मोदी सरकार ने अंततः पूंजीपति वर्ग द्वारा लम्बे समय से की जा रही मांग को पूरा कर दिया है. संघी सरकार संसद के मानसून सत्र, 2020 में श्रम संबंधी तीन बिलों को पारित करा चुकी है. जिस तरह बेहद आनन-फानन में संसद के दोनों सदनों- लोकसभा और राज्यसभा- से इन घोर मजदूर विरोधी बिलों को पारित किया गया उसने पूंजीवादी संसदीय लोकतंत्र के जनविरोधी चरित्र को एक बार फिर बेपर्दा कर दिया.
राष्ट्रपति के हस्ताक्षर की औपचारिकता पूरी होने के बाद अब ये- औद्योगिक संबंध संहिता 2020, व्यवसायिक संरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशा संबंधी संहिता 2020 एवं सामाजिक सुरक्षा संहिता 2020 -कानून बन चुके हैं. गौरतलब है कि वेतन संहिता 2019 पहले ही कानून बन चुकी है. श्रम मंत्रालय द्वारा अप्रैल 2021 से इन चारों श्रम संहिताओं (Labour Codes) को लागू करने की घोषणा की गई है. इनके लागू होने के साथ 29 केन्द्रीय श्रम कानूनों का स्वतंत्र अस्तित्व स्वतः समाप्त हो जायेगा.
इन चारों श्रम संहिताओं में विभिन्न श्रम कानूनों के सम्मिलन और सरलीकरण के नाम पर भारी असामंजस्य, अस्पष्टता एवं भ्रम की स्थिति को पैदा कर दिया गया है, जो कि पूंजीपति वर्ग को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से की गई सचेत कार्यवाही है. इन संहिताओं में मजदूर, औद्योगिक संस्थान एवं कार्यदिवस के घंटों की बातें अलग-अलग संहिताओं में अलग-अलग हैं. उदाहरणस्वरूप, वेतन संहिता की धारा-13 में कहा गया है कि न्यूनतम वेतन तय हो जाने के उपरांत संबंधित सरकार काम के घंटे निर्धारित कर सकती है, जो कि सामान्य कार्यदिवस माना जायेगा. अर्थात सरकार चाहे तो मजदूर का सामान्य कार्य दिवस 10 घंटे, 12 घंटे अथवा कुछ भी हो सकता है. जबकि व्यवसायिक संरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्यदशा संबंधी संहिता की धारा-25 के अनुसार मजदूर का कार्यदिवस 8 घंटे से अधिक नहीं हो सकता। हालांकि इस संहिता में भी ओवरटाइम के घंटों पर चुप्पी साधकर और इसे निर्धारित करने का अधिकार सरकार को सौंपकर पूंजीपतियों के लिए जब चाहे तब मजदूर का कार्यदिवस बढ़ाने का प्रबंध कर दिया गया है.
इन संहिताओं में सरकारों को असीमित शक्तियां प्रदान कर दी गई हैं. श्रम विभाग के निरीक्षकों की भूमिका को मददकर्ता अथवा फैसीलिटेटर तक सीमित कर दिया गया है. अब वे किसी फैक्टरी-संस्थान में अचानक पहुंचकर निरीक्षण करने, रिकार्डों की जांच करने, श्रम कानूनों के उल्लंघन पर पूंजीपति पर जुर्माना लगाने एवं आपराधिक मुकदमा कायम करने के अधिकारी नहीं होंगे. हालांकि भ्रष्ट श्रम निरीक्षकों एवं अधिकारियों द्वारा गैरकानूनी श्रम अभ्यास में लिप्त पूंजीपतियों पर कोई सख्त कार्यवाही पहले भी मुश्किल से ही की जाती रही है, लेकिन अब इनके पर कतर दिये जाने के बाद पूंजीपति एकदम बेलगाम होकर मजदूरों का निर्मम शोषण करेंगे. इसके अलावा पूंजीपतियों के द्वारा यह घोषणा कि उनके फैक्टरी-संस्थान में श्रम कानूनों का पालन होता है अर्थात् स्वप्रमाणीकरण (Self Certification) भी अब कानूनी तौर पर मान्य होगा.
इन श्रम संहिताओं में स्वतंत्र न्यायपालिका की अवधारणा को भी खंडित कर दिया गया है. औद्योगिक संबंध संहिता 2020 के तहत अब श्रम न्यायालय नहीं होंगे और बस राष्ट्रीय न्यायाधिकरण और क्षेत्र विशेष के लिए औद्योगिक न्यायाधिकरण ही होंगे. औद्योगिक न्यायाधिकरण में दो प्राधिकारी होंगे- एक न्यायिक तो दूसरा प्रशासनिक. दोनों प्राधिकारी कुछ मामलों को अलग-अलग भी सुन सकते हैं और फैसला भी ले सकते हैं. अर्थात् प्रशासनिक अधिकारी अब न सिर्फ न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा होंगे अपितु वे स्वतंत्र तौर पर भी मामलों को सुन सकेंगे और फैसला भी ले सकेंगे.
इसी तरह व्यवसायकि संरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशा संबंधी संहिता 2020 के तहत किसी विवाद की सुनवाई का अधिकार हाईकोर्ट से नीचे के न्यायालयों को नहीं होगा और एक प्रशासनिक प्राधिकरण विवादों की सुनवाई करेगा. इस तरह श्रम कानूनों की नई व्यवस्था में न्यायपालिका में कार्यपालिका की घुसपैठ बना दी गयी है. पूंजीपति अथवा प्रबंधन को इसका सीधे-सीधे लाभ मिलेगा जबकि मजदूर न्यायपालिका से न्याय की क्षीण उम्मीदों से भी अब वंचित हो जायेंगे.
सरकार और उसके कलम घसीट बुद्धिजीवियों द्वारा श्रम कानूनों में मजदूर विरोधी बदलावों के पक्ष में अक्सर ही यह तर्क दिया जाता है कि ये श्रम कानून महज 7 प्रतिशत संगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए हैं और 93 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को इनका कोई लाभ नहीं है. इस तरह संगठित क्षेत्र और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को आमने-सामने खड़ा करके संगठित क्षेत्र के मजदूरों को हासिल कानूनी सुविधाओं और अधिकारों को छीनने की कवायद को जायज ठहरा दिया जाता है. यदि सरकार की मंशा साफ होती तो वह श्रम कानूनों के दायरे को विस्तारित कर बहुलांश असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को भी इसमें समेट लेती. लेकिन सरकार की नीति तो इजारेदार पूंजीपति वर्ग के हितों को साधने हेतु मजदूर वर्ग के एक बहुत छोटे हिस्से को हासिल कानूनी सुविधाओं और अधिकारों को भी छीन लेने की है. पूंजीपति वर्ग के बेलगाम होने के परिणामस्वरूप संगठित क्षेत्र के मजदूर ही नहीं प्रभावित होंगे अपितु असंगठित क्षेत्र की व्यापक मजदूर आबादी का पहले से जारी निर्मम शोषण और अधिक बढ़ जायेगा. उनकी मजदूरी नीचे गिर जायेगी और कार्य की शर्तें एवं परिस्थितियां और कठोर हो जायेंगी. यहां एकदम स्पष्ट रहने की जरूरत है कि पूंजीवादी व्यवस्था में श्रम कानून पूंजी और श्रम के संबंधों को नियमित करते हैं, कि श्रम कानूनों के जरिये मजदूर वर्ग के शोषण को कानून की मान्यता हासिल हो जाती है.
