1.
अभिधा
काव्य के तत्व मत तलाशिये
शिल्प के सौंदर्य में ज्यादा मत झांंकिये
कथ्य को कर दरकिनार
यह अभिधा में कहने का वक्त है
कहने दीजिए
लंगी मत मारिये
2.
तो मानूं
मैं हूं एक
रूप अनेक
मगर सब के सब ‘फेक’ !
मैं कौन ?
बुझो तो जानूं !
दाढ़ी में कितने तिनके ?
गिन लो तो मानूं !!
3.
बुखार को अब थकान !
चढ़ता है, उतरता है
फिर चाहता है फिर उतरता है
बगैर सीढ़ी के कमबख्त
कोई पांच -छह दिन से यही सिलसिला
‘यह मौसमी बीमारी है
दवा लेते रहिए
चार-चार घंटे बाद’
केमिस्ट की सलाह पर है अमल जारी
लगता है कि अब बुखार को होने लगी है थकान
बहुत किया परेशान
स्वाद ने जैसे कर ली थी कुट्टी
भूख ने भी खूब निभाई दुश्मनी
भारी बरसात के बाद धूप गुनगुनी
घुप्प अंधेरे के बाद जैसे मद्धिम सी रोशनी
4.
हकीकत
फिलवक्त वह
घने कोहरे के पीछे
कहीं खड़ा है
उसके पीछे जैसे
कोई बहेलिया पड़ा है
तूफान आने के बाद
शायद वह सामने आए
अपने चोटिल चेहरे के बाबत
कुछ कहे, बताए
पेश की गईं परिभाषाएं
खारिज करे
कुछ नई गढ़े
5
शव पर तांडव !
मीत सोचिये
जरा ठहर कर
क्या होगा तब
जब चल पड़ेगी
यह रीति !
6.
बात
एक जिंस में तब्दील होते हुए
एक खरीददार की हैसियत बनाते हुए
आखिर में हुए बाजार के हवाले
जैसे कि रही हो उसी की तलाश
मंजिल भी जैसे वही
बात गलत तो नहीं कही !
- शैलेन्द्र शांत
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