Home गेस्ट ब्लॉग भारत में यथास्थितिवादी, दक्षिणपंथी और प्रतिक्रियावादी राजनीति का बीजारोपण

भारत में यथास्थितिवादी, दक्षिणपंथी और प्रतिक्रियावादी राजनीति का बीजारोपण

7 second read
0
0
187
‘मैं देश की गिरती अर्थव्यवस्था, बेरोज़गारी और महंगाई पर चर्चा नहीं करना चाहता हूं क्योंकि भिखारियों और स्वैच्छिक ग़ुलामों को इन मुद्दों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है.’

– सुब्रतो चटर्जी, दार्शनिक

भारत में यथास्थितिवादी, दक्षिणपंथी और प्रतिक्रियावादी राजनीति का बीजारोपण
भारत में यथास्थितिवादी, दक्षिणपंथी और प्रतिक्रियावादी राजनीति का बीजारोपण
राम अयोध्या सिंह

अबतक के अपने जीवन में मैंने यही अनुभव किया है कि शिक्षित वर्ग, अपवाद को छोड़कर, उच्च शिक्षा के माध्यम से शोषक वर्ग से जुड़ता चला जाता है. शोषक वर्ग के हितों को अपना हित समझने लगता है, और उसकी रक्षा में तन-मन-धन से जुट जाता है. पूंजीपति और कारपोरेट घराने खुद अपने हितों के रक्षार्थ कभी लड़ने नहीं आते, बल्कि उनकी जगह उनकी सरकार और ऊंचे पदों पर आसीन नौकरशाह, सरकारी कर्मचारी और बुद्धिजीवी, लेखक, पत्रकार और मध्यवर्ग के लोग स्वत: ही आ जाते हैं.

मैंने अपने अध्ययन और अध्यापन काल में इस बात को बड़ी गहराई के साथ अनुभव किया है कि भारत में आजादी के बाद से ही उच्च शिक्षा पूंजीवादी व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए प्रतिबद्ध और कटिबद्ध रहा. कालेजों और विश्वविद्यालयों में, अपवादस्वरूप कुछ शिक्षकों को छोड़कर, सारे शिक्षक और अधिकतर छात्र भी समाजवाद, साम्यवाद और मार्क्सवाद के विरोध में खड़े रहे.

विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों को जानबूझकर अमेरिकी विश्वविद्यालयों की तर्ज पर मार्क्सवाद विरोधी बनाया गया, और उन शिक्षकों और छात्रों को तरजीह दी जाने लगी, जो मार्क्सवाद के कट्टर विरोधी थे. अमेरिका ऐसे लोगों, छात्रों और शिक्षकों को अपने यहां उच्च शिक्षा या शोध के लिए प्राथमिकता दे रहा था, और उसके लिए पर्याप्त छात्रवृत्ति भी दे रहा था.

यही नहीं, भारत जैसे नवस्वतंत्र उपनिवेशों में पुस्तकालयों में मुफ्त में वैसी पुस्तकें उपलब्ध कराई जा रही थीं, जो साम्यवाद और मार्क्सवाद के विरोध में लिखी गई थीं. यही नहीं, छात्रों को परीक्षक मार्क्सवाद के समर्थन में लिखे गए उत्तर पर कम मार्क्स देते थे, और हेगल जैसे दार्शनिकों पर लिखे उत्तर पर अधिक नंबर देते थे.

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी साम्राज्यवाद, अमेरिकी शिक्षा जगत और सीआईए द्वारा यह एक सुनियोजित अंतरराष्ट्रीय बौद्धिक षड्यंत्र था, जिसके जाल में भारत सहित अधिकांश नवस्वतंत्र उपनिवेशों को फंसाया गया. स्थिति यह थी कि समाज विज्ञान और साहित्य की बात छोड़िए, विज्ञान के विषयों में भी स्थिति इस कदर दयनीय बना दी गई थी कि छात्र महंगी अमेरिकी पुस्तकें तो खरीदकर पढ़ते थे, पर मुफ्त या बहुत ही कम कीमत पर बिकने वाली सोवियत संघ की विज्ञान की पुस्तकें नहीं खरीदते थे.

