Home गेस्ट ब्लॉग सिंहावलोकन-4 : पिछले 5 सालों से पर्यावरण के खिलाफ छिपा और खुला युद्ध

सिंहावलोकन-4 : पिछले 5 सालों से पर्यावरण के खिलाफ छिपा और खुला युद्ध

38 second read
0
0
603

सिंहावलोकन-4 : पिछले 5 सालों से पर्यावरण के खिलाफ छिपा और खुला युद्ध

भारत वायु प्रदूषण की होड़ में फिलहाल दुनिया में सबसे आगे है. दुनिया के 10 सबसे प्रदूषित शहरों में भारत के 7 शहर शामिल हैं.[1] दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानियों में नई दिल्ली पहला स्थान अख्तियार किये हुए है. इन शहरों की हवाओं में अस्वाभाविक रूप से पार्टिकुलर मैटर (जिसका व्यास 2.5 माइक्रोमीटर से भी कम होता है, जो आपके शरीर में नाक के द्वारा आसानी से प्रवेश कर जाते हैं) की बढ़ोतरी पायी गई है. 2017 में यह अनुमानित किया जा रहा है कि सिर्फ भारत में वायु प्रदूषण की वजह से लगभग 12 लाख लोग मारे जा चुके हैं. शहरी क्षेत्रों में वायु प्रदूषण की मुख्य वजह मोटर कार व कल-कारखानों से निकला धुंआ है. 2014 के भाजपा चुनावी घोषणा-पत्र में यह उल्लेखित है कि वह फॉसिल फ्युल (पेट्रोलियम, डीजल इत्यादि) के वनिस्पत क्लिनिर फ्युल (सीएनजी, एलपीजी) की तरफ अपने कदम बढ़ायेगी.

एनडीए के सत्ता में आने के पहले से ही ज्यादातर शहरी क्षेत्रों में सीएनजी से चालित गाड़ियों में बढ़ोतरी देखी गई है लेकिन प्रतिदिन उससे कहीं जयादा इजाफा व्यक्तिगत गाड़ियों में हुआ है. नतीजतन वाहनों से हो रहे उत्सर्जन में उल्लेखनीय कमी नहीं आई है. वाहनों के उत्सर्जन में कमी के लिए डीजल के उपयोग की जांच करने की आवश्यकता है. इसके लिए जिस संरचनात्मक परिवर्तनों की जरूरत है, वे अभी तक नहीं किए गए हैं. क्लाइमेट ट्रेन्डर्स ने एक नई रिपोर्ट निकाली है जिसका शीर्षक है, ‘भारत में हवा की गुणवत्ता पर राजनीतिक नेताओं की स्थिति और कार्रवाई’. दिल्ली आधारित इस संचार सम्बन्धी राजनीतिक पहल ने हाल ही में बताया कि भारत में स्थित दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में से 14 शहरों के सांसद वायु प्रदूषण के स्तर को रोकने के लिए कोई भी कदम उठाने में विफल रहे हैं.[2] इसके अलावा, सार्वजनिक स्तर पर भी इस मुद्दे पर चर्चा का अभाव है.

इस साल जनवरी में केन्द्रीय सरकार के मंत्री हर्षवर्धन ने ‘राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम’ की घोषणा की है. इसका उद्देश्य एक समयबद्ध लक्ष्य के साथ वायु गुणवत्ता प्रबंधन के लिए एक राष्ट्रीय ढांचा तैयार करना है. इसका लक्ष्य 2024 के भीतर हवा में पीएम 2.5 और पीएम 10 की सान्द्रता को 20-30 प्रतिशत तक कम करना है. दुर्भाग्य से इसे शहरी क्षेत्रों में समयबद्ध तरीके से लागू करना कानूनी रूप से आवश्यक नहीं है. इसे केवल एक ‘सहकारी और भागीदारी वाली पहल कहा गया है. साथ ही इसके लिए अलग से महज 300 करोड़ रूपये का मामूली-सा बजट निर्धारित किया गया है.




ग्रामीण क्षेत्रों में : घरों में ठोस ईंधन (जैसे कोयला, बायोमास) का उपयोग विशेष रूप से घर की महिलाओं के लिए स्वास्थ्य के लिए खतरा होने के अलावा उत्सर्जन का मुख्य स्त्रोत है. इस मुद्दे को संबोधित करने के लिए 2016 में ‘प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना’ की शुरूआत की गई थी. इस पीएमयूवाई के तहत सरकार गांवों के गरीब परिवारों के प्रत्येक को दिये जाने वाले हर मुफ्त एलपीजी कनेक्शन के लिए सरकारी स्वामित्व वाली तेल विनिर्माण कम्पनियों को 1600 रूपया की सब्सिडी प्रदान करती है.

