शिक्षा के व्यवसायीकरण के खिलाफ आसान नहीं है लड़ाई. आज की तारीख में यह मुद्दा और अधिक प्रासंगिक हो गया है क्योंकि नई शिक्षा नीति के साथ सरकार सामने आ चुकी है. और शिक्षा के घनघोर व्यवसायीकरण का ब्लू प्रिंट भी सामने है. अवसरों को लपकने की होड़ है. तमाम साजिशें इन अवसरों को लपकने या कहें, हड़पने की है. शिक्षा का व्यवसायीकरण इन्हीं साजिशों का बड़ा हिस्सा है. लड़ाई आसान नहीं है. ऐसी लड़ाई, जिसे इस देश के तीन चौथाई लोग लगातार हारते ही जा रहे हैं.
हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
लड़ाई सिर्फ सरकार से हो तो लड़ना आसान है लेकिन यहां तो न जाने कितने लोगों से लड़ना है. उनसे भी, जो पहले गरीब थे और सस्ती या मुफ्त सरकारी शिक्षा से निकल कर आज संभ्रांत वर्ग में दाखिल हुए हैं. वे अब अपनी संतानों के लिये महंगी शिक्षा खरीदने में सक्षम हैं. तो, अब उनके पास महंगी होती फीस के समर्थन में हजार तर्क हैं. जब मटन 50 रुपये किलो से 500 रुपये किलो हो सकता है तो फीस क्यों 50 ही रहे ?
उनसे भी लड़ना है जिन्होंने जीवन में कभी ढंग की पढ़ाई नहीं की लेकिन आज पीएचडी करने वाले लोग उन्हें देश पर बोझ लग रहे हैं, क्योंकि सरकारी विश्वविद्यालयों में शोध छात्रों के लिये सस्ती दरों पर हॉस्टल और मेस की सुविधाएं उपलब्ध हैं.
उनसे लड़ना तो सबसे कठिन है जो महंगी होती शिक्षा के विरोध में सड़कों पर उतरने वाले युवाओं में अर्बन नक्सल के दर्शन कर रहे हैं. वर्गीय स्वार्थ में अंधे होने पर जब मगज ठस सा हो जाता है तो कारपोरेटवाद का विरोध करता हर चेहरा कभी नक्सल लगने लगता है तो कभी राष्ट्र विरोधी तत्वों के हाथों का खिलौना, और कुछ नहीं तो ‘लेफ्ट’ तो लगने ही लगता है.
मीडिया के उन चारणों से भी लड़ना है जो कसम खा चुके हैं कि देश का चाहे जो हाल हो, वे भारत-पाकिस्तान और सिर्फ भारत-पाकिस्तान ही करते रहेंगे. इन चैनलों के लिये शिक्षा के व्यवसायीकरण का विरोध करते छात्र भ्रमित नौजवान हैं जो ‘राष्ट्र की चुनौतियों’ को समझ नहीं पा रहे और ‘मामूली सी फीस वृद्धि’ के लिये आसमान सिर पर उठाए हैं.
उत्तराखंड में भारी फीस वृद्धि के विरोध में अनशन पर बैठे आयुर्वेद कालेजों के छात्र हों या सड़कों पर पुलिस का दमन सहते जेएनयू के छात्र, या फिर, देश के अन्य राज्यों में महंगी होती शिक्षा के विरोध में नारे लगाते, प्रदर्शन करते आंदोलनकारी, इनके विरोध का क्या हश्र होगा ?
क्या इनका आंदोलन सरकार के उन कदमों के समक्ष प्रभावी अवरोध खड़े कर पाएगा जो निर्धनों को उच्च शिक्षा से दूर करने की संभ्रांत वर्गीय साजिशों का हिस्सा है ?
आसान नहीं है. सवाल फिर वही सामने आ जाता है कि सरकार से तो लड़ा जा सकता है लेकिन उनसे कैसे लड़ा जाए जो हमारे बीच से ही निकल कर आगे बढ़े और आज हमारे अवसरों के सामने अवरोध की दीवारें खड़ी करने में लगे हैं.