ये चारों श्रम संहितायें (Labour Codes) असल में उन श्रम कानूनों के विघटन के दस्तावेज हैं, जिन्हें मजदूरों ने अपने अकूत संघर्षों-बलिदानों के बल पर 20वीं सदी में हासिल किया था. आजाद भारत के इतिहास में यह मजदूर वर्ग पर किया गया सबसे बड़ा हमला है. इसके तहत मोदी सरकार द्वारा उदारीकरण-निजीकरण की पूंजीपरस्त नीतियों के तहत जारी श्रम सुधार की प्रक्रिया को एक मुकाम पर पहुंचा दिया गया है.
इन श्रम संहिताओं के लागू होने के साथ मजदूर अधिकार विहीनता के हालातों में धकेल दिये जायेंगे. लेकिन क्या मजदूर वर्ग पर इस भीषण हमले के बाद मजदूरों के आंदोलन-संघर्ष थम जायेंगे ? कदापि नहीं. इतिहास गवाह है कि मजदूर अपने संघर्षों के लिए कभी किसी कानून का मोहताज नहीं रहे हैं. जब श्रम कानून न के बराबर थे तब भी सत्ता का कोई दमन मजदूर आंदोलन को आगे बढ़ने से नहीं रोक सका था. यहां तक कि मजदूरों ने क्रांतियां कर अपने राज भी स्थापित किये थे. आज जब अतीत के संघर्षों के बल पर हासिल श्रम कानूनों को छीना जा रहा है तब अपने गौरवशाली अतीत से ऊर्जा हासिल कर मजदूर आंदोलन पुनः क्रांतिकारी दिशा में आगे बढ़ेगा और अपने प्रतिरोध से पूंजीवादी शासकों को पीछे धकेल देगा.
प्रस्तुत पुस्तिका में हम इन चारों श्रम संहिताओं के घोर मजदूर विरोधी प्रावधानों को उजागर करेंगे, साथ ही बदल चुके हालातों में मजदूर वर्ग के प्रतिरोध की दिशा पर अपनी बातचीत केन्द्रित करेंगे.
1. औद्योगिक संबंध संहिता, 2020
(Industrial Relation Code, 2020)
इस श्रम संहिता के लागू होने के साथ ट्रेड यूनियन अधिनियम 1926, औद्योगिक रोजगार (स्थायी आदेश) अधिनियम 1946 एवं औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो जायेगा.
इस संहिता की धारा-2 (1) में कर्मचारी को परिभाषित किया गया है जबकि धारा-2 (27) में मजदूर को परिभाषित किया गया है. जहां कर्मचारी की परिभाषा में मजदूर से लेकर प्रबंधक सभी को शामिल कर लिया गया है तो वहीं मजदूर की परिभाषा से प्रशिक्षुओं को बाहर कर दिया गया है.
पुराने औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 से भिन्न इन दोनों बदलावों में एक ओर मजदूर-कर्मचारी का भ्रम पैदा कर दिया गया है, जिसका सीधा लाभ पूंजीपति अथवा प्रबंधन उठायेंगे, तो वहीं दूसरी ओर प्रशिक्षुओं के रूप में अधिकारविहीन मजदूरों की व्यापक भर्ती कर उनके निर्मम शोषण का रास्ता खोल दिया गया है.
इसके अलावा धारा-2 (Zr) IV के अनुसार जो व्यक्ति सुपरवाइजर की क्षमता वाले काम में नियोजित हो और उसका वेतन 18 हजार रु. प्रतिमाह से अधिक हो तो उसे मजदूर नहीं माना जायेगा. अब 18 हजार रुपये प्रतिमाह वेतन इतना कम है कि निम्न आय वाले सभी सुपरवाइजर, जो कि वास्तव में मजदूर ही हैं, इस दायरे को लांघ जायेंगे और मजदूर नहीं माने जायेंगे. साथ ही संहिता का यह प्रावधान पूंजीपतियों अथवा प्रबंधन को साफ तौर पर यह रास्ता भी सुझाता है कि उन्हें 18,000 रु. प्रतिमाह से अधिक वेतन पाने वाले मजदूरों पर कैसे दबाव बनाना है.
इस संहिता में फिक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेण्ट (FTE) को भी देशव्यापी पैमाने पर लागू करने का रास्ता साफ कर दिया गया है. संहिता की धारा-2 (O) के तहत फिक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेण्ट अर्थात् स्थायी प्रकृति के कामों पर भी निश्चित अवधि के लिए अस्थायी नियुक्ति को कानूनन मान्यता प्रदान कर दी गयी है. ‘रखो और निकालो’ (Hire & Fire) की पूंजीपतियों की मुंहमांगी मुराद को पूरा कर दिया गया है. फिक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेण्ट के तहत नियोजित मजदूर सेवा अवधि समाप्त हो जाने पर निकाल दिये जाने के बाद स्थायी नियुक्ति, काम पर पुनर्बहाली अथवा मुआवजे की मांग के साथ न्यायालय का दरवाजा खटखटाने के अधिकारी भी नहीं होंगे. उन्हें बस प्रतिवर्ष कार्य अवधि पर 15 दिन का वेतन थमाकर पुनः बेरोजगारों की भीड़ का हिस्सा बना दिया जायेगा. सरकार के नुमाइंदे पूरी बेशर्मी के साथ इस 15 दिन के वेतन को ग्रेच्युटी बताकर महिमामंड़ित कर रहे हैं, हालांकि इसके भुगतान से भी बचने के उपाय पूंजीपतियों के पास पहले से मौजूद हैं.
प्रशिक्षुओं एवं कम आय वाले सुपरवाइजरों को मजदूर की परिभाषा से बाहर करने एवं फिक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेण्ट की नीति को आगे बढ़ाने के परिणामस्वरूप अब ट्रेड यूनियनों का आधार और अधिक सीमित हो जायेगा. औद्योगिक संबंध संहिता में मजदूरों के ट्रेड यूनियन अधिकारों पर सीधे-सीधे भी भारी हमला बोला गया है. नई यूनियनों खासकर 300 से कम मजदूरों वाली फैक्टरियों में यूनियनों को पंजीकृत कराना लगभग असंभव बना दिया गया है. पुरानी यूनियनों के रजिस्ट्रेशनों को रद्द करने हेतु भी सरकार को असीमित शक्तियां प्रदान कर दी गई हैं. ट्रेड यूनियनों के गठन एवं संचालन में मददगार बाहरी पेशेवर संगठनकर्ताओं की भूमिका को सीमित किया गया है, साथ ही संहिता की धारा-4 के बिन्दु 9 के तहत प्रबंधन अथवा मालिक द्वारा किसी मजदूर की छंटनी, निष्कासन अथवा अन्य कोई कार्रवाही किये जाने पर पैदा होने वाले औद्योगिक विवाद में मजदूर के समर्थन में किसी अन्य मजदूर अथवा ट्रेड यूनियन को पक्ष बनने का अधिकार नहीं होगा.
संस्थान में एकमात्र वार्ताकार यूनियन Single Negotiating Union) की मान्यता हासिल करने के लिए 51 प्रतिशत मजदूरों की सदस्यता की सीमा रखी गई है. किसी भी यूनियन के इस मापदण्ड पर खरे न उतरने पर बनाई जाने वाली वार्ताकार परिषद (Negotiating Council) में भी सिर्फ उन्हीं यूनियनों के प्रतिनिधि बैठेंगे जिनके पास संस्थान के कम से कम 20 प्रतिशत मजदूरों की सदस्यता हो. गौरतलब है कि पहले सदस्यता की यह सीमा 10 प्रतिशत मजदूरों की थी.
