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सच्चे कम्युनिस्ट थे शहीद-ए-आजम भगत सिंह

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भगत सिंह ! इस बार न लेना काया भारतवासी की
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की
यदि जनता की बात करोगे, तुम गद्दार कहाओगे
बम्ब-सम्ब की छोड़ो, भाषण दिया कि पकड़े जाओगे
निकला है कानून नया, चुटकी बजते बंध जाओगे
न्याय अदालत की मत पूछो, सीधे मुक्ति पाओगे !

उक्त पंक्तियां 1948 ई. में शैलेन्द्र की लिखी एक कविता की है. कविता की 4-5 पंक्तियां ही भगत सिंह के विचारों के बारे में तत्कालीन नेहरू सरकार की सोच को प्रदर्शित करती है. 1948 ई. के बाद जितनी भी सरकारें आयी, चाहे वे जिस भी झंडे की सरकार रही हो, भगत सिंह के बारे में व उनके विचारों को आगे बढ़ाने वालों के प्रति भी यही नजरिया रहा.

भगत सिंह के प्रति सरकारों का जो भी नजरिया रहा हो, लेकिन भगत सिंह को भारतीय युवाओं के मनोमस्तिष्क से हटाना उनके लिए संभव नहीं रहा. उनके विचारों को कैद करने की सरकार के तमाम कोशिशों के बावजूद भी आज उनके विचारों को मानने वाले युवाओं की तादाद हमारे देश में करोड़ों में हैं.

मुंबई में भगत सिंह के विचारों की पुस्तक बेचनेवालों को कैद कर लिया जाता है तो वहीं प्रसिद्ध महिला संस्कृतिकर्मी शीतल साठे को ‘ऐ भगत सिंह तू जिन्दा है, हर एक लहू के कतरे में. हर एक लहू के कतरे में, इंकलाब के नारे में !’, गीत गाने पर गर्भवती अवस्था में भी जेल के सींंखचों में कैद कर लिया जाता है.

भगत सिंह की लोकप्रियता से घबड़ाकर अब सांप्रदायिक ताकतें उनके विचारों में ही फेरबदल कर देना चाहती हैं. आज आरएसएस से लेकर उनके तमाम अनुषांगिक संगठन, तमाम पूंजीपति समर्थक पार्टियां भगत सिंह को अपना रोल मॉडल मानने का दावा करने लगी हैं और सभी अपने अनुसार उनके विचारों में फेरबदल कर अपने को उनका उत्तराधिकारी घोषित कर रही हैं.

ऐसे कठिन समय में जरूरी है कि हमें भगत सिंह के मूल विचारों को जनता के बीच ले जाकर ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी जाए कि ऐसे छद्म स्वघोषित उत्तराधिकारियों को जनता के बीच सर छुपाने की भी जगह ना मिले.

भगत सिंह सही मायने में एक सच्चे कम्युनिस्ट थे. वे इस सड़ी-गली व्यवस्था को बदलकर एक समाजवादी समाज की स्थापना चाहते थे. अदालत में दिए गए उनके बयान –

‘क्रांति से हमारा अभिप्राय है अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज व्यवस्था में आमूल परिवर्तन.’

‘समाज का मुख्य अंग होते हुए भी आज मजदूरों को उनके प्राथमिक अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूंजीपति हड़प जाते हैं. दूसरों के पेट भरनेवाला अन्नदाता किसान आज दाने-दाने के लिए मोहताज है. दुनिया भर के बाजारों को कपड़ा मुहैया करनेवाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के लिए तन ढकने भर को भी कपड़ा नहीं पा रहा है. सुंदर महलों का निर्माण करने वाले राजमिस्त्री, लोहार तथा बढई स्वयं गंदे बाड़ों में रहकर ही अपनी जीवनलीला समाप्त कर जाते हैं. इसके विपरीत समाज के जोंक शोषक पूंजीपति जरा-जरा सी बातों के लिए लाखों का वारा-न्यारा कर देते हैं.’

‘सभ्यता का ये प्रसाद यदि समय रहते संभाला ना गया तो शीघ्र ही चरमरा कर बैठ जाएगा. देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं, उनका कर्तव्य है कि साम्यवादी सिद्धांतों पर समाज का पुनर्निर्माण करें. जबतक यह नहीं किया जाता और मनुष्य द्वारा मनुष्य का तथा एक देश द्वारा दूसरे देश का शोषण, जिसे साम्राज्यवाद कहते हैं, समाप्त नहीं कर दिया जाता, तब तक मानवता को उसके क्लेशों से छुटकारा मिलना असंभव है.’