लाभार्थी को अपना खाना पकाने का चूल्हा खुद ही खरीदना होगा और मासिक किस्तों में चूल्हे और पहले सिलेण्डर के लिए भुगतान करना होगा. इसके साथ ही यह भी स्पष्ट है कि बाद में होने वाले सभी रिफील का खर्च लाभार्थी को स्वयं ही वहन करना होगा. गरीब परिवारों के लिए गैस-सिलेण्डर की ऊंची कीमत के कारण रिफील के लिए जाना बहुत ही मुश्किल है.

पीएमयूवाई को उचित तरीके से लागू करने के लिए एलपीजी सिलेण्डर की कीमत में कमी करनी होगी. इस प्रकार यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पीएमयूवाई एक अदूरदर्शी पहल है. वर्तमान में इस योजना के सफलता की अतिरंजित कहानी का उपयोग चुनाव प्रचार में किया जा रहा है.

भारतीय आबादी का लगभग 43 प्रतिशत गंगा नदी प्रणाली पर है.[3] शहरी और औद्यौगिक प्रदूषण बाढ़ के बाद निकली भूमि का अतिक्रमण सतत बालू खनन, बांधों और डैमों के चलते नदियों के बहाव मार्ग में बदलाव और पनबिजली परियोजनाएं, वनों की कटाई से जैव विविधता का नुकसान, स्थानीय जल निकायों का नुकसान और प्रदूषण नियंत्रण तंत्र की विफलता, ये गंगा और उसकी सहायक नदियों पर होने वाले मुख्य व्याधियां है.

नरेन्द्र मोदी द्वारा मई, 2014 में शुरू किये गए ‘नमामि गंगे’ नामक परियोजना का उद्देश्य 2020 के भीतर गंगा नदी की सफाई करना है. केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय के तहत एक अलग मंत्रालय बनाया गया था, जिसमें नदी के कायाकल्प कार्यक्रम के लिए 20,000 करोड़ का बजट आबंटित लिखा गया था. सीजीए (2017) के साथ-साथ स्वतंत्र ऑडिट की रिपोर्टों ने वास्तव में दिखाया है कि वस्तुतः बहुत कम जमीनी काम (जैसा कि प्रस्तावित सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाने के काम आदि) किए गए हैं. इसका मुख्य कारण है आबंटित धन का ठीक-ठीक उपयोग नहीं किया जाना. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि यूपी, बिहार, पश्चिम बंगाल का पानी ‘स्नान’ करने के लिए भी पर्याप्त स्वच्छ नहीं है.




2012-13 की तुलना में जल में घुले ऑक्सीजन का स्तर नीचे चला गया है. टोटल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया की मौजूदगी उसके लिए अनुमोदित सीमा से कई गुना अधिक बढ़ गई है. एक नदी केवल तभी साफ हो सकती है, जब पूरे वर्ष पानी का पर्याप्त प्रवाह हो. दुर्भाग्य से, नदी के ऊपरी हिस्से में नहरों, बैराजों, पनबिजली सयंत्रों आदि के निमा्रण (जो बड़े कॉरपोरेटों की सेवा के लिए होते हैं) के कारण पूरे वर्ष नदी के प्रवाह में भारी गिरावट आई है. इस तरह के मानवीय हस्तक्षेप उन क्षेत्रों के पर्यावर्णीय संतुलन को भी नष्ट कर देते हैं. इन सभी तथ्यों से यह साफ पता चलता है कि गंगा को साफ करने का वादा केवल मोदी द्वारा चुनावी लाभ के लिए किया गया है क्योंकि गंगा हिन्दु धार्मिक प्रथाओं का पर्याय है. जी. डी. अग्रवाल, एक भारतीय पर्यावरण कार्यकर्त्ता ने इस मुद्दे पर सरकारी निष्क्रियता की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए 22 जून, 2018 को अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू की. भूख हड़ताल के 111वें दिन उनकी मृत्यु हो गई.

