कनक तिवारी
28 सितंबर, 1991 को आखिरकार शंकर गुहा नियोगी की हत्या कर ही दी गई. जिंदगी और मौत के बीच एक जोखिम भरे व्यक्तित्व ने अपनी आखिरी सांस उन मजदूर साथियों के लिए तोड़ दी, जिनके लिए नियोगी का नाम अमर रहेगा. रात के घने अंधकार में छत्तीसगढ़ के ट्रेड यूनियन का एक रोशन सितारा बंदूक की गोलियों ने ओझल कर दिया.
नियोगी धूमकेतु की तरह ट्रेड यूनियन के आकाश में अचानक उभरे थे. काॅलेज की अपनी पढ़ाई छोड़कर साधारण मजदूर की तरह ज़िंदगी के शुरुआती दौर में जबर्दस्त विद्रोह, अड़ियलपन और संघर्षधर्मी तेवर लिए शंकर गुहा नियोगी ने राजहरा की चट्टानी जमीन पर तेजी से जगह बनानी शुरू कर दी.
बमुश्किल पांच बरस के ट्रेड यूनियन जीवन में ही नियोगी में शीर्ष नेता की शक्ल उभरने लगी थी. फिर दो दशक शंकर गुहा नियोगी व्यवस्था की आंख की किरकिरी, मजदूरों के रहनुमा और बुद्धिजीवियों की जिज्ञासा के आकर्षण केन्द्र बने रहे. उनके रहस्यमय विद्रोही और विरोधाभासी व्यक्तित्व में अनेक विसंगतियां भी ढूंढ़ी जाती थी.
उनके इर्द गिर्द आलोचकों के तिलिस्मी मकड़जाल चटखारे लेकर बुने जाते. उन्हें नक्सलवादी, आतंकवादी, हिंसक, षड़यंत्रकारी, सी.आई.ए. का एजेंट और न जाने कितने विशेषणों से विभूषित किया गया. नियोगी का व्यक्तित्व धीरे-धीरे विराटतर होता जा रहा था.
नियोगी के बारे में
ट्रेड यूनियन आंदोलन से ऊपर उठकर वे समाज सेवा, पर्यावरण, राजनीतिक चिंतन और सामाजिक आंदोलनों के पर्याय भी बन गए थे. अपने युवा जीवन में ही नियोगी ने इतनी उपलब्धियां हासिल कर ली थीं, जो आम तौर पर एक व्यक्ति को बहुआयामी बनकर हासिल करना संभव नहीं है.
ज़िन्दगी किसी न किसी हासिल का नाम होता है, चाहे असफलता ही क्यों न हासिल हो. ज़िंदगी के हिस्से में धड़कन, कशिश, उद्दाम और अवसाद सब होता है. वह खतरों से भी खेलती हारकर भी नई जीत के लिए कुलांचे भरना चाहती है. मनुष्य ज़िंदगी के सपने देखता आंखों में ओले और शोले दोनों रख सकता है. वही जांचता है कहीं सफेद रक्तकण लाल रक्तकणों पर हावी तो नहीं हो रहे हैं.
वह अपनी देह के रंध्रों और रोएं-रोएं को पहचानकर उन्हें पसीने से नहला भी सकता है. वह चमक दमक, कपड़े लत्तों, भोजन, भवनों, मोटरगाड़ियों और ऐश में जीने को अधमरा हो जाना भी समझता है. वह अकेले नहीं जीता. उसे घर आंगन, फिर जीवन प्रांगण में हमकदम करते साथियों का परिवार चाहिए.
जब दुनिया छोड़ता है तो लाखों आंखें उसकी याद में बस केवल बहती ही रहती हैं. यह रेखाचित्र कह उठता है कि छत्तीसगढ़ के लाखों जुझारू, श्रमिक किसान और मुफसिल ठीक कहते हैं कि यही तो शंकरगुहा नियोगी का परिचय है.
मैं जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, लालबहादुर शास्त्री जैसे प्रधानमंत्रियों से लेकर न जाने कितने लेखकों, नेताओं, कलाकारों, फिल्मी हस्तियों जैसे सत्यजीत राॅय, दिलीप कुमार, राजेश खन्ना, सुनील दत्त और ख्यातनाम लोगों से मिला हूं.
दुर्ग के साइंस काॅलेज में 1969 में व्याख्याता के रूप में तबादले पर आने के बाद नियोगी के बारे में पहली बार सुना. दो साल बाद इस्तीफा देकर दुर्ग में ही वकील और पत्रकार बना. तब नियोगी से परिचय, प्रेम और परस्पर होना हो ही गया.
स्वप्नदर्शी जननेता नियोगी
शंकर गुहा नियोगी ने लाल हरे झंडे के माध्यम से किसानों और मजदूरों को एक जुटकर वर्गविहीन राज्य का सपना देखा था. वह केवल राजनीतिज्ञों के बस की बात नहीं है. नियोगी स्वप्नदर्शी जननेता थे, जो मजदूर आन्दोलनों के पीछे किसानों की एकजुट ताकत की पृष्ठभूमि खड़ी करने के पक्षधर थे.