इस संहिता में वैध-कानूनी हड़तालों के सभी रास्ते मजदूरों के लिए बंद कर दिये गये हैं. अभी तक आवश्यक जन उपयोगी सेवाओं (जल, बिजली, टेलीफोन, रेल एवं हवाई सेवा) वाले प्रतिष्ठानों को छोड़कर अन्य संस्थानों में हड़ताल पर जाने से पहले कोई नोटिस देना अनिवार्य नहीं था. लेकिन इस संहिता की धारा 62 (1) के तहत अब सभी संस्थानों में हड़ताल पर जाने से पूर्व नोटिस देना अनिवार्य बना दिया गया है. साथ ही इसमें हड़ताल पर जाने से कितने दिन पहले नोटिस देना होगा इस पर भ्रम की स्थिति पैदा कर दी गई है। धारा 62 (1) (a) में जहां हड़ताल से 60 दिन पूर्व नोटिस देने की बात की गई है वहीं धारा 62 (1) (b) में हड़ताल से 14 दिन पूर्व नोटिस देने की बात की गई है. यह भ्रम की स्थिति जान बूझकर बना कर रखी गई है ताकि मजदूरों को उलझाया जा सके.
इसी तरह पहले सिर्फ आवश्यक जनउपयोगी सेवाओं वाले संस्थानों में समझौता वार्ता (Concilation) के दौरान एवं निष्कर्ष के बाद अगले 7 दिनों तक हड़ताल प्रतिबंधित थी, लेकिन नये कानून में इसे सभी संस्थानों के लिए सामान्य बना दिया गया है. साथ ही अब किसी ट्रिब्यूनल में विवाद की सुनवाई पूरी होने के बाद अगले 60 दिनों तक अर्थात् दो महीने तक हड़ताल प्रतिबंधित रहेगी। पहले यह प्रतिबंध भी सिर्फ 7 दिनों तक ही लागू था.
इतने सख्त प्रावधानों के बाद मजदूरों की किसी भी हड़ताल को गैरकानूनी घोषित कर देना बेहद आसान हो जायेगा. और गैरकानूनी घोषित हड़ताल के दौरान पूंजीपति अथवा प्रबंधन द्वारा घोषित लॉकडाउन कानून सम्मत माना जायेगा. इतना ही नहीं संहिता की धारा-86 (13, 15 एवं 16) गैरकानूनी घोषित हड़तालों में शामिल मजदूरों एवं उनका सहयोग-समर्थन करने वाले व्यक्तियों पर भारी आर्थिक जुर्माने और जेल की सजा तक का प्रावधान करती है. मजदूर आंदोलन का अपराधीकरण करने और मजदूरों को उनके सामाजिक आधार से काटने की इस साजिश का हमें पुरजोर विरोध करना होगा.
पहले ही मारुति सुजुकी (मानेसर), एलाइड निप्पन, ग्रेजियानो एवं प्रिकाल इत्यादि के मजदूर कानून-सम्मत तरीके से यूनियन बनाने और वैध, कानूनी हड़ताल-आंदोलन के बावजूद भी आज जेलों में बंद हैं. अब नया कानून लागू होने के बाद हालात क्या होंगे, इसे समझना मुश्किल नहीं है.
आज से सौ-डेढ़ सौ साल पहले अपने भयंकर शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध हड़ताल करना अथवा यूनियन गठन करना अपराध ही माना जाता था. ऐसा अपराध करने वाले मजदूरों पर भारी जुर्माने लगाये जाते थे और उन्हें जेलों में ठूंस दिया जाता था. स्पष्ट है कि मोदी सरकार मजदूरों के लिए उन्हीं पुराने ‘अच्छे दिनों’ की वापसी हेतु कमर कस चुकी है.
औद्योगिक संबंध संहिता के अध्याय-10 के प्रावधानों के अनुसार ऐसे फैक्टरी-संस्थान जहां 300 से कम मजदूर काम करते हैं वहां सरकार की अनुमति के बिना एकतरफा छंटनी-तालाबंदी की खुली छूट पूंजीपतियों को प्रदान कर दी गयी है. पहले पूंजीपतियों को यह कानूनी छूट सिर्फ 100 से कम मजदूरों वाले फैक्टरी-संस्थानों तक ही सीमित थी. इतना ही नहीं संहिता की धारा 77 (1) में सरकार को यह शक्ति भी प्रदान कर दी गई है कि वह चाहे तो इस सीमा को और अधिक बढ़ा सकती है. इसके अलावा पुराने कानून में छंटनीशुदा मजदूरों को फैक्टरी में काम होने पर प्राथमिकता के आधार पर पुनर्बहाली का अधिकार था लेकिन अब अध्याय-9 में संहिता की धारा-72 के तहत पुनर्बहाली के इस अधिकार को महज एक वर्ष तक के लिए सीमित कर दिया गया है.
हालांकि विभिन्न राज्य सरकारें खासकर भाजपा शासित प्रदेशों की राज्य सरकार श्रम के समवर्ती सूची में होने के नाम पर 300 से कम मजदूरों वाले फैक्टरी-संस्थानों में एकतरफा छंटनी-तालाबंदी के अधिकार को राज्य स्तर पर कानून में बदलाव कर पूंजीपतियों को पहले ही सौंप चुकी हैं. राज्य सरकारों के संरक्षण में पूंजीपति पहले ही स्थायी मजदूरों से छुटकारा पाने और यूनियन तोड़ने की कार्यवाहियों में इसका इस्तेमाल कर रहे हैं. अब केन्द्रीय कानून बन जाने पर यही सब देशव्यापी पैमाने और बड़े स्तर पर होगा.
इसी तरह इस संहिता के अध्याय-4 के प्रावधानों के तहत अब स्टैण्डिंग आर्डर अर्थात् रोजगार की परिस्थितियों, नियम एवं शर्तें इत्यादि को लागू करने से भी 300 से कम मजदूरों वाले फैक्टरी-संस्थानों को मुक्त कर दिया गया है. पूंजीपतियों के लिए यह कानूनी छूट भी पहले 100 से कम मजदूरों वाले फैक्टरी-संस्थानों तक ही सीमित थी.
गौरतलब है कि ऐसे फैक्टरी-संस्थान जहां 100 से कम मजदूर काम करते हैं की संख्या देश में कार्यरत कुल फैक्टरी-संस्थानों के तीन-चौथाई से भी अधिक है. अर्थात् पहले ही एक चौथाई से भी कम फैक्टरी-संस्थानों में ही स्टैण्डिंग आर्डर लागू करने की बाध्यता थी. अब नया कानून लागू हो जाने के बाद इनमें से भी अधिकांश इस बाध्यता से मुक्त हो जायेंगे. मोदी सरकार की मेहरबानी से अब बस कुछेक बड़े सार्वजनिक उपक्रमों समेत महज 1-2 प्रतिशत फैक्टरी-संस्थानों में ही स्टैण्डिंग आर्डर लागू करने की बाध्यता शेष रह जायेगी. इसमें भी संहिता की धारा-39 के तहत किसी भी फैक्टरी संस्थान को स्टैण्डिंग आर्डर लागू करने की बाध्यता से मुक्त करने का विशेष अधिकार भी सरकार को सौंप दिया गया है.
