Home गेस्ट ब्लॉग ‘विज्ञान की न कोई नस्ल होती है और ना ही कोई धर्म’ – मैक्स वॉन लाउ

‘विज्ञान की न कोई नस्ल होती है और ना ही कोई धर्म’ – मैक्स वॉन लाउ

6 second read
0
0
348
'विज्ञान की न कोई नस्ल होती है और ना ही कोई धर्म' - मैक्स वॉन लाउ
‘विज्ञान की न कोई नस्ल होती है और ना ही कोई धर्म’ – मैक्स वॉन लाउ

आज के दिन यानी 9 अक्तूबर, 1879 को फ़िज़िक्स में नोबेल ईनाम हासिल करने वाले वैज्ञानिक मैक्स वॉन लाउ का जन्म हुआ था. 1914 में उन्हें क्रिस्टल द्वारा X—किरणों के डिफ़्रैक्शन की खोज के लिए नोबेल ईनाम से नवाज़ा गया था.

मैक्स वॉन लाउ को याद सिर्फ़ एक वैज्ञानिक के तौर पर नहीं करते हैं बल्कि नाज़ीवाद और फ़ासीवाद के सक्रिय और मुखर आलोचक और विरोधी के तौर पर भी उनको याद किया जाता है. उन्होंने संगठित तौर पर नाज़ियों के ‘विज्ञान के आर्यनीकरण’ की पुरज़ोर मुख़ालिफ़त की. अपने मित्र ऑटो हॉन के साथ मिलकर अनेक वैज्ञानिक साथियों की मदद की, जो नाज़ी नीतियों का शिकार बन रहे थे.

केमिस्ट्री का हर छात्र फ़्रिट्स हेबर से परिचित होगा. यहूदी मूल के इस जर्मन वैज्ञानिक को केमिस्ट्री में 1918 में नोबेल ईनाम से नवाज़ गया था. 1930 के बाद जर्मनी में बढ़ते राष्ट्रीय-समाजवाद ने सबकी चिंता समान कर दिया था, लेकिन हेबर पहली जंग ए अज़ीम में दी गयी अपनी ख़िदमात और धर्म-परिवर्तन से शायद कुछ निश्चित थे. लेकिन आख़िरकार, अक्तूबर 1933 में उन्हें देश छोड़ने का इरादा करना ही पड़ गया और 29 जनवरी 1934 में ग़रीबउल वतनी में वफ़ात पा गए.

तमाम घटना क्रम पर मैक्स वॉन लाउ ख़ामोश नहीं रहे. हेबर के जर्मनी छोड़ने की घटना को उन्होंने गैलीलियो के साथ किये व्यवहार और ऐथेंस जेनरल थेमिसटोकलेस (524–459 BC) के देश-निकाले की घटना के रूप में पेश किया, जिससे जर्मनी शासनतंत्र बहुत ख़फ़ा भी हुआ.

हेबर की पहली बरसी पर उनकी याद में 29 जनवरी 1935 को मैक्स प्लैंक, ओटो हैन और लाउ ने बर्लिन-डाहलेम में एक कार्यक्रम का आयोजन किया. सरकार द्वारा सिविल सेवकों और प्रोफेसरों को इस कार्यक्रम में उपस्थिति को स्पष्ट रूप से मना किया गया था. इसका असर यह हुआ कि इस कार्यक्रम में वैज्ञानिक और तकनीकीकर्मियों का प्रतिनिधित्व उनकी पत्नियों द्वारा किया गया था, जबकि लाउ और वोल्फगैंग ह्यूबनेर केवल दो प्रोफेसर थे, जिन्होंने स्वयं भाग लिया था.

संयोग से यह शाम राष्ट्रीय समाजवादियों के सत्ता हथियाने की दूसरी वर्षगांठ की पूर्व संध्या भी थी. इस तरह से हम देखते हैं कि लाउ ने नाज़ी नीतियों के प्रति विरोध को दर्ज करने के लिए हर अवसर का इस्तेमाल बख़ूबी किया था.

मैक्स वॉन लाउ और जेम्स फ्रैंक ने इस ख़ौफ़ से कि नाज़ी प्रशासन उनके नोबल पदक ज़ब्त ना कर ले, उन्होंने इनको सुरक्षा हेतु डेनमार्क स्थित नील्स बोर संस्थान भेज दिया, जबकि नाज़ी क़ानून के अनुसार ‘सोने’ को देश से बाहर भेजना एक गम्भीर अपराध था.

9 अप्रैल 1940 को हिटलर ने डेनमार्क पर हमला कर दिया जबकि एक वर्ष से कम समय पूर्व दोनों देशों में नो-वार पैक्ट हुआ था. दो घण्टे में ही डेनमार्क ने अधिकारिक रूप से आत्मसमर्पण कर दिया. इस घटना ने लाउ और फ्रैंक को फ़िक्रमंद कर दिया कि अगर उपरोक्त पदक नाज़ी सेना के हत्थे लग गए तो तय था की लाउ और जेम्स फ्रैंक को अपनी जान के लाले पड़ सकते थे.

ऐसे समय पर मशहूर केमिस्ट डी. हेवेसी (नोबेल ईनाम 1943) ने पदकों को नील्स बोर संस्थान की प्रयोगशाला में एक्वा रेजिया के माध्यम से पिघलाकर पदार्थ को एक शेल्फ में छिपा दिया. युद्ध के बाद रासायनिक क्रिया द्वारा प्राप्त ‘द्रव्य’ से नोबेल सोसाइटी ने पदकों को फिर से तैयार किया और मैक्स वॉन लाउ और जेम्स फ्रैंक को लौटा दिया.

कहा जाता है कि मैक्स वॉन लाउ जब घर से बाहर निकलते तो दोनों हाथों में एक पार्सल या ऐसी कोई चीज़ पकड़े रहते ताकि किसी को नाज़ी तरीक़े से अभिवादन ना करना पड़े. काश मैक्स वॉन लाउ जैसी स्पाइन के मालिक वैज्ञानिक हर देश और समाज में हों … !

  • असगर मेंहदी

Read Also –

 

[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

Donate on
Donate on
Pratibha Ek Diary G Pay
Pratibha Ek Diary G Pay
Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

नारेबाज भाजपा के नारे, केवल समस्याओं से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए है !

भाजपा के 2 सबसे बड़े नारे हैं – एक, बटेंगे तो कटेंगे. दूसरा, खुद प्रधानमंत्री का दिय…