हिमांशु कुमार, प्रसिद्ध गांधीवादी
सिलिकोसिस : पत्थर, मिट्टी-रेत आदि से जुड़े कार्यों में लगे श्रमिकों के फेफड़ों में सांस के साथ धूल, मिट्टी जमने लगती है. इससे धीरे-धीरे सिलिकोसिस बीमारी होने लगती है, जो लाइलाज है.
सिलिकोसिस के शिकार मरीजों में से महज 24 फीसदी को ही आर्थिक मदद मिल पार्ई. प्रदेश में महज पांच वर्षों में 18 हजार 133 लोग इस बीमारी की चपेट में आ गए और इस अवधि में 1857 मजदूर मौत की आगोश में चले गए. सरकारी आंकड़ों की मानेंं तो वर्ष 2013 से 2019 के बीच सिलिकोसिस से पीडि़त 18133 मजदूर सामने आए, जिनमें 4341 को आर्थिक मदद मिली. यानी 23.93 फीसदी मजदूर ही मदद पा सके.
अगर आप गूगल पर ‘सिलिकोसिस’ शब्द खोजेंगे तो आपको यह जवाब मिलेगा – ‘सिलिकायुक्त धूल में लगातार सांस लेने से फेफड़ों में होने वाली बीमारी को सिलिकोसिस कहा जाता है. इसमें मरीज के फेफड़े खराब हो जाते हैं. पीड़ित व्यक्ति का सांस फूलने लगता है और सही समय पर इलाज न मिलने पर मरीज की मौत हो जाती है.’ लेकिन असलियत यह है कि सिलिकोसिस लाइलाज बीमारी है. एक बार सिलिकोसिस होने के बाद मरीज़ के बचने की उम्मीद नहीं रहती.
आपको यह जानकार दुःख होगा लेकिन सच यह है कि भारत में इस बीमारी से सबसे ज्यादा मौतें उन लोगों की होती हैं जो मंदिर बनाते हैं या मन्दिरों के लिए मूर्तियां बनाते हैं. सारी दुनिया में स्वामी नारायण सम्प्रदाय के अक्षरधाम मन्दिर अपनी खूबसूरती के लिए जाने जाते हैं लेकिन यह हममें से कोई नहीं जानता कि इन मन्दिरों को बनाने वाले लोग जवानी में मौत के मुंह में चले जाते हैं.
इनकी जान बचाई जा सकती है लेकिन जिन उपायों से जान बच सकती है अगर वह अपनायी जायेंगे तो मूर्ति और मन्दिर बनाने की कीमत कुछ और बढ़ जायेगी. इसलिए मजदूरों की जान की सुरक्षा के उपाय न अपना कर मूर्ति और मंदिर के लिए पत्थर कटाई का काम चल रहा है.
राजस्थान के कस्बे करौली का पूरा पत्थर अयोध्या में राम मन्दिर बनाने के लिए सौदा कर लिया गया है, ऐसा वहां के स्थानीय निवासी बताते हैं. मैं इस तरह मारे गए कुछ मजदूरों की विधवाओं से मिला और उनसे बात की. इसके अलावा हम सिलिकोसिस से ग्रस्त हो चुके मजदूरों से भी मिले, साथ ही हमने इस मुद्दे पर काम करने वाली संस्था आजीविका ब्यूरो के कार्यकर्ता राजेन्द्र से भी जानकारी ली.
भारत में सिलिकोसिस बीमारी के केंद्र वह हैं जहां खनन या पत्थर कटाई का काम होता है. इनमें राजस्थान का पिण्डवाडा एक ऐसी जगह है जहां सैंकड़ों पत्थर कटाई के कारखाने व अन्य छोटी इकाइयां लगी हुई हैं. इनमें से पांच कारखाने तो स्वामी नारायण मन्दिर के ही हैं. इसके अलावा जैन मंदिरों के लिए भी बड़ी मात्रा में पत्थर तराशने का काम होता है. न्यू जर्सी अमेरिका में भारतीयों द्वारा जिस अक्षरधाम मन्दिर को बनाने का काम चल रहा है, उसके लिए भी पत्थर पिण्डवाडा से जा रहा है.
आपको याद होगा न्यू जर्सी का अक्षरधाम मन्दिर तब विवादों में आया था जब एक युवा महिला पत्रकार ने मन्दिर में काम करने के लिए भारत से ले जाए गये मजदूरों के भयानक अमानवीय शोषण की हालत का भंडाफोड़ किया था. पिण्डवाडा में पत्थर निकालने से लेकर तराशने के काम में व्यापारी बड़ा मुनाफा कमाते हैं.
