‘मैं साहित्य का और बाद में कानून का किसी-न-किसी का गुरु रहा. मेरे अधिकतर शिष्य गुरु घंटाल हो गए. उन्हें गुरु पूर्णिमा का प्रणाम !’
– कनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़
जगदीश्वर चतुर्वेदी
जो शिक्षक और छात्र नियमित फेसबुक पर ‘जय हो मोदी जय हो मोदी’ कर रहे हैं, उनको आपने कभी भारत की शिक्षा या अन्य सामाजिक समस्या के लिए अधिक धन की मांग करते देखा या पढ़ा ? वे चीन पर फुंफकार रहे हैं लेकिन उच्चशिक्षा का भट्टा बैठाने के लिए मोदी के बारे में एक वाक्य नहीं लिखते. गजब के राष्ट्रवादी हैं. इनको शिक्षा नहीं चाहिए, इनको सिर्फ मोदी चाहिए, आरएसएस चाहिए. इनको रोजगार नहीं चाहिए, उनको ह्वाटस एप से भाजपा के मैसेज चाहिए.
उनको गरीबी से मुक्ति के साधन नहीं चाहिए, उनको सिर्फ मोदी सरकार चाहिए. धन्य है भारत और धन्य है भारत माता जिसकी कोख से ऐसे कपूत जन्में ! अधिनायकवादी संस्कार और आदतों के जब अभ्यस्त हो जाते हैं तो फिर लोकतंत्र, लोकतांत्रिक मूल्य, लोकतांत्रिक संस्कार बुरे लगने लगते हैं, यही है सबसे बड़ी मुश्किल है.
भारत में बौद्धिक उत्पीड़न
भारत में कहने के लिए लोकतंत्र है लेकिन विलक्षण ढ़ंग से यहां मतभिन्नता, दल, विचारधारा, धर्म और जाति के आधार पर बौद्धिक उत्पीड़न किया जाता है. बुद्धिजीवी स्कॉलरों के उत्पीड़न के आम तरीके हैं – उनको समय पर पदोन्नति न देना, परेशान करना, रिसर्च ग्रांट रोक लेना, नियमानुसार पदों पर दायित्व न देना, अहर्निश निंदा करना, अनिच्छित स्थान पर स्थानांतरण कर देना, उनके बारे में अफवाह फैलाना, उनकी खराब कार्यशैली का ढोल पीटना, योग्य के रहते अयोग्य को जिम्मेदारी के पद पर बिठाना आदि कुछ रूप हैं, जिनके तहत विभिन्न संस्थानों में अनेक बुद्धिजीवियों को उत्पीड़न झेलना पड़ता है.
संस्थान या समाज में ताकतवर व्यक्ति, समूह या वर्ग को जो व्यक्ति चुनौती लगता है, उसे बौद्धिक उत्पीड़न और दमन का सामना करना पड़ता है. यह लक्षण सार्वभौम है. इस तरह के उत्पीड़न के आदर्श उदाहरण हैं विसिल ब्लोअर.
बौद्धिक उत्पीड़न का उनको भी सामना करना पड़ता है जो किसी ग्रुप, समूह या विचारधारा विशेष का अनुसरण नहीं करते बल्कि तटस्थ रहते हैं. उत्पीड़क तटस्थता पसंद नहीं करते, शांति से जीनेवाले की जिंदगी उनकी आंखों में खटकती है. प्रचलित नीतियों और रिवाजों को जो चुनौती देते हैं उनको भी बौद्धिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है.
हिन्दी साहित्य में बौद्धिक उत्पीड़न के लक्षण हैं- प्रकाशित अच्छी रचना या किताब की चर्चा न करना, उपेक्षा करना, अपनी पत्रिका या संगठन के मंचों पर मत भिन्नता को एकसिरे से अस्वीकार करना, असम्मान करना. भिन्न नजरिए और भिन्न विचारधारात्मक नजरिए से की गयी रिसर्च को खारिज करना या उसकी चर्चा ही न करना.
बुद्धिजीवी के बताए सत्य को अस्वीकार करना, उसकी उपेक्षा करना, चर्चा न करना बौद्धिक दमन का अंग है.
अकादमिक जगत में बुद्धिजीवी के सत्य के प्रति आग्रह और निष्ठा को सत्ता में बैठे लोग पसंद नहीं करते, फलतः वे ऐसे स्कालरों की उपेक्षा करते हैं जो अकादमिक जगत में सत्य के पक्ष में हों, शोध में सत्य के पक्ष में खड़े हों.
अकादमिक सत्ताधीश उस सत्य को पसंद करते हैं जो बाजार में बिकाऊ हो. मुनाफे में सहायक हो. जो शोध मुनाफे का अंग नहीं बन सकता उसकी उपेक्षा की जाती है. मसलन् आप यदि किसी ऐसे प्रकल्प पर काम करना चाहें जिसका औद्योगिक मालबाजार से कोई संबंध नहीं है तो आपको प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी, लेकिन यदि किसी ऐसे प्रोजेक्ट पर काम करते हैं जो किसी कारपोरेट घराने के लिए है तो आपको सम्मान मिलेगा. किसी बुद्धिजीवी को इस आधार पर असम्मानित करना भी बौद्धिक उत्पीड़न है.