मार्च, 2016 में श्री श्री रविशंकर की ‘आर्ट ऑफ लिविंग फाउण्डेशन’ ने यमुना फ्लड प्लेन में 3 दिवसीय उत्सव आयोजित किया और इस प्रक्रिया में नदी के बहाव-क्षेत्र के एक बड़े हिस्से को नष्ट कर दिया. 2017 में इस इलाके की जांच कर नेशनल ग्री ट्रिब्यूनल ने आंकलन किया कि पर्यावरणीय संतुलन को फिर से बहाल करने में दशक लगेंगे. ‘आर्ट ऑफ लिविंग फाउण्डेशन’ को मुआवजे के रूप में एक जुर्माना लगाया गया, जिसको उन्होंने भुगतान करने से साफ इन्कार कर दिया.[4] वाराणसी (यूपी) में ‘कछुआ वन्य जीव अभ्यारण्य’ सरकारी योजनाओं के लिए एक बड़ी बाधा है, जो गंगा को एक अन्तर्देशीय जलमार्ग परियोजना के लिए नष्ट कर देगा, जो कि वाराणसी से होकर गुजरेगी और पश्चिम बंगाल के हल्दिया में समाप्त होगी. इस जलमार्ग के तैयार होने से नदी और उसके अगल-बगल के क्षेत्रों पर उसका जो प्रभाव पड़ेगा, वह इस ‘कुछआ वन्य जीव अभ्यारण्य’ के पारिस्थिक तंत्र (ईकोलॉजी) के लिए काफी नुकसानदेह होगा. स्वभाविक रूप से इस परियोजना के लिए हरि झंडी पाने में ढेरों दिक्कतें हैं. इस समस्या से निपटने के लिए सरकार इस जुगत में है कि इस कछुआ वन्य जीव अभ्यारण्य के ‘अभ्यारण्य’ दर्जे को ही खत्म कर दिया जाए.[5]




इसी वर्ष के फरवरी महीने में केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने अडानी समूह को छत्तीसगढ़ के हसदेव अरंद के जंगलों में 170,000 हेक्टेयर भूमि पर कोयले के खुले खनन के लिए हरी झंडी दी है.[6] यह केन्द्रीय भारत के सबसे सघन और निरंतर फैले वनों के इलाकों में से एक यह है. पर्यावरण सहमति कोयला भंडार के लूट को बढ़ावा देगी तथा साथ ही बड़े पैमाने पर जंगलों के विनाश को भी बढ़ाएगी. वन अधिकार कानून के अनुसार इस तरीके की पर्यावरणीय सहमति के लिए स्थानीय ग्राम सभाओं की सहमति आवश्यक है, पर इस घटनाक्रम में जालसाजी की गई है.

वहीं दूसरी तरफ 2014 के बाद वन-अधिकार कानून को लगातार कमजोर किया गया है. जैसे कि अब सहमति का अधिकार ग्राम-सभाओं के बजाए स्थानीय जिला-प्रशासन को सौंप दिया गया है. इसी समय उच्चतम न्यायालय ने एक आदेश जारी किया है, जिसके अनुसार 16 प्रदेशों में फैले 10,00,000 आदिवासियों और अन्य वनवासियों को जबरन वन क्षेत्रों से बाहर खदेड़ा जायेग. और यह सरकार की तरफ से वन अधिकार कानून का बचाव न कर पाने के बाद हुआ है.[7] याचिकाकर्त्ताओं के अनुसार वन-अधिकार कानून संविधान के विपरीत है और निर्वनीकरण का कारण बन रहा है. जबकि वर्तमान नर्वनीकरण बड़े पैमाने पर औ़द्यौगिक परियोजनाओं के कारण हो रहा है, ना कि उन आदिवासियों के कारण जो कि वनों के साथ साझा जीवन जीते हैं. विश्व के तमाम हिस्सों में अध्ययनों के अनुसार वनवासी वनों के सबसे बड़े रक्षक हैं. उच्चतम न्यायालय का वर्तमान फैसला यह साबित करता है कि असल में राज्य किन वर्गों का हित साधन कर रहा है.




जनवरी 2018 में महाराष्ट्र सरकार ने यवतमाल जिले की 467 हेक्टेयर वन-भूमि रिलांयस समूह को सौंप दी.[8] अवनी नामक शेरनी की हत्या और वन-भूमि सौंपने परर सहमति इस क्षेत्र पर अंबानी के अधिग्रहण को स्थापित करने की दिशा में उठाए गए कदम हैं. अक्टूबर 2018 में महाराष्ट्र सरकार द्वारा चकोढ़ में 88 हेक्टेयर वन-भूमि जो कि शेरों का बास स्थल भी था, को विस्फोटक निर्माणकर्त्ता कम्पनी सोलर इंडस्ट्रीज इंडिया लिमिटेड को सौंपने की सहमति दे दी गई. उड़ीसा (पूर्वी घाट) की नियमगिरि पहाड़ियों में बॉक्साइट का बड़ा भंडार संचित है. यहां पर वेदांता समूह ने लांजीगढ़ से एलुमिनियम संयंत्र की स्थापना की है. इसका नियमगिरि पहाड़ियों के पारिस्थितिक संतुलन पर विपरीत प्रभाव पड़ा है जो कि कोंध आदिवासियों के लिए पवित्र स्थल है.