2. व्यवसायिक संरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशा संबंधी संहिता 2020, (Occupational Safety, Health andWorking Condition Related Code, 2020)
इस श्रम संहिता के लागू होने के साथ फैक्टरी अधिनियम 1948, बागान श्रमिक अधिनियम 1951, खदान अधिनियम 1952, श्रमजीवी पत्रकार और अन्य समाचार पत्र कर्मचारी (सेवा शर्तें और विविध प्रावधान) अधिनिमय 1955, श्रमजीवी पत्रकार (वेतन दरों का निर्धारण) अधिनियम 1958, मोटर परिवहन श्रमिक अधिनियम 1961, बीड़ी और सिगार श्रमिक (रोजगार की शर्त) अधिनियम 1966, ठेका श्रमिक (नियमन और उन्मूलन) अधिनियम 1970, सेल्स प्रमोशन कर्मचारी (सेवा शर्त) अधिनियम 1976, अंतर्राज्यीय प्रवासी श्रमिक (रोजगार और सेवा शर्तों का नियमन) अधिनियम 1979, सिने कर्मचारी और सिनेमा थियेटर कर्मचारी अधिनियम 1981, डाक श्रमिक (संरक्षा, स्वास्थ्य एवं कल्याण) अधिनियम 1986 एवं भवन निर्माण और अन्य निर्माण श्रमिक (रोजगार और सेवा शर्तों का नियमन) अधिनियम 1996, का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो जायेगा.
व्यवसायिक संरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशा संबंधी इस संहिता की धारा 2 (W) (1, 2) में फैक्टरी की परिभाषा को बदल दिया गया है. अब जिस संस्थान में उत्पादन में बिजली का इस्तेमाल होता है वहां 20 मजदूर एवं जहां बिजली का इस्तेमाल नहीं होता है वहां 40 मजदूर होने पर ही उसे फैक्टरी माना जायेगा. जबकि पहले फैक्टरी की परिभाषा में मजदूरों की संख्या इसकी ठीक आधी थी। इस तरह यह संहिता तमाम छोटी-छोटी फैक्टरियों को संहिता के दायरे से बाहर कर यहां मजदूरों के भयंकर शोषण को बढ़ावा देती है. गौरतलब है कि मारुति सुजुकी, होण्डा, हीरो, एस्कार्ट जैसी तमाम देशी-विदेशी कंपनियां अपना बहुत सा काम छोटी-मझोली फैक्टरियों से ही आउटसोर्स कराती हैं और यहां मजदूरों के निर्मम शोषण से बेशुमार मुनाफा कमाती हैं.
पुराने फैक्टरी अधिनियम 1948, में जहां फैक्टरी के भीतर दुर्घटना रोकने के उपाय, मशीनों की स्थिति, साफ-सफाई, शौचालय, पीने का पानी, कैंटीन, महिला मजदूरों के छोटे बच्चों के लिए क्रेच इत्यादि का स्पष्ट रूप से उल्लेख था वहीं अब नये कानून में यह सब अस्पष्ट छोड़ दिया गया है या फिर सरकार के हवाले अथवा रामभरोसे छोड़ दिया गया है.
उदारीकरण के पिछले करीब 30 सालों में औद्योगिक दुर्घटनायें लगातार बढ़ती चली गई हैं. इसका मुख्य कारण श्रम कानूनों की परिपालना के प्रति सचेतन उदासीन रुख अपनाना है जो कि आपराधिक है. मौजूदा संहिता, जिसका एक प्रमुख काम व्यवसायिक संरक्षा अर्थात् सेफ्टी को सुनिश्चित करना है, की धारा-22 (1, 2) के तहत इसी आपराधिक उदासीनता को कानूनी जामा पहना दिया गया है. नये कानून के तहत अब सिर्फ वही फैक्टरियां सेफ्टी कमेटियों के दायरे में आयेंगी जहां 500 अथवा अधिक मजदूर काम करते हों. यहां तक कि खतरनाक उद्योगों में भी जब तक 250 अथवा अधिक मजदूर नहीं होंगे, तब तक वो भी सेफ्टी कमेटियों की निगरानी में नहीं आएंगे.
स्पष्ट है कि नया कानून लागू हो जाने के बाद 98-99 प्रतिशत औद्योगिक इकाईयां सेफ्टी कमेटियों के दायरे से बाहर हो जायेंगी. यही है मोदी सरकार का ‘श्रमेव जयते’ अभियान. औद्योगिक दुर्घटनाओं में मजदूर अपाहिज हों अथवा जान गंवायें, इनकी बला से. इन्हें तो बस पूंजीपतियों के मुनाफे की चिंता है.
लॉकडाउन ने अपने देश के भीतर ही प्रवासी हो चुके मजदूरों के जीवन के अमानवीय हालातों को जगजाहिर कर दिया था. हाल ही में मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में बयान दिया था कि उसके पास प्रवासी मजदूरों से संबंधित कोई आंकड़े नहीं हैं. ऐसा तब है जबकि कानून है कि 5 अथवा अधिक मजदूर जिस संस्थान में काम करते हों उसके प्रवासी मजदूरों का रिकार्ड श्रम विभाग रखेगा. अब इसके अध्याय-11 के भाग-2 के प्रावधानों में इसे बदल कर 10 अथवा अधिक मजदूरों वाले संस्थान के लिए कर दिया है. सरकार का संदेश एकदम साफ है कि छुट्टे पूंजीवाद के इस दौर में आगे भी प्रवासी मजदूरों की कोई सुध नहीं ली जायेगी.
इसके अलावा यह संहिता ठेका प्रथा को प्रोत्साहित करती है. संहिता की धारा-45 (1) में प्रावधान किया गया है कि 50 मजदूरों तक की आपूर्ति करने वाले ठेकेदार संहिता के नियमों से मुक्त रहेंगे, जबकि पहले यह कानूनी छूट 20 मजदूरों तक की आपूर्ति करने वाले ठेकेदारों तक सीमित थी. इसके अलावा पुराने कानून में ठेका मजदूरों को वेतन के भुगतान के समय मुख्य नियोक्ता (Principal Employer) की ओर से किसी अधिकार प्राप्त व्यक्ति की उपस्थिति अनिवार्य थी. लेकिन अब नये कानून में इस प्रावधान को हटाकर जहां मुख्य नियोक्ता को अपनी जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया है वहीं ठेकेदार को और अधिक बेलगाम छोड़ दिया गया है.
अभी तक कानून था कि शाम 7 बजे के बाद से सुबह 6 बजे के पहले तक महिला मजदूरों को काम पर नहीं रोका जा सकता. लेकिन अब संहिता की धारा-43 में इसे बदल कर रात की पाली में भी महिला मजदूरों से काम लेने का अधिकार पूंजीपतियों को सौंप दिया गया है. साथ ही नये कानून में अब खतरनाक उद्योगों में भी महिला मजदूरों से काम कराने का रास्ता खोल दिया गया है. बेशर्म संघी सरकार ने कानून में यह बदलाव महिला सशक्तीकरण के नारे के साथ किया है.
आज का भारतीय समाज महिलाओं के लिए बेहद खतरनाक हो चुका है. पतित पूंजीवादी उपभोक्तावादी संस्कृति महिलाओं को महज एक यौन वस्तु के रूप में प्रस्तुत करती है. परिणामस्वरूप महिलाओं पर यौन हमले, तेजाब डालने, अपहरण-बलात्कार जैसी घटनायें लगातार बढ़ रही हैं. हालात इतने बुरे हैं कि दिन में भी महिलायें सुरक्षित नहीं हैं. इसके बावजूद संघी सरकार ने महिला मजदूरों से रात की पाली में काम कराने का अधिकार पूंजीपतियों को सौंप दिया है. स्पष्ट है कि मोदी सरकार को महिला मजदूरों की सुरक्षा और उनके स्वास्थ्य की कोई चिंता नहीं है. वह तो बस पूंजीपतियों को सस्ते मजदूरों के रूप में महिला मजदूरों की हर समय और हर परिस्थिति में आपूर्ति सुनिश्चित करना चाहती है.