भगत सिंह अपने आप को विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन से भी जोड़ना चाहते थे. उन्होंने जेल से ही लाल रूस को शुभकामनाएं भी भेजी थीं –

‘लेनिन दिवस के अवसर पर हम सोवियत रूस में हो रहे महान अनुभव और साथी लेनिन की सफलता को आगे बढ़ाने के लिए अपनी दिली मुबारकबाद भेजते हैं. हम अपने को विश्व क्रांतिकारी आंदोलन से जोड़ना चाहते हैं. मजदूर राज की जीत हो !’

आज आरएसएस, जिसकी पूरी राजनीति ही समाज में दंगे भड़काकर अपनी पैठ जमाना है, जो भारत को हिन्दू देश बनाने की बात करता है और भगत सिंह के जन्म दिवस व शहादत दिवस को भी मनाते हैं, उन्हें भगत सिंह का लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं ?’ और ‘अछूत समस्या’ जरूर पढ़ना चाहिए, जिसमें उन्होंने साफ लिखा है –

‘धर्म का रास्ता अकर्मण्यता का रास्ता है, सब कुछ भगवान के सहारे छोड़ हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाने का रास्ता है. निष्काम कर्म की आड़ में भाग्यवाद की घुट्टी पिलाकर देश के नौजवानों को सुलाने का रास्ता है. मैं इस जगत को मिथ्या नहीं मानता. मेरे लिए इस धरती को छोड़कर न कोई दूसरी दुनिया है, न स्वर्ग. आज थोड़े व्यक्तियों ने अपने स्वार्थ के लिए इस धरती को नरक बना डाला है. शोषकों तथा दूसरों को गुलाम रखने वालों को समाप्त कर हमें इस पवित्र भूमि पर फिर से स्वर्ग की स्थापना करनी होगी.’

‘धार्मिक अंधविश्वास और कट्टरपन हमारी प्रगति में बहुत बड़े बाधक हैं. वे हमारे रास्ते के रोड़े साबित हुए हैं, उनसे हर हाल में छुटकारा पा लेना चाहिए.’

‘जो चीज आजाद विचारों को बरदाश्त नहीं कर सकती, उसे समाप्त हो जाना चाहिए. इस काम के लिए सभी समुदायों के क्रांतिकारी उत्साह वाले नौजवानों की आवश्यकता है.’

भगत सिंह देश में हो रहे दंगे से काफी चिन्तित थे व उन्होंने दंगे रोकने के लिए अपने विचार भी प्रकट किए –

‘लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग चेतना की जरूरत है. गरीब मेहनतकशों और किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़कर कुछ ना करना चाहिए. कलकत्ते के दंगों में एक बात बहुत खुशी की सुनने में आयी कि वहां दंगों में ट्रेड यूनियनों के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही आपस में गुत्थम गुत्थ ही हुए, वरन सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के यत्न करते रहे. यह इसलिए कि उनमें वर्ग चेतना थी और वे अपने वर्ग हित को अच्छी तरह पहचानते थे. वर्ग चेतना का यही सुंदर रास्ता है, जो सांप्रदायिक दंगे रोक सकता है.’

भगत सिंह देश में क्रांति के लिए यहां के मजदूर, किसान, छात्र और नौजवानों की चट्टानी एकता की वकालत करते थे और उन्हें संगठनबद्ध होकर गुलामी की जंजीरें तोड़ने के लिए ललकारते भी थे –

‘संगठनबद्ध हो जाओ ! स्वयं कोशिशें किए बिना कुछ भी न मिल सकेगा. संगठनबद्ध हो जाओ ! अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दो. यह पूंजीवादी नौकरशाही तुम्हारी गुलामी का असली कारण है, तुम असली सर्वहारा हो, संगठनबद्ध हो जाओ ! तुम्हारी कुछ हानि न होगी, बस गुलामी की जंजीरें कट जाएंगी. उठो और वर्तमान व्यवस्था के विरूद्ध बगावत खड़ी कर दो. धीरे-धीरे होने वाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा. सामाजिक आंदोलन से क्रांति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो. तुम ही देश के मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो.’

