भारत सरकार समूची दुनिया के क्रूर साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ नापाक गठजोड़ कायम कर देश की जनता पर खुला हमला बोल दिया है. यह हमला देश की जनता को केवल आर्थिक तौर पर ही नहीं, अपितु सेना-पुलिस, न्यायपालिका समेत आपराधिक गुंडों की मदद से शारीरिक तौर पर भी खत्म कर रही है. बड़ी तादाद में लोगों को जेलों में ठूंसा जा रहा है तो वहीं जेलों की संख्या को बढ़ाने के लिए नये जेलों का निर्माण किया जा रहा है. यह स्थिति केवल भारत में ही नहीं है, दुनिया भर में जेलों का निर्माण तेज गति से किया जा रहा है, जिसमें दुनिया की जनता का सबसे खतरनाक लुटेरा अमेरिका भी शामिल है.
अमेरिका में इन दिनों 300 फुट ऊंची (दुनिया की सबसे ऊंची) जेल बनाई जा रही है, जिसका अमेरिकी लोग सड़कों पर उतर कर विरोध कर रहे हैं. नारा लगा रहे हैं- ‘No New Jail.’ वहीं भारत में भी विरोध के स्वर उठने लगे हैं. अभी कुछ दिन पहले ही भारत की राष्ट्रपति ‘द्रौपदी मुर्मू’ ने ‘इंसानियत को ऊंचा कीजिये, जेलों को नहीं.’ कहते हुए भारत में जेल और नई जेलों के निर्माण पर गंभीर सवाल खड़ा करते हुए कहा न्यायिक प्रणाली में सुधार की बात की. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के जजों और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सम्बोधित करते हुए साफ कहा कि –
‘उन्हें (आदिवासी, दलित, पिछड़ों, गरीबों को) न तो अपने अधिकार पता हैं न ही संविधान की प्रस्तावना का, न ही मौलिक अधिकार या संवैधानिक कर्तव्य का. उनके बारे में कोई नहीं सोच रहा. उनके घर वालों की उनको छुड़ाने की हिम्मत नहीं रहती क्योंकि मुकदमा लड़ने में ही उनके घर के बर्तन तक बिक जाते हैं. दूसरों की जिंदगी खत्म करने वाले हत्यारे तो बाहर घूमते हैं, लेकिन आम आदमी मामूली जुर्म में वर्षों जेल में पड़े रहते हैं. और ज्यादा जेल बनाने की बात होती है, ये कैसा विकास है. जेल तो खत्म होनी चाहिए.’
दुनिया भर में जेल और जेलों में बंद बंदियों के सवाल को सबसे मजबूती के साथ जिसने उठाया है उसमें अमर शहीद का. भगत सिंह और उनके साथियों हैं. उसके बाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने इस सवाल को न केवल मजबूती से उठाया बल्कि इस दिशा में एक सार्थक पहलकदमी भी लिया है. इसी परिप्रेक्ष्य में हम यहां भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का एक पर्चा प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसमें उन्होंंने एक सटीक दिशानिर्देश दिया है, जिस पर भारत सरकार को प्राथमिकता के आधार पर सोचना चाहिए, ताकि भारत को जेलों का देश बनने से बचा कर वास्तविक विकास की ओर ले जा सके. भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) द्वारा 19 अगस्त, 2022 का प्रस्तुत पर्चा इस प्रकार है –
शहीद कामरेड जतीन दास का नाम ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के खिलाफ असीम धैर्य, साहस और कुर्बानी के जज्बे से संघर्ष करने वालों में पहली पंक्तियों में आता है. उन्होंने का. भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू के साथ जेल में अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर 63 दिनों के बाद जान गंवाई.
18 मार्च को अंतराष्ट्रीय स्तर पर राजनैतिक बंदी दिवस मनाया जाता है, उसी परंपरा को बरकरार रखते हुए, भारत के क्रांतिकारी आंदोलन में अपने लक्ष्य को हासिल करने के संघर्ष में जेल में शहीद हुए सभी क्रांतिकारी वीर योद्धाओं को हमारी पार्टी, मध्य रीजनल ब्यूरो सीआरबी पहले क्रांतिकारी जोहार अर्पित करती है. उनके अरमानों को साकार करने के लिए हम आखिर तक लड़ने की शपथ लेते हैं.
