Home गेस्ट ब्लॉग स्कूल और शिक्षण संस्थान : एक संस्मरण

स्कूल और शिक्षण संस्थान : एक संस्मरण

1 min read
0
1
1,257

अपने स्कूलों व शिक्षण संस्थाओं में लगातार बदलाव होता रहा है, जिसका सिलसिलेवार अध्ययन विकासक्रम को समझने में बेहद सहायक होता है. साहित्य लेखन की यह विधा किसी भी साहित्य के वैज्ञानिक विकास में अमूल्य योगदान देता है. वैज्ञानिक दृष्टिकोण के धनी पत्रकार और अब सरकार के बेहद महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त राम चन्द्र शुक्ल द्वारा लिखित यह लेख एक विशेष कालखण्ड के विकासक्रम को बेहतरीन तरीके से पाठकों के सामने रखती है. स्कूल और शिक्षण संस्थान : एक संस्मरण

प्रतीकात्मक तस्वीर

अपने स्कूलों व शिक्षण संस्थाओं में लगातार बदलाव होता रहा है :

1. कक्षा-01(1968-69) –

प्राथमिक पाठशाला लखना बसंतपुर सुलतानपुर. इसी साल (1968) मई या जून महीने में काका का ब्याह हुआ और जीवन में पहली बार रेलगाडी में सवार होने का अवसर मिला जायस से प्रतापगढ के लिए. पहली बार काका के ब्याह का छपा निमंत्रण पत्र देखा, जिसकी शुरुवात में यह काव्यमय पंक्ति छपी थी –

भेज रहा हूं स्नेह निमंत्रण, प्रियवर तुम्हे बुलाने को।
हे मानस के राजहंस तुम, भूल न जाना आने को।

वह एक जंगल जैसा स्थान था, जहां अपनी पाठशाला थी-महुआ नीम आम जामुन व बबूल के पेडों से घिरा. सघन महुआ के पेड के नीचे अपना स्कूल लगता था. स्कूल में टाट भी नही थे इसलिए सभी बच्चे उन दिनों घर में उपलब्ध जूट की पुरानी बोरियां लेकर स्कूल आते व उसी पर बैठते. स्कूल पहुंचने पर सबसे पहले बैठने वाली जगह की सफाई की जाती, फिर कक्षा के हिसाब से लाइन से अपनी बोरियां बिछाकर बच्चे बैठ जाते. इस व्यवस्था की जिम्मेदारी कक्षा के मानीटर की होती. उन दिनों पांचों कक्षाओं को पढाने के लिए एक ही अध्यापक थे, जिन्हें सब बच्चे ‘पंडीजी’ कहते. पंडीजी जैसे ही आते दिखते बडी कक्षा के बच्चे उनकी साइकिल थामने के लिए दौडते. सांवले रंग व मध्यम कद के राम राज गुरूजी अपने अध्यापक थे. पान खाने से उनके होंठ लाल रहते. बच्चे उनसे डरते नहीं थे. बच्चों को वे मारते-पीटते भी नहीं थे. उनका ज्यादातर समय कक्षा-5 के बच्चों को पढाने में लगता था.

नया स्कूल जिस साल बना था उसी साल बारिश में ढह गया था. स्कूल की छत व दीवारें ढही हालत में पडी थी. कोई बच्चा उधर नही जाता था. ढहे स्कूल के सामने कुछ पेड थे, जिनके नीचे बच्चे बैठते थे. अगल-बगल के 4-5 गांंवों के बच्चे स्कूल में पढने आते थे. घर के पुराने कपडों के हाथ के सिले झोले में अपनी किताबें व कलम दवात रहती, जिसे बच्चे कंधे पर लटकाए रहते. कक्षा-1/2 के बच्चों के हाथ में लकडी की तख्ती होती, जिस पर क ख ग घ व गिनती पहाडे लिखे जाते. दोपहर तक लिखने-पढने का काम होता. दूसरी टाइम बच्चे गोला बना कर बैठते और एक बच्चा बीच में खडा होकर बच्चों को गिनती व पहाडे पढाता. बच्चे जोर-जोर चिल्लाते हुए गिनती व पहाडे रटते.

उन दिनों आस्ट्रेलिया या नीदरलैंड से सूखा दूध उत्तर प्रदेश के प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों को पिलाने के लिये मिला हुआ था, जिसे स्कूल में पानी में उबालकर बच्चों को पीने के लिए दिया जाता था. बडे भाई प्रहलाद जी कक्षा-2 में थे उन दिनों. वे रोज आकर बताते की स्कूल में दूध पीने को मिलता है, तो उस दूध की लालच में अपनी स्कूल जाने की शुरुआत हुई थी.