इस संहिता की धारा-27 में ओवरटाइम के अधिकतम घण्टे कितने हो सकते हैं, इसका कोई उल्लेख नहीं है और इसे संबंधित सरकार के ऊपर छोड़ दिया गया है. जबकि पुराने फैक्टरी अधिनियम, 1948 में इसका स्पष्ट उल्लेख था कि मजदूर से हफ्ते में 12 घंटे और 3 महीने की अवधि के दौरान 50 घंटे से अधिक ओवरटाइम नहीं कराया जा सकता.
इस तरह नये कानून में पूंजीपतियों की इच्छा के अनुरूप और मजदूरों की इच्छा के विरुद्ध कार्यदिवस को बढ़ाने की शक्ति सरकार को सौंप दी गई है. अपनी इसी शक्ति का प्रयोग कर इस संहिता की हाल में ही जारी नियमावली में आराम की अवधि समेत एक मजदूर के कार्यदिवस को 12 घंटे तक विस्तारित कर दिया गया है. यह प्रावधान 8 घण्टे कार्यदिवस की भावना – 8 घण्टे काम के, 8 घण्टे आराम के और 8 घण्टे मनोरंजन के – का खुला उल्लंघन है. अब पूंजीपतियों के लिए उनके मजदूरों से उनकी इच्छा के विरुद्ध 4 घण्टे अतिरिक्त काम लेना कानूनी हो जायेगा. ज्यादातर फैक्टरियों के मालिक पूंजीपति इसका कानूनन दो गुनी दर से भुगतान भी नहीं करेंगे. और बहुत से तो 8 घण्टे के न्यूनतम वेतन में ही मजदूरों से 12 घण्टे काम लेंगे.
8 घण्टे कार्यदिवस की लड़ाई मई दिवस के इतिहास से सीधे तौर पर जुड़ी हुई है, ऐसे में हमें अपने गौरवशाली इतिहास के पन्नों को एक बार फिर पलटने की जरूरत है ताकि पूंजीपतियों और उनकी सरकार के हमलों का मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके.
3. सामाजिक सुरक्षा संहिता 2020
(Social Security Code, 2020)
इस श्रम संहिता के लागू होने के साथ कर्मचारी मुआवजा अधिनियम 1923, कर्मचारी राज्य बीमा निगम अधिनियम 1948, कर्मचारी भविष्य निधि और विविध प्रावधान अधिनियम 1952, मातृत्व लाभ अधिनियम 1961, रोजगार एक्सचेंज (रिक्तियों की अनिवार्य अधिसूचना) अधिनियम 1959, ग्रेच्युटी भुगतान अधिनियम 1972, सिने मजदूर कल्याण निधि अधिनियम 1981, भवन और अन्य निर्माण मजदूर कल्याण उपकर अधिनियम 1996 और असंगठित मजदूर सामाजिक सुरक्षा अधिनियम 2008 का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो जायेगा.
सरकारी दावों के विपरीत इन 9 केन्द्रीय श्रम कानूनों का यह सम्मिलन मजदूरों को कोई नई सामाजिक सुरक्षा नहीं प्रदान करता. यहां भी कई मजदूर विरोधी प्रावधान लागू कर दिये गये हैं.
इस संहिता के तहत सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लाभ लेने के लिए मजदूर अथवा कर्मचारी को अपना आधार नम्बर देना अनिवार्य कर दिया गया है. यह सर्वोच्च न्यायालय के 2018 के उस फैसले का सीधा उल्लंघन है जिसमें निजता के अधिकार को व्यक्ति का मौलिक अधिकार घोषित किया गया है. गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में केवल सरकारी सब्सिडी लेने के लिए आधार की अनिवार्यता एवं पैन नम्बर को आधार से जोड़ने की बात कही गयी है. लेकिन नये कानून में आधार को सभी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं से जोड़ दिया गया है.
सामाजिक सुरक्षा संहिता में कर्मचारी भविष्य निधि (इ.पी.एफ.) में योगदान 12 प्रतिशत से घटाकर 10 प्रतिशत कर दिया गया है. इसके अलावा इस संहिता में सरकार को इस बात के लिए सशक्त बनाया गया है कि यदि वह चाहे तो इस योगदान को और भी घटा सकती है. इतना ही नहीं संहिता की धारा 1 (5) के तहत यदि किसी संस्थान के मालिक और मजदूरों अथवा कर्मचारियों का बहुमत भविष्य निधि योजना से बाहर आना चाहता है तो संस्थान को इसकी इजाजत होगी.
ठीक इसी तरह इस संहिता में कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ई.एस.आई.सी.) में मालिक के योगदान को 4.75 प्रतिशत से घटाकर 3.25 प्रतिशत और मजदूर के योगदान को 1.75 प्रतिशत से घटाकर 0.75 प्रतिशत कर दिया गया है. साथ ही यहां भी अब किसी भी संस्थान को कर्मचारी राज्य बीमा निगम योजना से बाहर आने की इजाजत होगी, यदि मालिक और मजदूर अथवा कर्मचारियों का बहुमत इसकी मांग करता है.
संहिता के ये प्रावधान घोर मजदूर विरोधी और मालिकों को लाभ पहुंचाने वाले हैं. आज जबकि निजीकरण की नीतियों के तहत स्वास्थ्य-चिकित्सा का क्षेत्र पूरी तरह से बाजार के हवाले किया जा चुका है, तब कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ESIC) मजदूरों का एकमात्र ऐसा बीमा है जो कि किसी भी गंभीर बीमारी अथवा दुर्घटना की स्थिति में उसे एक सुरक्षा प्रदान करता है. इसी तरह मजदूर के पास एकमात्र बचत कर्मचारी भविष्य निधि (EPF) के रूप में ही होती है जो आड़े वक्त में उसके काम आती है और जिसकी मदद से वह अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करता है.
ऐसे में सामाजिक सुरक्षा के नजरिये से इ.पी.एफ. और इ.एस.आई.सी. जैसी योजनाओं से वंचित होकर मजदूर एकदम असहाय हो जायेगा. मोदी सरकार द्वारा कानून में यह बदलाव दूरगामी तौर पर इन संस्थाओं को भी खोखला बना देंगे. वैसे भी मोदी सरकार की गिद्ध दृष्टि इ.पी.एफ. और इ.एस.आई.सी. के भारी भरकम संचित कोष पर गड़ी हुई है.
इस संहिता में भविष्य निधि में पूंजीपति द्वारा अपना हिस्सा न जमा करने पर जेल की सजा के प्रावधान को हटाकर उसे महज जुर्माने तक सीमित कर दिया गया है.
सामाजिक सुरक्षा संहिता के तहत कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ESIC) के दायरे को 566 जिलों से बढ़ाकर देश के सभी 740 जिलों तक करने की घोषणा की गई है. राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा बोर्ड नाम से एक नये बोर्ड की स्थापना की बात भी की गई है. साथ ही यह भी घोषित किया गया है कि इस नये बोर्ड का काम असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को राहत और सुरक्षा प्रदान करना होगा. इसके अलावा इस संहिता में ओला, उबेर जैसी टैक्सी सेवा देने वाली कंपनियों के ड्राइवर एवं स्वीगी, जोमेटो जैसी फूड चेन कंपनियों के तहत बाइक से आर्डर घर अथवा ऑफिस पहुंचाने वाले नये मजदूरों, जिन्हे गिग वर्कर्स अथवा प्लेटफार्म वर्कर्स का नाम दिया गया है, को भी मजदूर की परिभाषा में शामिल कर सामाजिक सुरक्षाओं का लाभ देने की बात की गई है.