उन्होंने स्कूली शिक्षा को तो अपने स्वार्थों के अनुरूप ढाल लिया. बहसें चाहे जितनी होती रहें, आज यह द्वंद्व खत्म हो चुका है कि सरकारी स्कूलों की कब्र पर प्राइवेट स्कूलों की अट्टालिकाएं क्यों खड़ी हों. जिनकी कब्रें बननी हैं, बन रही हैं और जिनकी अट्टालिकाओं को आसमान चूमना है वे आसमान को चूम रही हैं.
नतीजा, समाज के दो तिहाई बच्चे तो स्कूली कक्षाओं में ही इतने पिछड़ जाते हैं कि आगे की दौड़ में उनके बने रहने का कोई सवाल ही नहीं उठता.
बच जाते हैं एक तिहाई बच्चे, जिनमें अवसरों को लपकने की होड़ होती है. जाहिर है, इनमें 90 प्रतिशत वही बच्चे हैं जिनके लिये स्कूली शिक्षा के प्राइवेटाइजेशन की साजिशें रची गई थी. मुश्किल से 10 प्रतिशत के करीब ऐसे बच्चे ही इस होड़ में बने रहते हैं जो साधनहीन परिवारों से आते हैं और सरकारी स्कूलों से गुजरते हुए भी उच्च शिक्षा की देहरी को पार करने का सपना देखते हैं.
लेकिन, बात अवसरों की करें तो वे तो बेहद कम हैं. मसलन, साल में कितने लोग सरकारी अफसर, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, मैनेजमेंट प्रोफेशनल आदि उच्च पदों तक पहुंच पाते हैं ? जाहिर है, बेहद कम, बल्कि बेहद बेहद कम, क्योंकि ऐसे उच्च पदों की संख्या आम नौकरियों की तुलना में कम होनी ही हैं.
राज तो वही करते हैं जो इन पदों तक पहुंच पाते हैं. उनके पास ज्ञान की शक्ति है, उच्च वेतन की ताकत है. अब, जिनके पास ज्ञान है, पैसा है, समाज के अगुआ तो वहीं होंगे, उसे दिशा भी वही देंगे, जमाने पर राज भी वही करेंगे.
तो, यह लड़ाई अवसरों को हासिल करने की बनाम अवसरों को हड़पने की है. उद्भिज की तरह जो निर्धन बच्चे तमाम अवरोधों को पार कर अंततः अवसरों की होड़ में खुद को शामिल कर लेते हैं, उन्हें रोकने की साजिशों से लड़ाई है. उद्भिज, यानी, जो पथरीली जमीन फोड़ कर उगा हो और तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद पुष्पित-पल्लवित हुआ हो.
उच्च शिक्षा का व्यवसायीकरण अवसरों की होड़ में ऐसे ही उद्भिजों के सामने अलंघ्य अवरोध खड़े करने की साजिशों का हिस्सा है, जो क्वालिटी स्कूली शिक्षा न मिल पाने के बावजूद अपनी मेधा और अपने परिश्रम के बल पर आगे बढ़ कर यहां तक आ पहुंचे हैं.
आकार लेती नई व्यवस्था में ज्ञान का हकदार वही होगा जो इसे खरीदने में सक्षम हो. लड़ाई इस व्यवस्था के नियामकों से है. सरकारें तो आनी-जानी हैं. वे इन्हीं नियामकों से ताकत भी लेती हैं और इन्हीं से प्रेरणा भी पाती हैं.
ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक कारणों से जो पीछे रह गए हैं उन्हें अनंत काल तक पीछे ही खड़े रखने की साजिशों के रूप बदलते रहते हैं. शिक्षा का व्यवसायीकरण इन्हीं साजिशों का एक रूप है.
लड़ाई आसान नहीं, बेहद कठिन है लेकिन, लड़ने वाले कठिन और आसान नहीं देखते. जो लड़ रहे हैं, उन्हें समर्थन दीजिये, क्योंकि वे खुद के लिये ही नहीं, आपके बच्चों के लिये भी लड़ रहे हैं. उन सिपाहियों के बच्चों के लिये भी लड़ रहे हैं जिनकी लाठियों से उनके सिर फूटे हैं. यह मानवद्रोही व्यवस्था के निर्माण की साजिशों के खिलाफ मानवीय संसार रचने की लड़ाई है.
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