2. कक्षा-02 (1969-70) –

प्राथमिक पाठशाला, लखना बसंतपुर, सुलतानपुर. स्कूल जाने के लिए घर के पिछवाडे के खेत की मेड से जाना होता. बना में सबसे पहले बरगद का विशाल पेड पडता, जिसके नीचे गर्मी के दिन बीतते. बरगद के चबूतरे पर शीश नवाकर बच्चों की टोली खेतों के मेडो से होती हुई रामाधीन के बना पहुंचती. फिर स्कूल आ जाता. बप्पा पिछवाडे के खेत में भदैली ककडी बोते. उसकी रखवाली के लिए मचान बनता. मचान पर चढकर सोने के लिए होड लगती. भादों में रात में ककडिया पककर फूटतीं तो उनकी खुशबू पूरे खेत में फैली रहती. सबेरे ककडी के बजाय खुशबूदार पके पेहटुल्ले की खोज होती, जो जादा मीठे होते. जब तक ककडियां कच्ची रहतीं कच्ची खाई जाती. पककर फूटने पर 4-5 किलो तक की ककडियां घर आतीं तो घर के सभी लोग खाते.

उन दिनों पानी भी खूब बरसता था. बारिश में पके मूंग व उडद उखाडकर घर आते तो उनकी फलियां घर में तोडी जातीं. कुडिया नाम का काले रंग का धान सबसे पहले पकता, जिसे काका खेत से काटकर लाते तो बारिश के कारण उसे घर के भीतर ही पीटकर धान इकट्ठा किया जाता. सूखने पर अम्मा उसे मूसल से कूटकर उसका चावल निकालती. इस चावल की खिचडी बहुत स्वादिष्ट बनती, यही खिचडी खाकर हम सब स्कूल जाते.

भादों पूर्णिमा से मेलों का मौसम शुरू हो जाता. दीवाली पर नए धान का घर की ओखली में कुटा चूरा खूब चबाया जाता. इसके साथ चीनी के बने खिलौने भी चबाए जाते. कातिक में खेत तैयार हो जाते तो घर के सभी लोग मिलकर आलू बोते. जिस दिन खेत का काम रहता उस दिन स्कूल जाने से छुट्टी. आलू पूरी तरह पके बिना ही खोदकर घर आने लगता. अम्मा नई आलू की तरकारी बनाती. हम सब उन्हें तपता (अलाव) में भूनकर खाते. इसी बीच गंजी (शकरकंद) भी तैयार हो जाते. सफेद दूधिया शकरकंद कच्चे भी खाए जाते व भूनकर भी. भूख लगने पर बच्चे स्कूल आते-जाते शकरकंद खेतों से निकालकर खाते. पकने व बढने पर शकरकंद खेतों में बाहर दिखने लगते.

दिसम्बर-जनवरी में मटर में फलियां आने लगती. मटर के पेड का ऊपरी सिरा बेहद मुलायम व मीठा होता. भूख लगने पर बच्चे उसे भी तोडकर खाते. रास्ते में पडने वाले चने के खेतों से साग तोडकर खाया जाता. मटर की कच्ची छीमियां तोडकर जेबों में भर ली जातीं और रास्ते में उन्हें खाते हुए स्कूल आते-जाते. जिस दिन आलू व गंजी की खुदाई होती उस दिन स्कूल की छुट्टी. बडे लोग इनकी खुदाई करते, बच्चे उन्हें बीनकर इकट्ठा करते. खेती का जब भी काम होता उस दिन स्कूल की छुट्टी करनी पडती. यह सिलसिला 1970-71 से शुरू होकर 1980-81 तक चलता रहा.