देश में चल रहे फासीवादी शासन में नागरिक स्वतन्त्रता का हनन हो रहा है. ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के विरोध में भारत की जनता के असीम बलिदानों के संघर्षों से ही सत्ता (1947) में परिवर्तन आया, जिससे 1950 में भारत का संविधान अस्तित्व में आया है.
इस संविधान में हमारे लिए कुछ मूलभूत अधिकारों का आश्वासन दिया गया है लेकिन धीरे धीरे वह सब कमजोर होते हुए, पिछले 8 सालों से हिन्दुत्ववादी शक्तियों का फासीवादी शासन में भारत के नागरिकों को अभिव्यक्ति की न्यूनतम आजादी या विरोध करने के हक को छीना जा रहा है. मोदी के शासन में दबे-कुचले और गरीब जनता के पक्ष में काम करना और सवाल करने का ही अपराधीकरण किया जा रहा है. जुमले के इस शासन में न्याय के लिए अदालतों का दरवाजा खटखटाना अपराध बन रहा है.
दूसरी तरफ, जनता को अपनी रोजमर्रा की जीवन मरण की समस्याओं से भटकाने के लिए शासक, आजादी के 75 वर्ष का आजादी अमृत महोत्सव मना रहे हैं. वास्तव में यह समारोह, देश में तानाशाही शासन एवं कट्टर हिन्दुत्ववादी शक्तियों की हिंसा और उन्माद को छिपाने की कोशिश के अलावा कुछ नहीं है. हमारी पार्टी यह स्पष्ट कर रही है कि यह किसी भी सूरत में जनता के सच्ची आजादी का प्रतीक नहीं है इसीलिए हमारी पार्टी की केन्द्रीय कमेटी ने इसके बहिष्कार का आव्हान किया.
शहीद यतीन्द्रनाथ दास (जन्म 27 अक्तूबर 1904 – शहादत 13 सितंबर 1929 ) का 93वां शहादत दिवस 13 सितम्बर को है. आज का यह दिन हम सब के लिए भारत के राजनैतिक बंदियों की रिहाई के लिए शपथ लेने का दिन है. अंग्रेजों ने क्रांतिकारी जतीन दास को 14 जून 1929 को उनके साथियों के साथ गिरफ्तार किया था. 13 जुलाई 1931 के दिन का. भगतसिंह के नेतृत्व में इन सब साथियों ने राजनैतिक बंदियों के दर्जे की मांग को लेकर अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू की.
ब्रिटिश शासकों ने उसे कुचलने की कोशिश की. अन्तत: 63 दिनों की भूख हड़ताल के बाद का. जतीन दास शहीद हुए. बाद में, जेल प्रशासन को उनकी मांगें कुछ हद तक माननी पड़ी. हमारे देश में सत्ता परिवर्तन को आज साढ़े सात दशक होने के बावजूद जेल की स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है. आज भी ब्रिटिश लोगों द्वारा तैयार किए गए मैनुअल्स के तहत बन्दियों की जिन्दगी बंधी हुई है. सही में देखा जाए तो आज पूरा देश ही एक जेल के जैसे बन गया है, जिसमें हम जघन्य हालात में जी रहे हैं.
नेशनल क्राईम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 2020 आखिरी तक हमारे देश के 1339 जेलों में 4 लाख 88 हजार कैदियों दूंसा गया है, जबकि वास्तव में इनकी क्षमता 4 लाख 14 हजार 33 है. इनमें 20 हजार से ज्यादा महिलाएं हैं, 1427 बच्चे हैं. इनमें विचाराधीन कैदियों की संख्या 3 लाख 78 हजार 848 है (यानि 76.1 प्रतिशत) है.
