्ता के खिलाफ मैदान में हैं

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श्रीलंका : प्रतिक्रांति के समर्थक ही आज सत्ता के खिलाफ मैदान में हैं
Subrato Chatterjeeसुब्रतो चटर्जी

श्रीलंका में जिस तरह की उथल-पुथल मची हुई है और जिस तरह से राष्ट्रवादियों को खदेड़ कर मारा और सत्ता च्यूत किया जा रहा है, उसे देख कर भारत के मुस्तकबिल के बारे सोचने की ज़रूरत है. मोदी-शाह की भाजपा और राजपक्षे की राजनीति में अनेक समानताएं होने के वावजूद दोनों देशों की परिस्थितियों में बहुत अंतर है. जनसंख्या, क्षेत्रियता, भाषाई बहुलता, सांस्कृतिक तथा सामाजिक विविधता जो भारत में है, वह श्रीलंका में नहीं है.

दूसरा फ़र्क़ इतिहास का है. मध्ययुगीन भारत का इतिहास बर्बर मुस्लिम लुटेरों के आक्रमण तथा शासन का रहा है. ये अलग बात है कि ये लुटेरे कालक्रम में भारतीय बन गए और अंग्रेजों के विरूद्ध लड़ाई में निर्णायक भूमिका निभाई. श्रीलंका में भी तमिल आधिपत्य एक समय रहा और ये भारत से गए थे लेकिन ये सुल्तान नहीं बने थे.

तमिलनाडु के मछुआरों का भटक कर श्रीलंका की सीमा में चला जाना आज भी होता है. जिस मध्य युग में तमिल श्रीलंका गए थे, उन दिनों न कोई राष्ट्र की अवधारणा थी और न ही कोई देश का महत्व. एक विशेष भौगोलिक भूखंड को एक नाम दे दिया जाता था.

सबसे बड़ा अंतर भारत और श्रीलंका की आर्थिक परिस्थितियों में है. भारत की अर्थव्यवस्था उसे इस तरह कंगाल नहीं होने देगी कि दूध दो हज़ार रुपये लीटर बिकने लगे. दूसरे शब्दों में, भारत में रुपए का उतना अवमूल्यन कभी नहीं होगा.

भारत की समस्या करेंसी की बहुलता के चलते उसकी क़ीमत का कम होना नहीं है. भारत की मंदी सिर्फ़ आर्थिक नहीं है, यह ढ़ांचागत मंदी (structural recession) है. दूसरे शब्दों में, भारत में धन उत्पादन के स्रोत ही बंद हो चुके हैं. औद्योगिक उत्पादन निगेटिव है. विनिर्माण उद्योग पर ताला लटक चुका है. असंगठित क्षेत्र और लघु उद्योग (MSME sector) तबाह हो गया है.

कृषि, विशेष कर गेंहू के उत्पादन में मौसम तथा अन्य कारणों से पांच प्रतिशत की कमी आई है. तिलहन का उत्पादन निगेटिव है. मनरेगा जैसी योजनाओं को चलाने के लिए सरकार के पास न तो धन है और न ही इच्छा शक्ति, इसे ढ़ांचागत मंदी (structural recession) कहते हैं. नतीजतन, न लोगों के पास रोज़गार है और न कोई आमदनी.

यह परिस्थिति आर्थिक मंदी से ज़्यादा भयावह है. इस परिस्थिति को बाजार में तरलता लाकर आप ख़त्म नहीं कर सकते. ‘न्याय’ जैसी योजनाओं का भी कोई ख़ास असर नहीं होगा. बाज़ार ने इस परिस्थिति से निपटने के लिए खुद को दो प्रकार से तैयार किया है. एक तो ऊर्ध्वाधर विपणन (vertical marketing) है, जिसके बारे पहले भी लिख चुका हूं.

इस नीति के तहत, उपभोक्ताओं की घटती हुई क्रय शक्ति के मद्देनज़र उत्पादक क़ीमतें बढ़ा कर प्रति यूनिट बिक्री (per unit sale) पर मुनाफ़ा बढ़ा लेते हैं, फलतः कुल इकाइयां बिक्री (total units sold) की संख्या कम होने पर भी मुनाफ़े पर कोई असर नहीं पड़ता है. आप पेट्रोल डीज़ल की लगातार बढ़ती हुई क़ीमतों के पीछे के अर्थशास्त्र को ऐसे भी समझ सकते हैं.

