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सावरकर को ‘वीर’ नहीं गद्दार सावरकर कहना चाहिए

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विनोद शंकर

सावरकर को ‘वीर सावरकर’ नहीं ‘गद्दार सावरकर’ कहना चाहिए क्योंकि सावरकर ने अंग्रेजों से माफ़ी मांग कर खुद अपना किया – धरा मिट्टी में मिला दिया था, जो उसने जेल जाने से पहले देश के लिए किया था. इसके बाद सावरकर अंग्रेजों के पेंशन पर जीता था और देश में हिन्दुत्व के नाम पर दंगे भड़काता था.

ऐसा कायर और गद्दार व्यक्ति किसी का आदर्श कैसे हो सकता है ? उसे वीर तो वही कहेगा जिसका दिमागी संतुलन बिगड़ गया हो. आखिर कोई माफ़ी क्यूं मांगता है ? ये एहसास होने पर ही न कि उसने कुछ गलत किया है. और सावरकर की गलती अंग्रेजों के खिलाफ़ भारत की आजादी की लड़ाई में भाग लेना था. जो आदमी इतना गिर गया हो कि उसे देश की आजादी की लड़ाई में भाग लेना गलत लग रहा है और वह इसके लिए अंग्रेजों से माफ़ी मांग रहा है, उस से गिरा हुआ इस देश में और कौन हो सकता है !

उस व्यक्ति को वीर बताना उसके साम्प्रदायिक विचारों का प्रचार करना देश के साथ गद्दारी ही हो है. जो देश को धर्म के नाम पर बांटने के अलावा और क्या कर रहे हैं ? लेकिन आज तक ऐसे लोगों पर यूएपीए नहीं लगा है, आखिर एनआईए क्या कर रहा है ? उसे ऐसे लोगों और देश के संसाधन को बेचने वालों के खिलाफ़ कार्यवाई करना चाहिए न ! लेकिन नहीं, इनके खिलाफ़ कुछ नहीं किया जायेगा.

उल्टे जो देश को और उसके संसाधनों को बचाने के लिए लिख रहे हैं, बोल रहे हैं, आंदोलन कर रहे हैं, उन्हें ही यूएपीए लगा कर परेशान किया जा रहा है. उनके आंदोलन को खत्म करने की कोशिश किया जा रहा है. लेकिन इन्हें ये नहीं पता है कि अगर ये आंदोलन खत्म हो गए तो देश ही खत्म हो जायेगा.

ये लड़ाई जितना आर्थिक, सामजिक है, उतना ही नैतिक भी है. भले की क्रांतिकारियों के पास कुछ न हो पर नैतिक बल तो है ही, जो शोषकों की सारी ताकत पर भारी है. जिसके दम पर वे कुछ नहीं तो कम से कम अपनी जनता और अपने देश के लिए हंसते हुए जान तो दे ही सकते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि ये नैतिक बल ही आनेवाले पीढ़ियों की ताकत बनेगी, जिसे गद्दार सावरकर कभी नहीं समझ पाया है.

भारतीय संविधान की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह निजी संपति रखने का अधिकार देता है, जो दुनिया की सारी बुराईयों की जड़ है. और इसी निजी संपति की रक्षा के लिए ज्यादातर कानून बनाए गए हैं, जो निजी संपति इकट्ठा करना ही देश के सभी नागरिकों का उदेश्य बना देता है. जो जितना निजी संपति इकट्ठा करता है, उसे उतना ही सफल माना जाता है.

इसलिए भारतीय संविधान अपने तमाम प्रगतिशीलता के बावजूद मुझे बहुत घटिया लगता है. इसलिए संविधान बनाने वाले विद्वानों के उपर मुझे संदेह होने लगता है. उनकी नियत पर शक होने लगता है, जो न जाने कौन सी दुनिया में रह थे कि उन्हें रूसी क्रांति के बाद की दुनिया दिखाई ही नहीं दे रही थी, जहां निजी संपति के समूल नाश के लिए कानून बन रहे थे, उस पर अमल हो रहे थे. और हमारे ये महापुरुष और महाविद्वान लोग निजी संपति की रक्षा के लिए कानून बना रहे थे. जनता को जानबुझ कर एक गृहयुद्ध में धकेल रहे थे.आज देश में जो कुछ हो रहा है, सब उन्हीं लोगो का तो किया धरा है.