वास्तव में, सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यक्त किया था कि इन तमाम लोगों को गिरफ्तार करने की जरूरत नहीं थी. जेल में बंद कैदियों को न्यूनतम सुविधाएं भी नहीं मिल रही हैं. कई लोग अलग-अलग बिमारियों से जान गंवा रहे हैं. ठीक इलाज नहीं मिलने के कारण कई लोग मौत के शिकार हुए हैं. विगत 20 सालों में देश में 1888 हिरासत मौतें हुई है. हिरासत मौत के लिए 26 साधारण कांस्टेबलों को सजा हुई है लेकिन उनको आदेश देकर ऐसे गैर-कानूनी काम करवाने वाले नेता अधिकारियों पर कोई आंच नहीं आई.
वास्तव में, कैदी हो या विचाराधीन कैदी हो, कुछ सीमाओं के साथ, हमारे संविधान के समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14), स्वतन्त्रता का अधिकार, (अनुच्छेद 19), जीने का अधिकार (अनुच्छेद 21) सब पर लागू होते हैं. बाकी कानूनों द्वारा उनके हक, उनकी जिंदगी, उनकी स्वतन्त्रता नियन्त्रित होते हैं, लेकिन कुछ सीमाओं के साथ ये मूलभूत अधिकार उन पर भी लागू होते हैं.
लेकिन आज की तानाशाही शासन में ये कुछ भी नहीं चल रहा है. 9 अप्रैल 2022 को हमारी पार्टी की प्रिय नेता का. नर्मदा की मुम्बई जेल के एक होसपाईस सेन्टर में सही इलाज के अभाव में मृत्यु हुई. पिछले साल वयोवृद्ध और बीमारी से ग्रस्त फादर स्टेन स्वामी को बिना इलाज के एक संस्थागत हत्या का शिकार बनाया गया. जनता के लिए दिन रात काम करने वालों को मारने के लिए यह एक कानूनी रास्ता बना लिया है.
आज यह समय की पुकार है कि पूरी दुनियां इन हत्याओं की भर्त्सना करें. हमारे देश में विचाराधीन कैदियों को जमानत मिलने के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं. ऐसी स्थितियों में विरोध करने वालों के खिलाफ निरंकश कानून का उपयोग उनके लिए जमानत के अवसर भी बंद करने के लिए किया जा रहा है. इसके अलावा राज्यों द्वारा बनाए गए कर कानून अलग हैं.
इसका आकलन इसी बात से किया जा सकता है कि भीमा कोरेगांव केस में गलत आरोपों मे फंसाई गई मजदूर संगठन की नेता और एक प्रमुख वकील सुधा भारद्वाज को 7 बार जमानत के लिए कोशिश करने के बाद जमानत मिली. यह उदाहरण उजागर करता है कि न्याय प्रणाली के साथ खिलवाड़ कर किस प्रकार उसे एक मजाक में बदल दिया गया है. यहां हमें अलग से यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि न्याय की कुर्सियों में पर अभियोजन के आरोपों पर मुंडी हिलाने वाली न्याय की कैसी मूर्तियां बैठी हैं.
हमारे देश में 2010 से लेकर क्रूर कानून यूएपीए (उपा) के तहत 11,1816 केस दर्ज हुए. इनमें 65 प्रतिशत मोदी के शासन में हुए हैं. सत्तापक्ष के नेतागण की आलोचना करने की वजह से 405 लोगों (नागरिक, विपक्षी नेता, छात्र, पत्रकार, कार्टूनिस्ट, लेखक और बुद्धिजीवी) पर इस पाशविक कानून का प्रयोग किया. 2018 से 2020 के बीच समूचे देश भर में 4690 लोगों को उपा के तहत पुलिस ने गिरफतार किया.