3. कक्षा-03 (1970-71) –

प्राथमिक पाठशाला, धरई भुवालपुर सिसिनी. अपने गांव भैनापुर के दक्षिण में तीन बडे तालाब हैं- पचखरा नैकनिया व कचनी. इन तीनों तालाबों को एक चौडा नाला जोडता है. गांव के बच्चों को इस नाले को पारकर साल के नौ महीने स्कूल जाना होता था. उन दिनों गांव के लोगों ने नाले के इस पार से उस पार जाने के लिए एक सूखा व लंबा पेड रखवा दिया था, जिस पर चलकर बच्चे उस नाले को पार करते थे. उन दिनों स्कूल धरई गांव में था, जहां बडे भाई प्रहलाद जी कक्षा-5 में व मैं कक्षा-तीन में था. स्कूल के प्रधानाध्यापक ऐतिहासिक नसीराबाद कस्बे के निवासी अजादार हुसैन नकवी साहब थे, जो सिर्फ कक्षा-5 के बच्चों को पढाते थे. हम सब उन्हें मौलवी साहब कहते थे. मौलवी साहब पान खाते थे. थोडा ऊंचा सुनते व हरदम मुस्कराते रहते. कक्षा-1/2 को बृजेश मास्टर, कक्षा-3 को जमुना मुंशी जी व कक्षा-4 को फारूक मौलवी साहब पढाते थे, जो पांचों वक्त के नमाजी थे. नमाज का समय हो जाने पर कक्षा में ही नमाज पढते. वे परशदे पुर कस्बे के निवासी थे, जो अपने बचपन में शिक्षा, कला व संस्कृति का केंद्र था.

यह स्कूल धरई गांव के दक्षिण छोर पर बने पंचायत घर में लगता था, जिसमें दो-तीन कमरे व बरामदा था. स्कूल के सामने कुछ ही दूरी पर एक कुआं था, जिसमें खेतों की सिंचाई के लिए पुर नधा रहता. अम्मा दोपहर के लिए लाई गुड एक पोटली में बांध देती. जब घर में चबेना न होता तो पोटली में कच्चा चावल बंधा होता, जिसे दोपहर में भुना लेते भार पर. यदि भार न जलता तो चावल कच्चा ही भिगोकर चबा लिया जाता. कभी-कभार इस चावल को दुकान पर बेचकर कुछ खाने का या स्कूल की जरूरत का सामान ले लिया जाता. पानी पुरवाही या सरदार चाचा जी के नल पर पिया जाता. स्कूल की वापसी में डिहवा, जो काफी दूरी में फैला हुआ एक भीट था, पर बेर तोड के खाते या खेतों से शकरकंद (गंजी) व मूली उखाडकर खाते. कुछ न मिलता तो तालाब से कोकाबेरी उखाडकर खाई जाती. जाडों में खेतों में मटर (कबिली) की छीमियां लगी होतीं, जिन्हें तोडकर खाया जाता.

बृजेश मास्टर बच्चों के गाल पर इतने जोर से तमाचा मारते कि आंखों के आगे अंधेरा छा जाता. सभी बच्चे उन्हे ‘हिंदुइया कसाई’ कहते. जमुना मास्टर गहरे कारे रंग के थे व बच्चों को छडी से मारते थे. फारूक मास्टर कम मारते थे, पर बच्चों को इस कदर शर्मिंदा करते कि उनके क्लास में बच्चे सारा काम पूरा रखते.

अपने कक्षा-3 के सहपाठियों में बस्तापुर के रतन यादव व उसकी बहन सरला यादव की याद है. कक्षा-4 के सहपाठियों में बिशेषर पुर के टंटू पान्डेय, धरई के उमाशंकर पान्डेय, जिन्होंने बी ए-1 इयर की परीक्षा के बाद पारिवारिक कलह के कारण कुएं में छलांग लगाकर आत्मघात कर लिया था, व डाकिया की बेटी राजवती शुक्ला, पिछवरिया के शिवनाथ बढई, जो बाद में साधू हो गए थे, तथा भैनापुर के अपने नामाराशी राम चंदर सिंह, राम औसान पाल आदि आज भी याद हैं.

धरई का स्कूल पढाई के लिहाज से अच्छा माना जाता था. इस स्कूल में सिसिनी भुवालपुर बस्तापुर धरई पिछवरिया, बिशेषर पुर भैनापुर व रानी के पुरवा के बच्चे पढने आते थे. उन दिनों सभी बच्चे नंगे पांव ही स्कूल आते थे. कपडों में भी नए-पुराने का कोई भेद नहीं था, जो भी नया पुराना मिल जाता वही पहनकर स्कूल चल देते. साबुन का चलन नहीं था या फिर वह उपलब्ध ही नहीं था- न तो कपडा धोने का न नहाने का. महीने में एक-दो बार धरई से धोबी आकर कपडा धोने ले जाता या फिर हम खुद ही ऊसर में मिलने वाली रेह से भाहिन देवता या बनतलिया तालाब में कपडा धो लेते.

