[प्रस्तुत आलेख देश भर में सीपीआई माओवादी के नेतृत्व में चल रहे जनता की हक और अधिकार की लडाई को शासक वर्ग द्वारा अपने क्रूर और बर्बर हिंसक हमले से खत्म कर देने की घातक साजिश के खिलाफ उठे क्रांतिकारी हिंसा के औचित्य पर है. माओवादियों ने क्रांतिकारी हिंसा में मारे गये सिपाहियों पर कॉरपोरेट मीडिया और उसीके के जरखरीद तथाकथित बुद्धिजीवियों के विलाप पर दिये गये एक पर्चे का अंश है, जो कुछ साल पहले जारी किया गया था, परन्तु उनके पर्चे का यह अंश कुछ सामयिक बदलाव के अतिरिक्त आज भी समीचीन है.]
वर्तमान समय में जब शासक वर्ग के युद्ध ने एक बर्बर स्वरूप ग्रहण कर लिया है तब हमारी तरफ से भी जवाबी हमले तेज हुए हैं. ऐसे में हमारी पार्टी के ऊपर अधिक बर्बर और हिंसक होने का आरोप तेज हुआ है. हिंसा के सवाल पर पार्टी की राय को स्वीडेन के लेखक यान मिर्डल के साथ साझा करते हुए हमारी पार्टी के महासचिव कॉमरेड गणपति ने कहा था, “जनता और माओवादी क्रान्तिकारी किसी के साथ हिंसा या सशस्त्र संघर्ष नहीं चाहते. केवल अपरिहार्य परिस्थितियों में ही वे हथियार उठाते हैं और अपने दुश्मनों का प्रतिरोध करते हैं.” हिंसा तो प्रकृति में ही नीहित है. इसके साथ ही साथ तमाम जीव-जंतुओं के अस्तित्व का सवाल भी इस प्राकृतिक हिंसा के प्रतिरोध के साथ ही जुड़ी हुई है. मानव जीवन के विकास के सिद्धांत ने भी साबित किया है कि जो जीव प्रकृति के साथ संघर्ष नहीं कर पाए उनका अस्तित्व ही खत्म हो गया. इस तरह अपने अस्तित्व के लिए तमाम तरह का प्रतिकार करना एक शाश्वत नियम है. पहले ही हमने स्पष्ट भी किया है कि शासक वर्ग ने हमारी पार्टी पर किस तरह एक बर्बर युद्ध थोप दिया है. हमारी पार्टी इस प्रतिरोध युद्ध को अपने अंतिम सांस तक चलाने के लिए कटिबद्ध है. ऐसे में प्रतिरोध के स्वरूप पर बहस करने वाले दरअसल सरकारी युद्ध का चरित्र और स्वरूप नहीं समझ पाते. जब हमारे सिर के ऊपर बेखौफ ड्रोन मंडरा रहे हों, हथियारों से लैस हेलिकॉप्टर हमें डराकर भगाने की कोशिश कर रहे हों, अमुमन सीमा पर इस्तेमाल होने वाले हथियार हमें नेस्तनाबुद कर देने के लिए तैयार हों, जब नजदीक मार करने वाले भारी रॉकेट हमें जलाकर खाक कर देने के लिए मुस्तैद हों, जब सरकारी बूट हमारे सिर को कुचल देने के लिए आमादा हों, ऐसे में कोई सिरफिरा गुलाम या फिर दिवालिया ही यह कह सकता है कि सरकारी बुटों को सहलाना ही एक मात्र विकल्प है. एक युद्ध की परिस्थिति में माओवादियों से वैचारिक संघर्ष तक खुद को समेटे रखने की बात तो खुद में ही हास्यास्पद है. यह हमें आत्महत्या करने के लिए तैयार करने जैसा ही है. सेटेलाइट कैमरा, जीपीएस, भारी रॉकेट और ड्रोन से लैस लाखों की संख्या में तैनात किए गए क्रूर बलों का सामना कर रहे अपेक्षाकृत निम्न तरीके के कुटीर उद्योग में निर्मित हथियारों से लैस संघर्षरत देशभक्तों को हिंसक कहना उन तथाकथित बुद्धिजीवियों का दिवालियापन ही है. यह ठीक वैसे ही है जैसे रोमन साम्राज्य के कुख्यात बर्बर सामंतों के खिलाफ खड़े हुए स्पार्टाकस के नेतृत्व में गुलामों के युद्ध को हिंसक बताना. हमारी पार्टी ने हरेक मौकाें पर साफ किया है कि हिंसा हमारा कोई प्रिय शगल नहीं है बल्कि अपने संघर्ष के शुरूआती दौर में हमारी पार्टी मुख्य रूप से लड़ाकू जन संघर्ष को ही नेतृत्व दे रही थी लेकिन सरकारी बर्बर सशस्त्र दमन से प्रतिरोध के लिए हमें तैयार होना पड़ा. पार्टी और जन संगठनों को प्रतिबंधित कर शासक वर्ग ने तमाम जनवादी प्रतिरोध के रास्ते रोक दिए. ऐसे में हमारे पास सशस्त्र प्रतिरोध ही एक मात्र रास्ता बचता था.