वे राजनीति की पृष्ठभूमि में सांस्कृतिक अस्मिता के आन्दोलन की आग सुलगाने जीवन भर मशगूल रहे. वे पुरुष प्रधान समाज में हर दूसरे कदम या हाथ पर महिलाओं की बराबर की भागीदारी के फाॅर्मूले पर अटल रहे. नियोगी थे जो शराबखोरी, जुआखोरी और सट्टेबाजी जैसी सामाजिक बीमारियों की गिरफ्त में आये पुरुष वर्ग को शासकीय कानूनों या उपदेशों के सहारे दूर करने के बदले महिला वर्ग की संगठित ताकत के ज़रिए खत्म कराने का ऐलान कर सकते थे.
पुरुषों से कहीं ज़्यादा राजहरा जैसी श्रमिक बस्तियों की महिलाओं की आंख में शंकर गुहा नियोगी का सपना साकार होता रहा है. संबंधित उद्योग की गतिविधियों की जानकारी रखने के अलावा सांख्यिकी की सूक्ष्म से सूक्ष्म गणना से जो लैस हो ! ऐसे नेता बहुत कहां होते हैं ?
इसी वजह से राजनेता, शासकीय अधिकारी और उद्योगों के प्रतिनिधि नियोगी से बातचीत की मेज पर जीत नहीं पाते थे. तथ्यों और आंकड़ों की ताकत के बल पर श्रमिकों के प्रतिनिधि खुद अपना भविष्य गढ़ सकें, यह शंकर गुहा नियोगी के देखे गये सपने का आयाम था. कितने ऐसे उद्योग समूह हैं जिनके नेता मजदूर आन्दोलन के इतिहास और उद्योगों से संबंधित जानकारियों की पुस्तकों को गीता, कुरान शरीफ या बाइबिल की तरह पढ़ते हैं, जो जाहिर है शंकर गुहा नियोगी करते थे.
विचारधारा की धरातल पर नियोगी
राजहरा शंकर गुहा नियोगी की बुनियादी कर्मभूमि रही. यहीं उन्होंने पुलिस की गोली से अपने साथियों को ज़िंदा आदमी से लाश में तब्दील होते देखा और शहीदों का कीर्ति स्तम्भ बनवाया. उन्होंने मद्य निषेध का ढिंढोरा पीटे बिना शराबखोरी की सामाजिक व्याधि के खिलाफ एकाएक जेहाद बोला. मजदूरों की सेवा शर्तों में सुधार को लेकर वे दिखने में जिद्दी और सनकी राजनेता से लेकर व्यावहारिक, समझदार आदमी तक भूमिका निभाते रहे लेकिन मजदूरों और समर्थकों के लिए हर वक्त निष्ठावान रहे.
उनमें प्रकृति, परिवेश, पर्यावरण और परम्परागत भारतीय मूल्यों के प्रति गहरी आस्था थी. नियोगी में दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावाद और किताबी साम्यवाद दोनों के प्रति अनास्था थी. वे कांग्रेस संचालित मिश्रित अर्थव्यवस्था अथवा मध्यवर्गीय राजनीतिक विचारधारा को भी नापसंद करते थे. इस युवा बंगाली नेता में मुझे नौजवान बंगाल के बहादुर नेताओं की झलक दिखाई देती थी.
नियोगी विवेकानन्द, सुभाष बोस और क्रांतिकारियों के प्रति अभिभूत होकर बात करते थे. छत्तीसगढ़ के आदिवासी शहीद वीर नारायण सिंह की चर्चा प्रख्यात कवि हरि ठाकुर तथा….मैंने उनसे की तो नियोगी ने बहुत गंभीरता के साथ इस व्यक्तित्व को अपने कर्मठ मिशन को अंजाम देने में आत्मसात कर लिया.
नारायण सिंह को आदिवासियों की अस्मिता, स्वाभिमान और अस्तित्व का प्रतीक बनाकर नियोगी ने स्थानिकता से सराबोर होकर आंदोलन चलाए. उनकी लोकप्रियता का मुकाबला करने मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को बस्तर में नारायण सिंह की याद में विश्वविद्यालय स्थापित करने की घोषणा करनी पड़ी. तब तक नियोगी लोकप्रियता की पायदान चढ़ते, आगे बढ़ते चले जा रहे थे.
नियोगी के व्यक्तित्व
शंकर गुहा नियोगी के व्यक्तित्व में एक साथ गांधी, मार्क्स और सुभाष के विचारों का मिश्रण था. वे कठमुल्ला मार्क्सवादी भी नहीं थे, जिस व्यवस्था में मानवीयता के गुणों के लिए आनुपातिक जगह नहीं है. वे प्रजातंत्र की आड़ में अमेरिका की अगुआई में पश्चिमी देशों के साम्राज्यवादी हथकंडों के सख्त खिलाफ थे. नियोगी आज़ादी के बाद शासकनुमा वर्ग के रूप में उपजे नौकरशाहों के पक्षधर नहीं थे.