मोदी के शासन में कुल मिलाकर 10 हजार 552 लोगों पर उपा लगाया गया, उनमें से 253 लोगों को आजीवन कारावास हुई. इन 253 लोगों को भी साम, दाम, दंड, भेद जैसे हर हथकंडा का इस्तेमाल करके ही सजा दिलाई गई है. जुमला के शासन में उपा केसों में मार्च 2019 में ही 33 प्रतिशत बढ़ोतरी होने से आप समझ सकते हैं कि उसके राज में कैसी स्थितियां मौजूद हैं. वास्तव में, 45 साल पहले 1977 में जस्टिस वी. आर. कृष्णा अय्यर का कथन था कि जमानत देना एक नियम है, जेल एक अपवाद है लेकिन जमीन पर इसका पालन कहां दिखाई देता है !
मोदी का शासन एक ‘अच्छा’ काम कर रहा है. पहले बुद्धिजीवी, मानवाधिकार कार्यकर्ता और संविधानवादी लोग जैसे कई लोग को भारत की राजसत्ता पर, संविधान पर और देश के जनवादी आवरण पर अपार विश्वास रहता था. मोदी एंड कंपनी अपनी फासीवादी कार्यवाहियों से इन तमाम आवरणों को चकनाचूर कर रहा है. इतना ही नहीं, जनता के सभी वर्गों, समूहों पर आर्थिक और दमनकारी हमलों द्वारा मोदी पीड़ित वंचित समूहों की एकता बनाने के प्रक्रिया तेज कर रहा है ! शाबास मोदी !
विचाराधीन लोगों में जिन लोगों को जमानत मिली भी है, उन लोगों को जेल के बाहर आते ही नए-नए केस थोपते हुए बार-बार गिरफ्तार किया जा रहा है. यदि किसी को जमानत मिल भी जाती है तो उनके ऊपर तमाम शर्तें थोप कर उनकी जिन्दगी के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. कामरेड्स एंजेला, वरवरा राव, सुधा भारद्वाज को स्वतन्त्र नहीं करते हुए इन शर्तों में कैद किया गया है. इन तमाम समस्याओं के साथ सजायाफता होने पर उनकी सजाओं को एक साथ नहीं करके, एक के बाद एक कर जेल में लंबा सड़ाया जा रहा है. ये तमाम कार्यवाहियां राज्यकीय फासीवाद के उदाहरण हैं.
इन जघन्य परिस्थितियों में सजा के बाद कैदियों के रिहा होने पर व्यवस्थापन के लिए मदद करने के जो प्रावधान हैं, उन्हें लागू करने की बात तो सोच ही कैसे सकते हैं ? 2016 के 6 साल के बाद 2022 में न्यायाधीश एवं मुख्यमंत्रियों की 39वीं बैठक हुई, जिसमें 25 उच्च न्यायालय जजों के साथ भारत के मुख्य न्यायाधीश भी शामिल हुए. इसमें प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी परिचित कौटिल्य शैली में न्याय प्रक्रिया को स्पीड अप करने की बात कही. इससे 3.5 लाख विचाराधीन कैदियों को राहत मिलने की बात कही.
यह भी कहा कि इनमें से ज्यादातर गरीब लोग हैं. अदालतों का बोझ कम करने के लिए आर्बीटेशन का सुझाव भी दिया और यह भी कहा कि स्थानीय भाषा का उपयोग करने से जनता को भी न्याय के बारे में समझदारी मिलेगी. जी हां, यह सही बात है, जनता को न्याय के बारे में समझने से ही अन्याय का पर्दाफाश होता है. वास्तव में, जल्दी हल करने के प्रावधान तो संविधान में ही है लेकिन सरकारें ही इसके लिए मौका नहीं दे रही हैं.
इसी अवसर पर, भारत के मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि सरकारें ही जल्द न्याय का मौका नहीं दे रही हैं. और यह भी कहा था कि लंबे समय तक केसों के लंबित होने के लिए सरकार और अधिकारियों का गैर-जिम्मेदाराना और लापरवाही ही जिम्मेदार है.