जब उस बर्बर सशस्त्र दमन ने एक युद्ध अभियान का रूप ले लिया है, जिसे सेना के अधिकारी निर्देशित कर रहे हों, जिसके लिए संसाधन और तरीके अमरीकी साम्राज्यवाद और इजरायल सहित अन्य साम्राज्यवादी देश मुहैय्या करा रहे हों, जिसका मकसद साम्राज्यवादी गिदड़ों के हाथ में मातृभूमि को नीलाम कर देना हो – उस युद्ध के सामने देशभक्त क्रान्तिकारियों को घुटने टेकने और अनुनय-विनय करने की सलाह कोई साम्राज्यवादी दलाल ही दे सकता है. हमारी नीति बिल्कुल स्पष्ट है कि हम कतई हिंसा नहीं चाहते. हम तो हमेशा के लिए हिंसा का अंत करना चाहते हैं. लेकिन हथियार के ताकत के मद में चूर कोई भी सत्ता जब जन प्रतिरोध को कुचल देना चाहे तब इस हिंसा का प्रतिरोध करना एक महत्वपूर्ण कार्यभार बन जाता है. जब सत्ता भारी हथियारों से लैस गांवाें-जंगलों-पहाड़ों में चहलकदमी कर रही हो तब जनता को अहिंसा का पाठ पढ़ाना दरअसल गुलामी के लिए तैयार करना ही है. ऐसे में महत्वपूर्ण सवाल हिंसा का नहीं बल्कि साम्राज्यवाद द्वारा निर्देशित युद्ध के खिलाफ अपनी मातृभूमि की रक्षा का है. हम उन तमाम तथाकथित बुद्धिजिवियों तथा पत्रकारों से पूछना चाहते हैं कि हजारों की संख्या में भारी हथियारों से लैस सरकारी बल किस अहिंसा की मजबूती के लिए जंगलों में चहलकदमी कर रहे हैं ? यदि इस हिंसा का अंत करना है, तो सबसे पहले बात उससे शुरू करनी होगी जिसने हिंसा थोपी है. जब स्पार्टाकस रोमन साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह के लिए तैयार हुआ हो, तो रोमन साम्राज्य की हिंसा की बजाय स्पार्टाकस की हिंसा की आलोचना करना न केवल रोमन साम्राज्य की दलाली करना है बल्कि उस रोमन साम्राज्य के विभत्स हिंसा और बर्बरता का समर्थन करना ही है. जब साम्राज्य क्रूर से क्रूर तरीके अपनाने के लिए बैठा हो तब इस क्रूरता का प्रतिरोध करना ही एक मात्र न्याय रह जाता है. हमें यह कहते हुए गर्व हो रहा है कि हम इस न्यायपूर्ण युद्ध का नेतृत्व कर रहे हैं, जो पूरी तरह से देशभक्त क्रान्तिकारियों द्वारा सामंतवाद-साम्राज्यवाद -दलाल नौकरशाह पूंजीवाद से अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए चलाया जा रहा है. इस युद्ध का स्वरूप हमने नहीं बल्कि अमरीकी सलाहों के अनुरूप सोनिया-मनमोहन-चिदंबरम ने उनके हित में निर्धारित किया है. इसी लीक पर आगे बढ़ते हुए नए गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे भी चिदंबरम की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं. अब देशभक्तों के प्रतिरोध का स्वरूप भी दलाल शासक वर्ग द्वारा थोपे गए इसी युद्ध से निर्धारित होता है. इस युद्ध को बंद करने का फैसला भी शासक वर्गों को ही करना है, चूंकि उसने ही जनता पर यह युद्ध थोपी है.
जहां तक देश में अहिंसा और जनवाद का सवाल है तो हम यह साफ-साफ कहते हैं कि आपका संविधान ही लोकतांत्रिक नहीं है. सच तो यह है कि आपका संविधान ही फासीवाद के लिए रास्ता प्रशस्त करता है. भारत में फासीवाद संविधान को रद्द करके नहीं बल्कि संविधान के रास्ते ही आया है. शासक वर्ग ने अपने लिए यह रास्ता सुरक्षित रखा है कि सांविधानिक दायरे में ही जब चाहे तब आपातकाल लागू कर संसद को रद्द कर दे. ऐसा ही उसने किया भी. 1970 के दशक में जब जनता भारी रूप से शांतिपूर्ण प्रतिरोध के लिए सड़कों पर सामने आयी तब शासक वर्ग ने देश की संसद को रद्द कर दिया और पूरे देश में आपातकाल लागू कर भारी हिंसा फैलाई. यहां तक कि जेपी जैसे लोगों के नेतृत्व में चल रहे शुद्ध अहिंसक आन्दोलन पर भी आपातकाल लागू कर भारी दमन ढाया गया. मणिपुर में इरोम शर्मिला के बारह साल से लगातार जारी भूख हड़ताल तो सरकार के घिनौने, हिंसक और बर्बर चरित्र को ही उजागर करते हैं. काश्मीर और समूचे उत्तर-पूर्व को आपने खून के समंदर में डुबो दिया है. भारतीय सरकारी बलों ने मुठभेंड़ या फिर फर्जी मुठभेड़ के जरिए काश्मीर की पूरी एक नौजवान पीढ़ी का ही खात्मा कर दिया है. इन तमाम इलाकों में हर धड़कन पर खौफ का पहरा बिठा दिया गया है. आंध्रप्रदेश में ही हजारों युवकों को फर्जी मुठभेंड़ में मार दिया गया है. गुजरात में मुख्यमंत्री के निर्देशन में हजारों अल्पसंख्यकाें का कत्लेआम किया गया है. हिन्दू फासीवादी ताकतें नफरत के इस घिनौने खेल को खुलेआम बढ़ा रही हैं. अहिंसा का लबादा ओढ़कर आपने जो हत्या का नंगा नाच किया है, वह किसी से छिपा नहीं है. आपके हाथ देश के मासुमों और नौजवानों के खून से लथपथ है. भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी गांधीवादी बीडी शर्मा ने पद पर रहते हुए ही जब आदिवासियों के पक्ष में कुछ करना चाहा तो अधिकारी रहने के बावजूद अपने माफियाओं के जरिए आपने उनकी खुलेआम पिटाई करवाई. अब जिस सत्ता की बुनियाद ही हिंसा के साथ शुरू हो, उस सत्ता के सामने खड़े लोगों को अहिंसा का पाठ पढ़ाना गद्दारों के विरासत को ही आगे बढ़ाना है.