भगत सिंह देश में क्रांति के लिए युवाओं की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते थे. 19 अक्टूबर 1931 ई. को जेल से विद्यार्थियों के नाम पत्र में उन्होंने लिखा –

‘नौजवानों को क्रांति का यह संदेश देश के कोने-कोने में पहुंचाना है, फैक्ट्री-कारखानों के क्षेत्रों में, गंदी बस्तियों और गांवों की जर्जर झोपडियों में रहनेवाले करोड़ों लोगों में इस क्रांति की अलख जगानी होगी, जिससे आजादी आएगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असंभव हो जाएगा.’

भगत सिंह के विचार स्पष्ट थे. हमारे देश में अंग्रेजों से भारतीय के पास सत्ता हस्तांतरण के लगभग 68 वर्ष बीतने के बावजूद भी भगत सिंह के विचारों पर आधारित समाज आज भी एक सपना ही है. भगत सिंह के सपने का समाज बनाने का दायित्व बेशक उनके कंधों पर ही है, जो वास्तव में एक शोषणरहित समाज की स्थापना चाहते हैं. एक आशा की किरण आज मध्य भारत के उन हजारों गांवों से दिखाई दे रही है, जहां भगत सिंह के सपनों का समाज का भ्रूण रूप अस्तित्व में आ चुका है, जिसके बारे में ‘आहत देश’ में अरूधंति राय, ‘भारत के आसमान में लाल तारा’ में यान मिर्डल व ‘जंगलनामा’ में सतनाम ने उल्लेख किया है.

लेकिन भगत सिंह को श्रद्धांजलि अर्पित करनेवाली मनमोहन सरकार रही हो या वर्तमान की मोदी सरकार हो, भगत सिंह के विचारों पर आधारित समाज को भ्रूण रूप में ही मटियामेट कर देना चाहती हैं, उन्होंने अपने देश के लोगों के खिलाफ ही युद्ध की घोषणा कर रखी है. बेशक युद्ध के बिना नये समाज का निर्माण भी संभव नहीं है. भगत सिंह ने अपने फांसी से 3 दिन पहले 20 मार्च 1931 ई. को गवर्नर को पत्र में लिखा था –

‘यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी, जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों के आय पर अपना एकाधिकार कर रखा है. चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूंजीपति और अंग्रेज या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट कायम कर रखी है. चाहे शुद्ध भारतीय पूंजीपतियों द्वारा ही निर्धनों का खून चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ता. लड़ाई जारी रहेगी.’

आज जरूरत है देश को भगत सिंह के कहे गए एक-एक शब्दों पर गौर फरमाने की –

‘जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है तो किसी भी प्रकार की तब्दिली से वे हिचकिचाते हैं. इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी स्पिरिट पैदा करने की जरूरत होती है अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा जाता है. लोगों को गुमराह करनेवाली प्रतिक्रियावादी शक्तियां जनता को गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती है. इससे इन्सान की प्रगति रूक जाती है और उसमें गतिरोध आ जाता है. इस परिस्थिति को बदलने के लिए यह जरूरी है कि क्रांति की स्पिरिट ताजा की जाए ताकि इन्सानियत के रूह में हरकत पैदा हो.’

‘क्रांति मानव जाति का जन्मजात अधिकार है, जिसका अपहरण नहीं किया जा सकता. प्रगति के समर्थक प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य है कि वह पुराने विश्वास से संबंधित हर बात की आलोचना करे, उसमें अविश्वास करे और उसे चुनौती दे. निर्माण के लिए ध्वंस जरूरी ही नहीं अनिवार्य है.’

जब आगामी 23 मार्च को हम शहीद-ए-आजम भगत सिंह का शहादत दिवस मना रहे होंगे तो हमें इस बात को जरूर ध्यान में रखना होगा कि कहीं हम भगत सिंह के विचारों को भूल तो नहीं गए हैं ? कहीं हम उनके विचारों के साथ तोड़-फोड़ तो नहीं कर रहे हैं ? कहीं हम उनकी हत्या करनेवालों के साथ तो नहीं खड़े हैं ?

हमें भगत सिंह की दोबारा हत्या की हर साजिश का मुकम्मल जवाब देना ही होगा क्योंकि उनके मूल विचारों पर चलकर ही हम अपने देश की शोषित-उत्पीड़ित जनता की मुक्ति की लड़ाई को आगे बढ़ा सकेंगे.

  • ‘हस्तक्षेप’ से साभार

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