सेना में क्या चल रहा है ? यह भी प्रश्नगत किया जाना चाहिए ! ये लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छा है. देश सेना के लिए नहीं है. सेना देश का एक आवश्यक टूल है, जिसे जांचते रहने की ज़रूरत है.
पिछले तीन चार साल से सेना के राजनीतिकरण करने, सेना को भगवा चोला पहनाने, सेना के ईश्वरीकरण कर उसे प्रजातांत्रिक देशों के प्रश्नगत करने के नागरिक अधिकारों से परे बनाने के कुचक्र पर पोस्ट लिख रहा था.
एक प्रजातांत्रिक देश के लिए ये एक अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दा है. मेरे कई क्रांतिकारी प्रकृति के मित्र और भाई भी जो किसी भयानक ज्वलंत और मुश्किल विषय तक पर अपना लाइक या कमेंट करने की क्रांतिकारिता दिखा जाते थे, वे तक सेना को प्रश्नगत करते पोस्ट पर कन्नी काट जाते थे.
अब चूंकि अपने प्रजातांत्रिक तकाज़े ज़रा अलग किस्म के हैं और उन पर सैन्य त्रुटियों की आलोचना से देशद्रोह आयद नहीं होता, अतः हमने उन मुद्दों को समय-समय पर उठाया ताकि सनद रहे कि हम तो बोले थे पर आप के कान पर जूं न रेंगी और ये सनदें भविष्य में काम आए.
दुर्भाग्य से मेरे ऐसे पोस्ट अधिकांशतः पाठकों के सैन्य प्रेम और सेना के प्रति श्रद्धा एवं अंधश्रद्धा के कारण ज़बरदस्त फ्लॉप ही रहे. खैर आज आपको फिर से वे सनदे दिखाने और याद दिलाने का समय आ गया है.
पिछले वर्ष आज के दिन ही देश की सेना के प्रमुख जनरल विपिन रावत ने दिल्ली के यूनाइटेड सर्विस इंस्टीटूट के कार्यक्रम में कहा था, “सेना में हो रही राजनीति कि घुसपैठ !”
जनरल साहब ने कहा कि पिछले कुछ दिनों से सेना के राजनीतिकरण की कोशिश हो रही है. सेना का राजनीतिकरण देश के लोकतांत्रिक ताने-बाने के लिए किसी भी लिहाज़ में उचित नहीं है. जब भी किसी मुद्दे को सेना की किसी संस्था या अधिकारी से जोड़ने की कोशिश होती है तो सभी को सतर्क हो जाना चाहिए. सेना धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के साथ काम करती है. हमें इसे बचा कर रखना चाहिए.
तो जनरल साहब ढके-छिपे शब्दों में जिस आशंका और डर के प्रति आगाह कर रहे हैं हम भी तो पिछले कई दिनों से यही बात कह रहे थे भईया.
और अब बात पते की … ये तथ्य और जनरल साहब का डर आज क्यों व्यक्त किया. बुलंदशहर के इंस्पेक्टर सुबोध की मोब-लीनचिंग के चार गिरफ्तार आरोपियों में दो के कैरियर प्रोफाइल पर ध्यान दीजिए. एक लड़का पुलिस भर्ती की तैयारी कर रहा है. अगर ये भर्ती होता तो वर्दी में अपनी दबंग गुंडई और साम्प्रदायिकता के ज़हर से भरे दिमाग के साथ कौन-सी ड्यूटी करता, आप खुद आकलन कीजिये.
दूसरा 25 वर्षीय नौजवान का कैरियर प्रोफाइल तो और भी गजब है. वह सेना में नौकरी करता है और जम्मू-कश्मीर में पोस्टेड भी है. छुट्टी में घर आता है और गाय की साम्प्रदायिक राजनीति में कूद पड़ता है. पुलिस थाने जलाता है, पथराव करता है, और अंत में शांति स्थापना का प्रयास करते एक दरोगा को ही हलाक़ कर देने का वाले एक साम्प्रदायिक समूह का हिस्सा बन जाता है.
जो लोग ये कहते हैं कि सेना की ट्रेनिंग आदमी को अनुशासित कर देती है, उनके लिए ये सैनिक एक केस स्टडी है.
ज़रा सोचिए सेना की हरी वर्दी पहने उस पर बुलेट प्रूफ जैकेट डाटे, हाथ में विदेशी कलाश्निकोव सरकारी राइफल थामे ये आदमी, अपनी इसी साम्प्रदायिक सोच के साथ कश्मीर में अपनी ड्यूटी कैसे निबाहता होगा ? कश्मीरी पत्थर बाज़ों की शिकायत करने वाला सेना का जवान बुलंदशहर में खुद पत्थर क्यों बन गया ? इसी सवाल के जवाब में सेना के देवत्व का राज़ भी छिपा है.
सेना में क्या चल रहा है ? यह भी प्रश्नगत किया जाना चाहिए ! ये लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छा है. देश सेना के लिए नहीं है. सेना देश का एक आवश्यक टूल है, जिसे जांचते रहने की ज़रूरत है.
अब जो सज़ा जनरल साहब की, वही सज़ा मेरी भी. औऱ हाँ जितनी ताली जनरल साहब को मिली उतनी की एक चौथाई तारीफ पर अपना हक भी बनता है भइय्या कि नहीं ? एक पिद्दी के शोरबे ने जनरल साहब जैसी कड़वी और बड़ी बात बोलने की कम से कम वीरता दिखाने की जुर्रत तो की.
- फरीदी अल हसन तनवीर
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