जेएनयू के नताशा नरवाल, देवगंना कालिता, जामिया मिलिया युनिवर्सिटी के छात्र आसिफ इकबाल की जमानत मंजूर करते हुए जून 2021 के पहले सप्ताह में दिल्ली हाईकोर्ट ने टिप्पणी की थी कि प्रोटेस्ट करना नागरिकों का अधिकार है और उन्हें आतंकवादी के रूप में दिखाना सही नहीं है और पुलिस से सवाल किया कि उन पर ऐसे पाशविक कानूनों का उपयोग कहां तक जायज है ? इस पर जब केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट गई तो उसने भी कहा कि हम इस फैसले में हस्तक्षेप नहीं करेगें.
विगत कुछ सालों से हमारे देश में इन क्रूर कानूनों को मुख्य रूप से राजद्रोह 124 ए को रद्द करने के लिए सीजेआई सहित कई संस्थाएं और नागरिक आवाज उठा रहे हैं. पुराने पड़े 1800 कानूनों को मोदी ने रद्द किया लेकिन अंग्रेजों के बनाए इस काले कानून 124 ए को रद्द नहीं किया. दुनियां के आर्थिक संकट यह चेतावनी दे रहा है कि नवउदार नीतियों को लागू करने के लिए ऐसे कर कानूनों से जनता को दबाने के बिना कोई भी सत्ता एक मिनट भी शासन नहीं चला सकती.
लेकिन गहराते हुए संकट से देश की जनता को लड़ने के लिए मजबूर कर रहे हैं. वे कानून कितने भी क्रूर क्यों ना हो, हमारे देश की परिस्थितियां यह साबित कर रही हैं कि जनता प्रतिरोध करेगी. इसका प्रबल उदाहरण हैं – कल चला किसान आंदोलन और आज चल रहा मूलवासियों का आंदोलन है.
इसी बीच, म्यूनिख में संपन्न हुई जी -7 बैठक में, डेमोगोग मोदी ने अभिव्यक्ति की आजादी के बारे में खूब फैंका. अपने देश के नागरिकों की आजादी को बरकरार रखने के लिए हम कटिबद्ध है बताया लेकिन उसकी आवाज के भारत पंहुचने से पहले ही यहां गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरू हो गया. प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सेतलवाड, जो गुजरात दंगों के पीड़ितों के पक्ष में खड़ी हुई, को 25 जून 2022 को मुम्बई में गुजरात के एन्टी टेररिस्ट स्क्वाड ने अपने गिरफत में लिया.
गुजरात दंगों के दौरान गुलबर्ग सोसायटी में 28 फरवरी 2002 को जिन 68 लोगों का जिंदा जलाकर हत्या किया गया था. उनमें से एक पूर्व सांसद एहसान जाफरी की पत्नी जाकिया जाफरी द्वारा दायर किए गए पेटीशन खारिज होने के अगले ही दिन यह गिरफ्तारी होना गौर करने का विषय है. तीस्ता सेतलवाड़ और उनकी संस्था सिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस जाकिया के पक्ष में मजबूती से खड़ी हुई थी. जाकिया के पेटीशन को स्वीकार करने के लायक ही नहीं है कह कर खारिज किया.
उसी संदर्भ में, कोर्ट ने यह भी कहा कि 2006 से तीस्ता सेतलवाद वहां आग सुलगा रही है. वास्तव में ऐसा कहना, एक क्रूर मजाक से कम नहीं है. तीस्ता बाबरी विध्वंस के विरोध में खड़ी हुई पत्रकार है और कम्यूनलिज्म कॉम्बैट पत्रिका भी चला रही है इसीलिए वह मोदी एंड कंपनी की आंखों में खटक रही है.
विदेशी मुद्रा कानून के उल्लंघन के आरोप में सुप्रीम कोर्ट ने एमनेस्टी इंडिया इन्टरनेशनल पर 51.72 करोड़ का जुर्माना लगाया. उस संस्था के एक पूर्व सीईओ कट्टर हिन्दुत्ववादी शक्तियों को बर्दाश्त न करने वाले आकार पटेल को भी 10 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया. सच्चाईयां को उजागर करने वाले ऑल्ट न्यूज के प्रावदा मीडिया को विदेशों से 2 लाख डोनेशन मिलने का आरोप लगाया गया.