इतनी विसंगतियों के बावजूद छत्तीसगढ़ जैसे शांत, दब्बू और घटनाविहीन इलाके में नियोगी ने लोकतांत्रिक मूल्यों के सहारे एक अचानक भूकम्प की तरह प्रवेश किया. उन्होंने राजनीति, श्रमिक यूनियन या सामाजिक कुरीतियों के क्षेत्र में यक ब यक जेहाद बोलने के समानान्तर कहीं बढ़कर मनोवैज्ञानिक धरातल पर काम किया.
नियोगी भविष्य की पीढ़ियों में छत्तीसगढ़ के औसत आदमी की मनोवैज्ञानिक बुनियाद को बदलकर संघर्षधर्मी बीजाणु उत्पन्न करने के शलाका पुरुष के रूप में स्थायी तौर पर याद रखे जाएंगे. उन्होंने छत्तीसगढ़ के खेतिहर मजदूरों और श्रमिकों की रीढ़ की हड्डी को सीधा कर एक ऐसा राजनीतिक आपरेशन किया जो छत्तीसगढ़ के श्रमिक आन्दोलन में अपनी किस्म का पहला प्रयोग है. वे हताश व्यक्ति की तरह नहीं लेकिन मूल्यों के युद्ध में ठीक मध्यान्तर की स्थिति में एक बेशर्म गोलीकांड के शिकार हुए.
नक्सलवादियों से सहानुभूति नहीं थी नियोगी को
कथित रूप से नक्सलवादी प्रचारित किए जाने के बावजूद नियोगी को नक्सलवादियों से सहानुभूति नहीं थी. छत्तीसगढ़ क्षेत्र में बढ़ती जा रही नक्सलवादी हिंसा के प्रति उन्हें चिंता भी थी. वे अपने क्षेत्र में नक्सलवादियों के पैर पसारने की कोशिशों के प्रति सतर्क थे. ट्रेड यूनियन गतिविधियों में भावुक जोश या उत्तेजना कर देने को जो लोग नक्सलवाद समझते हैं, वे नियोगी के वैचारिक स्तर को समझ पाने में असफल रहे.
इस प्रखर नेता में बच्चों की मासूमियत भी थी. कुछेक मौकों पर प्रशासन के कहने पर मैंने व्यक्तिगत तौर पर नियोगी को समझाइश दी और उन्होंने मेरी सलाह को माना भी, लेकिन बुनियादी तौर पर वे प्रजातांत्रिक प्रक्रिया से ट्रेड यूनियन के संगठनात्मक ढांचे को चलाने के पक्षधर दिखाई पड़ते थे.
यह बात अलग है कि कभी कभी नियोगी में तानाशाही के तेवर भी दिखाई देते थे. उनके प्रारंभिक ट्रेड यूनियन जीवन के कई साथी छिटककर दूर भी हो गए थे, लेकिन उनसे किनाराकशी करने के बाद कोई भी ट्रेड यूनियन नेता उनका विकल्प नहीं बन सका.
साथियाना कार्यशैली
भारतीय राजनीति और श्रमिक यूनियनों में सर्वोच्च पदों पर पहुंचे जन नायकों की छवि आमतौर पर फिल्म अभिनेताओं की तरह रूमानी, कृत्रिम और कुलीन होती है. कई नेताओं के रहन सहन, जीवन और बौद्धिक रिश्तों में गहरी खाई दिखाई पड़ती है. इसलिए शीर्ष नेता अपनी आलोचना सुनकर ही घबराते हैं, विरोध बर्दाश्त नहीं करते. वे समर्थन के नाम पर जय जयकार ही पसंद करते हैं.
नियोगी का यह भी सपना था कि नेता-अनुयायी के रिश्ते के समीकरण में दूरी खत्म कर दी जाए. वे मुझसे सहमत थे कि महानता एक तरह का अभिशाप ही तो है. नियोगी छत्तीसगढ़ में पहले मजदूर नेता थे जिन्होंने साथीपन की भावना से श्रमिक आन्दोलन को चलाया.
उनके मुताबिक कोई श्रमिक नेता जो सात, आठ सौ रुपये महीने की कमाई पर अपने परिवार का लालन पालन नहीं कर सकता था. अपने आदर्शों को यथार्थ की धरती पर चलाने के उद्देश्य से एक साधारण आदिवासी महिला से दया या अहसान की भावना से नहीं बल्कि उसकी मानसिकता के साथ सम्पृक्त होकर नियोगी ने ब्याह किया.