इन सब घोषणाओं पर सरकार अपनी पीठ ठोंक रही है लेकिन असल में सरकार मजदूरों की आंखों में धूल झोंक रही है. एक तरफ व्यवसायिक संरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्यदशा संबंधी संहिता में फैक्टरी की परिभाषा को बदलकर संगठित क्षेत्र की मजदूर आबादी के व्यापक हिस्से को असंगठित क्षेत्र में धकेल दिया गया है, तो वहीं दूसरी तरफ सामाजिक सुरक्षा संहिता में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को राहत एवं उनके कल्याण हेतु एक नये बोर्ड का गठन कर दिया गया है. एक तरफ ओला, उबेर, स्वीगी, जोमेटो इत्यादि के मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लाभ देने की बात कही गई है, लेकिन इस हेतु इन मजदूरों का पंजीकरण कैसे होगा ? इस पर संहिता मौन है !
4. वेतन संहिता 2019, (Wage Code, 2019)
इस श्रम संहिता के लागू होने के साथ वेतन भुगतान अधिनियम 1936, न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948, बोनस भुगतान अधिनियम 1965 एवं समान मजदूरी अधिनियम 1976 समाप्त हो जायेंगे.
इस संहिता में न्यूनतम मजदूरी तय करने के भारतीय श्रम सम्मेलन के मापदण्डों को त्याग दिया गया है. 1957 के भारतीय श्रम सम्मेलन के अनुसार न्यूनतम वेतन प्रति इकाई अर्थात् एक परिवार के खाना-कपड़ा, शिक्षा-स्वास्थ्य, बुढ़ापे में देखरेख तथा सामाजिक खर्च अर्थात् ब्याह-शादी, त्यौहार, मनोरंजन इत्यादि के मद्देनजर तय किया जाना चाहिए. 1992 में सर्वोच्च न्यायालय ने भी भारतीय श्रम सम्मेलन के इस मापदण्ड को सही घोषित किया था.
यदि उपरोक्त मापदण्डों का पालन किया जाये तो आज की महंगाई में न्यूनतम वेतन 25 हजार रु. प्रतिमाह से भी अधिक बैठता है. लेकिन वेतन संहिता कहती है कि केन्द्र सरकार राष्ट्रीय स्तर पर एक न्यूनतम फ्लोर वेतन तय करेगी और राज्य सरकार उससे कम न्यूनतम वेतन नहीं निर्धारित करेगी. इस समय केन्द्र की मोदी सरकार द्वारा घोषित राष्ट्रीय स्तर पर न्यूनतम वेतन 178 रु. प्रतिदिन है.
दरअसल यह न्यूनतम वेतन नहीं बल्कि जैसे-तैसे जिन्दा भर रहने के पैसे हैं. इसे न्यूनतम भुखमरी वेतन की संज्ञा दी जा सकती है। मौजूदा वेतन संहिता के तहत अब सरकार भुखमरी की सीमा तक न्यूनतम वेतन तय करने के लिए सभी कानूनी बाधाओं से आजाद है. इस समय देश के ज्यादातर राज्यों में न्यूनतम वेतन इस राष्ट्रीय न्यूनतम फ्लोर वेतन से कुछ अधिक ही है. हालांकि राज्यों में भी यह भुखमरी की सीमा के दायरे में ही है.
यहां एक खास बात यह भी है कि मनरेगा के तहत मजदूरों को मिलने वाले न्यूनतम वेतन को इससे अलग रखा गया है क्योंकि मनरेगा के तहत मिलने वाला न्यूनतम वेतन अधिकांश राज्य सरकारों द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन से कम है. इसके अलावा आशा वर्कर, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता एवं भोजन माताओं का इसमें कोई जिक्र ही नहीं है जिनसे सरकार न्यूनतम वेतन से बेहद नीचे मानदेय पर बेगारी करा रही है.
अक्सर जब भी मजदूरों को सालाना बोनस देने की बात आती है तब मालिक-प्रबंधन घाटे का बहाना करते हैं. पुराने कानून के तहत मजदूरों और उनकी यूनियनों को संस्थान के खातों की जांच का अधिकार था. लेकिन अब वेतन संहिता कीं धारा-31 (3) में इसे बदल दिया गया है. अब केवल संबंधित अधिकारी ही प्रबंधन को बैलेंस शीट दिखाने को कह सकता है, हालांकि उसे भी प्रबंधन की सहमति के बिना मजदूरों अथवा उनकी यूनियन के सामने बैलेंस शीट का खुलासा करने का अधिकार नहीं होगा.
कानून में इस बदलाव का व्यवहार में मतलब साफ होगा कि जहां यूनियनों में संगठित मजदूर संस्थान को मिले लाभ के अनुसार अधिकतम बोनस का अधिकार रखते थे उन्हें अब धीरे-धीरे न्यूनतम बोनस पर समेट दिया जायेगा. और जिन फैक्टरी-संस्थानों में मजदूरों को न्यूनतम बोनस ही मिल पाता है वहां पर पूंजीपति घाटे का बहाना बनाकर इतने से भी अपना पल्ला झाड़ लेंगे.
संसद के मानसून सत्र (2020) में जब इन घोर मजदूर विरोधी श्रम संहिताओं (Labour Codes) को पारित किया जा रहा था उसी दौरान 1956 के कंपनी अधिनियम में भी बदलाव कर कंपनी (संशोधन) अधिनियम 2020 पारित किया गया. इसके तहत अब पूंजीपतियों द्वारा कंपनी के शेयरों के मामलों में नियमों का उल्लंघन करने पर उन्हें 3 साल के कारावास की सजा के प्रावधान को हटा दिया गया है. इसी तरह वार्षिक रिटर्न फाइल न करने वाले पूंजीपतियों पर अधिकतम जुर्माना भी 5 लाख रु. से घटाकर 2 लाख रु. कर दिया गया है.
स्पष्ट है कि संघी नरेन्द्र मोदी का पूंजीपतियों से याराना है, कि मोदी सरकार अडानी-अंबानी की सरकार है.
मजदूर वर्ग पर यह हमला दूसरे राष्ट्रीय श्रम आयोग की संस्तुतियो के आधार पर बोला गया है. केन्द्रीय श्रम मंत्री संतोष गंगवार अपने एक साक्षात्कार में इसे वस्तुतः स्वीकार भी कर चुके हैं. दूसरे राष्ट्रीय श्रम आयोग का गठन 1998 में वाजपेई सरकार के कार्यकाल में हुआ था, जिसने 2002 में अपनी संस्तुतियां प्रस्तुत की थीं. जहां पहले राष्ट्रीय श्रम आयोग (1966) में पूंजी और श्रम के संबंधों में राज्य की औपचारिक एवं कुछ संतुलन बनाये रखने हेतु हस्तक्षेपकारी भूमिका को बनाकर रखा गया था वहीं दूसरे राष्ट्रीय श्रम आयोग में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के अनुरूप पूंजी को बेलगाम शोषण की छूटें प्रदान की गई हैं. इस पूरी प्रक्रिया को समझने के लिए हमें अतीत के कुछ पन्नों को उलटना होगा.
