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सत्तासीनों के प्रति तटस्थता : विचारहीनता का उत्सव मनाने वाले प्रजाति की चरम स्वार्थपरता

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सत्तासीनों के प्रति तटस्थता : विचारहीनता का उत्सव मनाने वाले प्रजाति की चरम स्वार्थपरता

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

मनुष्य विरोधी सत्ता के प्रति कोई तटस्थ कैसे रह सकता है ? लेकिन, वे चाहते हैं कि विश्लेषणों में तटस्थता होनी चाहिये, जैसे कि यह किसी कविता की व्याख्या हो. हालांकि, तटस्थता तो कविताओं की व्याख्या में भी नहीं होती. निर्भर इस पर करता है कि आपकी सोच की दिशा क्या है.

तटस्थता क्या है ? यह न्याय की कुर्सी पर बैठे किसी जज के लिये आभूषण है, इतिहास के व्याख्याकारों के लिये सत्य की कसौटी है, लेकिन, वर्त्तमान की चुनौतियों से जूझने वालों के लिये पलायन का एक रास्ता है.

जो तटस्थ है, तटस्थता की बातें करता है, वह जलते हुए सवालों से पलायन कर रहा है. उनसे बेहतर वे हैं जो सत्ता के साथ खुल कर हैं. वे छिपे हुए नहीं हैं. आप उन्हें चाहे जिन विशेषणों से नवाजें, वे सत्ता के पक्ष में हैं तो हैं. भक्ति एक मानसिक अवस्था है, जहां तर्कों के अधिक मायने नहीं होते. लेकिन, तटस्थता…? सत्ता के प्रति…? वह भी आज की तारीख में…? यह आत्मतुष्ट प्रजाति की चरम स्वार्थपरता है.

उनकी पहचान करिये जो आज की तारीख में भी सत्ता के प्रति विश्लेषण में तटस्थता की अपेक्षा रखते हैं. वे यह मानने के लिये तैयार ही नहीं कि कभी ऐसा भी होता है जब तटस्थता अपराध बन जाती है.

वे आत्मतुष्ट हैं, आत्ममुग्ध हैं या तो वे ऐसे निरीह प्राणी हैं, जो अपने अस्तित्व के लिये दिन-रात संघर्ष कर रहे हैं लेकिन प्रचार तंत्र ने जिनकी चेतनाओं का हरण कर लिया है, या फिर, आर्थिक सुरक्षा की खोल में आराम से लेटे, टीवी के रिमोट से खेलते या मोबाइल की स्क्रीन पर उंगलियां फिराते, निश्चिंत जीवन जीते ऐसे विचारहीन प्राणी हैं, जिन्हें आधुनिक समय की त्रासदियों और मनुष्यता के समक्ष गहराते संकटों से कुछ खास नहीं लेना-देना, महीने की पहली तारीख को जिनके एकाउंट में सरकारी वेतन या पेंशन की अच्छी-खासी राशि आ जाती है.

जिन्हें नियमित सरकारी पेंशन मिलती है, वे पेंशन खत्म करने की नीतियों के बड़े पैरोकार बन गए हैं. तर्क देते हैं कि जब औसत आयु बढ़ रही हो तो सरकारें पेंशन का बोझ कितना उठाएं. जिनकी पक्की सरकारी नौकरी है वे संविदा प्रणाली और आउट सोर्सिंग की नीतियों के समर्थक बन गए हैं. तर्क देते हैं कि नौकरी पक्की होने पर आदमी कामचोर हो जाता है. जिन्होंने सस्ती सरकारी शिक्षा और वजीफे के सहारे कैरियर की बुलंदियों को छुआ वे अब शिक्षा के निजीकरण के समर्थन में तर्क देते हैं कि सरकारी स्कूल-कालेजों के मास्टर लोग ठीक से नहीं पढ़ाते.

अभी हाल के संकटों के सन्दर्भ में देखें. हॉस्पिटल के बेड या ऑक्सीजन सिलिंडर के लिये जिन्हें जूझने की जरूरत नहीं पड़ी, उनमें से बहुत सारे लोग बताते हैं कि अचानक से कोई महामारी आ जाए तो सरकार क्या करे. इन्हें नहीं पता कि त्रासदियों के इस दौर में, जब सत्तासीनों की अकर्मण्यता और कल्पनाशून्यता खुल कर सामने आ चुकी है, इस तरह की बातें करना ठस दिमाग होने की ही नहीं, हद दर्जे के संवेदनशून्य होने की निशानी भी है. हालांकि, खुद की संवेदन हीनता की पहचान करना आसान नहीं होता.

दो तिहाई आबादी ऐसी शिक्षा से महरूम है जो उन्हें सही-गलत की पहचान करने में समर्थ बना सके. वे सुनियोजित प्रचार तंत्र के सबसे आसान शिकार हैं. ज़िन्दगी के लिये जूझते रहेंगे, लेकिन, उन लोगों की शिनाख्त नहीं करेंगे जो उनकी ऐसी हालत के लिये जिम्मेदार हैं. उनके चिंतन की सीमाएं समझी जा सकती हैं.

लेकिन, जो पढ़े-लिखे हैं, अपने पिताओं और दादाओं की पीढ़ियों के संघर्षों से हासिल आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा के कवच से लैस हैं, आने वाली पीढ़ियों के जीवन से जुड़े सवालों के प्रति उनका उपेक्षा भाव उनकी विचारहीनता के प्रति जुगुप्सा जगाता है.

आज के दौर में, जब प्रतिरोध युग की मांग हो, सत्तासीनों के प्रति तटस्थ विश्लेषण की बातें करने वाला दरअसल तटस्थता के आवरण में अपने पाखण्ड और अपनी वर्गीय खुदगर्जी को छुपाता है.

इतिहास इस पर विचार करेगा कि जो लोग स्कूल-कालेजों के सरकारीकरण से प्रत्यक्ष लाभान्वित हुए, बैंकों के राष्ट्रीयकरण से जिनके जीवन का स्तर और काम का माहौल सुधरा, पब्लिक सेक्टर के विकास और विस्तार से जिन्हें स्थायी रोजगार मिला, आत्मसमान के साथ जीने का जरिया मिला…उनमें से ही अधिकतर क्यों निजीकरण करने वाली सरकारों के घोर समर्थक बन कर सामने आए ? क्या इस समर्थन का कोई वैचारिक आधार है ?

नहीं, विचारहीनता का उत्सव मनाने वाले लोगों का कोई वैचारिक आधार नहीं होता. न वे अपने पीछे देख सकते हैं न अपने आगे. वे राष्ट्र की बातें करते हैं, संस्कृति की चिंता करते हैं. अजीब विरोधाभास है.

सत्ता की राजनीति करने वाले लोगों का पाखंड समझा जा सकता है, लेकिन, उन लोगों का पाखंड अधिक खतरनाक है जिन्हें आर्थिक निश्चिंतता और भविष्य के प्रति सुरक्षा बोध ने बृहत्तर समाज के मौलिक सवालों से विरत कर दिया है. यह शोध का विषय है कि इससे पहले इतिहास के किस कालखंड में आत्मतुष्ट खुदगर्ज़ों की ऐसी जमात किसी देश में इकट्ठी हुई थी ?

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