जब सरकार की आमदनी अप्रत्यक्ष करों से कम होती रहती है तब प्रत्यक्ष करों में वृद्धि के सिवा कोई रास्ता नहीं बचता है. अप्रत्यक्ष करों के संग्रहण की कमी सीधे तौर पर ढ़ांचागत मंदी (structural recession) से जुड़ा हुआ है, क्योंकि बेरोज़गार और गरीब होती जनता की उत्पादक क्षमता उसकी क्रय शक्ति के समानांतर घटती जाती है.

बाज़ार ने जो दूसरा रास्ता अपनाया वह है – quantity or weightage (मात्रा या महत्व) का खेल. किसी वस्तु के अधिकतम खुदरा मूल्य को स्थिर रखते हुए उस यूनिट की मात्रा को कम कर देना, जैसे 100 ग्राम की जगह 75 ग्राम. यानी the show must go on.

प्रसंगवश यहां बता दूं कि उड़ीसा जैसे गरीब राज्यों में हरेक वस्तु का छोटा पैक (miniature pack) बाज़ार में दशकों से उपलब्ध है. आज जब मैं 50 ग्राम के पैक में देश भर में सरसों का तेल बिकते हुए देख रहा हूं तो कालाहांडी के विस्तार को समझ पा रहा हूं.

मूल प्रश्न पर लौटते हुए ये कहना अनुचित नहीं होगा कि अब बाज़ार की चालबाज़ी भी काम नहीं आ रही है. ख़बर है कि स्टील तीस प्रतिशत तक सस्ता होने वाला है. अगर ऐसा हुआ तो यह मंदी का उल्टा चक्र (reverse cycle) होगा और ऊर्ध्वाधर विपणन (vertical marketing) का अंत. यानी मात्रा के संकुचन को लाभ से पूरे करने के दिन लद गए. Core सेक्टर प्रोडक्ट की क़ीमत में इस गिरावट का क्या असर बिजली, कोयला इत्यादि अन्य सेक्टर पर क्या पड़ता है, देखना बाक़ी है.

एक संकेत आपको देता हूं. दो ख़बरें महत्वपूर्ण हैं. पहला यह कि बढ़ती हुई क़ीमतों से परेशान होकर ग़रीबों ने गैस सिलेंडर से दूरी बढ़ा ली है. वितरक परेशान हैं. दूसरी खबर है कि निजी स्कूलों से क़रीब 40 लाख बच्चे निकाले जा चुके हैं और उन्होंने सरकारी स्कूलों का रुख़ किया है.

फ़िलहाल ये दो उदाहरण काफ़ी हैं आपको समझाने के लिए कि घटती आमदनी का असर बाज़ार पर क्या होता है. अभी लोगों को अपने घरों से बिजली कटवानी बाक़ी है.

आप बेरोज़गारी के आंकड़ों में मत उलझिए. भारत में जिनके पास रोज़गार है उनमें से भी नब्बे प्रतिशत प्रच्छन्न बेरोजगारी (disguised unemployment) के शिकार हैं, इसलिए, मूल्य वृद्धि के साथ साथ उनकी क्रय शक्ति में लगातार ह्रास होता जा रहा है. रुपए की क़ीमत ऐसे गिरती है.

अंत में एक सवाल. क्या भारत की अर्थव्यवस्था इतनी मज़बूत है कि वह संरचनात्मक और बाजार (structural and market) दोनों तरह की मंदी को दस सालों तक झेल सके ? मुझे नहीं लगता. परिणाम क्या श्रीलंका जैसा कुछ होगा ? मुझे नहीं लगता.

भारतीय implode करने के लिए जाने जाते हैं, explode करने के लिए नहीं. 1972 के बांग्लादेश युद्ध के बाद इंदिरा गांधी ने पूरे देश में सस्ती रोटी की दुकान खोल कर विद्रोह को रोका था और मोदी सरकार ने पांच किलो का मोदी झोला दे कर रोका हुआ है. बस एक फ़र्क़ है, मोदी सरकार सरकारी स्कूलों में मध्याह्न भोजन भी नहीं दे पा रही है और न ही राशन में गेहूं.

सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या प्रतिक्रांति के समर्थक, यानी मोदी समर्थकों के बीच से क्रांति का रास्ता निकलेगा जैसा कि श्रीलंका में हुआ ? ये लाखों डॉलर का प्रश्न (million dollar question) है, जिसके जवाब में दुनिया की तक़दीर क़ैद है. फ़्रांस से ले कर रूस तक कहीं भी लुई या जारशाही के समर्थकों ने क्रांति नहीं की लेकिन श्रीलंका में राजपक्षे के समर्थक ही आज मैदान में हैं. एक नया इतिहास रचा जा रहा है.

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