दरअसल जिस कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में भारत को आजादी मिली वह भारत के पूंजीपतियों और भूस्वामियों की पार्टी थी इसीलिए आजादी के बाद भारत पूंजीवादी विकास के रोड मैप पर आगे बढ़ा. यह वह दौर था जब दुनिया में कम्युनिस्ट आंदोलन आगे बढ़ रहा था. नाजी हिटलर को पराजित कर समाजवादी सोवियत संघ दूसरे विश्व युद्ध का निर्विवाद विजेता बनकर उभरा था. 1949 में चीन में नवजनवादी क्रांति सफल हो चुकी थी और चीन तेजी से समाजवादी विकास के पथ पर आगे बढ़ चला था. पूर्वी यूरोप के देशों में जनता के जनवादी गणराज्य कायम हो चुके थे. एक समाजवादी खेमा अस्तित्व में आ चुका था. उपनिवेशों में राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध तेज हो चुके थे और गुलाम देश आजाद हो रहे थे. साम्राज्यवाद को पीछे हटना पड़ा था. बोल्शेविक खतरे से घबराकर विश्व पूंजीवाद कल्याणकारी राज्य का चोगा पहनने को मजबूर हुआ था. हमारे देश भारत में 1946 में नौसेना विद्रोह, तेलंगाना में किसानों का क्रांतिकारी संघर्ष और सशक्त मजदूर आंदोलन से पूंजीवादी शासक घबराये हुये थे.
देश-दुनिया की उक्त परिस्थितियां भारत के संविधान में मिले सार्विक मताधिकार एवं कई महत्वपूर्ण श्रम कानूनों के निर्माण में प्रतिध्वनित हुईं. इस दौर में औद्योगिक रोजगार (स्थायी आदेश) अधिनियम 1946, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947, फैक्टरी अधिनियम 1948, कर्मचारी राज्य बीमा निगम अधिनियम 1948, न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948, बागान श्रमिक अधिनियम 1951, खदान अधिनियम 1952, कर्मचारी भविष्य निधि और विविध प्रावधान अधिनियम 1952, मातृत्व लाभ अधिनियम 1961, बोनस भुगतान अधिनियम 1965 इत्यादि श्रम कानूनों के तहत मजदूरों को बहुत से कानूनी अधिकार एवं सुविधायें हासिल हुईं. इससे पूर्व 1917 की रूसी क्रांति के आवेग और देश में लगातार बढ़ते मजदूर आंदोलन के दबाव में कर्मकार मुआवजा अधिनियम 1923, ट्रेड यूनियन अधिनियम 1926, मजदूरी संदाय अधिनियम 1936, जैसे कई महत्वपूर्ण श्रम कानून आजादी से पहले ही अस्तित्व में आ चुके थे.
1966 में जब पहला राष्ट्रीय श्रम आयोग गठित हुआ तब मजदूर आंदोलन आगे बढ़ रहा था और पूंजीपति वर्ग बचाव की मुद्रा में था. हालांकि तब भी ठेका श्रम (विनियमन और उन्मूलन) अधिनियम 1970 के जरिये ठेका प्रथा को कानूनी एवं संस्थागत रूप देने में पूंजीवादी शासक सफल रहे थे. इस कानून के नाम से यह भ्रम पैदा होता है कि ठेका प्रथा का उन्मूलन करना इसका मकसद है लेकिन सच्चाई एकदम विपरीत है. इस कानून का मकसद ठेका श्रम का विनियमन है और कानून में अधिकांश बातें इसी पर केन्द्रित हैं.
1966 के बरक्स 1998 में जबकि द्वितीय राष्ट्रीय श्रम आयोग का गठन हुआ और 2002 में उसने अपनी संस्तुतियां प्रदान कीं तब तक देश-दुनिया में मजदूर आंदोलन टूट-फूट बिखराव का शिकार हो चुका था. पहले 1956 में सोवियत संघ और फिर 1976 में चीन में पूंजीवाद की पुनर्स्थापना एवं पूर्वी यूरोप के देशों में संशोधनवाद के आगमन के परिणामस्वरूप समाजवादी खेमा ध्वस्त हो चुका था. इससे साम्राज्यवाद को पुनः आक्रामक होने का मौका मिला और विश्व पूंजीवाद कल्याणकारी राज्य के चोगे को उतार फेंक 1970 के दशक से उदारीकरण-निजीकरण की पूंजीपरस्त नीतियों के साथ हमलावर हो गया.
1991 से हमारे देश में भी देशी-विदेशी पूंजीपतियों के बीच कायम हुए गठजोड़ के परिणामस्वरूप उदारीकरण-निजीकरण की जनविरोधी नीतियों की शुरूआत हुई. विश्व बैंक में मुलाजिम रह चुके कांग्रेसी मनमोहन सिंह इन नई आर्थिक नीतियों के प्रस्तोता थे. आर्थिक सुधार और श्रम सुधार जैसे शब्द इन्हीं आर्थिक नीतियों की देन हैं. आर्थिक सुधार का मतलब संरक्षणवाद को ढीला करते हुए विदेशी पूंजी को देश में आगमन की छूटें देना और सार्वजनिक उपक्रमों- बैंक, बीमा, रेलवे, रोडवेज, नागरिक उड्डयन, तेल, गैस इत्यादि समेत शिक्षा-चिकित्सा जैसी बुनियादी सेवाओं का भी निजीकरण करना एवं खेती-किसानी को कारपोरेट पूंजीपतियों के हवाले करना है.
श्रम सुधार, आर्थिक सुधार का हिस्सा हैं जिसका विशिष्ट मतलब मजदूरों को हासिल कानूनी अधिकार एवं सुविधाओं को छीनना है. 1998 में दूसरे राष्ट्रीय श्रम आयोग का गठन उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के तहत श्रम सुधार की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के मकसद से ही किया गया था.
उस समय की वाजपेई सरकार और बाद में अगले 10 सालों तक मनमोहन सिंह की सरकार गठबंधन सरकार की सीमाओं और मजदूरों के भारी विरोध के कारण दूसरे राष्ट्रीय श्रम आयोग की सिफारिशों को बढ़-चढ़ कर लागू नहीं कर सकी थी. हालांकि 2005 में विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) अधिनियम के रूप में मनमोहन सिंह की सरकार ने एक बड़ा कदम उठा लिया था. इसके अलावा वाजपेई और मनमोहन सिंह की सरकारों द्वारा चोर दरवाजे से भी दूसरे राष्ट्रीय श्रम आयोग की कुछ सिफारिशों को लागू कर दिया गया था.
साथ ही उदारीकरण के दौर की खास रणनीति श्रम कानूनों को कागजों तक सीमित रखते हुए उनकी परिपालना में भारी ढील देने की रही है. लेकिन देश का इजारेदार पूंजीपति वर्ग इतने मात्र से खुश नहीं था. वह आर्थिक सुधारों को तेज गति से आगे बढ़ाना चाहता था. ‘गुजरात माडल’ से उसे आशा की किरण दिखाई दे रही थी, जहां न सिर्फ आर्थिक सुधारों को अपेक्षाकृत तेज गति से लागू किया जा रहा था अपितु राज्य की सत्ता पर काबिज फासिस्ट गिरोह का दमन चक्र विरोध के स्वरों को भी सख्ती से कुचल रहा था.
इससे प्रभावित होकर इजारेदार पूंजीपति वर्ग ने संघी नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री के बतौर दावेदारी को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया. हिन्दू फासीवादी संगठन (आरएसएस) और इजारेदार पूंजीपति वर्ग के बीच गठजोड़ कायम हो गया. इजारेदार पूंजी की विशाल ताकत, उसके द्वारा नियंत्रित मीडिया के धुंआधार प्रचार और आरएसएस की घृणित फासिस्ट राजनीति, साम्प्रदायिक दंगों की आग और अंधराष्ट्रवादी उन्माद की बदौलत 2014 में केन्द्र की सत्ता पर संघी सरकार काबिज हुई. संघी नरेन्द्र मोदी विकास पुरुष की पदवी के साथ सत्ताशीर्ष पर विराजमान हुये.
