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नए संसद भवन उद्घाटन में पेंचबाजी

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नए संसद भवन उद्घाटन में पेंचबाजी
नए संसद भवन उद्घाटन में पेंचबाजी
kanak tiwariकनक तिवारी

प्रधानमंत्री द्वारा 28 मई को संसद के नए भवन अर्थात् सेन्ट्रल विस्टा के उद्घाटन की खबर से बहस का मुद्दा गहराता जा रहा है. राजनीतिक चोचलेबाजी से ऊपर उठकर केवल संवैधानिक प्रावधानों तक सीमित और नियंत्रित रहने से जनता के पक्ष में मुनासिब परंपरा गढ़ी जा सकती है. संविधान के अनुसार भारत फेडरल गणतंत्र है अर्थात् केन्द्र सरकार के साथ साथ समानांतर और सहयोगी रूप में राज्यों की स्वायत्तता और अधिकार भी है. यही बात डाॅक्टर अम्बेडकर ने अपने प्रास्ताविक भाषण में संविधान सभा में 4 नवंबर 1948 को कही थी और उसका दोहराव 25 नवंबर 1949 को अपने अंतिम भाषण में किया.

संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार बिल्कुल साफ है कि भारत के लिए एक संसद होगी जो राष्ट्रपति और लोकसभा तथा राज्यसभा से मिलकर बनेगी. संसद वाले अध्याय में संविधान में प्रधानमंत्री पद पर निर्वाचन का कोई प्रावधान नहीं है. अलबत्ता प्रधानमंत्री शब्द का उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 74 में वर्णित है कि राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद् होगी जिसका प्रधान, प्रधानमंत्री होगा. राष्ट्रपति अपने कृत्यों का प्रयोग करने में मंत्रिपरिषद् की सलाह से कार्य करेगा. प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह पर करेगा. राष्ट्रपति के निर्वाचन का प्रावधान अनुच्छेद 54 में है. उसका निर्वाचन संसद के दोनों सदनों तथा राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य करेंगे.

विवाद उठाया जा रहा है कि कई राज्यों में विधानसभाओं के भवन का भूमिपूजन अथवा उद्घाटन राज्यपालों के रहते मुख्यमंत्री तथा गैर संवैधानिक पदाधिकारियों के द्वारा भी किया गया है. राज्यपाल संबंधी प्रावधान अनुच्छेद 153 में है. उसे अनुच्छेद 155 के अनुसार राष्ट्रपति नियुक्त करेंगे. अनुच्छेद 156 के तहत राज्यपाल की कार्यावधि राष्ट्रपति की मर्जी पर निर्भर होगी. राज्यपाल का राज्य की सरकार और विधानसभा से उसी तरह का संबंध होगा, जैसे राष्ट्रपति का केन्द्र सरकार और संसद से है. लेकिन दो परंतुक हैं, बल्कि दो से ज्यादा. उन पर नजर डालना जरूरी है.

पहला तो यह कि राष्ट्रपति सांसदों और विधायकों द्वारा निर्वाचित लोकतांत्रिक पदाधिकारी हैं. उसके बरक्स राज्यपाल एक मनोनीत व्यक्ति है. उसका निर्वाचन नहीं मनोनयन होता है. हो ही रहा है. रिटायर्ड नौकरशाह जबरिया राज्यपाल बनाए जा रहे हैं. दूसरा यह कि राष्ट्रपति देश के लिए संवैधानिक प्राधिकारी है. लेकिन एक ही व्यक्ति को दो या अधिक राज्यों के लिए राज्यपाल ‘नियुक्त‘ किया जा सकता है. राष्ट्रपति जब चाहें उन्हें हटा सकते हैं. अन्य प्रदेश में तबादला भी कर सकते हैं.

राज्यपालों का कई मामलों में राज्यों की विधानसभाओं और मंत्रिपरिषदों पर भी दखल नहीं होता, लेकिन राष्ट्रपति का वहां भी होता है. अनुच्छेद 356 में यदि राष्ट्रपति का किसी राज्यपाल की रिपोर्ट पर या अन्यथा समाधान हो जाता है कि उस राज्य के सभी या कोई कृत्य अपने हाथ में लिए जा सकें तो वह ऐसी सरकार या विधानसभा को भंग भी कर सकता है. राज्यपाल की रिपोर्ट भले स्वीकार कर ली जाए लेकिन भंग करने की कोई शक्ति राज्यपाल के हाथ में नहीं होती.

अन्यथा भी यदि निर्वाचित मंत्रिपरिषद् और मनोनीत राज्यपाल में मतभेद हो जाए तो उसका निराकरण प्रधानमंत्री नहीं राष्ट्रपति करते हैं क्योंकि वे खुद सर्वोच्च निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं. प्रधानमंत्री का निर्वाचन संसद के बहुमत दल के नेता के रूप में होता है. उनका चुनाव राज्यसभा और लोकसभा तथा विधायिकाओं के सदस्यों के बहुमत द्वारा नहीं होता. वे अधिकतम एक संसदीय क्षेत्र या संसदीय दल के बहुमत के नेता होते हैं. राष्ट्रपति की संवैधानिक उपस्थिति में ही पूरे देश के बहुमत का समर्थन होता है.

