कनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़
‘हिन्दुत्व’ शब्द का उल्लेख सावरकर और उनके भी पहले कांग्रेस नेता लाला लाजपत राय ने किया था. हिन्दुत्व के नाम पर वोट मांगना कुछ मुकदमों में सुप्रीम कोर्ट ने जायज भी ठहराया लेकिन कुछ फैसलों में हिन्दुत्व और हिन्दुइज़्म को अलग करार दिया. रामकृष्ण मिशन ने भी एक मुकदमे में मांग की थी कि वह हिन्दू धर्म का अनुयायी नहीं है, सुप्रीम कोर्ट ने दलील नहीं मानी. कई आदिवासी समूह हिन्दू घोषित किए जाने पर कहते हैं कि वे हिन्दू धर्म के अनुयायी नहीं है. संविधान में हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, बौद्ध, पारसी, सिक्ख, जैन आदि धर्मों की परिभाषा नहीं दी गई है.
विनायक दामोदर सावरकर के उल्लेख के कारण ‘हिन्दुत्व’ पर बहुत बहस मुबाहिसा, विचार विमर्श और चिल्ल-पों का भी बाजार गर्म होता रहा है. उसके उलट गांधी की हिन्दू धर्म की प्रयोगधर्मी, सेक्युलर और समावेशी समझ के साथ कांग्रेस एवं अन्य लोग आज़ादी की लड़ाई के दौर में मध्यमार्गी विचारधारा की तरह विकसित होते रहे. लोकमान्य तिलक की अगुवाई में भी संतुलन रहा.
जवाहरलाल नेहरू के कारण कांग्रेस को वामपंथ की ओर झुकाने का सिलसिला शुरू हुआ. गांधी, नेहरू, पटेल और मौलाना आज़ाद के कारण अम्बेडकर को संविधान का खाका बनाने की केन्द्रीय भूमिका सौंपी गई. संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी होने के बावजूद हिन्दुत्व समर्थकों का आरोप रहा है कि हिन्दू कोड बिल के जरिए हिन्दुओं के निजी अधिकारों में दखल दिया गया है, जबकि मुसलमानों के निजी मजहबी कानून जस के तस बने हुए हैं.
संविधान सभा में कांग्रेस कुल या उसके समर्थन के कई सदस्यों ने मजहब आधारित अधिकारों में रियायत का विरोध किया. किसी सदस्य को तो अल्पसंख्यक शब्द तक से परहेज़ था. सी.पी. और बरार के पी. एस. देशमुख ने 27 अगस्त 1947 को संविधान सभा में कहा कि भारतीय इतिहास में अल्पसंख्यक से ज़्यादा राक्षसी कोई शब्द नहीं दिखा, जो देश की तरक्की में अड़ंगे अटकाएगा. आर. के. सिधवा ने अल्पसंख्यक शब्द को इतिहास की पोथी से ही मिटा देने की मांग की.
आशंका भी जाहिर की कि अल्पसंख्यकों को तालीमी संस्थाएं स्थापित करने के अधिकार देने से राष्ट्रीय एकता खंडित होगी और सांप्रदायिक तथा राष्ट्रविरोधी दकियानूसियां पनपेंगी. 26 मई 1949 को अल्पसंख्यकों की रिपोर्ट पर बहस करते कांग्रेस सदस्यों से नाराज एंग्लो-इण्डियन फ्रैंक एन्थोनी ने कटाक्ष किया, ‘बिना दुर्भावना के कह रहा हूं-बहुत से सदस्य फकत नियम भर से कांग्रेसी हैं, लेकिन दरअसल विचारों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू महासभा के सदस्य हैं. उनके भाषण अखबारों में पढ़ते हैं कि भारत की आज़ादी और संस्कृति का हिन्दू राज और हिन्दू संस्कृति के अलावा और मायने क्या हो सकता है ?
3 दिसम्बर तथा 6 दिसम्बर, 1948 को सबसे उत्तेजक जिरह करते कांग्रेसी लोकनाथ मिश्र ने कहा –
‘अनुच्छेद 13 (अब 19) स्वतंत्रता का घोषणापत्र है, लेकिन अनुच्छेद 19 (अब 25) हिन्दुओं को गुलाम बनाने का घोषणापत्र. यह बेहद अपमानजनक अनुच्छेद मसौदे का सबसे काला दाग है. धर्म प्रचार के कारण ही देश पाकिस्तान और भारत में बंट गया. हर व्यक्ति को धर्म प्रचार का मूल अधिकार देना ठीक नहीं है.
‘क्या यह सचमुच हमारा विश्वास है कि जीवन से धर्म को बिलकुल अलग रखा जा सकता है ? हज़रत मोहम्मद या ईसा और उनके विचारों और कथनों से हमारा झगड़ा नहीं है, लेकिन धर्म का नारा लगाना खतरनाक है. धर्मप्रचार शब्द के नतीजतन हिन्दू संस्कृति तथा हिन्दुओं की जीवन तथा आचार पद्धति के पूरे विनाश का ही मार्ग प्रशस्त होना है.