जहां तक क्रूरता का सवाल है, तो इस पर हमारी पार्टी की नीति बिल्कुल साफ है. सरकारी बलों और शासक वर्ग द्वारा अपनाए जाने वाले तमाम क्रूर तरीकों के बावजूद हमारी पार्टी पीएलजीए को अपने नीति पर दृढ़ रहने के लिए तैयार करती है. हम जानते हैं कि साम्राज्यवाद के दिशा-निर्देश पर चलने वाला यह शासक वर्ग तमाम क्रूर तरीके अपनाता है, जैसे लॉक अप में हत्याएं करना, भारी यातनाएं देना, फर्जी मुठभेड़ में हत्या करना, फर्जी मुकदमों के जरिये लगातार दीर्घकाल तक कैदखानों में रखना, आम जनता का संहार करना, हमारे साथियों के परिवार वालों को तंग करना. वर्तमान युद्ध में शासक वर्ग इन तमाम तरीकों का इस्तेमाल कर रहा है. इसके बावजूद पीएलजीए अपनी नीति पर दृढ़ है. हमारी पार्टी गिरफ्तार लोगों की हत्या और उनको यातना देना अपनी नीति के विरूद्ध समझती है. ऐसे में युद्ध के दौरान भी गिरफ्तार किए गए तमाम लोगों को हमारी पार्टी ने युद्धबंदी का दर्जा देकर बाईज्जत रिहा किया है. हमारी पार्टी किसी के सफाये के लिए भी क्रूर तरीके अपनाने के खिलाफ है. माओवादी पार्टी हाथ-पैर काटने, आंख फोड़ने या फिर सिर काटने जैसी कार्रवाईयाें की खिलाफत करती है. लेकिन कुछ अपवादों को लेकर शासक वर्ग और उसके दलाल हमारे पार्टी के ऊपर क्रूर होने का आरोप लगाते हैं. ऐसा करते हुए वे देश की जनता में सरकारी बलों के खिलाफ सुलग रहे नफरत को नहीं समझ पाते. वे चाहते हैं कि जनता भूल जाए कि इन्हीं सरकारी बलों ने छत्तीसगढ़ से लेकर बंगाल और झारखण्ड तक कितना मध्ययुगीन अत्याचार किया है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही इन सरकारी बलों ने छत्तीसगढ़ में 640 गांवों को जला दिया, सैकड़ों महिलाओं के साथ बलात्कार किया और सैंकड़ों बच्चों से उनके पिता का साया छिन लिया. इन्हीं सरकारी बलों ने लालगढ़ में हमारी पार्टी के पोलित ब्यूरो सदस्य कॉमरेड कोटेश्वर राव की आंखें निकाल ली, उंगलियां काट दी, शरीर को दागा, उनके पैरों को तोड़ दिया. ऐसे में करोड़ों गरीब जनता के मन में पल रहे इन बलों के खिलाफ नफरत को कोई भी कम नहीं कर सकता. कोई भी जनवाद पसंद नागरिक इन सरकारी बलों की क्रूरता से नफरत ही कर सकता है. ऐसे में उन बच्चों जिनका अशियाना इन बलों ने उजाड़ दिया, जिनकी मां-बहनों के साथ इन बलों ने बलात्कार किया, जिनके सिर से उनके मां-बाप का साया छिन लिया – उनके इन बलों के प्रति नफरत को कोई कितना भी कम करना चाहे एकदम नियंत्रित करना असंभव है. इसके बावजूद हमारी पार्टी ने तमाम जनता और अपनी कतारों को अपनी नीति से विचलित नहीं होने की शिक्षा दी है. अब क्रूर बलों की क्रूरता की अनदेखी करके इन बलों के शिकार हुए लोगों के प्रतिरोध को ही क्रूर बताना दरअसल सरकारी क्रूरता का समर्थन करना है. हमारी पार्टी यह स्पष्ट करना चाहती है कि हम अपनी नीति पर दृढ़ हैं और किसी भी बंदी सिपाहियों के साथ क्रूरता की खिलाफत करते हैं- लेकिन जो क्रूर बल घिनौने से घिनौने फासीवादी कार्रवाईयों में संलग्न हों उनके द्वारा प्रतिरोध को अमानवीय बताया जाना कायरता के अलावा कुछ भी नहीं है.
जहां तक कटीया जंगल में मुठभेड़ के बाद मृत सिपाही के शरीर में बम लगाने की बात है, तो सच यह है कि हमने किसी भी जीवित सैनिक को यातना नहीं दी है बल्कि एक मरे हुए सिपाही के शव में बम लगाया है. इसका मकसद उसके शव का अपमान करना नहीं बल्कि सरकारी बलों को और नुकसान पहुंचाना था. हम यह साफ करना चाहते हैं कि आगे भी हम हर संभव मौके पर दुश्मन को फंसाने के लिए तमाम संभव तरीकों का इस्तेमाल करेंगे- हमें जहां भी मौका मिलेगा उन बलों को जवाब देंगे. इन बलों ने पूरे देश में जिस क्रूरता का परिचय दिया है, उन्हें माफ नहीं किया जा सकता.
जयराम रमेश के ‘विकास’ का प्रलाप
दैनिक अखबार प्रभात खबर ने केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश का ‘21 वीं सदी में माओवाद’ नामक एक व्याख्यान प्रकाशित किया है- इसमें जयराम रमेश का कहना है कि माओवाद की शुरुआत तो विचारधारा से हुई थी लेकिन आज यह हिंसक हो गया है- दरअसल जयराम रमेश की माओवाद की समझ अधुरी है. माओवादी एकदम शुरु से जानते थे कि शासक वर्ग तमाम तरह के जनवादी आंदोलनों को हिंसक तरीके से कुचलती है. ऐसे में माओवादियों के पास एक सुसंगत राजनीतिक-सैनिक कार्यदिशा थी. शुरु में माओवादियों ने लड़ाकू जनसंघर्षों में व्यापक जनता को गोलबंद किया. जैसे ही शासक वर्ग ने इसे कुचलने के लिए बर्बर दमन का सहारा लिया, सैनिक प्रतिरोध वक्त की जरुरत बन गई. इस तरह शुरुआत की सैनिक कार्यदिशा ने अब एक ठोस प्रतिरोध का शक्ल ले लिया है और व्यवहार में अधिक समृद्ध हुआ है. रमेश का आरोप है कि माओवादियों का विश्वास वैचारिक बहस में नहीं है बल्कि वे केवल हिंसा को ही हथियार मानते हैं. उनकी यह दलील अव्वल दर्जे की चालबाजी है. सच तो यह है कि जयराम रमेश की सरकार में कुवत ही नहीं है कि वह हमारी पार्टी के साथ वैचारिक बहस करे इसीलिए तो उनकी सरकार ने हमारी पार्टी और तमाम जनसंगठनों पर प्रतिबंध लगाकर हमारे वैचारिक बहस और जनवादी प्रतिरोध के तमाम रास्ते बंद कर दिए हैं. जब तमाम रास्ते बंद कर दिए गए हैं तब सशस्त्र प्रतिरोध के अलावा अब और कोइ रास्ता नहीं बचता है. जयराम रमेश ने स्वीकार किया है कि आदिवासियों की संसदीय राजनीति में बड़ी भूमिका नहीं है