जिस सर्वोच्च न्यायालय पर देश के संविधान की रक्षा का भार सौंपा गया है, अब वही सर्वोच्च न्यायालय आज संविधान को चुनौती पेश कर रहा है. सर्वोच्च न्यायालय संविधान के प्रस्तावना की पहली पंक्ति ‘हम भारत के लोग’ को केन्द्र की भाजपा सरकार के ईशारे पर बदल डालना चाहती है और केन्द्र की भाजपा सरकार पूरी मुस्तैदी के साथ इस प्रक्रिया को अंजाम तक पहुंचाने के लिए सारे तिकड़म भिड़ा रही है.
केन्द्र सरकार की दलाली में सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश के पद पर विराजमान दीपक मिश्रा जो खुद ही कई मामलों में आरोपित हैं और मुकदमों में नामजद भी हैं, इससे बड़ा मजाक भारतीय न्यायापालिका के इतिहास में और कुछ हो ही नहीं सकता कि आरोपित प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा अपने खिलाफ लगे आरोपों की सुनवाई भी खुद की कोर्ट में करें और फैसला भी खुद ही सुनायें. सर्वोच्च न्यायालय के चार जजों का अद्भूत प्रेस काॅम्फे्रस देश के सामने यह चेतावनी देता है कि देश आज किस विषम परिस्थिति से गुजर रही है.
एस.सी, एस.टी. एक्ट को निष्प्रभावी करने वाली देश की यह जनविरोधी मोदी सरकार अब एक नये नौटंकी के साथ देश के संविधान बदलने में सर्वोच्च न्यायालय को घसीट चुका है. सर्वोच्च न्यायालय में एस.सी, एस.टी. एक्ट को लेकर दुबारा चल रही सुनवाई की नौटंकी में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश आदर्श गोयल शेखी बघारते हुए जब कहते हैं कि ‘‘संसद भी ऐसा कानून नहीं सकती जो नागरिकों के जीने के अधिकार का हनन करता हो. साथ ही बिना प्रक्रिया के पालन के सलाखों के पीछे डालता हो.’’
सर्वोच्च न्यायालय को जानकर यह आश्चर्य नहीं होगा कि जब वह इस तरह के आदेश देने का कार्य करती है तभी देश में किसी दलितों की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी जाती है कि वह दलित है, कि वह अपनी शादी में बारात नहीं निकाल सकता, कि वह घोड़े पर नहीं चढ़ सकता, कि वह मूछें नहीं रख सकता क्योंकि वह दलित है और इससे सवर्णों के अहंकार पर ठेस लगती है, कि उसकी सामंती अहंकार का सिंहासन डोलने लगता है और वह उस दलित की हत्या कर डालता है, सामुहिक पिटाई करता है, उसके बहन-बेटियों की आबरू लूटता है.
सर्वोच्च न्यायालय के सिंहासन पर विराजमान न्यायाधीश जो आमतौर पर सवर्ण तबके से आते हैं और वह उसी सामंती ब्राह्मणवादी अहंकार को पोषित करने के लिए संविधान के साथ छेड़छाड़ करने का दुस्साहस करते हैं और सवर्णों द्वारा दलितों की हत्या करना, अपमान करना, उसकी बहन-बेटियों के इज्जतों की धज्जियां उड़ाने को कानून सम्मत बनाते हैं. इसके विपरीत जब कोई दलित साहस करके अपने उत्पीड़क सवर्ण तबके पर मुदकमें करता है, तब यह दलाल सर्वोच्च न्यायालय सबूत की मांग करता है और जांच की बात करता है.
इस देश में पुलिस के कार्यप्रणाली से कौन परिचित नहीं है, जहां ईमानदारी और जांच पैसे की तराजू पर तौला जाता है. कोई भी दलित या पीड़ित तबका का व्यक्ति थाना-पुलिस नहीं जाना चाहता क्योंकि वह जानता है कि वहां उससे पैसे की उगाही होगी और क्या मालूम उसे प्रताड़ित करने वाला पुलिस को पहले ही पैसे की भेंट अगर चढ़ा दिया हो तो उसी को लाॅकअप में डाल कर पिटाई अथवा हत्या कर दी जायेगी.
दलितों के द्वारा किये जाने वाला कोई भी मुकदमा अब्बल तो दर्ज नहीं होता है. काफी भाग-दौड़ के बाद अगर मुकदमा दर्ज हो भी जाता है तो जांच के नाम पर उसे ठेंगा थमा दिया जाता है और उसी को प्रताड़ित भी किया जाता है. यही कारण है कि दलित या तो मुकदमा दर्ज नहीं करा पाता अथवा उस मुकदमा को झेल नहीं पाता. फलतः उसे उत्पीड़ित करने वाला सामंती ब्राह्मणवादी उत्पीड़क उसे और ज्यादा उत्पीड़न करने केे लिए स्वतंत्र हो जाता है.