संघी नरेन्द्र मोदी ने सत्ता संभालते ही उदारीकरण के रथ को सरपट दौड़ाना शुरू कर दिया। 1991 से जारी आर्थिक सुधारों ने अब रफ्तार पकड़ ली. सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की प्रक्रिया अब तेज हो गई. आर्थिक सुधारों के हिस्से के रूप में श्रमसुधारों की प्रक्रिया भी द्रुत गति से आगे बढ़ चली.
संघी नरेन्द्र मोदी के पहले कार्यकाल की शुरूआत से ही एक के बाद एक हमले श्रम कानूनों पर बोले गये. अपरेन्टिस अधिनियम 1961, बाल श्रम (निषेध व नियमन) अधिनियम 1986 एवं औद्योगिक रोजगार (स्थायी आदेश) अधिनियम 1946 में घोर मजदूर विरोधी बदलाव कर दिये गये.
विभिन्न राज्य सरकारों खासकर भाजपा शासित प्रदेशों की राज्य सरकारों ने श्रम के समवर्ती सूची में होने के नाम पर औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947, और फैक्टरी अधिनियम 1948 में भी घोर मजदूर विरोधी बदलाव कर उन्हें लागू कर दिया. और अब मोदी के दूसरे कार्यकाल में 29 केन्द्रीय श्रम कानूनों को समाप्त कर 4 घोर मजदूर विरोधी श्रम संहिताओं को पारित कर दिया गया है. साथ ही खेती-किसानी को कारपोरेट पूंजीपतियों के हवाले करने के उद्देश्य से तीन नये कृषि कानून किसानों पर थोप दिये गये हैं.
विगत करीब 7 सालों में आर्थिक सुधार एवं श्रम सुधार की प्रक्रिया के परवान चढ़ने के समानान्तर साम्प्रदायिक वैमनस्य और अंधराष्ट्रवादी उन्माद भी गहराते चले गये हैं. दरअसल ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. गौरतलब है कि 1991 में नई आर्थिक नीतियों की शुरूआत और राम मंदिर आंदोलन, बाबरी मस्जिद विध्वंस तदुपरांत भयंकर साम्प्रदायिक दंगे इनका समय काल भी एक ही है और यह अनायास ही नहीं है. साम्प्रदायिक वैमनस्य और अंधराष्ट्रवादी उन्माद जनता को भावनात्मक मुद्दों में उलझाये रख पूंजीपतियों के हितों को साधने के कारगर हथियार हैं. और केन्द्र की सत्ता पर काबिज फासिस्ट गिरोह इन हथियारों का बेहद कुशलता से प्रयोग कर रहा है.
इस तरह आज मजदूर वर्ग का मुकाबला हमलावर पूंजीपति वर्ग के अलावा हिन्दू फासीवादी ताकतों से भी है। दरअसल फासीवाद इजारेदार पूंजी के सबसे अधिक पतित और प्रतिक्रियावादी हिस्सों की आतंकी तानाशाही होती है. अर्थात् पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष में फासीवाद अथवा फासीवादी ताकतों के विरुद्ध संघर्ष अंतर्निहित है.
पिछली आधी सदी में देश के मजदूर आंदोलन पर सुधारवादी और संशोधनवादी काबिज हैं और मजदूर आंदोलन अपनी क्रांतिकारी विचारधारा से कटा रहा है. इसी के परिणामस्वरूप मोदी सरकार घोर पूंजीपरस्त 4 श्रम संहिताओं के रूप में मजदूर वर्ग पर इतना बड़ा हमला करने में कामयाब हो चुकी है. यह पिछली आधी सदी के सुधारवादियों-संशोधनवादियों के पापों की मजदूर वर्ग को मिली सजा है और इसका एकमात्र प्रायश्चित सुधारवाद और संशोधनवाद से मजदूर आंदोलन को मुक्त कर क्रांतिकारी दिशा में आगे बढ़ने में ही है.
हमें हमेशा यादा रखना होगा कि सुधार हमेशा क्रांति के उपउत्पाद होते हैं. आज क्रांतिकारी आंदोलन को आगे बढ़ाते हुए ही अपने छीने जाते कानूनी अधिकारों को बचाने हेतु कोई सार्थक प्रतिरोध विकसित किया जा सकता है. आज हम मजदूरों को मजदूर विरोधी इन चार श्रम संहिताओं के विरोध में उसी तरह मोर्चा खोल देने की जरूरत है, जैसे कि देश के किसानों ने खेती-किसानी को कारपोरेट पूंजीपतियों के हवाले करने वाले तीन कृषि कानूनों को रद्द किये जाने की मांग के साथ राजधानी को चारों ओर से घेरकर मोदी सरकार की नाक में नकेल ही डाल दी.
मजदूर विरोधी 4 श्रम संहिताओं के लागू होने के साथ अब मजदूर आंदोलन के संघर्ष के पुराने परम्परागत तौर-तरीके- अर्थवादी, कानूनवादी संघर्ष, अनुष्ठानिक हड़तालें इत्यादि- अप्रासंगिक हो जायेंगे. पूंजीवादी शासकों द्वारा संघर्ष के कानूनी रास्ते बंद कर दिये जाने पर मजदूरों का आक्रोश स्वतः स्फूर्त विस्फोटों, प्रदर्शनों, संघर्षों के रूप में फूटेगा, जिसे संगठित कर सही दिशा और नेतृत्व देने का माद्दा मजदूरों के एक देशव्यापी क्रांतिकारी संगठन में ही हो सकता है. अतः एक क्रांतिकारी ट्रेड यूनियन सेण्टर का निर्माण आज मजदूर वर्ग की फौरी जरूरत है, जो कि बतौर वर्ग मजदूरों को संगठित कर संघर्ष के सतत, जुझारू और निर्णायक तौर-तरीके अपना सके.
अब मजदूरों को महज फैक्टरी स्तर तक सीमित रहने के बजाय पूरे औद्योगिक क्षेत्र के स्तर पर एकजुट कार्रवाहियां करनी होंगी. हमलावर पूंजीपति वर्ग को पीछे धकेलने के लिए हड़ताल के अपने हथियार का प्रयोग भी फैक्टरी स्तर के बजाय औद्योगिक क्षेत्र के स्तर पर करना होगा, साथ ही बहुत से फैक्टरी संस्थानों में गुप्त रूप से अपनी यूनियन के संचालन की कार्यशैली को अपनाना होगा.
आज पूंजीवादी शासकों ने खुद ही मजदूरों को क्रांति के रास्ते पर आगे बढ़ने को मजबूर कर दिया है. मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी विचारधारा का महत्व आज पहले से कहीं ज्यादा है. ऐसे में हम मजदूरों को क्रांतिकारी विचारधारा और कठोर अनुशासन से लैस बोल्शेविक पार्टी सरीखी क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण की दिशा में आगे बढ़ने की जरूरत है, जिसके नेतृत्व में हम भारत के मजदूर अक्टूबर 1917 की रूसी क्रांति के भावी संस्करण को रचें और मजदूरों के शोषण पर आधारित इस घृणित पूंजीवादी व्यवस्था का खात्मा कर मजदूर राज-समाजवाद कायम करें. इंकलाब जिन्दाबाद !
इंकलाबी मजदूर केन्द्र के अध्यक्ष कैलाश चन्द्र
एफ. 130ए टी हट, शाहबाद डेरी
दिल्ली. 110042
मो. 9675117739
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