इसीलिए उन्हें मरहुम रखा गया है. इसके अलावा उन्होंने आदिवासियों के साथ होने वाले शोषण-उत्पीड़न और विस्थापन को भी बड़े मासुमियत के साथ स्वीकार किया है. दरअसल संसदीय राजनीति में आदिवासियों की मामूली भूमिका तो इनकी बदहाली का बहुत ही छोटा पक्ष है. यदि संसदीय राजनीति में कम भूमिका की वजह से इन्हें पिछड़ा रखा गया है तब जिन इलाकों की संसदीय राजनीति में काफी महत्वपूर्ण भूमिका है, वे इलाके क्यूं अभी भी पिछड़े हैं ? असली कारण को तो उन्होंने बड़ी चालाकी के साथ छिपा लिया है. सच तो यह है कि भारतीय शासक वर्ग की तमाम योजनायें दलाल नौकरशाह पूंजी और साम्राज्यवादी ताकतों के हित में बनायी गई. तमाम पंचवर्षीय योजनाएं भी इन्हीं लुटेरों को ध्यान में रखकर बनाई गई. शासक वर्गों का रिश्ता इन इलाकों से खनिजों के दोहन तक सीमित रहा. ऐसे में शासक वर्ग ने साम्राज्यवाद और दलाल नौकरशाह पूंजी के हित को ध्यान में रखते हुए आदिवासियों के सवाल को अनदेखा किया और इन्हें इनके घर-बार से बेदखल करने की परंपरा बरकरार रखी. लेकिन अब यहां मूल रुप से समझने की जरुरत यह है कि अचानक जयराम जी को सद्बुद्धि कहां से आ गई ? आज इन लूटेरे वर्गों के खिलाफ संघर्ष में व्यापक आदिवासी गोलबंद हो रहे हैं. ऐसे में संघर्षरत आदिवासियों को धोखा देने के लिए जयराम रमेश यह हमदर्दी जता रहे हैं. अब इन समस्याओं के समाधान के बारे में जयराम रमेश कहते हैं कि सुरक्षा के साथ विकास जरुरी है. और इनके सुरक्षा का मतलब है इन आदिवासी इलाकों में ज्यादा से ज्यादा केंद्रीय बलों की तैनाती के जरिए जनता पर दमन ढाना. पहले तो जयराम रमेश आदिवासियों के पिछड़ेपन के लिए संसदीय राजनीति और विस्थापन को जिम्मेवार मानते हैं जबकि समाधान के लिए सैनिक कार्यवाही की बात करते हैं. असल सवाल यह है कि आदिवासियों को खतरा किससे है ? चूंकि आदिवासियों को खतरा लूटेरे वर्गों से है इसलिए उनकी सुरक्षा भी इन लुटेरे वर्गों के खिलाफ संघर्ष से ही जुड़ी हुई है. फिर केंद्रीय बल किससे सुरक्षा के लिए इन जंगलों में आयेंगे. स्पष्ट है कि ये केंद्रीय बल आदिवासियों के इन लूटेरों के खिलाफ प्रतिरोध को कुचलने के लिए आयेंगे न कि इन लूटेरों से रक्षा के लिए.
उन्होंने हमारी पार्टी के ऊपर विकास विरोधी होने का आरोप लगाया है. हमारी पार्टी जयराम रमेश से पूछना चाहती है कि हमने कब विकास की खिलाफत की है ? दरअसल शासक वर्गो का यह बहुप्रचारित आरोप जनता को धोखा देकर महज यह समझाने के लिए है कि अविकास के लिए माओवादी जिम्मेवार हैं. लेकिन यहां सवाल यह है कि माओवादियों ने कब विकास योजनाओं को रोका है ? क्या भूखमरी, अशिक्षा और कुपोषण के लिए माओवादी जिम्मेवार हैं ? सच तो यह है कि शासक वर्ग की नीतियां ही भूखमरी, कुपोषण और अशिक्षा के लिए जबाबदेह हैं. विकास के नाम पर सरकार का मतलब हरेक गांवों को सड़क से जोड़ना है. सरकार ने कभी भी ग्रामीण इलाकों में कृषि और शिक्षा के लिए कोई ठोस योजना नहीं बनाई. सड़क बनाने का मूल मकसद तो गांवों तक बहुराष्ट्रीय कंपनियों की पहुंच और उनके लिए बाजार बनाना है. इसके अलावा यहां से खनिज ढोकर ले जाना भी सड़क बनाने के पिछे प्रमुख कारण है. वे गांव गांव तक अपने बलों की पहुंच बनाने के लिए ही सड़कों के निर्माण पर जोर दे रहे हैं ताकि सरकारी बलों की बेरोकटोक आवाजाही की गारंटी की जा सके. इस तरह दमन के शिलालेख पर विकास की गाथायें लिखी जा रही है. जहां तक शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, रोजगार और सिंचाई से जुड़े मसलों का सवाल है तो हमारी पार्टी ने कभी इन योजनाओं को बाधित नहीं किया. यह तो हमारे संघर्ष के विभिन्न मुद्दों में प्रधान है लेकिन सरकार कभी भी इन मुद्दों पर बात नहीं करती. जयराम रमेश आजकल नरेगा को लेकर खुब हो-हल्ला कर रहे हैं. लेकिन क्या वे इस सवाल का जवाब दे सकते हैं कि वे कितने गांवों में ईमानदारी से नरेगा लागू करवा पाये हैं ? मूल बात यह है कि जयराम रमेश की यह नीति जनता के विकास के लिए नहीं बल्कि हमारे आंदोलन को कुचलने के लिए है. जयराम रमेश के सारंडा और सरयू एक्शन प्लान की असलियत क्या है ? सच यह है कि जयराम रमेश की इस योजना का खाका विश्व बैंक के अधिकारियों ने तैयार किया है. हम जानते हैं कि विश्व बैंक के इस विकास योजना के पीछे क्या हित हैं. उत्पीडि़त देशों में विश्व बैंक की भूमिका से हम अनभिज्ञ नहीं हैं. दरअसल यह जनता के संसाधनों पर कॉरपोरेट कब्जे का ही पुर्वाभ्यास है. विकास के नाम पर चलाई जा रही यह नौटंकी जनता के साथ धोखाधड़ी के अलावा कुछ नहीं है. इसके बावजूद हमारी पार्टी उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई और रोजगार से जुड़े मसलों को इमानदारी से लागू करने की चुनौती देती है. जयराम रमेश का असली मकसद तब सामने आ जाता है, जब वे विकास को माओवादियों को खत्म करने का एक प्रमुख हथियार मानतें हैं. इसके लिए वे एनजीओ और नागरिक समाज का सहयोग मांगते हैं. इसका मतलब यह है कि मूल मुद्दा माओवादियों को खत्म करना है न कि विकास करना. विकास का मसला तो उनकी भाषा में माओवादियों को खत्म करने के लिए जरुरी है. एनजीओ को तो संघर्षरत इलाकों में भेजकर उन्हें सरकारी बलों के लिए जासूसी और सरकारी योजनाओं को लागू करके प्रतिरोध को कमजोर करने के एक साधन के बतौर इस्तेमाल किया जा रहा है.