4. कक्षा-04 (1971-72) –

प्राथमिक पाठशाला, धरई भुवालपुर सिसिनी, रायबरेली. 1971 के नवंबर-दिसंबर महीने में भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ था. पाकिस्तान की सेना पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में छात्र आंदोलन का जिस तरह दमन कर रही थी, उससे लगने लगा था कि बिना भारत के हस्तक्षेप के यह सिलसिला थमने वाला नहीं है. बंगलादेश के पडोसी भारतीय राज्यों में बांगलादेशी शरणार्थियों की भीड लगातार उमड रही थी. आखिरकार भारत को दखल देना पडा. दोनों देशों की सेनाओं के बीच विभिन्न सीमाओं पर झडपें कई दिन से चल रही थीं, किंतु 03 दिसम्बर, 1971 के दिन बाजाब्ता तौर पर युद्ध शुरू हो गया.

टोले में कुंदन नाना का रेडियो था, जिससे लडाई की खबरें मिल रही थीं. घर में अम्मा व भइया सहित सभी लोग परेशान थे. बप्पा व बाबा अम्बाला में थे. दोनों छोटे बाबा अमृतसर में थे, जहां बम गिरने की खबरें लगातार आ रही थी. टेलीफोन सुविधा नहीं थी. खबरों के लिए रेडियो ही एक मात्र सहारा था. टोले के चार-छः लोग इकट्ठा होते तो लडाई की ही चर्चा होती. रोज रेडियो पर यह खबरें आतीं कि आज दोनों देशों के कितने सैनिक मारे गए, कितने टैंक/विमान नष्ट हुए. आखिरकार 15 दिसंबर के बाद की किसी तारीख को यह खबर सुनी गई कि पाकिस्तान की सेना ने हार मान ली है और पाकिस्तान से कटकर बंगला देश नाम का एक नया देश बन गया है. बंगलादेश के लाखों शरणार्थी पश्चिमी बंगाल, असम व त्रिपुरा में आ गए, जिनके रहने व खाने-पीने की व्यवस्था भारत सरकार व राज्य सरकारों ने की थी.

1971 के युद्ध के पहले से बंगलादेशी शरणार्थी भारत के सीमा से लगे राज्यों को आने को शुरू हुए थे और वे युद्ध के दौरान तथा काफी बाद तक आते रहे. ये शरणार्थी लाखों की संख्या में वर्मा को भी गए. मेरा खयाल है कि मौका पाकर बंगलादेशी शरणार्थी आज भी पडोसी भारतीय राज्यों व देशों को पलायन कर रहें हैं. आज के भारतीय व वर्मा के शासक बंगलादेशी शरणार्थियों को बंगलादेश भेजने को उतावले हैं, पर यह सब करना इतना आसान नही है- न तो राजनीतिक दृष्टिकोण से न ही मानवीय दृष्टिकोण से.

अंग्रेजों ने भारतीय उपमहाद्वीप की आर्थिक व राजनीतिक शक्ति को खंडित करने के लिए 1905 में ‘बंगभंग’ को साम्प्रदायिक व नस्ली आधार पर अंजाम दिया. इससे बात नहीं बनी तो 1947 में पंजाब को बांटकर भारत को आर्थिक/राजनीतिक रूप से कमजोर करने की एक और कोशिश की तथा पूर्वी बंगाल व पश्चिमी पंजाब को भारत से अलग कर नस्ली बुनियाद पर एक नया देश पाकिस्तान बना दिया. इस विभाजन व नफरत के चलते भारत व पाकिस्तान के मध्य दो बडे युद्ध व दो छोटे युद्ध हो चुके हैं, जिसमें अरबों-खरबों की सम्पदा तथा लाखों लोगों की जान जा चुकी है. साथ ही दोनों/तीनों देशों में अरबों-खरबों रूपये सेना, युद्धक विमानों व हथियारों पर खर्च हो रहे हैं-क्यों ?

आखिर इस विभाजन व युद्धों के लिए वे तथाकथित बंगलादेशी शरणार्थी कैसे जिम्मेदार हैं, जो जीवन व बाल-बच्चों की जीवन रक्षा के लिए इधर से उधर भागे फिर रहे हैं ?

5. कक्षा-05 (1972-73) –

प्राथमिक पाठशाला, लखना बसंतपुर, सुलतानपुर. 1973 के मार्च महीने में छोटे भाई सुभाष जी का जन्म व जून महीने में बडे भाई प्रहलाद जी का ब्याह हुआ. बारात बैलगाडी से गई थी.