आर्थिक समानता के बिना बाकी सारी समानता बेमानी है, ये आज साफ दिख रहा है. इस देश में जो अमीर है वो और अमीर होता जा रहा है और जो गरीब है वो और गरीब होता जा रहा है, तो इसके पीछे भारतीय संविधान ही है. यही तो शक्ति देता है बेतहासा पूंजी इकट्ठा करने की. जनता को लुटने और शोषण करने की. इसलिए संविधान कोई महान और पवित्र पुस्तक नहीं है बल्कि यह भारतीय जनता के शोषण का दस्तावेज़ है. इसकी स्थिति हाथी के दांत जैसी है, जो दिखाने के लिए कुछ और खाने के लिए कुछ और होता है.

आजकल राष्ट्रवाद का आलोचना करना एक फैशन सा हो गया है. बहुत से प्रगतिशील और कम्युनिस्ट लोग भी फासीवाद को ही राष्ट्रवाद समझ बैठे हैं और अपनी इस नासमझी में राष्ट्रवाद की एक नकारात्मक छवि रात-दिन प्रस्तूत करते रहते हैं. इनको लगता है कि राष्ट्रीय आंदोलनों का दौर खत्म हो गया है. अब राष्ट्रवाद, फासीवादी में बदल गया है इसलिए अब राष्ट्रवाद की कोई जरूरत नहीं है. ऐसे लोग खुद तो अंधेरे में हैं ही, दूसरों को भी अंधेरे में रखने की कोशिश करते हैं. जबकि सच्चाई तो यह है कि जब तक साम्राज्यवाद रहेगा, तब तक राष्ट्रवाद भी रहेगा. आज भी अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के अधिकांश देशों में जहां साम्राज्यवादी शोषण जारी है, वहां राष्ट्रवाद ही एकमात्र हथियार है, जिससे हम साम्राज्यवादी शोषण को खत्म कर सकते हैं.

किसी भी क्रांति का स्वरूप पहले राष्ट्रीय ही होता है. कोई भी क्रांतिकारी पहले राष्ट्रवादी ही होता है, इसके बाद वो अन्तर्राष्ट्रीयवादी होता है. जब भी कोई राष्ट्रवाद को फासीवाद समझ कर, इसे खारिज कर, अन्तर्राष्ट्रीयवादी होने की बात करता है तो मुझे पहले उसकी नासमझी पर बहुत हंसी आती है. पर बाद में लगता है कि ये मामला तो बहुत गंभीर है क्योंकि मैं खुद राष्ट्रवादी हूं, पर मैं तो फासीवादी नही हूं.

फिर ये लोग फासीवादियों और राष्ट्रीयवादियों को एक ही जैसा क्यूं समझ रहे हैं ? भारत के फासीवादी तो राष्ट्रवादी भी नहीं है. ये तो दलाल है, देशद्रोही है, गद्दार है, जो आज भी साम्राज्यवाद की सेवा कर रहा है. अपने देश के संसाधनों को कौड़ियों के भाव साम्राज्यवादियों को दे रहा है. उनके लिए अपने ही देश के जनता से युद्ध कर रहा है. अगर आप इन्हें राष्ट्रवादी कहेंगे तो फिर उन लोगों को क्या कहेंगे, जो अपने देश और अपने जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए लड़ रहे हैं ? क्योंकि इन दोनों में से कोई एक ही राष्ट्रवादी हो सकता है.

धूमिल के शब्दों में कहे तो जिस जमीन को हम अपने खून-पसीने से सींचते हैं / और जिस जमीन को तुम लुटते हो / वो हम दोनों की मां नहीं हो सकती. यानी धूमिल भी कह रहे है कि ये धरती किसी एक कि ही मां हो सकती है, दोनों की नहीं, फिर फासीवादियों को ही राष्ट्रवादी समझने की भूल कुछ लोग क्यूं कर रहे हैं ? इसका जवाब तो वे लोग ही दे सकते हैं. पर उन्हें मेरी सलाह है कि वे लोग जितनी जल्दी अपनी भूल को सुधारेंगे, उतना ही ये जनता के लिए और देश के लिए अच्छा होगा क्योंकि उनके ऐसे लेखन और विचार से देश में चल रहा राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन कमजोर होता है.

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