एक बार मैंने राजेन्द्र कालेज, छपरा के गणित के एक सिनियर शिक्षक से पुछा कि ‘सर, क्या आपने कभी इस बात पर गौर किया है कि सामाजिक विज्ञान या साहित्य की पुस्तकों के माध्यम से तो सोवियत संघ समाजवाद या मार्क्सवाद का प्रचार कर सकता है, पर विज्ञान में तो वही बातें होंगी, जो अनुसंधान और आविष्कार के माध्यम से सत्यापित किया गया होगा. वहां पर तो अमेरिका और सोवियत संघ की किताबों में कोई अंतर नहीं होगा. फिर, क्या बात है कि छात्र और शिक्षक महंगी अमेरिकी पुस्तकें तो खरीदकर पढ़ते और पढ़ाते हैं, पर सोवियत संघ की सस्ती पुस्तकों से उन्हें नफ़रत है. क्या यह अमेरिकी साम्राज्यवाद का वैश्विक षड्यंत्र नहीं है ?’

कुछ देर तक वे कुछ सोचते रहे, फिर एकाएक भोजपुरी में बोल पड़े, ‘ए जी, एह बात पर त हम अइसे कबहियों सोंचलहि ना रहीं. राउर बात में दम त बा.’ तो यह स्थिति रही है देश के कालेजों और विश्वविद्यालयों में. आजादी के बाद से ही जानबूझकर भारतीय विश्वविद्यालयों में यथास्थितिवाद, दक्षिणपंथ और प्रतिक्रियावाद को छात्रों के मस्तिष्क में गहरे बैठाया गया, जो कालक्रम में दकियानूसी मानसिकता का वटवृक्ष बनकर पूरे देश के लोगों को अपने आगोश में ले लिया.

यही नहीं, समाजवाद, साम्यवाद और मार्क्सवाद से प्रभावित या उनके वैचारिक समर्थकों को जानबूझकर विश्वविद्यालयों में नियुक्त नहीं किया जाता रहा है. इसके लिए बहुतेरे मार्क्सवादी छात्रों ने अपने भविष्य की सुरक्षा के मद्देनजर जातिवाद का सहारा भी लिया.

सच तो यही है कि आजादी के बाद से नये भारत का कोई व्यापक और स्थायी सपना न तो भारत सरकार के पास थी, और न ही सत्ताधारी वर्ग के पास. सत्ताधारी पूंजीपति वर्ग अपने आर्थिक हितों को सुनिश्चित और संवर्धित करने के लिए भारतीय नवजवानों और खासकर विश्वविद्यालयों के छात्रों की मानसिकता और बौद्धिकता को स्थायी रूप से यथास्थितिवाद, दक्षिणपंथ और प्रतिक्रियावाद में उलझाए रखा, ताकि समाजवाद, साम्यवाद और समाजवादी विचारधारा को भारत में कुंठित किया जा सके.

यह सब कुछ अमेरिका के नव-साम्राज्यवादी नीतियों के तहत सीआईए द्वारा भारत जैसे नवस्वतंत्र देशों में व्यापक रूप से संभव बनाया जा रहा था. यह भी सच है कि आजादी के बाद से ही भारत की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक नीतियों को अमेरिकी विश्वविद्यालयों के दिशा-निर्देश में तैयार किया जाता और उसे अमलीजामा पहनाया जाता था.

भारतीय विश्वविद्यालयों में सामाजिक विज्ञान संकाय का पाठ्यक्रम अमेरिकी विश्वविद्यालयों की तर्ज पर बनाया जाता रहा है, और भारत को एक अतीतजीवी, पौराणिक, यथास्थितिवाद , दक्षिणपंथी, प्रतिक्रियावादी, धार्मिक कट्टरवाद, सांप्रदायिकता, सांस्कृतिक पतनशीलता, औद्योगिक विनाश, अमेरिका की आर्थिक गुलामी और मूर्खता की मखमली बिछावन पर हमेशा-हमेशा के पड़े रहने के लिए मजबूर किया गया.

आज तो नवजवानों को शिक्षा के विरूद्ध ही खड़ा कर दिया गया है. आज वे मूर्खता, अज्ञानता, जड़ता, दकियानूसी विचारों, संकीर्ण मानसिकता, सनातन और ब्राह्मणवादी विचारधारा, आत्मकेंद्रित, आत्ममुग्ध और आत्मतुष्ट बनकर विश्वगुरू बनने का सपना तो देख सकते हैं, धार्मिक कट्टरवाद और छद्म राष्ट्रवाद पर ताली बजा सकते हैं, अपनी बर्बादी का जश्न मना सकते हैं, अपनी मूर्खता पर गौरवान्वित हो सकते हैं, अतीत के काल्पनिक सुनहरे दिनों को याद कर मुस्कुरा तो सकते हैं, पर कभी भी एक आधुनिक, प्रगतिशील, विकसित, औद्योगिक, वैज्ञानिक, विवेकशील और समृद्ध बौद्धिक परंपरा के वाहक नहीं बन सकते.