सर्वप्रथम अपने प्रथम गुरु को प्रणाम करता हूं. श्री राम लखन यादव, जो सुल्तानपुर जनपद के कादीपुर तहसील के निवासी थे, ने 1973 में इस शिष्य को कक्षा-5 में पढ़ाया था. वार्षिक परीक्षा के तीन माह पहले से कक्षा-5 के छात्रों को घर बुलाकर रात में भी पढाया. उस साल कक्षा-5 में मुख्य वार्षिक परीक्षा के पूर्व भाषा व गणित के 50-50 प्रश्नों कुल 100 प्रश्नों की प्रारंभिक परीक्षा ली गई थी. एक प्रश्न 2 अंक का था. भवानी गढ़ के विद्यालय में कुल 14-15 विद्यालयों की परीक्षा आयोजित थी. गुरुजी अपनी साइकिल पर बैठाकर परीक्षा दिलाने ले गए थे.

परीक्षा का परिणाम आया तो सबसे ज्यादा अंक 200 में 194 अपने आए. गुरूजी ने विद्यालय में सभी बच्चों के सामने परीक्षा परिणाम सुनाते हुए बुलाकर पीठ ठोंकी और कहा कि मैंने विद्यालय का रोशन किया है. उस दिन यह परिणाम बताने गांव में अपने घर भी गए थे. वे जाहिर नहीं करते थे, पर मैं जानता था कि वे मुझे पुत्रवत् स्नेह करते थे. अपने शिक्षाकाल के सभी गुरुजनों की याद करता हूं तो पाता हूं कि उनके जैसा छात्रों की शिक्षा के प्रति समर्पित गुरू जीवन में कोई दूसरा नहीं मिला.

6. कक्षा-06 (1973-74) –

जनता उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, अहद, सुलतानपुर.

7. कक्षा-07 (1974-75) –

जूनियर हाई स्कूल, बाबूपुर सरैंया, सुलतानपुर.

1975 के जून माह में अपना ब्याह हुआ. ब्याह में हीरो-75 ब्रांड की नई साइकिल मिली थी. कक्षा-8 में इसी साइकिल से स्कूल जाता था.

8. कक्षा-8 (1975-76) –

जूनियर हाई स्कूल, हरगांव, सुलतानपुर.

9. कक्षा-09, 10, 11 व 12 – (1976-77, 1977-78 1978-79 व 1979 -80) –

सर्वोदय विद्यापीठ इंटर कालेज, सलोन, रायबरेली. जून 1977 में नानी के घर भैनापुर में रहने आ गए. जुलाई में अपना कक्षा-9 में व भाई साहब का कक्षा-11 में एडमिशन हुआ. घर से 16 कि मी दूर तहसील स्थित कालेज जाना व वापस आना. थकान हो जाती. जिस दिन छुट्टी रहती वह दिन राहत भरा होता.

अंग्रेजी ने देश के अन्य लाखों बच्चों की तरह अपनी भी नैया डुबोने में कभी कसर नहीं छोडी. हाई स्कूल में 100 में 41 तथा इंटर में 100 में 42. दोनों बार ही परिणाम निकलने तक यह पक्के तौर पर यकीन था कि अंग्रेजी में फेल होना है, पर परीक्षक को मुझसे भी बडे-बडे हिन्दी प्रेमी मिले होंगे.

हाई स्कूल के पेपर में एक्प्लानेशन में शब्दों का हेर फेर करते हुए पेपर की लाइनें यथावत उतार देना, 4 नंबर की अंग्रेजी पोयम- ‘स्लीप एंड रेस्ट, स्लीप एंड रेस्ट, फादर विल कम टू दि सून’ सही-सही लिख देना, अनुवाद, खाली जगह भरो, अपोजिट वर्ड व अन्य कई टोटकों से नैया पार हो गई.

इंटर में रेफरेंस आदि लिखने का तरीका रट लिया था- जैसे कि- ‘दीज लाइंस हैज बीन टेकेन फ्राम दि लेसन फलां, रिटेन बाइ फलां.’