एक आवाज से लाखों श्रमिकों को उद्वेलित कर देने वाले इस राष्ट्रीय ख्याति के होते गए नियोगी के खून में शक्कर की मात्रा कभी नहीं बढ़ पाई. गरीबों के प्रति लगाव के पसीने का नमक कायम रहा. सरकारी संरक्षण का मोहताज हुए बिना नियोगी की अगुआई में राजहरा के मजदूरों ने स्कूल और अस्पताल जैसी खर्चीली बना दी गई संस्थाओं को इतने आदर्श ढंग से संचालित किया है, जिसकी कल्पना तक लोग नहीं करते रहे हैं.
नियोगी की अवैध गिरफ्तारी, उनका साहस और मेरी जिरह
1974 में नियोगी को धोखे से सरकार ने गिरफ्तार कर राजनांदगांव जेल भेज दिया. मैंने सत्र न्यायाधीश की अदालत में याचिका लगाई और अवैध गिरफ्तारी को निरस्त कराते, अदालत के आदेश पर नियोगी को छोड़ दिया गया. उसके बाद राजहरा का पुलिसिया गोलीकांड हुआ. उसकी जांच के लिए हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त जस्टिस रज्जाक न्यायिक आयोग बैठा. मैंने नियोगी के वकील के रूप में सरकारी गवाहों से जिरह की.
चुटकुला यह हुआ कि लगातार सिगरेट पीने की आदत वाले भिलाई स्टील प्लान्ट के मैनेजिंग डायरेक्टर शिवराज जैन ने मेरे प्रतिपरीक्षण से उकताकर लंच के बाद कहा कि मैं छोटे छोटे सवाल हां या नहीं वाले पूछूं. वे मेरे सामने हथियार डालते जाएंगे. फिर आगे चलकर राजहरा में छत्तीसगढ़ श्रमिक संघ और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा की सात श्रमिक सहकारी समितियां बेईमानी से भंग कर दी गईं. उनका उपचार रायपुर में संयुक्त पंजीयक के यहां अपील के जरिए होना था. स्थगन नहीं मिलता.
मैंने सीधे राजस्व मंडल, ग्वालियर में याचिका दाखिल की और तत्काल स्थगन मिल गया. बाद में अंतिम बहस के दौरान वरिष्ठ आईएएस अधिकारी राजस्व मंडल के अध्यक्ष ने हमारे पक्ष में फैसला दिया. मैंने पूछा आप पर सरकार का दबाव नहीं है. उन्होंने जवाब दिया कि है तो जरूर लेकिन नियोगी के मामले में मैं सरकार के खिलाफ रहूंगा. भले ही मेरा तबादला हो जाए. ऐसी थी इस जुझारू संघर्षधर्मी नेता की छवि.
कुछ दिन बाद उस बंगाली वरिष्ठ अधिकारी का तबादला भोपाल हो गया. यह अलग बात है कि उनकी पत्नी भी भोपाल में आइ.ए.एस. अधिकारी के रूप में पदस्थ थी. उन्हें लाभ ही हुआ. लोहा जब गर्म होता है, तब चमकता भी है और उसे सांचे में ढालकर जिस तरह चाहें चेहरा या आकार बनाया जाता है.
दल्ली राजहरा का यह चट्टान पुरुष मेरे पास घंटों बैठता. उसके अंदर से टैगोर और काज़ी नज़रुल इस्लाम की नस्ल की कवितामय पंक्तियां फूटती रहती. उसे संसार के हर विषय में जिरह और जिज्ञासा की आदत थी. वह केवल छत्तीसगढ़ की श्रमिक राजनीति तक सीमित नहीं था. मैं उन दिनों कांग्रेस पार्टी का कार्यकर्ता था. इसके बावजूद पार्टी के नेताओं और लगातार होते मुख्यमंत्रियों की परवाह किए बिना नियोगी के साथ जुड़ना बौद्धिक जीवन में ईमानदारी का प्राण संचार करता था.
नियोगी को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम में निरोधित कर दिया गया. प्रावधानों के अनुसार एक साल तक जमानत का सवाल नहीं था. तब मैंने उस समय के अधिनियमित बोर्ड के सदस्यों में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति जगदीशरण वर्मा और न्यायमूर्ति बिपिनचंद्र वर्मा से बेझिझक उनके चेम्बर में जाकर बातचीत की.
दोनों न्यायमूर्तियों ने कहा कि यह एक वकील का अजीब साहस है. इस तरह कोई हमसे मिले तो उसे मुश्किल हो सकती है. फिर कहा हम जानते हैं यह नैतिक साहस शंकर गुहा नियोगी के किरदार के कारण है. उन्होंने कहा हम यह भी जानते हैं कि नियोगी के साथ अन्याय हो रहा है. नतीजतन नियोगी को छोड़ दिया गया.