अकादमिक सत्ताधारियों के उत्पीड़न से बचने और प्रतिवाद का स्वर बनाए रखने की रणनीति में बुद्धिजीवी का बौद्धिक लक्ष्य स्पष्ट होना चाहिए और उसे बिना किसी लाग-लपेट के उस लक्ष्य की दिशा में काम करते रहना चाहिए. जो गलत है उसका विरोध करना चाहिए. विरोध के तरीके ऐसे हों जिसमें निजी क्षति कम से कम हो. साथ ही बौद्धिक स्तर पर वैकल्पिक बौद्धिक पैराडाइम का विकास करना चाहिए.
अब ज्ञान का महोत्सव नहीं है गुरू पूर्णिमा
आज गुरू पूर्णिमा है. मंदिरों-आश्रमों में मंत्रफूंका गुरूओं के यहां चेलों की लाइन लगी है. मंदिरों में भीड़ लगी है।लेकिन गुरू ग़ायब है. गुरूपूर्णिमा का संबंध उस व्यक्ति से था जो ज्ञान देता था, बेहतर मनुष्य बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था, जिससे हम ज्ञान लेते थे उसकी पूजा करते थे, सम्मान करते थे. लेकिन भारतीय समाज की केन्द्रीय विशेषता है कि यहां हर चीज कर्मकांड और पूजा में रुपानंतरित कर दी जाती है. अंत में मंदिर में पहुंचा दी जाती है. यही दशा गुरूपूर्णिमा की भी हुई है.
अब मंत्र देने वाले की पूजा होती है. गुरूपूर्णिमा के अवसर पर मंत्रफूंका गुरू की पूजा पर अधिक ज़ोर है. ज्ञान सम्प्रसारक गुरू, जिसे हम शिक्षक के रुप में जानते थे, आज उनके सम्मान की ख़बर दूर-दूर तक नहीं मिलेगी. जबकि पहले शिक्षक का ख़ासतौर पर आज के दिन सम्मान करते थे, उनको जाकर प्रणाम करते थे, उनको फल आदि भेंट करते थे. चूंकि सीज़न आम का होता था इसलिए आम ख़ासतौर पर गुरू को भेंट करते थे. उनको प्रणाम करते थे.
इस पर्व ने शिक्षक और छात्र के बीच में सामाजिक-भावनात्मक संबंध बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. अब आज के दिन शिक्षक को ख़ासतौर पर जाकर प्रणाम करना, फल भेंट करना तो बहुत दूर की चीज हो गई है, कोई अपने शिक्षकों का स्मरण तक नहीं करता.
गुरू पूर्णिमा बहुत बड़ा पर्व है. विलक्षण आयरनी है अब गुरूदक्षिणा या गुरू का सम्मान शिक्षक को नहीं मिल रहा. नए युग का चलन है कि आरएसएस में जाकर युवा लोग गुरू दक्षिणा दे रहे हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय में एक नया वर्ग पैदा हुआ है, जो आरएसएस के प्रचारकों को कैश में गुरू दक्षिणा दे रहा है. इसे कहते हैं गुरू के पद और गरिमा का हिन्दुओं के हाथों पतन और अवमूल्यन.
मुझे याद है, मैं जब तक मथुरा में पढ़ता था, कक्षा एक से लेकर पांच तक जवाहर लाल नेहरु प्राइमरी स्कूल सतघड़ा में अपने स्कूल जाता था और अपने शिक्षकों के सामने सरस्वती की पूजा करके उनके चरण स्पर्श करके फल, आटा, दाल और मिठाई की भेंट देकर आता था. जिन स्कूल शिक्षकों के नाम याद आ रहे हैं उनमें परमानंद शर्मा, होतीलाल. एक मौलवी साहब भी थे, उनके अलावा दो अन्य शिक्षक थे. हम कुल पांचों शिक्षकों को प्रणाम करने स्कूल जाते थे.
बाद में माथुर चतुर्वेद संस्कृत महाविद्यालय में प्रथमा से लेकर आचार्य पर्यन्त पढ़ा, तो गुरूपूर्णिमा के दिन अपने प्रिय शिक्षक संकटा प्रसाद उपाध्याय (सिद्धांत ज्योतिष) को प्रणाम करने जाता था और आम की भेंट लेकर जाता था. अन्य शिक्षकों को भी जाकर प्रणाम करता था – वे थे, लालन कृष्ण पंड्या (वेद-धर्मशास्त्र), बलदेव चौबे (व्याकरण), कृष्णचन्द्रजी (साहित्य), सवलकिशोर पाठक (न्याय), मथुरा नाथ चतुर्वेदी (हिन्दी), बैकुण्ठनाथ चतुर्वेदी (अंग्रेज़ी).
ये सभी अपने विषय के बहुत ही शानदार स्कॉलर, शिक्षक और विद्वान थे. कालांतर में जेएनयू आने के बाद गुरूपूर्णिमा पर अपने जेएनयू शिक्षकों नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, मैनेजर पांडेय, सावित्री चन्द्र शोभा, सुधेश जी आदि को प्रणाम करने ज़रूर जाता था.