सी. राजगोपालाचारी की लंबी कविता- ‘दि स्पाइरिंग लांग पोयम’ की राम कहानी पहले से जानी समझी थी. इसी प्रकार सरोजिनी नायडू की जुलाहे द्वारा कपडा बुनने वाली कविता व उसका जीवन दर्शन भी समझना मुश्किल नहीं था. इसके अलावा एस्से व अनुवाद में भी अपनी कल्पनाशीलता का भरपूर उपयोग किया गया. 3 घंटे में अंग्रेजी का पेपर यथावत कापी पर उतार देने वालों की तुलना में निश्चय परीक्षक ने बंदे को योग्य समझा तथा इंटर में भी अंग्रेजी में नैय्या पार हो गई. पर परिणाम निकलने तक इसका विश्वास नहीं था कि इंटर में भी अपने टोटके काम कर जाएंगे.

यह 1980 का मई-जून महीना था जब इंटरमीडिएट के इम्तिहान देने के बाद पहली बार बप्पा के साथ अम्बाला गया था, साथ में छोटकई आजी व उनका छोटा बेटे राजेंद्र (दद्दन), जो आजकल सीआरपीएफ में सिपाही हैं, भी थे. छोटकई आजी दद्दन का मुंडन कराने गांव आयीं थी. बड़े भाई प्रह्लाद जी उन्हे लेकर विंध्याचल गये थे, जहांं दद्दन जी का मुंडन हुआ था.

आजी व दद्दन के साथ अम्बाला से अमृतसर जाना हुआ था. मंझले व छोटे बाबा अमृतसर की छियाटा चुंगी के पास स्थित ‘दि रेयन सिल्क मिल्ज’ में काम करते थे. कंपनी की तरफ से मजदूरों को रहने के लिए छोटे-छोटे कमरे आवंटित थे. इन्हीं में बाबा व उनका परिवार रहता था.

अमृतसर में भूख बहुत लगती थी. जो भी खाते जल्दी से हजम हो जाता. कहतें हैं कि यह वहां के पानी का कमाल था. अमृतसर में पहली बार दूध की लस्सी पीने को मिली थी मंझले बाबा के क्वाटर पर. छोटकए बाबा ने गायें पाल रखी थीं, जिनके लिए बरसीम काटने बाबा के साथ साइकिल से जाता.

गायों के चारे के लिए छोटकए बाबा ने किराए पर बरसीम के खेत का एक टुकड़ा ले रखा था, जो अमृतसर की गुरू नानक यूनिवर्सिटी के पास था. यूनिवर्सिटी कैम्पस के अंदर अपने गांव भैनापुर के दो परिवार रहते थे. वे यूनिवर्सिटी
में माली के रूप में काम करते थे. उनसे मिलाने बाबा लेकर गये थे.

उस इलाके में जगह जगह दीवारों आदि पर हंसिया- हथौड़े के निशान बने हुए थे, जिसे वहां दराती-सिट्टो कहा जाता था. पूछने पर छोटकए बाबा ने बताया था कि यह कम्युनिस्ट पार्टी का चुनाव निशान है, पर वे खुद जनसंघ/जनता पार्टी के समर्थक थे. छोटकए बाबा के साथ स्वर्ण मंदिर, दुर्गियाना मंदिर तथा उस बाग में जाना हुआ था, जिसमें 1919 में अंग्रेज जनरल डायर ने सभा कर रहे भारतीयों पर गोली चलवाकर सैकड़ों लोगों की हत्या करा दी थी.

उन दिनों तक पंजाब का माहौल ठीक था. ट्रेन से जाते समय रास्ते में पंजाब के गांवों के घरों पर टेलीविजन के एंटीना लगे दिखते थे. ब्लैक एंड व्हाइट टीवी पर पहली बार अमृतसर में देखा. इतवार के दिन हिन्दी फिल्म ‘दिल तेरा दीवाना’ आ रही थी. उस बार लगभग एक सप्ताह अमृतसर में रहना हुआ था. छोटकए बाबा ने टिकट कटवाकर ट्रेन में बैठा दिया था अंबाला के लिए. अमृतसर से ट्रेन में बैठकर अंबाला बप्पा के पास आ गया था.

गांव से किसी शहर जाने का पहला अवसर 1978 में मई महीने में मिला था. हाई स्कूल की परीक्षा खत्म होने के बाद बड़कए काका (स्व. राम मूर्ति शुक्ल जी) के साथ साइकिल से जायस आया था. काका ने जायस से प्रतापगढ़ के लिए टिकट खरीद कर जनता एक्सप्रेस के साधारण कोच में बैठा दिया था.