भारत में आज हम जिस तरह से धार्मिक संगठनों, मंदिरों, आश्रमों और मठों के साधु-संतों, बाबाओं, पुजारियों, महंतों, धर्माचार्यों और शंकराचार्यों का राजनीतिकरण और राजनीतिक परिदृश्य पर जमावड़ा देख रहे हैं, उसकी बुनियाद भी अमेरिका द्वारा ही की गई थी, जब उसने भारत की आध्यात्मिकता और अध्यात्म की प्रशंसा करते हुए भारतीय साधु-संतों को भविष्य निर्माता बताया.

भारत में हिप्पी संस्कृति का प्रवेश और प्रचार भी अमेरिकी सीआईए एजेंटों द्वारा किया गया सबसे महत्वपूर्ण सांस्कृतिक हमला था, जिसे भारत सरकार ने न सिर्फ समर्थन दिया, बल्कि उन्हें विशेष तरजीह भी दी गई. भगवान रजनीश का जैसा सत्कार अमेरिका ने किया, वह आश्चर्यचकित करने वाला था. यह बात दीगर है कि सत्कार के बाद वैसा ही दुत्कार भी उन्हें मिला. लेकिन, राजनीति के साथ धर्म का तालमेल और धालमेल भी अमेरिकी नीति के अनुरूप ही था.

धर्म, आवारा पूंजी और प्रतिक्रियावादी राजनीति का संश्रय अमेरिका की सबसे बड़ी राजनीतिक और कूटनीतिक सफलता है, जिस पर हम लहालोट हो रहे हैं कि हमने मुसलमानों को सबक सिखा दिया और उनके ऐतिहासिक गुनाहों का बदला ले लिया. यह ‘अपना घर फुंक और तमाशा देख’ की राजनीति भी अमेरिकी सफलता का प्रमाण है. अभी आगे भी बहुत कुछ देखना बाकी है.

आज भारत में जिस यथास्थितिवादी, दक्षिणपंथी और प्रतिक्रियावादी सरकार को हम देश का शासन करते और आम जनता को गुलाम बनाये जाने की प्रक्रिया और षड्यंत्र को देख रहे हैं, वह सब कुछ अमेरिकी साम्राज्यवादी नीति का ही परिणाम है, जिसे अमेरिकी सरकार, अमेरिकी विश्वविद्यालयों और सीआईए ने बड़े जतन से संवारा, पाला-पोसा और आज हमारे ही कंधों पर गुलामी का जुआ लाद दिया है.

हम अमेरिकी समृद्धि और लोकतंत्र के सुनहरे सपने में भूले रहे, और कब हमारे कंधों पर गुलामी का जुआ रख दिया गया, हमें पता ही नहीं चला. हम हिन्दू धर्म और हिन्दू राष्ट्र के नारे से इतना आत्मविभोर हो गये कि हम यह देखना भी भूल गए कि हमारे आसपास क्या हो रहा है, और हम अपने भविष्य के साथ किस तरह खिलवाड़ कर रहे हैं ?

Read Also –

सदियों से सार्वजनिक और वैज्ञानिक शिक्षा से वंचित भारतीय दोगली मानसिकता वाला धरती के अजूबा प्राणी
शिक्षा के खिलाफ अनपढ़ों का मुहिम, अब करण सांगवान निकाले गए
अब हिंदी में मेडिकल की पढ़ाई : भाषा के नीम हकीम और मेडिकल शिक्षा
शिक्षा : अब आप समझे JNU को खत्म क्यों किया जा रहा है ?
संघियों का आत्मनिर्भर भारत यानी शिक्षामुक्त, रोजगारमुक्त, अस्पतालमुक्त भारत
हिंसक अर्थव्यवस्था, हिंसक राजनीति और हिंसक शिक्षा आपको एक जानवर में बदल रही है
दस्तावेज : अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षा का सर्वनाश कैसे किया ?

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

scan bar code to donate
scan bar code to donate

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

धार्मिक एकता, मानव एकता नहीं होती है, गजा़ में हमास पड़ा अलग-थलग

धर्म, पूंजीवाद का बाप है. निकम्मा पुत्र अपने कुकर्मों को छिपाने के लिए हमेशा अपने बाप की आ…