प्रभात कुमार, सामाजिक कार्यकर्त्ता
अब जब लोग मोदी की असलियत कुछ-कुछ समझने लगे हैं तो गडकरी को मोदी की नीतियों से विरोधाभासी बयान दिलवाकर आगे लाने की कोशिश हो रही है ताकि लोग विकल्प दूसरी पार्टियों में न ढूंढ कर, संघ के कारिंदों में ही उलझे रहें. इस दिशा में अगर मध्यमार्गी पार्टियों में भी इन्हें कोई ऐसा वफादार चेहरा मिले, जो फासीवाद की दलाली कर सके, तो इन्हें उसे आगे लाने में गुरेज नहीं होगा.
आज के राजनीतिक दलों की अगर बात की जाय तो भाजपा सबसे ज्यादा प्रयोगधर्मी है या यूं कहें कि सिर्फ भाजपा ही राजनीतिक प्रयोग करती है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. सच कहें तो भाजपा भी आरएसएस की प्रयोगशाला मात्र ही है. सारे राजनीतिक प्रयोग संघ के विचारक ही करते हैं. कट्टर हिंदुत्व के एजेंडे के साथ मध्यमार्गी दलों से चुनावी गठबंधन, अम्बेडकर, गांधी, पटेल का समयानुसार गुणगान (जिनका विरोध और अनादर संघ अपने स्थापना काल से ही करता रहा है), नरेंद्र मोदी (अतिपिछड़ा) को प्रधानमंत्री बनाना, रामनाथ कोविन्द (एस.सी.) को राष्ट्रपति बनाना, एससी/एसटी पर अध्यादेश लाना, सवर्ण आरक्षण लागु करना इत्यादि संघ के राजनीतिक प्रयोग के अनूठे उदहारण हैं.
इन सारे प्रयोगों का मकसद फासीवादी सत्ता की स्थापना ही है, जो इनके सरकारों के क्रियाकलापों से झलकता है. फासीवाद धार्मिक कट्टरता, कुंठित जातीयता, घोर पूंजीवाद (देश की अर्थव्यवस्था को चुने हुए पूंजीपतियों के हाथों में सौंपना), एकात्मक सत्ता (तानाशाही) और अंधराष्ट्रवाद का संगम है. राष्ट्रवाद को देशभक्ति समझने की भूल न करें जैसा कि संघी बताने की कोशिश कर रहे हैं. अपने देश से प्यार करना देशभक्ति है जबकि दूसरी राष्ट्रीयताओं से नफरत करना राष्ट्रवाद है.
2014 में एनडीए के बड़े बहुमत के साथ सत्ता में आने और भाजपा के अकेले ही बहुमत के आंकड़े को पार कर जाने से उत्साहित संघ ने मोदी की आक्रामकता के साथ फासीवाद को अनावृत करने का प्रयोग किया. कुछ प्रारंभिक सफलताओं के बाद यह प्रयोग विफल होता देख अब यह एक नए प्रयोग के मंथन में लगा है, सॉफ्ट फासिज्म या मोडरेट फासिज्म का !
इसके तहत ये एक ऐसे मुखौटे की तलाश में हैं जिसको आगे कर जनता के भरोसे को टूटने से रोका जा सके. फासीवाद एक ऐसी भूल भुलैया होती है जिसे समझना बहुत मुश्किल इतना मुश्किल होता है कि कई बार उसके विरोधी भी फासीवादी हरकत कर बैठते हैं, धर्म के नाम पर, जाति या राष्ट्रवाद के नाम पर. इसका मूल कारण इस पर चढ़े आवरण का लोकलुभावन होना है.
अब जब लोग मोदी की असलियत कुछ-कुछ समझने लगे हैं तो गडकरी को मोदी की नीतियों से विरोधाभासी बयान दिलवाकर आगे लाने की कोशिश हो रही है ताकि लोग विकल्प दूसरी पार्टियों में न ढूंढ कर, संघ के कारिंदों में ही उलझे रहें. इस दिशा में अगर मध्यमार्गी पार्टियों में भी इन्हें कोई ऐसा वफादार चेहरा मिले, जो फासीवाद की दलाली कर सके, तो इन्हें उसे आगे लाने में गुरेज नहीं होगा. इसमें एक नाम बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार का भी हैं, जिनके विकासवादी चेहरे के पीछे फासीवाद वर्षों से फल-फूल रहा है.
अतः आनेवाले चुनावों में अगर श्री नीतीश कुमार के नाम का भ्रम संभावित प्रधानमंत्री के रूप में फैलाया जाय, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि समाजवाद के आवरण के कारण इन्हें सीधे तौर पर कोई फासीवादी नहीं कह सकता. यही है सॉफ्ट/मोडरेट फासिज्म, जो फासीवाद विरोधी विचारधारा के लिए एक बड़ी चुनौती है कि वे भोली जनता को इस भ्रमजाल से बचाये.
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