जनता एक्सप्रेस दोपहर बाद लगभग एक बजे प्रतापगढ़ पहुंंची थी. वहां ट्रेन से उतर कर भगवा चुंगी गया था पैदल, जहांं से इलाहाबाद के सिविल लाइन्स के लिए बस मिली थी. सिविल लाइन्स में बस से उतरकर इलाहाबाद रेलवे स्टेशन के उत्तर में लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर स्थित सीटीओ (सेंट्रल टेलीग्राफ आफिस) गया था, जहांं नाना (छोटकए काका शिव मूर्ति शुक्ल जी के ससुर जी) से भेंट हुई थी. उनके साथ शाम को छुट्टी के बाद उनकी साइकिल पर बैठकर उनके अल्लापुर स्थित घर गया था. रास्ते में नाना जी ने खोखा राय का स्वादिष्ट दही बड़े खिलाए थे.

नाना जी का अधबना घर अल्लापुर के नये बसे मुहल्ले तिलक नगर में था, जो प्रयाग घाट रेलवे स्टेशन के पास था. नाना जी के घर से थोड़ी दूर पर राधा रमण इंटर कालेज स्थित था. नाना जी के साथ उनकी छुट्टी के दिन संगम नहाने गया था तो रास्ते में दारा गंज में सड़क पर महाकवि निराला की प्रस्तर प्रतिमा दिखी थी. नाना जी ने बताया था कि महाकवि निराला दारागंज में कई साल तक रहे थे.

10. कक्षा-13 व 14 (1980-81 व 1981-82) –

सर्वोदय विद्यापीठ डिग्री कालेज, सलोन, रायबरेली.

11. कक्षा-15 व 16 (1883-84 व 1984-85) –

हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद.

5 अगस्त, 1983 को बुधवार के दिन आर. पी. से बांस की चारपाई वगैरह लादकर इलाहाबाद पढने गए और डेरा नाना जी के 81/13 बी, तिलक नगर, अल्लापुर में जमा.

12. आगामी 10 अक्तूबर को हिंदी के आलोचक तथा हिंदी के महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को ‘निराला की साहित्य साधना’ जैसा ग्रंथ लिखकर हिंदी साहित्य संसार में प्रतिष्ठा तथा पहचान दिलाने वाले डाक्टर राम विलास शर्मा जी (1912-2000) का जन्म दिन है.

1989 में जब आपका यह खादिम जेआरएफ के लिए चयन होने के बाद पीएचडी में नामांकन के लिए जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में चक्कर लगा रहा था तथा वहां के हिंदी विभाग की अध्यक्ष माजदा असद दिल्ली जैसे महानगर में इस पुस्तकालय से उस पुस्तकालय का चक्कर लगवा रही थी, तो उसी बीच कहीं से डाक्टर राम विलास शर्मा जी का फोन नंबर व पता मिल गया.

फोन मिलाया तो शर्मा जी ने ही फोन उठाया. अपना नाम बता व परिचय देकर उनसे मिलने की बात कही. उन्होंने ज्यादा पूछताछ न करके अगले दिन आने की बात कही और यह पूछा कि मैं इस समय दिल्ली में कहांं रह रहा हूंं. मेरे द्वारा अपने डेरे की सूचना देने पर यह भी समझा दिया कि विकासपुरी स्थित उनके आवास पर कैसे पहुंंचा जा सकता है.

अगले दिन दोपहर में उनके आवास पर पहुंचा. संभवतः यह मई का महीना था और दिल्ली में तेज गर्मी पड़ रही थी. वे अपनी बैठक में मिले. प्रणाम कर परिचय दिया तो बैठने को कहा. भीतर से पानी के लिए आवाज दी और बोले कि पानी पीकर थोड़ी देर स्थिर हो लो तब बात होगी.

नाश्ता पानी के दौरान ही पूछा कि मैं इलाहाबाद से दिल्ली किस उद्देश्य से आया हूंं और कहांं निवास कर रहा हूंं और यह कि मैं मूल रूप से कहांं का निवासी हूं. पूरी कैफियत बयान कर देने तथा यह बताने पर कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अमृतलाल नागर के उपन्यासों की रचना प्रक्रिया पर शोध कार्य के लिए मेरा नामांकन हो चुका है, शर्मा जी ने अमृतलाल नागर से अपने संबंधों के बारे में संक्षेप में बताया और राय दी कि मुझे दिल्ली में इधर उधर न भटक कर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से निर्धारित विषय पर ही शोध कार्य करना चाहिए.