इन संयंत्रों से उप-उत्पाद के रूप में निकलने वाला लाल कीचड़ मिट्टी, नदियों व अन्य स्त्रोतों से रिसकर नीचे जा रहा है और लाईलाज बीमारियों का कारण बन रहा है. कुछ गंभीर प्रतिरोध आन्दोलनों के काररण वेदांता समूह द्वारा नियमगिरि में दूसरा रिफाइनरी संयंत्र स्थापित करने के रास्ते में रूकावट आई है. केन्द्रीय सेनाएं जो कि वेदांता समूह के कठपुतली की तरह कार्य कर रही है, स्थानीय समूहों पर लगातार जुल्म ढ़ा रही है. राजस्थान में 31 छोटी पहाड़ियां, जो कि अरावली पहाड़ियों का हिस्सा थी, अवैध खनन के कारण घिसकर पूरी तरह खत्म हो चुकी है.[9]

इन पहाड़ियों के विनाश का सम्बन्ध दिल्ली के वायु-प्रदूषण के बढ़ते स्तर से भी जोड़ा जा रहा है. यह मुद्दा उच्चतम न्यायालय द्वारा राजस्थान सरकार को दिए गए उस फैसले के बाद सामने आया, जिसमें राजस्थान सरकार को इस प्रकार के अवैध खनन को बंद करने का आदेश दिया गया था.




नरेन्द्र मोदी द्वारा शुरू किए गए स्वच्छ भारत अभियान ने पर्यावरण की सुरक्षा में बहुत ही छोटी भूमिका अदा की है. इस पहल ने कचरा एकत्रण को तो गति प्रदान की, पर इसमें कचरे के निस्तारण के लिए कोई उचित व्यवस्था नहीं की गई है. शहरों में कूड़े को खाली भूमि डाला जा रहा है जिसका जल तथा मृदा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है. हाल ही में एक आरटीआई आवेदन ने यह भी खुलासा किया है कि 2014 से 17 के बीच प्रिंट-मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा स्वच्छ भारत अभियान के प्रचार के लिए 530 करोड़ रूपये खर्च किए गए हैं.[10] यह अभियान तब भी असफल रहा है जब शहरों में दूषित जल के व्यवस्थित उपचार की बात आती है.

बीते दिनों के साथ भारत पर्यावरणीय आपदाओं के लिए ज्यादा सुभेद्य होता जा रहा है, विशेषकरर बाढ़ों के लिए. इन बाढ़ों का कारण बड़े पैमाने पर हुआ निर्वनीकरण मिट्टी का कटाव, अंधाधुंध निर्माण तथा मुसलाधार बारिश का होना है.

जनता के सामने दिए गए वक्तव्यों में प्रधानमंत्री लगातार जलवायु परिवर्तन को नकारते रहे हैं तथा उनका कहना रहा है कि लोगों का नजरिया बदल रहा है न कि जलवायु बदली है. अन्तर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन के प्रथम सम्मेलन के मौके पर उन्होंने और भी आगे जाते हुए कहा कि वेदों में जलवायु परिवर्तन से निपटने के सारे उपाय मौजूद हैं. जनता की नजरों से बचकरर बड़े औद्योगिक घराने तथा भारतीय राज्य ने प्राकृतिक संसाधनों की लूट का एक गुप्त समझौता कर रखा है. शोषित जन (जल, जंगल, जमीन पर निर्भर), जो कि भारत के विभिन्न हिस्सों से सम्बन्धित हैं, ने अपने-अपने क्षेत्रों में बसने के मूलभूत अधिकारों तथा जीविका के छीन जाने का लगातार प्रतिरोध किया है. वर्तमान सरकार के द्वारा जो दिखावटी योजनाएं शुरू की गई हैं (जैसे पीएमयुवाई, नमामि-गंगे) उन्हें इस तरह प्रस्तुत किया गया है, जैसे वे पर्यावरण की रक्षक है. जबकि वास्तवकिता यह है कि सरकार अपने पूरे संभव फासीवादी तरीकों के साथ कॉरपोरेट मालिकों को संतुष्ट करने को सचमुच ही प्रतिबद्ध है.




Read Also –

भारतीय कृषि को रसातल में ले जाती मोदी सरकार
मोदी के झूठे वायदे आखिर कब तक ?
उड़ीसा : कॉरपोरेट लुट के लिए राज्य और वेदांता द्वारा नियामगीरी के आदिवासियों की हत्याएं और प्रताड़ना; जांच दल की रिपोर्ट
इस गणतंत्र में तो सिर्फ तंत्र बचा है गण को तो साफ़ कर दिया है तंत्र ने
जंगल के दावेदारों पर सुप्रीम कोर्ट का आगा-पीछा
वन अधिकार कानून, 2006 पर हमला




प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर पर फॉलो करे…]




ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

नारेबाज भाजपा के नारे, केवल समस्याओं से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए है !

भाजपा के 2 सबसे बड़े नारे हैं – एक, बटेंगे तो कटेंगे. दूसरा, खुद प्रधानमंत्री का दिय…