पुलिस उन्हें अन्य किसी अपराध में फिर गिरफ्तार करना चाहती थी. जबलपुर से दुर्ग टैक्सियां बदलकर किसी तरह मैंने नियोगी को अपने दफ्तर में आधी रात के अंधेरे में बुलवा लिया. खबर पाते ही जिले के पुलिस अधीक्षक बहुत देर तक मेरे घर के सामने प्रतीक्षा करते रहे. यह फितरत थी मेरे पास बैठे मजदूर साथियों की कि वे उन्हें चतुराई से निकालकर राजहरा के जनसैलाब में ले गए.
जनकलाल ठाकुर, शेख अंसार, सुधा भारद्वाज, अनूप सिंह, विनायक सेन, राजेन्द्र सायल, प्रेमनारायण वर्मा, गणेशराम चौधरी, कलादास डेहरिया और अन्य कई साथी इस तरह मिलते थे, जब अभिजात्य की चटनी पीसकर चुनौतियों के चटखारे लेते हम ज़िंदगी का लुत्फ उठाते थे. शंकर गुहा नियोगी के चले जाने से जिंदगी का वह आस्वाद खत्म हो गया है.
नियोगी, राजीव के प्रशंसक
शंकर गुहा नियोगी एक तरह के रूमानी नेता ही थे जो ज़रूरत पड़ने पर ‘एकला चलो‘ की नीति का पालन कर लेते थे. उनकी राजनीतिक समझ का लोहा वे लोग भी मानते थे जिनके लिए नियोगी सिरदर्द थे. तमाम कटुताओं, तल्खियों और नुकीले व्यक्तित्व के बावजूद नियोगी ने कई बार राजनीतिक वादविवाद में अपने तर्कों को संशोधित भी किया.
राजीव गांधी के प्रधानमंत्री कार्यकाल में जब सब विरोधी दलों ने मिलकर ‘भारत बंद‘ का आयोजन किया, तो छत्तीसगढ़ में नियोगी अकेले थे जिन्होंने साथियों को काम पर लगाए रखा. उन्होंने प्रस्तावित भारत बंद को देशद्रोह की संज्ञा दी. वे निजी तौर पर कई मुद्दों पर राजीव गांधी के प्रशंसक भी बन गए थे और अन्य किसी भी नेता को देश की समस्याओं को सुलझाने के लायक उनसे बेहतर नहीं मानते थे.
राजीव की मौत के बाद वे मेरे पास घंटों गुमसुम बैठे रहे जैसे उनका कोई अपना खो गया हो. राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम में निरोधित किए जाने के बाद जब मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के आदेश से उनकी रिहाई हुई. उसके बाद नियोगी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी हमारे कुछ मंत्रियों की मदद से मिले. इंदिरा जी ने नियोगी को काफी समय देकर उन मुद्दों को समझने की कोशिश की, जिनकी वजह से नियोगी प्रशासन के लिए चुनौती बने रहते थे.
राजीव गांधी की मौत के वक्त मैं मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी का महामंत्री था. छत्तीसगढ़ में लोकसभा चुनाव के संचालन का भार भी मुझ पर था. उस हादसे के कारण अपने सैकड़ों साथियों के साथ गमगीन होना नियति ने हमारे खाते में लिख दिया था. उसी दरम्यान नियोगी मेरे पास अकेले आकर घंटों गुमसुम बैठे रहे. राजीव गांधी की मौत पर उन्होंने मेरे घर पर ही बैठकर एक लंबा लेख लिखा. वह उस समय के अखबार ‘नवभास्कर‘, रायपुर में संपादक रमेश नैयर ने दो किश्तों में छापा था.
नियोगी की हत्या
जिस दिन नियोगी की हत्या हुई, उस दिन मैं जबलपुर में था. एक दिन पहले वे मेरे घर आए थे. बहुत देर तक मेरे परिवार के साथ बैठकर गपशप करते रहे. हाईकोर्ट के काम की वजह से मैं उस दिन नहीं आ सका था, वरना हत्या के उस मनहूस दिन नियोगी की मेरे घर में भिलाई के कई रसूखदार उद्योगपतियों से बात होनी थी. मैं चाहता था मामले का सम्मानजनक हल निकले.
असल में कई उद्योगपतियों और नियोगी दोनों का वकील मैं था लेकिन उनमें विवाद होने पर नियोगी का ही वकील मैं होता था. उस दिन मेरी पहल सम्मानजनक समझौते से मानो ही गुंजाइश बनी थी. मेरे नहीं आ पाने से एक त्रासदी नियोगी के जाने से चस्पा हो गई. नियोगी की जिद अपने व्यवहार में लचीली होती थी. जब मामला आत्मसम्मान तक पहुंचे, तब वे अपनी रीढ़ की हड्डी पर सीधे हो जाते थे.
