चार मेढ़क नदी किनारे के एक लट्ठे पर बैठे थे. अचानक लट्ठा धारा में आ गया और धीरे-धीरे बहने लगा. मेढ़क खुश हो गए और लट्ठे के साथ तैरने लगे. इससे पहले उन्होंने कभी भी नाव की सवारी नहीं की थी.
कुछ दूरी पर पहला मेढ़क बोला – ‘यह वास्तव में ही बहुत चमत्कारी लट्ठा है. ऐसे तैर रहा है जैसे जिन्दा हो ! ऐसा लट्ठा पहले कभी नहीं सुना.’
दूसरे मेढ़क ने कहा – ‘नहीं मेरे दोस्त, है तो यह दूसरे लट्ठों जैसा ही. चल यह नहीं रहा है. दरअसल, यह नदी है न, समुद्र की ओर जा रही है. हमें और लट्ठे को यह अपने साथ बहाए ले जा रही है.’
तीसरा मेढ़क बोला – ‘भाई, गति न तो लट्ठे में है और न नदी में. गति हमारे विचारों में है. बिना विचार के कुछ भी गतिशील नहीं होता.’
अब, तीनों मेढ़क इस बात पर झगड़ने लगे कि गति वास्तव में किसमें है ? लड़ाई तेज से तेजतर होती गई लेकिन सहमति नहीं बन पाई. फिर वे चौथे मेढ़क की ओर मुड़े. वह अब तक चुपचाप उनकी बातें सुन रहा था. उन्होंने उससे उसकी राय पूछी.
चौथा मेढ़क बोला – ‘तुममें से किसी की भी बात गलत नहीं है – गति लट्ठे में, जल में और विचारों में – सब में है.’
उसकी बात पर तीनों मेढ़़क बहुत नाराज हो गए क्योंकि उनमें से किसी को भी यह बर्दाश्त नहीं था कि उसकी बात पूरी तरह सही नहीं है और यह कि बाकी दोनों की बात पूरी तरह गलत नहीं है.
फिर एक अजीब बात हुई. तीनों मेढ़क एकजुट हो गए और चौथे मेढ़क को उन्होंने लट्ठे पर से धक्का दे दिया.
- खलील जिब्रान
अनुवादक : बलराम अग्रवाल
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