ऑल्ट न्यूज के सह-संस्थापक मोहम्मद जुबेर को 2018 में हिन्दू देवता पर किए एक ट्वीट पर 4 साल के बाद 27 जून 2022 को पुलिस ने गिरफ्तार किया. भाजपा नेत्री नुपूर शर्मा सहित अन्य संत लोगों द्वारा विद्वेष फैलाने की आलोचना के परिपेक्ष में 4 साल पुराने केस को सामने लाया है. उसी प्रकार, झारखंड में, मूलवासियों के पक्ष में खड़े हुए स्वतन्त्र पत्रकार रूपेश कुमार को माओवादियों से संबंध के आरोप में पुलिस ने गिरफ्तार किया.
दूसरी तरफ, दंतेवाड़ा जिला गोम्पाड़ में 2009 में पुलिस द्वारा 16 लोगों के कत्लेआम को माओवादियों का काम बताने पर जांच करने की मांग करने वाले आदिवासी हितैषी प्रमुख गांधीवाद हिमांशु कुमार के आरोप को बेबुनियाद कहते हुए ऐसे गलत आरोप के साथ कोर्ट आने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 5 लाख रुपए का जुर्माना लगाया और उसे नहीं भरने पर 2 साल की जेल का आदेश दिया.
वास्तव में पिछले 17 वर्षों में, बस्तर डिवीजन में हुई पुलिस की ज्यादतियों पर 517 मामलों को वे कोर्ट के सामने ले गए थे. उनमें से एक भी बेबुनियाद नहीं है, यह बात इन्क्वायरिंग एजेन्सियों ने साबित किया. लेकिन अब हमारे देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पुलिस की चार्जशीट को ही प्रमाणिक मान कर न्यूनतम जांच भी ना करते हुए, सच्चाईयों को सामने लाने की गुजारिश करने वालों को ही सजा देना देश में बढ़ रही असहिष्णुता एवं बदले की भावना के रूप के अलावा कुछ नहीं है. इन तमाम घटनाओं के विरोध में आवाज उठाना आज भारत के नागरिकों का प्रथम कर्तव्य है.
1996 में कश्मीर में गिरफ्तार किए नौजवान मोहम्मद अली बट्ट, लतीफ अहमद वजअ और मिरजा निसार हुसैन को 23 साल के बाद निर्दोष कहते हुए रिहा किया लेकिन उतने साल उनकी जिंदगी को बरबाद करने वाले राज्य तन्त्र को सजा देने वाला कौन है ? परन्तु आगे बढ़ रहे जन संघर्ष और सचेतन हो रही जनता प्रकट कर रही है कि अब ऐसा नहीं चलेगा.
2017 में, सुकमा जिला के बुरकापाल में पीएलजीए द्वारा एक हमले में 25 पुलिस को मौत के घाट उतारने के केस में 121 गांव वालों को कल तक बंदी बना कर रखे थे बाद में, उन्हें निर्दोष बताते हुए कोर्ट ने उन्हें रिहा किया. इससे वहां के मूलवासी संघर्षशील संस्थाएं आवाज उठाकर इन तमाम लोगों को साल में 2 लाख के हिसाब से 10 लाख का मुआवजा दिलाने के लिए आंदोलनरत हैं, यह सराहनीय है.
तीस्ता सितलवाड की गिरफ्तारी की भर्त्सना करते हुए जेएनयूटीए उनकी रिहाई की मांग कर रही है. जंतर मंतर के सामने देश के जाने माने बुद्धिजीवी प्रदर्शन कर रहे हैं. उन्होंने पुलिस अधिकारी श्रीकुमार और संजीव भट्ट की रिहाई की भी मांग की है. दूसरी तरफ, हिमांशु कुमार को सजा देने को अन्याय कहते हुए जंतर मंतर के पास सैंकड़ों की संख्या में प्रगतिशील कार्यकर्ता एवं मूलवासी आंदोलनकर्ताओं ने अपना विरोध दर्ज किया. जुबेर की गिरफ्तारी का विरोध करते हुए देश ने आवाज उठाई.