युद्ध नीति का मसला
कटीया जंगल में मुठभेड़ के बाद पहली बार कॉरपोरेट मीडिया और सरकारी बलों ने भी युद्ध नीति का सवाल उठाना शुरू किया है. हमारी पार्टी पहले से ही यह कहती रही है कि शासक वर्ग ने हमारी पार्टी तथा मेहनतकश आदिवासी, गैर आदिवासी जनता के ऊपर युद्ध थोप दिया है, वैसे में उसे अन्तरराष्ट्रीय युद्ध नीतियों (जेनेवा कन्वेंशन) का पालन करना चाहिए. लेकिन शासक वर्ग ने कभी स्वीकार ही नहीं किया कि वह सीधे तौर पर हमारी पार्टी के ऊपर युद्ध में संलग्न है. खुद कभी युद्ध को स्वीकार नहीं करना और माओवादियों को युद्ध नीतियों के पालन का उलाहना देना कायरता और धोखाधड़ी के अलावा कुछ नहीं है. हमारी पार्टी हमेशा से युद्ध नीति का सम्मान करती है और शासक वर्ग को भी इसका पालन करने की चुनौती देती है. जो लोग हमारी पार्टी पर युद्ध के अन्तरराष्ट्रीय कायदों की खिलाफत का आरोप लगा रहे हैं, वही लोग इन विशाल और क्रूर बलों द्वारा युद्ध नीतियों के उल्लंघन पर चुप क्यों हैं ? क्या निर्दोष आम नागरिकों की हत्या करना युद्ध नीतियों का खिलाफत नहीं है ? क्या निहत्थे लोगों को गिरफ्रतार कर यातना देना और फर्जी मुठभेड़ में मार देना युद्ध नीतियों का उलंघन नहीं है ? क्या युद्ध के मोर्चे पर आम जनता को ढाल के रूप में इस्तेमाल करना युद्ध नीतियों का उल्लंघन नहीं है ?
शासक वर्ग हमारी पार्टी और जनता की सशस्त्र शक्ति पीएलजीए को नष्ट करने के लिए तमाम मध्ययुगीन बर्बर तरीकों का इस्तेमाल करती रही है, जिसकी अनुमती न तो युद्ध नीति देती है न ही खुद उसी शासक वर्ग का कानून. हमारी पार्टी के केन्द्रीय कमिटी के नेताओं कॉ0 श्याम, मुरली, महेश, बीके चन्द्रमौली, पटेल सुधाकर रेड्डी, चेरूकुरी राजकुमार, कोटेश्वर राव सहित सैेकड़ों नेताओं और कार्यकर्ताओं को पकड़कर फर्जी मुठभेड़ में सरकारी बलों ने मार दिया. इतना ही नहीं आम जनता को भी नक्सली बताकर उनका नरसंहार किया. औरंगाबाद में कॉ0 मदन, छतरपुर (पलामू) में राजेन्द्र यादव सहित कई लोगों को यातना देकर लॉकअप में मार दिया गया. संगठन छोड़कर घर में रह रहे कॉ0 पारस की हत्या फर्जी मुठभेड़ में कर दी गई. इतना ही नहीं लातेहार के बढ़नियां में ही लाश उठाने के नाम पर ले जाये गये पांच ग्रामीणों की हत्या केन्द्रीय बलों ने नक्सली बताकर कर दिया. हाल ही में छत्तीसगढ़ के बीजापुर में करीब 18 ग्रामीणों का सामूहिक नरसंहार अभी भी यादों में ताजा है. कटीया की लड़ाई में ही युद्ध के मोर्चे पर निहत्थे ग्रामीणों का इस्तेमाल किस युद्ध नीति के अनुरूप है ? सरकारी केन्द्रीय बलों पर इन ग्रामीणों की हत्या का मुकदमा चलाया जाना चाहिए लेकिन क्या यह सत्ता इसके लिए तैयार हाेगी ?
शक्ति और सत्ता के मद में चूर जो सत्ता क्रूरता से रोज ब रोज युद्ध नीतियों का उल्ंलघन कर रही हो, उस सत्ता के खिलाफ संघर्षरत जनता को युद्ध नीति न मानने की दुहाई देना काफी हास्यास्पद है. अपनी बाध्यता नहीं होने के बावजूद हमारी पार्टी युद्ध के अन्तरराष्ट्रीय कायदों का सम्मान ही नहीं करती है बल्कि अपने हर मोर्चे पर इसका पालन करने का दावा भी करती है. लेकिन युद्ध थोपने वालों, जो इन अन्तरराष्ट्रीय कायदों से बंधे हैं- के लिए ही इन अन्तरराष्ट्रीय कायदों की कोई अहमियत नहीं रह जाती तब हमारे लिए भी इन समझौते को मानने या न मानने का कोई मतलब नहीं रह जाता. जब क्रूर दुश्मन अन्तरराष्ट्रीय कायदों की बात तो दूर, खुद अपने ही कानून की धज्जियां उड़ा रहा हो तब अन्तरराष्ट्रीय कायदों का पाठ पढ़ाने का मतलब धोखा देने के अलावा कुछ नहीं रह जाता है.