मनुष्य होने का करतब कोई शंकर गुहा नियोगी से सीखे ! शंकर गुहा नियोगी राजहरा के भयंकर गोलीकांड के हीरो के रूप में उभरे थे. लोग तो अब भी कहते हैं कि व्यवस्था की साजिश उस समय भी यही थी कि गोलीकांड में ही नियोगी को खत्म कर दिया जाए ताकि प्रशासन की नाक में दम करने वाला दुर्धर्ष व्यक्ति व्यवस्था के रास्ते से सदैव के लिए हटा दिया जाए. यह नियोगी सहित मजदूरों और अन्य जीवंत सामाजिक कार्यकर्ताओं का सौभाग्य था कि नियोगी गोली के शिकार नहीं हुए.
ऐसा नहीं है कि नियोगी से वैचारिक मतभेद नहीं थे. दलीय धरातल पर हमने चुनाव के मैदान तथा अन्य मुद्दों पर एक दूसरे का विरोध और समर्थन भी किया, लेकिन इस जांबाज नेता में वैयक्तिक समीकरण के रिश्तों को गरमा देने की अद्भुत क्षमता थी. नियोगी को राजनीति की अधुनातन घटनाओं की गंभीर से गंभीर और बारीक से बारीक जानकारियां रहती थी. उनके चिंतन में बेरुखी, फक्कड़पन और बेतरतीबी थी.
एक लड़ाकू श्रमिक नेता होने के नाते उनसे व्यवस्थित चिंतन की बौद्धिक कवायद की उम्मीद नहीं की जा सकती थी, लेकिन नियोगी और उनके समर्थकों ने राजनीतिक मतभेद के बावजूद हममें से कई ऐसे लोगों के साथ व्यक्तिगत समझदारी के संबंध बना रखे थे, जिससे हम दोनों के समर्थकों को कई बार कोफ़्त भी होती थी.
मुझे एक बार तो छत्तीसगढ़ माइन्स श्रमिक संघ/छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के दफ्तर में रात भर सैकड़ों मजदूरों के सामने नियोगी के साथ बकझक करनी पड़ी थी कि कांग्रेस के लोकसभा उम्मीदवार अरविन्द नेताम का मुक्ति मोर्चा क्यों समर्थन करे. मजदूर साथियों ने एक से एक लाजवाब सवाल मुझसे किए. यह हर एक को मालूम था कि उन्हें अपने वकील साहब की बात मान लेनी है.
लगता था शंकर गुहा नियोगी को अपनी हत्या का पूर्वाभास भी था, लेकिन वे इसे बातों में हंस कर उड़ा देते थे. उन्हें अपने साथियों की निष्ठा पर अटूट विश्वास था. नियोगी अपने साथियों के लिए पूर्ण समर्पण की भावनाओं से ट्रेड यूनियन के आंदोलन को हथियार की तरह उठाए यहां से वहां घूमते रहते थे.
नई दिल्ली में एक बार सर्दी की सुबह छः बजे जब वे किसी काम से मेरे पास आए तो मैंने इस बात को खुद अपनी आंखों से देखा था कि वे काफी दूर से टैक्सी या आटो रिक्शा किए बिना पैदल ही चले आ रहे थे. मैं दरअसल जनपथ स्थित वेस्टर्न कोर्ट में ठहरा था. सुबह कोहरा धीरे धीरे छंट रहा था. दूर से पैदल कोई मनुष्य छाया आती हुई दिखाई दे रही थी. मैं बाहर के बरामदे से देख रहा था. वह मनुष्य छाया धीरे धीरे नियोगी में तब्दील हो गई.
वे आठ दस किलोमीटर पैदल चलकर आए थे. उनके आलोचक उनके पास लाखों रुपये का जखीरा होने का ऐलान करते थे. उनकी यूनियन के पास जनशक्ति के अतिरिक्त धनशक्ति यदि हो तो इसमें कोई ऐतराज की बात नहीं थी लेकिन नियोगी ने मजदूरों के समवेत स्त्रोत से एकत्रित धनशक्ति की अपने तईं बरबादी नहीं की. यह बात नियोगी के नजदीक रहने वाले बहुत अच्छी तरह जानते हैं.
अंत में …
कुल मिलाकर शंकर गुहा नियोगी एक बेहद दिलचस्प इंसान, भरोसेमंद दोस्त, उभरते विचारक और घंटों गप्प की महफिल सजाए रखने में सफल नायाब नेता थे. पूर्व बंगाल की शस्य श्यामला धरती से आया यह गमकते धान के बिरवे जैसा व्यक्तित्व भिलाई के कारखाने की लोहे जैसी सख्त बारूदी गोलियों का शिकार क्यों हो गया ? नियोगी की हत्या छत्तीसगढ़ की प्रथम महत्वपूर्ण राजनीतिक हत्या है.
जो लोग नियोगी को अंधेरी रातों में बीहड़ों और जंगलों में बिना किसी सुरक्षा के जाते देखते थे, उनके मन में यह आशंका जरूर सुगबुगाती रहती थी कि यह सब कब तक चलेगा ? लेकिन अपनी मौत से बेखबर और बेखौफ नियोगी अपनी पूरी ज़िंदगी कांटों के ही रास्ते पर चलते रहे. उनकी मौत राष्ट्रीय घटना बनकर चर्चित हुई. उन अदना हाथों को क्या दोष दें कि उन्होंने षड़यंत्रकारी दिमागों का एजेंट बनना कबूल किया.
हत्यारों ने नियोगी की नहीं, ट्रेड यूनियन की एक अनोखी और बेमिसाल लेकिन सब पर छाप छोड़ने वाली जद्दोजहद की शैली की हत्या की है. नियोगी ने अपने बच्चों तक के नाम अपने सपनों की कड़ी के रूप में रखे थे. क्रान्ति और फिर जीत और फिर मुक्ति. यही तो खुद्दार नेताओं के सपनों का अर्थ होता है.
उन्होंने फार्मूलाबद्ध ट्रेड यूनियन नेताओं की तरह कभी भी अपने अनुयायियों को उत्पादन ठप्प कर देने या कम कर देने की समझाइश नहीं दी. उत्पादन और उत्पादकता के पैरों पर चलकर ही श्रमिकों के हाथों में समाज परिवर्तन की मशाल वे थामना चाहते थे. यही कारण है अनेक मौकों पर जब परम्परावादी यूनियनों के काम के बहिष्कार का ऐलान किया गया, शंकर गुहा नियोगी ने सबसे अलग हटकर सैद्धांतिक और अनोखे फैसले किये कि कामबंदी करने का कोई सवाल ही नहीं है.
कहने में अटपटा तो लगता है लेकिन अपने जीवन काल में नियोगी ने मजदूरों, किसानों और अपने समर्थकों के दिमागों के रसायन शास्त्र को जितना नहीं बदला, उतना उसकी मौत की एक घटना ने कर दिखाया. लाखों मजदूरों के चहेते इस नेता की कायर तरीके से निर्मम हत्या कर दी जाए लेकिन उसके बाद भी बिना किसी पुलिस इंतजाम के उनके समर्थक हिंसा की वारदात तक नहीं करें, ऐसा कहीं नहीं हुआ.
नियोगी के शव के पीछे मीलों चलकर मैंने यह महसूस किया कि जीवन का सपना देखने का अधिकार केवल उसको है जो अपनी मृत्यु तक को इस सपने की बलि वेदी पर कुर्बान कर दे. इस श्रमिक नेता की आंखों में भाषा की इबारत बोलती रहती थी. शर्त यही है कि उसे पढ़ना आना चाहिए. नियोगी की मौत पर आक्रोशित लाखों की संख्या में मजदूर थे. शव के पीछे चलता मेरा पूरा परिवार इस तरह टूट गया था मानो परिवार का कोई सदस्य चला गया है.
उस असाधारण जनसैलाब ने अद्भुत आत्मसंयम रखा. वह अहिंसा के इतिहास में दर्ज करने लायक है. नियोगी का जाना लगता है आने जाने की तरह है. यह जाबांज युवक मेरी यादों से जाता नहीं है. बार बार लौट लौट आता है. इसीलिए नियोगी व्यक्ति नहीं विचार है.
पहले मुझे ऐसा लगा जैसे नियोगी के शव के रूप में एक मशाल पुरुष जीवित होकर चल रहा है और उसके पीछे चलते हजारों व्यक्तियों की भीड़ जिन्दा लाशों की शव यात्रा है. फिर ऐसा लगा कि यह तो केवल भावुकता है. शंकर गुहा नियोगी का शव फिर मुझे एक जीवित किताब के पन्नों की तरह फड़फड़ाता दिखाई दिया और उसके पीछे चलने वाली हर आंख में वह सपना तैरता दिखाई दिया.
प्रसिद्ध विचारक रेजिस देब्रे ने कहा है कि क्रान्ति की यात्रा में कभी पूर्ण विराम नहीं होता. क्रान्ति की यात्रा समतल सरल रेखा की तरह नहीं होती. क्रान्ति की गति वर्तुल होती है और शांत पड़े पानी पर फेंके गये पत्थर से उत्पन्न उठती लहरों के बाद लहरें और फिर लहरें, यही क्रान्ति का बीजगणित है. शंकर गुहा नियोगी ने इस कठिन परन्तु नियामक गणित को पढ़ा था. बाकी लोग तो अभी जोड़ घटाने की गणित के आगे बढ़ ही नहीं पाए.
नियोगी ने शोषण मुक्त, जाति मुक्त, वर्ग भेद मुक्त जिस छत्तीसगढ़ का सपना देखा था. उसका ताना बाना बुनना तक औरों के लिए मुश्किल काम रहा है. नये छत्तीसगढ़ का सपना उनके लेखे पानी का बुलबुला या हवा में छोड़ा गया कोई गुब्बारा नहीं था जो असलियत की जमीन पर गिर कर गायब हो जाए.