संविधान के द्वारा प्रदत्त दलितों-आदिवासियों को जो कुछ भी थोड़े अधिकार मिले हैं उस सभी को भारत की केन्द्र सरकार एक-एक कर सर्वोच्च न्यायालय को मोहरा बनाकर छीन रहीं है. ऐसे में अगर दलित अपनी हिफाजत के लिए हथियार उठा लें तो यही सवर्णों की पहरेदारी कर रही सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश और पुलिस तंत्र ‘‘हिंसा-हिंसा’’ का शोर मचाने लगता है और उस उत्पीड़ित दलित की हत्या करने का खुला लाईसेंस बांटने लगता है. उसकी हत्या करने वाले को पुरस्कृत करने लगता है.
सवर्ण ब्राह्मणवादी हिंसा के जवाब में दलितों- आदिवासियों द्वारा किया गया प्रतिहिंसा क्यों जायज नहीं है !! अगर सवर्ण सामंती हिंसा जायज है तो दलितों-आदिवासियों द्वारा की जाने वाली हिंसा भी जायज होनी चाहिए. अगर रणवीर सेना जैसे सवर्ण जातियों की सैकड़ों की तादाद में की जाने वाली शंकर-बिगहा (23), नारायणपुर (11), बथानी टोला (21), मियांपुर (32), लक्ष्मणपुर बाथे (58) जैसी हिंसा को सरकार, पुलिस और न्यायापालिका पोषित करती है तो बारा और सेनारी में दलितों द्वारा की जाने वाली हिंसा को भी पोषित करना होगा. यह तो कतई नहीं हो सकता कि सरकार-पुलिस और न्यायापालिका सांठ-गांठ कर सवर्णों की हिंसा को तो न्यायोचित ठहरा दे और उसे बाईज्जत बरी कर दें तो वहीं दलितों की हिंसा पर चीख-पुकार मचाये और उसे फांसी पर लटका दें.
जीने के अधिकार के नाम पर सवर्णों की हिंसा, अपमान, अत्याचार, बलात्कार को जायज ठहराने वाली सरकार और न्यायापालिका देश में एक हिंसात्मक संदेश दे रही है, जो दलितों-पिछड़ों और आदिवासियों को एकजुट होकर सवर्ण ब्राह्मणवादी ताकतों के अहंकारजनित हिंसा का हिंसक प्रतिरोध करने की लिए उकसा रही है. जिसका परिणाम निःसंदेह देश को खून की नदी में डुबोने वाली कर्रवाई ही होगी, जिसका दारोमदार भी मौजूदा सरकार, उसकी दलाली कर रही न्यायपालिका और पुलिस तंत्र पर ही होगा, जो सवर्णों के जीने की मांग की आड़ में दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के जीने के अधिकार को छीन रही है.
Read Also –
लोकतंत्र, न्यायिक व्यवस्था और हम
खतरे में लोकतंत्र और उसकी प्रतिष्ठा
आरएसएस की पाठशाला से : गुरूजी उवाच – 1
कालजयी अरविन्द : जिसने अंतिम सांस तक जनता की सेवा की
[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर पर फॉलो करे…]
S. Chatterjee
May 17, 2018 at 1:15 pm
भारत में वर्ण व्यवस्था ही मूल तौर पर वर्ग विभाजन का आधार रहा है । जब लोग कहते हैं कि कैसे कम प्रतिशत के वावजूद सवर्ण राज कर रहे हैं तो यह विचार और स्पष्ट हो जाता है क्योंकि उच्च वर्ग की जनसंख्या हमेशा ही उच्च वर्ण की जनसंख्या तथाकथित निम्न वर्ण या वर्ग की जनसंख्या से कम है।
प्रजातंत्र बहुसंख्यक वाद पर टिकी हुई राजनीतिक धारणा है, लेकिन बहुसंख्यकों की सहमति से बहुसंख्यक आबादी की आवाज़ दबाने का सबसे कारगर हथियार भी है। सांवैधानिक संस्थाएँ इसी यथास्थिति को बरक़रार रखने का निमित्त मात्र है
Rohit Sharma
May 17, 2018 at 2:07 pm
सटीक विश्लेषण.
Sakal Thakur
May 17, 2018 at 2:06 pm
न्यायपालिका की हालत संघ व सत्ता की ही पिछलग्गु जैसी है यह लोकतंत्र के लिए सही नही