कुछ लोगों का आरोप है कि शव में बम प्रत्यारोपित कर पीएलजीए ने शव का अपमान किया है. उनका कहना है कि यह सामाजिक परम्पराओं और मानवता के विपरीत है. महज शव ही क्यों, हम तो हरेक इंसान के जीवन का सम्मान करने का पक्षधर हैं. कुछ लोग तर्क दे रहे हैं कि हमने मृत शरीर में बम लगाकर शव का अपमान किया है- उनके तर्कों को भी यदि ध्यान में रखा जाये तब पोस्टमार्टम करने वाला डॉक्टर तो हरेक शव का अपमान ही करता है. यहां यदि घटना को उसके मकसद से काट दिया जाय तो एक ही घटना एक तरह से न्यायपूर्ण हो जाती है तो ठीक दूसरी तरफ से अन्यायपूर्ण. यही तो त्रासदी है कि जो लोग शवों के सम्मान को लेकर इतना चिंतित हैं उन्होंने कभी जिंदा लोगों का सम्मान करना ही नहीं सीखा. किसी भी सभ्य समाज को तो नफरत ही हो सकती है उन सामाजिक परम्पराओं से जो शवों की इज्जत की तो बात करती है जबकि जिन्दा लोगों को हमेशा अपने पैरों की जूती के बराबर समझती हो. जो लोग शवों के सम्मान की बात कर रहे हैं उन्हें अपनी मातृभूमि के सम्मान के बारे में चिंता क्यों नहीं होती ? हरेक समाज और सभ्यता ने आदिम समय से यही सिखाया है कि कोई भी ताकत जब प्रत्यक्ष या फिर अप्रत्यक्ष तरीके से हमारी मातृभूमि को गुलाम बनाने की कोशिश कर रही हो, हमारे संसाधनों पर दलालों के जरिये कब्जा करने की कोशिश कर रही हो तब अपनी मातृभूमि की रक्षा में उठ खड़ा होना और उसके लिए अपने अमूल्य प्राण को न्योछावर कर देने के लिए भी तैयार रहना सबसे अधिक देशभक्ति और सम्मान है. लेकिन ये लोग नहीं समझ सकते- इसलिए कि ये लोग साम्राज्यवादियों और मातृभूमि के दुश्मनों की जूठन खाने वाले लोग हैं. ये तो इस जूठन में हिस्सेदारी के लिए अपनी मातृभूमि को बेचने के लिए भी तैयार रहने वाले लोग हैं. ये लोग भगत सिंह को फांसी दिलाने वाले शोभा सिंह और अन्य गद्दार राजे-रजवाड़े की विरासत को बढ़ाने वाले लोग हैं. ये लोग देश के क्रांतिकारी सुभाष चंद्र बोस को गिरफ्तारी के बाद अंग्रेजों को सौंप देने का समझौता करने वाले लोग हैं.
शव के सम्मान के मसले पर सबसे ज्यादा हंगामा करने वाले भी वही क्रूर बल और उनके जरखरीद बुद्धिजीवी और कॉरपोरेट मीडिया है. यही लोग हमेशा सरकारी बलों के हाथों मारे गए पीएलजीए के योद्धाओं के शवों के मसले पर चुप रहते हैं. शवों का सम्मान तो दूर, सरकारी बल कभी उनका शव उनके परिवार वालों को भी नहीं सौंपते. कभी-कभार सौंपते भी हैं तो उन्हें पुलिस घेरे में शव जलाने के लिए बाध्य किया जाता है ताकि इन सरकारी बलों की क्रूरता की पोल न खुल जाए. जो क्रूर बल क्रूरता और अपमान के सिवाय कुछ नहीं जानते उन्हें सम्मान और मानवता की बात करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है. जहां तक पुलिस को शव सौंपने की बात है, तो यह तो तब होता जब युद्ध रुक जाता. यदि सरकारी बलों को शव ले जाना था तो कायदे से उन्हें पहले ऑपरेशन बंद करने की घोषणा करनी चाहिए थी. इसके अलावा वे रेड क्रॉस या अन्य मानवाधिकार संगठनों की मदद से भी अपना शव ले जा सकते थे. जब दोनों ओर से लड़ाई जारी हो तो हरेक पक्ष एक दूसरे पक्ष को ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचाने की कोशिश करते हैें. पीएलजीए ने जब सरकारी बलों के शवों को कब्जे में लिया था उस समय युद्ध जारी था. ऐसे में शवों को सौंपने का कोई मामला ही नहीं बनता है. अपनी बाध्यता नहीं होने के बावजूद हमने तो हमेशा युद्ध नीति के पालन की कोशिश की है. लातेहार के करमडीह में अप्रैल 2012 में ही हेलीकॉप्टर पर हमले के बाद मुठभेड़ के दौरान मारे गए सिपाहियों का शव लेने जब केन्द्रीय बल के लोग रेडक्रॉस का झंडा गाड़ी में लगाकर आए तो हमने उन्हें घायलों और शव को ले जाने दिया. हम चाहते तो उन्हें उस दौरान भी भारी नुकसान पहुंचा सकते थे. जो लोग भी युद्ध नीति के उल्लंघन का सवाल उठा रहे हैं, उन्हें इस युद्ध अभियान के पूरे संदर्भ को ध्यान में रखकर ही बात करनी चाहिए. जब वे सरकारी युद्ध अभियान की बर्बरता, क्रूरता और गैर उसूली को समझ लेंगे, तब वे इसके खिलाफ प्रतिरोध को भी ठीक से समझ पाएंगे. इस बर्बर युद्ध अभियान को बगैर समझे प्रतिरोध की आलोचना करना दरअसल साम्राज्यवाद और शासक वर्गों के हाथों में खेलना है. पीएलजीए के योद्धा हरेक पल युद्ध के मैदान में हैं. अपेक्षाकृत कमजोर हथियारों से एक भारी विध्वंसक हथियारों से लैस विशाल और क्रूर हमलावर बलों के खिलाफ प्रतिरोध में युद्ध कौशल और प्रतिरोध का स्वरुप युद्ध के मैदान में युद्ध के स्वरूप और दुश्मन के युद्ध कौशल से ही निर्धारित होता है. युद्ध के मैदान में डटे योद्धाओं के