नियोगी स्वप्नशील व्यक्ति थे. अमरता के इतिहास में कोई महापुरुष स्वप्नशील हुए बिना न तो संघर्ष कर सकता है और न ही शहीद हो सकता है. उनका रचनात्मक सपना इतिहास की बुनियाद पर आधारित होता है. छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाके में शंकर गुहा नियोगी ने अतीत की बीहड़ गहराइयों में डूब कर सोनाखान के जमींदार नारायण सिंह को ढूंढकर निकाला, जिन्होंने 1857 के स्वाधीनता संग्राम के एक बरस पहले अंग्रेजों को चुनौती दी थी और वह भी आर्थिक सवालों पर.
इतिहास की गुमनामी में दफ्न नारायण सिंह को एक मिथक पुरुष बनाकर शंकर गुहा नियोगी ने समकालीन संघर्ष का ऐसा आदर्श बनाया जिसके झंडे तले छत्तीसगढ़ के पिछड़े वर्गों के लोग अनथक संघर्ष करते रहें. नियोगी में जबरदस्त इतिहास बोध था और उनका भविष्य का सपना कोई लुंजपुंज कल्पना लोक नहीं था. वह राजनीति और ट्रेड यूनियन की ऊबड़ खाबड़ धरती पर रोपा हुआ बबूल का बिरवा है जिसे अय्याश पूंजीपतियों, भ्रष्ट नौकरशाहों और अवसरवादी राजनीतिज्ञों के आंगन में रोपे गये गुलाब के पौधों की परवाह नहीं रही.
काॅमरेड नियोगी का नया छत्तीसगढ़ का सपना एक तरह से सपना नहीं है. वह उस प्रक्रिया की पहली मंज़िल में है, जहां सपने यथार्थ में बदल जाते हैं. इस सपने में वे वैचारिक अणु छिपे हैं जिनका प्रजातांत्रिक विस्फोट तो होगा. नियोगी का जीवन हम सबके लिए खुद एक सपने की तरह है. वह एक ऐसी जलती हुई मशाल की तरह है जिसके बुझ जाने पर फिलहाल अंधेरा अट्टहास कर रहा है कि मैंने रोशनी को निगल लिया. अंधेरे को क्या यह बात मालूम है कि मशाल की रोशनी उसी वक्त बुझती है, जब सूरज उगने को होता है.
काॅमरेड नियोगी, छत्तीसगढ़ की धरती में दफ्न हुए लगभग सबसे जुझारू, संघर्षशील और गैर-समझौतावादी जननेता के रूप में याद रखे जाएंगे. उनका दहकता इस्पाती जीवन छत्तीसगढ़ के असंख्य और असंगठित किसानों, मजदूरों के साथ साथ युवा पीढ़ियों और बुद्धिजीवियों के लिए प्रेरणा स्त्रोत है.
बंगाल की शस्य श्यामला धरती का यह सपूत विद्रोही कवि काज़ी नजरुल इस्लाम की कविता के एक छंद के रूप में छत्तीसगढ़ की धरती में बिखरकर आत्मसात हो गया. दलों, गुटों, जातियों और क्षेत्रीयता के आधार पर टूटे हुए राजनेताओं के लिए शंकर गुहा नियोगी अपनी मृत्यु के बाद भी एक तिलिस्मी व्यक्तित्व बने हुए हैं. यही उनकी कालजयी ख्याति का प्रमाण है.
नियोगी ने मध्यप्रदेश के उपेक्षित, शोषित लेकिन विपुल संभावनाओं वाले छत्तीसगढ़ के निवासियों के लिए भगीरथ प्रयत्न किया. वे अनोखे और बेमिसाल थे. भविष्य में भी कोई अकेला जानदार नेता उन कामों को पूरा कर सकेगा- इसमें सन्देह है. नियोगी के व्यक्तित्व में वह स्निग्धता, सरलता और अनूठापन था जो राष्ट्रीय ख्याति के नेताओं के स्वभाव में होता है.
नियोगी में सर्वहारा वर्ग के प्रति जन्मजात उपजी करुणा थी. ऊपर से दिखने वाले उनके जिद्दी और अड़ियल व्यक्तित्व की बुनियाद में कोमल मन धड़कता था. उन्हें राजनीति का कवि भी कहा जा सकता है. नियोगी ने छत्तीसगढ़ की धरती से सम्पृक्त होकर भूगोल की सरहदों से ऊपर उठकर राजहरा के मजदूर आन्दोलन को राष्ट्रीय आधार पर प्रतिष्ठित किया. संवेदनशीलता का भावी इतिहास अपनी सिसकियों में सदैव पूछेगा- ‘शंकर गुहा नियोगी तुम कहां हो ?’
Read Also –
मई दिवस के मौके पर का. शंकर गुहा नियोगी, जिसकी भाजपा सरकार ने हत्या करवा दी
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]