इसी बीच, अगस्त 2022 में पंजाब में सम्पन्न हुई एपीडीआर कन्वेन्शन में भाग लेने वाले पीयूसीएल, सीआरपीपी, आसनसोल सिविल लिबर्टीज एवं प्रिजन कमेटी ने राजनैतिक बंदियों की रिहाई की मांग उठाई. इस प्रकार आवाज बुलंद करना, प्रोटेस्ट करना और संघर्ष को तेज करना आज की जरूरत है. हमारी पार्टी यह स्पष्ट कर रही है कि दिन-ब-दिन बढ़ रहे आर्थिक और राजनैतिक संकटों के तले दबे लुटेरे शासक वर्गों से तीव्र की जा रही दमन कार्यवाहियों से हमारे हक और शक्तियों को नहीं दबा पाएगें.
93 वर्ष पहले, का. जतीन दास मात्र ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के विरोध में लड़े लेकिन आज हमें कई साम्राज्यवादी देशों से लड़ना पड़ रहा है. आज हमारे देश में, उसके साथ सांठगांठ कर रही हिन्दुत्व शक्तियों के विरोध में लड़ने के लिए मजबूर हैं. देश में जनता के लिए एवं जनवाद के लिए खड़े हुए कामरेड्स और मित्रगण, वरवरा राव, आनन्द तेलतुम्बड़े, वर्नन गांजाल्विस, अरुण फरेरा, सुधा भारद्वाज, शोमा सेन, महेश राउत, सुधीर धावड़े, सुरेन्द्र गाडलिंग, ऑनी बाबू और सागर गोर्की जैसे कई लोगों को सलाखों के पीछे बंदी हुए हम देखा. अब सीतलवाड से लेकर हिमांशु कुमार पर हो रही राजसत्ता की बदले की भावना को भी देख रहे हैं.
एनआईए एक और मर्तबा बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां करने के लिए तैयार हो रही है. आज के अवसर पर हमें मजबूती के साथ उनका प्रतिरोध करने का प्रण लेना है. हमारे लिए दुनियां की क्रांतिकारी शक्तियां एवं मजदूर संगठन अपने भाईचारा को प्रकट कर रहे हैं. वे लोग 90 प्रतिशत अपंग का. साईबाबा की रिहाई के लिए भी आवाज उठा रहे हैं. यह तो क्रांतिकारियों की सुबह होने के दिन हैं. क्रांति का रास्ता बहुत मुश्किल भरा है लेकिन लड़ने से जीत हमारी है. हम जतीन दास के रास्ते पर आगे बढ़ते जाएगें.
- राजनैतिक बंदियों की निःशर्त रिहाई के लिए हम हर तरह लड़ेगें !
- देश में बढ़ रही हिन्दुत्व शक्तियों की बदले की भावना का हम खंडन करेगें, प्रतिरोध करेगें !
- साम्राज्यवाद, दलाल नौकरशाही पूंजीवाद एवं सामन्तवाद विरोधी जनआंदोलनों को तेज करेगें.
- देश में जनता के सही जनवाद के लिए, प्राणों को न्यौछावर करने वाले शहीदों को क्रांतिकारी जौहार !
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का पर्चा अपने नारों के साथ यही खत्म हो जाता है, लेकिन सवाल उठता है कि क्या भारत की हिन्दू फासिस्ट मोदी सरकार जनता के हित में अमेरिकी जनता, भारत की राष्ट्रपति, लोकप्रिय जनवादी संगठन सीपीआई (माओवादी) के उठाये सवालों पर ध्यान देकर जेलों और यातनाओं की इस मध्ययुगीन परम्परा को खत्म करने की दिशा में कदम उठायेगी, ताकि इस यातना शिविरों को बरकरार रखने में लगने वाले जन-धन का सदुपयोग जनता के हित में किया जा सके ?
- शिवराम सिंह
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