लिए यह महत्वपूर्ण होता है कि वह दुश्मन के हरेक रण कौशल को परास्त करने के लिए नये रण कौशल अपनाए. कभी-कभार घटी कुछ गलत घटनाओं को भी जनता के अन्दर पल रही नफरत के साथ ही देखना होगा. जमीन से आकाश तक हथियारों से लैस क्रूर बलों के रण कौशल को परास्त करने के लिए पीएलजीए भी विभिन्न रण कौशल अपना रही है. इसके बावजूद हम तमाम मानवाधिकार संगठनों, जनवाद पसंद नागरिकों और बुद्धिजिवियों को यह आश्वस्त करना चाहते हैं कि काफी कम संसाधन से इस बर्बर युद्ध का सामना कर रही पीएलजीए युद्ध के हरेक मोर्चे पर युद्ध नीति का पालन करने की कोशिश करेगी. क्रूर व फासीवादी बल भले ही तमाम कायदों का उल्लंघन करते रहें, हमें मानवता और व्यापक जनता के प्रति अपने उतरदायित्वों का अहसास है और काफी विषम परिस्थितियों में रॉकेट के भारी गोलों और लेजर गन का सामना करते हुए भी हम उन युद्ध नीतियों पर अडिग रहने की कोशिश करेंगे. हम अपने तमाम हमदर्दों को भी यह अहसास दिलाना चाहते हैं कि आपने इस बर्बर युद्ध में जिस शिद्दत से न्यायपूर्ण युद्ध का पक्ष लिया है, हम हमेशा अन्यायपूर्ण युद्ध के खात्मे के लिए प्रतिरोध में आपको आलोचना का पात्र नहीं बनने देंगे. इसके साथ ही सरकारी बलों और उनके जरखरीद गुलाम बुद्धिजीवियों को भी हम यह बताना चाहते हैें कि आप सब को इस युद्ध में युद्ध नीति के बारे में हमारी पार्टी से सवाल करने का कोई नेैतिक अधिकार नहीं है. उन तमाम मासुमों, ग्रामीणों, बच्चों और महिलाओं को, जिनके आंखों के सामने उनके मां-बहनों का बलात्कार किया गया, जिनके गांव जलाए गए, जिनका कत्लेआम किया गया, पहले उन्हें जवाब दिया जाना चाहिए. इसके बाद ही हमसे युद्ध नीति के उल्लंघन और मानवता की बात करना थोड़ा सहज लगेगा. हम फिर दुहराना चाहते हैं कि हमारा उतरदायित्व व्यापक आम जनता के प्रति है न कि साम्राज्यवादियों के जूठन चाटने वालों के लिए आने वाले इन क्रूर और सरकारी बलों के प्रति.
आम सिपाहियों से अपील
हमें इस बात का काफी दुःख है कि साम्राज्यवाद के पक्ष में मातृभूमि को बेचने के लिए छेड़े जाने वाले इस युद्ध के खिलाफ प्रतिरोध का आप शिकार हो रहे हैं. हम जानते हैं कि इस युद्ध में आपके मारे जाने के बाद पूरे एक परिवार पर दुःख का पहाड़ टूट जाता है. ठीक वैसे ही जैसे हमारे पीएलजीए के योद्धाओं की शहादत के बाद उनके परिवार पर. इसको हमसे बेहतर कौन जानता है. 1970 के दशक से आज तक हमने भी अपने 14 हजार से अधिक बेटे-बेटियों और भाईयों को खोया है. इनके परिवार का दुःख आज भी हमारी यादों में ताजा है- ये कुर्बानी हम लगातार दे रहे हैं. कॉरपोरेट मीडिया सरकारी बलों की मौत के बाद उनके परिवारों के प्रति काफी संवेदना दिखाने का ढोंग करते हैं- लेकिन वे अक्सर छिपा जाते हैें कि कॉरपोरेट घराने ही तो अपने मुनाफे के लिए इन्हें मौत के मुंह में भेज रहे हैं. हमें मारे गये सरकारी बलों के परिवारों के प्रति काफी संवेदना है लेकिन कॉरपोरेट मीडिया की उन परिवारों के प्रति संवेदना कहां गायब हो जाती है जब पुलिस निर्दोष लोगों या फिर पीएलजीए के लोगों की हत्याएं करती है. क्या इन परिवारों की रूलाई इन मीडिया घरानों को कभी दिखता है ? यहां सवाल यह है कि क्या इसको रोकने का कोई उपाय है ? कितना अच्छा होता यदि हरेक परिवार अपनी खुशहाली के साथ जी पाता! हम यही तो चाहते हैं और इसी के लिए तो हमारा संघर्ष है- लेकिन इन सबके बावजूद हम एक बर्बर और क्रूर युद्ध के मैदान में खड़े हैं. हमने पहले ही कहा है कि कॉरपोरेट लूटेरे और साम्राज्यवादी ताकतों ने हमारे जल-जंगल-जमीन पर कब्जा करने के उद्देश्य से और इस लूट के खिलाफ आत्मनिर्भर भारत के निर्माण के लक्ष्य के साथ खड़े हो रहे राजनीतिक विकल्प को नेस्तनाबूद करने के लक्ष्य के साथ देश के दलालों द्वारा एक युद्ध छेड़ा गया है. इस देशद्रोही बर्बर युद्ध का प्रतिरोध करना अपनी मातृभूमि से प्रेम करने वाले हरेक देशभक्तों का सबसे पावन कर्तव्य है. इस पावन कर्तव्य के साथ हम भी युद्ध के मैदान में खड़ें हैं. अब परिवारों के दुःख को ध्यान में रखते हुए हम युद्ध के मैदान से यदि बाहर होते हैं तो यह अपनी मातृभूमि को बेच देने के बराबर होगा. इसलिए मूल बात यह नहीं है कि इस युद्ध में सैंकड़ों परिवार उजड़ रहे हैें, बल्कि मुख्य बात यह है कि अपनी मातृभूमि की रक्षा में देशभक्तों को प्रतिरोध संघर्ष को कैसे आगे बढ़ाना है. दुर्भाग्य की बात यह है कि नौकरी की खातिर आप अपने ही मातृभूमि के खिलाफ अमेरिकी साम्राज्यवाद के पक्ष में छेड़े गए युद्ध के पक्ष में हैं. ऐसे में आप जहां चंद रूपये की खातिर अपनी मातृभूमि के खिलाफ छेड़े गए युद्ध के पक्ष में हैं वहीं हम अपनी जान हथेली पर लेकर अपनी मातृभूमि की रक्षा में. किसी के लिए भी प्रतिबद्धता सबसे पहले अपने देश और वर्ग के प्रति है जिसमें उसने पैदा लिया हो इसके बाद ही प्रतिबद्धता अपनी मालिक या वर्दी के प्रति बनती है. लेकिन कितनी अजीब है कि जालियांवाला बाग नरसंहार के लिए आपको ही इस्तेमाल किया गया, इसके बाद आपको ही अरवल और बीजापुर नरसंहार को अंजाम देने के लिए भेजा गया. हमेशा आपको सामने करके ही दुश्मन अपनी चालें चलता है. आप कबतक उनकी कठपुतली बनकर अपने ही भाइयों का शिकार करते रहेंगे ? लकीर खींचीे जा चुकी है. वाशिंगटन और दिल्ली में बैठे हमारी मातृभूमि के दुश्मनों और उसके दलालों ने इस युद्ध के लिए दिन रात एक कर दिया है. हम आपको भी विश्वास दिलाना चाहते हैं कि हजारों कुर्बानियों के बावजूद हम अपनी मातृभूमि की रक्षा में युद्ध की मैदान में डटे हैं और अपने अंतिम सांस तक इस युद्ध के मैदान में डटे रहेंगे. हम मातृभूमि के प्रति अपने पावन कर्तव्य का निर्वहण कर रहे हैं और आप से भी अपील कर रहे हैं कि आप साम्राज्यवादियों और उसके दलालों द्वारा छेड़े गए इस युद्ध में बलि का बकरा नहीं बनें. आज हरेक देशभक्त का कर्तव्य है इस देशद्रोही युद्ध के प्रतिरोध में अपनी मातृभूमि की रक्षा करना. हमारे जल-जंगल-जमीन पर अधिपत्य करने आ रहे कॉरपोरेट शार्कों को अपनी जमीन से मार भगाना. हम आप से भी अपील करते हैं कि यदि इस युद्ध का अंत करना है और हरेक परिवार को खुशहाल बनाना है तो आइए इस देशद्रोही युद्ध के खिलाफ देशभक्तों का एकजूट संघर्ष तेज करें. अपनी जमीन से तमाम विदेशी लूटेरों और उसके दलालों को मार भगाएं. यही वो रास्ता है जो युद्ध का अन्त कर सबके लिए खुशहाली लायेगी.
आम जनता से अपील
आज जब दलाल शासक वर्गों ने एक बर्बर युद्ध छेड़ दिया है, हजारों देशभक्त बेटे-बेटियां अपनी मातृभूमि की रक्षा में इस युद्ध के प्रतिरोध में जंगे मैदान में हैं. यह प्रतिरोध अन्यायपूर्ण युद्ध का न्यायपूर्ण युद्ध द्वारा खात्मे और फिर वास्तव में एक खुशहाल और आत्मनिर्भर भारत के निर्माण के लक्ष्य के साथ हैं. हथियार और ताकत के दंभ में चूर विदेशी ताकतों के हाथों में खेल रहा शासक वर्ग इन सबको नष्ट कर देने पर आमादा है. यह शासक वर्ग हमारा जल-जंगल-जमीन और वो सबकुछ हमसे छिन लेना चाहता है, जिसपर सदियों से हमारा अधिकार है. यह शासक वर्ग हरेक प्रतिरोध को कुचल देना चाहता है. आपके हजारों बेटे-बेटियों ने इस युद्ध में अपने प्राणों की आहूति दी है और वे अभी भी अपनी मातृभूमि की रक्षा में खड़े हैं. अब इस देशद्रोही युद्ध का प्रतिकार करना हरेक देशभक्तों का कर्तव्य है. जो भी, जहां भी हो उसे हर संभव तरीके से इस युद्ध के खिलाफ गोलबंद होना आज का महत्वपूर्ण कार्यभार है. अंतिम विश्लेषण में यह युद्ध देश के व्यापक मजदूरों, किसानों, दलितों, आदिवासियों और यहां तक कि छोटे पूंजीपतियों के खिलाफ भी है. पीएलजीए हर संभव तरीकों और उपलब्ध संसाधनों के साथ जंग-ए-मैदान में इसका प्रतिरोध कर रही है. हमारी पार्टी तमाम मजदूरों, किसानों, छात्र््रों जवानों, छोटे दुकानदारों और बुद्धिजीवियों से अपील करती है कि इस लूटेरी युद्ध का व्यापक प्रतिरोध करने के लिए गोलबंद हों और पीएलजीए द्वारा चलाए जा रहे प्रतिरोध युद्ध के पक्ष में खड़े हों. हाल ही में कटीया जंगल में पीएलजीए के योद्धाओं के बहादूराना प्रतिरोध ने साबित कर दिया है कि शासक वर्ग के खूनी जंगबाज कितने भी खतरनाक हथियारों से लैस हों, जनता के समर्थन से उनके बढ़ते कदमों को न केवल रोका जा सकता है बल्कि उन्हें खदेड़कर वापस भागने के लिए मजबूर किया जा सकता है. आयें, हम सभी मिलकर इस बर्बर फासीवादी युद्ध का प्रतिरोध करें और शासक वर्ग को यह युद्ध वापस लेने के लिए व्यापक संघर्ष तेज करें. इतिहास ने साबित किया है कि सत्ताएं कितना भी दमन कर लें, इतिहास का निर्माण तो जनता ही करती है. हमें पूर्ण आत्मविश्वास है कि व्यापक देशभक्त जनता के सहयोग से हम न केवल इस देशद्रोही युद्ध को परास्त करेंगे बल्कि सामंती-साम्राज्यवादी और पूंजीवादी गिद्धों से अपनी मातृभूमि को मुक्त कर सही मायने में आजाद, आत्म निर्भर, नवजनवादी, और धर्मनिरपेक्ष, खुशहाल भारत का निर्माण करने में सफल होंगे.
Read Also –
सेना, अर्ध-सेना एवं पुलिस, काॅरपोरेट घरानों का संगठित अपराधी और हत्यारों का गिरोह मात्र है
हथियार रखना मौलिक अधिकार की दिशा में पहला कदम
आदिवासियों के साथ जुल्म की इंतहां आखिर कब तक?
सुकमा के बहाने: आखिर पुलिस वाले की हत्या क्यों?
सत्ता पर काबिज होना बुनियादी शर्त