उन्नाव के ईत्र
और लाल भारतीयों के लहू में
प्रतिस्पर्धा के शुभ मुहूर्त पर
वे मुझे अनायास ही ढूंढते हैं
भारत मंडपम की रोशनी के
सीमित वृत्त में
बिना इसे समझे या जाने कि मुझे
भाति में भारतम् के कुकुर नृत्य से
दूरदर्शन के दिनों से ही
असीम घृणा है.
मेरा घर तो उजड़ रहा था उस समय
नवजात शिशु को दूध पिलाती हुई
पर्दे की तलाश में किसी मां की
आंखों के सामने.
जिस समय
हज़ारों परिवार नंगे हो कर
एक दूसरे के सामने खड़े हो जाते हैं
पर्यायवाची शब्दों की तरह
ख़त्म हो जाता है निजता का बोध
और आदमी
उनके चमकदार वस्त्रों पर लगे हुए
दाग धब्बों सा उभरता है
जिन्हें मिटाने की कोशिश में
गढ़े जाते हैं नये शब्द
परिभाषाएं
और नये संगीत
नई लेज़र किरणों के साथ साथ.
पकवान मुझे भी पसंद हैं होली के
दीये मुझे भी अच्छे लगते हैं
अमावस की रात में
मुझे भी अच्छा लगता है
मेरे परिवार और मेरे इर्द गिर्द रहनेवाले
लोगों के होंठों पर हंसी
काल और नियति के डर के परे.
डार्क चोकोलेट की ईजाद करने वाली क़ौम का
इस्तक़बाल करता हूं मैं
कि उसने मेरी अंदर आती हुई सांसों की मिठास
और बाहर जाती हुई सांसों की तिक्तता को
एक ही सुर में पिरो कर
परिभाषित किया है जीवन को.
लेकिन इस जीवन दर्शन में
उस खटास का ज़िक्र नहीं है
जो एक अदद छत के अभाव में
एक अदद चूल्हे के अभाव में
वो तीन बच्चों की मां बचा नहीं पाई
दूध को फटने से.
तार तार ज़िंदगी
तार तार द्रौपदी
तार तार
तार तार
तार तार…
जहां पर आकर
मर जातीं हैं
दुनिया की सारी भाषाएं
जहां पर आकर
मर जातीं हैं
दुनिया की सारी सभ्यताएं
जहां पर आकर
मनुष्य बनने का ढोंग
दफ़्न हो जाता है
बाघ नाच के स्वांग में
बहुरूपिया वहीं पर हमलावर होते हैं
बायोस्कोप में आंखें गड़ाए
बच्चों के ज़ेहन में
उजाड़ में देखते हुए
ताजमहल.
आंसुओं से तर बतर
मेरी स्त्री के आंचल की आख़िरी गांठ से
जिस दिन तुमने निकाल लिया था
आख़िरी सिक्का
उसी दिन टूट गया था तिलिस्म मेरा
और बहुत दूर आ गया था मैं
भारत मंडपम से
जो मेरा देश
था ही नहीं कभी.
- सुब्रतो चटर्जी
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