इधर एक विवाद और हुआ है. कुछ प्रदेशों में विधानसभाओं के भवन तथा संसद के नए भवन का भूमिपूजन राज्यपाल को छोड़कर अन्य व्यक्तियों अथवा दिल्ली में प्रधानमंत्री द्वारा किया जाना कहा जा रहा है. फिर प्रधानमंत्री द्वारा सेन्ट्रल विस्टा का उद्घाटन करने में क्या आपत्ति है ? यह एक बेतुका सवाल है. उसका कोई संवैधानिक अर्थ नहीं है. भूमिपूजन जैसा शब्द संसदीय शब्दावली में नहीं है. उद्घाटन जैसा शब्द अपनी संसदीय गरिमा और सांदर्भिकता लिए हुए है. जब नरेन्द्र मोदी ने सेन्ट्रल विस्टा भवन की बुनियाद रखी और भूमिपूजन किया, तब वह राष्ट्रीय बहस मुबाहिसे का कारण नहीं बन सकता था. एक सेक्युलर संविधान में भूमि पूजन जैसे पारंपरिक शब्द की अहमियत नहीं हो सकती.

नए संसद भवन में संसदीय संस्था लोकसभा और राज्यसभा के जीवित होकर कार्य संचालन करने तथा राष्ट्रपति द्वारा संज्ञान लेने के ऐलान को संवैधानिक भाषा में उद्घाटन कह सकते हैं इसीलिए वह करना संसद की परिभाषा, परंपरा और गरिमा के अनुसार राष्ट्रपति का दायित्व और अधिकार दोनों है. संसदीय जीवन में राष्ट्रपति और राज्यसभा दोनों लगातार जीवित रहते हैं. ओहदेदार भले बदलते रहें. लोकसभा सदस्य के रूप में कोई भी सदस्य जिनमें प्रधानमंत्री भी हैं, कुछ समय के लिए गैर संसदीय व्यक्ति हो जाते हैं, जब वे अगले चुनाव के लिए प्रतीक्षा करते होते हैं. यही बात राज्यों के विधायकों के बाबत् कही जा सकती है.

यह स्पष्ट है कि अनुच्छेद 154 के तहत किसी प्रदेश की कार्यपालिक शक्ति राज्यपाल में उसी तरह निहित होगी जैसे केन्द्रीय कार्यपालिका की शक्ति राष्ट्रपति में निहित होती है. राष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल के रूप में सेन्ट्रल विस्टा का निर्माण कराना राज्यों की विधानसभाओं का भी अप्रत्यक्ष कृत्य और दायित्व है. वह अधिकार मंत्रिपरिषदों को नहीं है. मंत्रिपरिषदों को अधिकार तब मिलेगा जब राष्ट्रपति और राज्यपाल संविधान के अनुसार उन्हें अधिकृत करें.

अनुच्छेद 85 सबसे महत्वपूर्ण है, –

‘राष्ट्रपति समय समय पर संसद के प्रत्येक सदन को ऐसे समय और स्थान पर जो वह ठीक समझे अधिवेशन के लिए आहूत करेगा. राष्ट्रपति समय समय पर सदनों का या किसी सदन का सत्रावसान कर सकेगा और लोकसभा का विघटन कर सकेगा.’

अनुच्छेद 86 उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है –

‘राष्ट्रपति संसद के किसी एक सदन में या एक साथ समवेत दोनों सदनों में अभिभाषण कर सकेगा और इस प्रयोजन के लिए सदस्यों की उपस्थिति की अपेक्षा कर सकेगा. संसद को लेकर राष्ट्रपति का यह पहला कदम होता है. राष्ट्रपति को समय के साथ स्थान भी तय करने का अधिकार है. संविधान में नहीं लिखा है कि राष्ट्रपति को संसद में ही ऐसा अधिवेशन बुलाना होगा. यहां तो प्रधानमंत्री ने तय कर दिया होगा कि आपको इसी स्थल पर कार्यवाही करनी है. यह प्रधानमंत्री बिना राष्ट्रपति की रजामंदी के कैसे कर सकते हैं. राष्ट्रपति का विवेक ही उनसे कैसे लिया जा सकता है. अनुच्छेद 86 के अनुसार भी यदि राष्ट्रपति दोनों सदनों को एक साथ बुलाना चाहे तो क्या उन्हें उस स्थान को ऐसा करने के लिए देखकर सुनिश्चित करने की अधिकारिता नहीं होगी. राष्ट्रपति का अपने विवेक का इस्तेमाल करने का अधिकार संविधान में दिया गया है. उसकी तो कटौती की जा रही है.’

इस बात में विवाद नहीं है कि संसद और विधानसभाओं के संवैधाानिक और कार्यपालिक दोनों तरह के अधिकारों को प्रत्यक्ष संपादित करने के लिए राष्ट्रपति और राज्यपाल का संवैधानिक अधिकार है. उनकी कतई उपेक्षा नहीं की जा सकती. यदि की जाती है तो संसद के भवन का कथित उद्घाटन संविधान के प्रावधानों के परे अतिक्रमण होगा. यही तोहमत राज्य सरकारों पर लगाई जा सकती है यदि वहां समानांतर कामों के लिए राज्यपाल की अनदेखी की जाती है. संविधान निर्माताओं ने एक संवैधानिक राज्य की कल्पना और रचना की है, उसमें राजनीतिक नजरिए से भांजी मारना दृष्टिदोष वाले नेताओं की बदगुमानी की कारगुजारी के अलावा और क्या है ?

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ROHIT SHARMA

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