‘इस्लाम ने हिन्दू विचारधारा के खिलाफ दुश्मनी का ऐलान कर रखा है. ईसाइयों ने हिन्दुओं के सामाजिक जीवन में दबे पांव प्रवेश किया है. यह इस कारण कि हिन्दुओं ने अपनी हिफाजत के लिए दीवारें नहीं खड़ी की.
‘हिन्दुओं के उदार ख्यालों का दुरुपयोग करते राजनीति ने हिन्दू संस्कृति को ही कुचल दिया. धर्म की आड़ में गरीबी और अज्ञान धार्मिक उन्माद के छाते के नीचे पनाह ले रही हैं. दुनिया के किसी संविधान में धर्म प्रचार को मूल अधिकार नहीं कहा है. धार्मिक प्रचार से लोगों में दुश्मनी बढ़ेगी.’
28 अगस्त 1947 को अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर रिपोर्ट पेश करते सरदार पटेल ने कह दिया था कि –
मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों का संशोधन मुझे मालूम होता तो उनके किसी प्रकार के संरक्षण के लिये राजी नहीं होता. वे उन्हीं तरीकों को अपना रहे हैं जिन्हें उन्होंने पृथक निर्वाचक मण्डल जारी करते वक्त अपनाया था. मुसलमानों के दो दल रहे हैं-एक राष्ट्रीय अर्थात् कांग्रेसी मुसलमानों का दल और दूसरा मुस्लिम लीग का. उनमें इलाहाबाद में समझौता हो गया. हमने उस समझौते को नहीं माना. देश विभाजित हो गया. वही ढंग फिर अपनाया गया जो देश के विभाजन के लिये अपनाया गया था तो मैं कहूंगा जो लोग इस तरह की बातें चाहते हैं उनके लिये पाकिस्तान में जगह है, यहां नहीं.
कांग्रेसी गोविन्ददास ने राष्ट्रभाषा के सवाल पर जिरह करते कटाक्ष किया –
‘उर्दू साहित्य में हिमालय का नहीं, उसकी जगह कोहकाफ़ का वर्णन मिलेगा. देश की कोयल नहीं, सिर्फ बुलबुल का वर्णन मिलेगा. भीम और अर्जुन की जगह रुस्तम का वर्णन मिलेगा. मैं कहना चाहता हूं कि हम पर साम्प्रदायिकता की तोहमत लगाना बिल्कुल गलत है. मैं यह अवश्य कहूंगा कि हिन्दी के समर्थक साम्प्रदायिक नहीं. जो उर्दू का समर्थन करते हैं, वे साम्प्रदायिक हैं.’
तैश में आकर आर. वी. धुलेकर ने कह दिया कि –
कुछ मुसलमानों के अपवाद को छोड़कर ज़्यादातर ने आज़ादी के आन्दोलन में हिस्सा नहीं लिया था. उनमें से कई द्विराष्ट्रवाद के समर्थक भी थे. ‘पिछले अड़तीस वर्षों में, जब से मैं कांग्रेस में था, इसे मानने अथवा इस मैत्री की नीति, अथवा इस हिन्दुस्तानी के मामले का जो इतिहास रहा उसे कुछ याद करने की ज़रूरत है. मैं कहता हूं कि कुछ हजार मुसलमानों के अतिरिक्त, जो इस देश के सपूत हैं, और जो अब भी हमारे साथ हैं, अन्य सभी मुसलमान हमारे साथ नहीं रहे, वे इस देश को अपना देश नहीं समझते थे. इसी कारण वे पृथक होना चाहते थे. वे पृथक निर्वाचन क्षेत्र चाहते थे.
हिन्दू धर्म में पाखंड देखकर विवेकानन्द गरजे थे कि ’33 करोड़ देवी देवताओं के बदले दलितों और अकिंचनों को उनकी जगह स्थापित कर दिया जाए.’ संविधान सभा में नेहरूवादी तथा हिन्दू राष्ट्रवादी वैचारिकों के बीच लगातार विवाद होता रहा है. धार्मिक अल्पसंख्यकों को न तो विधायिका में आनुपातिक प्रतिनिधित्व मिला और न ही सरकारी नौकरियों और नियोजन में. अल्पसंख्यकों को दिए गए गारंटीशुदा अधिकार और समान नागरिक संहिता के संकेत मुसलमानों के खातों में रह गए.
कांग्रेस आज़ादी की लड़ाई में राजनीतिक पार्टी से ज़्यादा आंदोलन में रही है. मदन मोहन मालवीय जैसे कद्दावर नेता कांग्रेस और हिन्दू महासभा दोनों के अध्यक्ष लगभग एक समय ही रह पाए थे. नेहरूवादी दृष्टि का पूरा स्वीकार कांग्रेसियों ने अपने आचरण में नहीं किया, यही वजह है कांग्रेस आज अपने राजनीतिक आदर्शों को लेकर अतीत की अंतध्वनियों को सुनती भर रहती है.
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