एक घनफुट पत्थर निकलने के बाद व्यापारी उसे तराशने के पचास रुपये देता है और वही पत्थर पांच हजार घनफुट के दाम पर बेचता है. अगर यह व्यपारी पत्थर काटते समय पानी इस्तेमाल करने वाली मशीन लगा देते हैं तो रेत वहीं की वहीं दब सकती है और मजदूर की जान बच सकती है. लेकिन उससे पत्थर कटाई की स्पीड कम हो जाती है. स्पीड कम होने से मुनाफा कम हो सकता है. परन्तु व्यापारी या मन्दिर वाले अपना मुनाफा कम नहीं करना चाहते इसलिए मजदूर मरते जा रहे हैं.
हालांकि इसे लागू करवाना सरकार की जिम्मेदारी है. लेकिन कोई भी सरकार इसे लागू करवाने की कार्यवाही नहीं करता. सामाजिक संस्थाओं की कोशिशें सरकारी अनिच्छा के सामने बेकाम हो रही हैं. राजस्थान के पिण्डवाड़ा में मजदूरों की औसत आयु 34 वर्ष है. यानी पत्थर कटाई में काम करने वाला मजदूर सिर्फ चौंतीस साल की उम्र में मर जाता है और अपने पीछे वह छोटे-छोटे बच्चे और युवा विधवा पत्नी छोड़ जाता है.
राजस्थान सरकार ने सिलिकोसिस पॉलिसी बनाई ज़रूर है लेकिन उसका क्रियान्वन रोकथाम और सुरक्षा उपाय अपनाने में शून्य प्रतिशत है. हमने मन्दिर निर्माण के काम में तथा पत्थर कटाई करने वाले मारे गये मजूरों की विधवाओं से बात की.
- शिल्पा की उम्र अभी मात्र 22 साल है. उनके पति कालीराम मन्दिर के लिए पत्थर काटते थे. शादी के तीन साल के भीतर ही 28 साल की उम्र में कालीराम की मौत हो गई. शिल्पा का एक बच्चा है. शिल्पा को सरकार से मात्र तीन लाख रुपये मुआवज़ मिला है, जो कतई नाकाफी है.
- बेबी की आयु 35 साल है. उनके पति रमेश जी की मौत पिछले साल सिलिकोसिस से हुई है. वे भी मन्दिर के लिए पत्थर काटते थे. बेबी को भी महज तीन लाख मुआवजा मिला है.
- लीला देवी 28 साल की हैं. उनके पति बधा राम की सिलिकोसिस से मौत दो साल पहले हुई है. इन्हें मुआवजे के नाम पर महज एक लाख रुपया मिला है.
पत्थर कटाई में लगे मजदूर को एक बार सिलिकोसिस होने के बाद उसे काम से निकाल दिया जाता है. वह कैसे जियेगा, इसके बारे में कोई नहीं सोचता. ना मन्दिर बनाने वाले, ना मालिक, ना सरकार.
झाला राम बताते हैं मुझे सिलिकोसिस हुआ तो काम से निकाल दिया गया. अब मैं इधर-उधर दिहाड़ी पर काम करता हूं लेकिन खांसी बहुत होती है इसलिए मुझसे अब काम नहीं हो पाता है. सुकला राम बताते हैं –
‘मैं स्वामी नारायण संस्था की पत्थर फैक्ट्री डिवाईन स्टोन में रेगुलर कर्मचारी था. 2020 में मुझे जबरन दस्तखत करने के लिए कहा गया, जिसमें लिखा गया था कि मैं अपनी मर्जी से रिटायर होना चाहता हूं.
फैक्ट्री मालिक चाहते हैं कि हमारा प्रोविडेंट फंड वगैरह देने की ज़िम्मेदारी से बच जाएं और हमसे ठेके में काम करवाते रहें. हमारा मामला अभी भी कोर्ट में चल रहा है.’
कालू राम बताते हैं – ‘मुझे सिलिकोसिस हुआ तो स्वामी नारायण की फैक्ट्री डिवाईन स्टोन से निकाल दिया गया. मेरे दो बच्चे बीमार होकर मर गये. स्वामी नारायण वाले सन्यासी जब यहां आते हैं तो मजदूरों को बैठाकर उनसे कहते हैं कि ‘तुम सब धर्म की सेवा कर रहे हो. आप सब स्वर्ग में जाओगे.’ वे हमारे सर पर फूल रखते हैं. हमें नहीं पता मरने के बाद हमारा क्या होगा लेकिन जीते जी तो हम नर्क में रहने के लिए मजबूर हैं.’
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]