इकहरे शब्द
नगाड़ा पीट रहे हैं
ढोलकिया की पुकार सुनकर
माँदर की थाप पर
नाच उठता है
झरते हुए अमलतास का जंगल
कुछ नया नहीं है इस बसंत में
पेट और पीठ का अंतर
लगातार कम हो रहा है
वह दिन दूर नहीं जब
आदमी पेट की प्रताड़ना से
मुक्ति पा लेगा
और बच जाएगा बस पीठ
नगाड़े की इकहरी काठी
चाबुक सा चलेगी पीठ पर उसके
और हरक्यूलिस की तरह
आदमी उठा लेगा
अपने कंधों पर पृथ्वी का बोझ
और चल पड़ेगा
झरे हुए अमलतासों के
दूधिया रास्ते पर
फिर सोचेगी पनिहारिन
ख़ाली पड़े गांव में
कोई नहीं बचा पानी का तलबगार
इसी तरह मर जाएगी एक दिन
दुनिया की सारी कविताएँ
सारी भाषाएं
अब भी समय है
बचा लो शब्दों को
इकहरा बनने से.
- सुब्रतो चटर्जी
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