तब तक मैं दिल्ली की भाग दौड़ से काफी परेशान हो चुका था. शर्मा जी ने अमृत लाल नागर की किताब ‘गदर के फूल’ पढने की सलाह दी तथा लोक कवि दुलारे द्वारा रायबरेली जनपद के शंकरपुर के राना बेनी माधौ, जो कि 1857 के विद्रोह के नायक थे, के संबंध में लिखे गए पूरे कवित्त की तलाश कर पत्र के माध्यम से लिखकर भेजने को कहा.

मुलाकात के घंटे डेढ़ घंटे कैसे बीते पता नहीं चला. तब तक संभवतः उनके भोजन का समय हो चुका था. भोजन के लिए पूछा तो मैंने कहा कि भोजन करके निकला हूंं. चलते समय कमरे से बाहर तक निकल कर छोड़ने आए. पैर छुए तो सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और एक बार फिर यह कहा कि मुझे आवंटित टापिक पर ही गंभीरता से अपने शोध कार्य को पूर्ण करने में लग जाना चाहिए. मैं उत्साह से भरकर विकासपुरी से निकला और फिल्म जामिया की तरफ मुड़ कर भी नहीं देखा. माजदा असद के टाइप किए हुए पत्र अम्बाला व गांव के पते पर आते रहे लेकिन मैंने किसी पत्र का जबाब नहीं दिया.

‘हिंदी साहित्य के निर्माता’ श्रृंखला के अंतर्गत आगामी 10 अक्तूबर को डाक्टर राम विलास शर्मा जी के जन्मदिन पर उनके जीवन व कृतित्व पर लेख/पोस्ट लिखने की योजना है. अज्ञेय संपादित ‘तार सप्तक’ में प्रकाशित डाक्टर रामविलास शर्मा जी की एक रचना नीचे प्रस्तुत की जा रही है. इस रचना में भी उनकी वही खिलंदड शैली देखी जा सकती है, जो उनकी समीक्षा/आलोचना में नजर आती है –

हाथी घोड़ा पालकी
जय कन्हैया लाल की,
हिंदू हिंदुस्तान की
जय हिटलर भगवान की, जिन्ना पाकिस्तान की
टोजो और जापान की,
बोलो वंदे मातरम
सत्यम शिवम सुंदरम.

हिंदुस्तान हमारा है
प्राणों से भी प्यारा है,
इसकी रक्षा कौन करे
सेंत मेंत में कौन मरे, पाकिस्तान हमारा है
प्राणों से भी प्यारा है,
इसकी रक्षा कौन करे
बैठो हाथ से हाथ धरे,
गिरने दो जापानी बम
सत्यम शिवम सुंदरम.

शुद्ध कला के पारखी
कहते हैं उस पार की,
इस दुनिया की कौन कहे
भवसागर में कौन बहे,
जय हो राधा रानी की
या जिसने मनमानी की,
राधा या अनुराधा से
छिपके अपने दादा से,
कैसी बढ़िया चाल की बलिहारी गोपाल की,
उसके भक्तों में से हम
सत्यम शिवम सुंदरम.

– डाक्टर राम विलास शर्मा।

13. डी. फिल. (जुलाई, 1988 से जून, 1993 तक) –

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की जेआरएफ व एसआरएफ योजना के अंतर्गत. विषय- ‘अमृत लाल नागर के उपन्यासों में कल्पना एवं वस्तुसत्य की सामंजस्य प्रक्रिया.’ शोध- निर्देशिका- डाॅ. कुसुम वार्ष्णेय.

शोध-प्रबंध का आवरण

14. यह खादिम 1983 से 1993 तक इलाहाबाद विश्व विद्यालय से जुड़ा रहा. 1983 से 1986 तक हिन्दी साहित्य में एमए. जुलाई, 1988 से जून, 1993 तक जेआरएफ/एसआरएफ के तहत डी फिल. इस बीच विश्वविद्यालय की स्थापना के 100 साल पूरे होने पर 1987 में सीनेट हाल में बिस्मिल्ला खां साहब के अपूर्व शहनाई वादन व परिसर में हुए ऐतिहासिक कवि सम्मेलन से भी रूबरू होने का अवसर मिला.

Read Also –

तस्वीरों में जीवन का सफर

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

शातिर हत्यारे

हत्यारे हमारे जीवन में बहुत दूर से नहीं आते हैं हमारे आसपास ही होते हैं आत्महत्या के लिए ज…