गुरूपूर्णिमा माने शिक्षक-छात्र के बीच में सामाजिक-संवेदनात्मक-ज्ञानात्मक संबंध का रिश्ता बनाने और उसे और भी मज़बूत करने की कोशिश. इसमें यह इच्छा नहीं रहती थी कि शिक्षक के ज़रिए नौकरी या कोई लाभ मिलेगा या नहीं. आज समाज में शिक्षक-छात्र संबंध पूरी तरह बदल चुके हैं. किसी भी संस्थान-विश्वविद्यालय-कॉलेज -स्कूल में गुरूपूर्णिमा की पुरानी अनुभूतियां और परिवेश नज़र नहीं आएगा. सब कुछ पेशेवर-व्यावसायिक हो गया है.
पेशेवर-व्यावसायिकता ने शिक्षक-छात्र संबंधों का अंत किया है, साथ ही ज्ञान की भूमिका को बुनियादी तौर पर बदल दिया है. पहले शिक्षक पढ़ाता था, सामाजिक तौर पर सचेतन बनाने के लिए, बेहतर मनुष्य बनाने के लिए. लेकिन अब शिक्षक पढ़ाता है मांग-पूर्ति के आधार पर, नौकरी या ट्यूशन के लिए. इसने शिक्षा और ज्ञान की सामाजिक-सांस्कृतिक सचेतन नागरिक की भूमिका को ख़त्म कर दिया है.
ज़ाहिर है इससे गुरूपूर्णिमा को ज्ञान के क्षेत्र से खदेड़कर कर्मकांड और महंतों की चौखट पर ले जाकर पटक दिया है. अब कहने के लिए गुरूपूर्णिमा तो है पर अब वह सिर्फ़ एक तिथि है, कर्मकांड है. ज्ञान का महोत्सव नहीं है.
एक आधुनिक मूर्खता है – शिक्षक का अपने को गुरू कहलाने से इंकार. कल यही शिक्षक अपने को शिक्षक कहलाने से इंकार करने लगेगे क्योंकि अब वे शिक्षक नहीं कर्मचारी हैं, शिक्षा अब सेवा क्षेत्र है. हमें नव्य आर्थिक उदारीकरण और विश्व व्यापार संगठन की भाषा के प्रयोग से बचना चाहिए.
मोदीयुग का अकादमिक नरककुंड
यूजीसी ने हिंदी (210 पत्रिकाएं) की अकादमिक पत्रिकाओं (ISSN नम्बर वाली) की जो विशाल सूची जारी की है, वह इस बात का संकेत है कि हिंदी में अकादमिक करप्शन बढा है. अधिकांश पत्रिकाओं में पैसे लेकर शोधपत्र या शोधपत्र अंश छापे जा रहे हैं. इस कुटीर उद्योग को हिंदी के यशस्वी प्रोफेसर चला रहे हैं. संयोग की बात है यह सिलसिला मनमोहन युग में शुरू हुआ और मोदी युग में चरम पर पहुंच गया है. इन पत्रिकाओं में अधिकांश का कोई अकादमिक और साहित्यिक मूल्य नहीं है.
यूजीसी ने हिंदी (210 पत्रिकाएं) की अकादमिक पत्रिकाओं (ISSN नम्बर वाली) की जो विशाल सूची जारी की है, वह इस बात का संकेत है कि हिंदी में अकादमिक करप्शन बढा है. अधिकांश पत्रिकाओं में पैसे लेकर शोधपत्र या शोधपत्र अंश छापे जा रहे हैं. इस कुटीर उद्योग को हिंदी के यशस्वी प्रोफेसर चला रहे हैं. संयोग की बात है यह सिलसिला मनमोहन युग में शुरू हुआ और मोदी युग में चरम पर पहुंच गया है. इन पत्रिकाओं में अधिकांश का कोई अकादमिक और साहित्यिक मूल्य नहीं है.
यूजीसी अकादमिक शोध पत्रिकाओं की सूची में भारतीय भाषाओं की 460 पत्रिकाएं शामिल की गयी हैं, इनमें हिन्दी की 210, उर्दू 67, बंगाली 38, पाली 25, पंजाबी 14, मराठी 11, तमिल 10, गुजराती 5, उडिया 4, नेपाली 3, संथाली 1, कन्नड 1 पत्रिकाओं के नाम हैं. इनमें छपने वाले अधिकांश किस कोटि के होते हैं यह बताने की जरूरत नहीं है.
इससे सिर्फ इतना पता चलता है कि हिंदी-उर्दू में अकादमिक शोध निबंध प्रकाशन का धंधा अव्वल स्थान रखता है. इसकी गुणवत्ता के अनेक नमूने दिए जा सकते हैं, लेकिन प्रोफेसरों के प्रति सम्मानवश यहां नहीं दे रहा हूं. बस इतना कह सकता हूं. इनमें अकादमिक नरक फैला हुआ है और इसके लिए हम सब प्रोफेसर जिम्मेदार हैं.
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